पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-100)

मैं प्रेम के पक्ष में हूं—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक  10 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍न—सार:

1—प्रत्येक मनुष्य समस्याओं से भरा हुआ और अप्रसन्न क्यों है?

2—मैं स्वप्न देखा करती हूं कि मैं उड रही हूं क्या हो रहा है?

3—आपके प्रवचनोपरांत उमंग, लेकिन दर्शन के बाद हताशा ऐसा क्यों?

4—पूरब में एक से प्रेम संबंध, पश्चिम में अनेक से, प्रेम पर आपकी दृष्टि क्या है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-100)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-99)

कैवल्‍य–(प्रवचन—उन्‍नीसपवां)

दिनांक  9 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र— (कैवल्‍यपाद)

विशेषदर्शिन आत्मभावभाबनाविनिवृत्तिः।।25।।

जब व्यक्ति विशेष को देख लेता है, तो उसकी आत्मभाव की भावना मिट जाती है।

तदा विवेकनिम्नं कैबल्यप्राग्भारं चित्तम्।।28।।

तब विवेक उन्‍मुख चित्त कैबल्य की ओर आकर्षित हो जाता है।

तच्छिद्रेषु प्रत्‍ययान्‍तरणि संस्कारेंभ्‍य:।। 27।।

पूर्व के संस्कारों के बल के माध्यम से विवेक ज्ञान के अंतराल में अन्य प्रत्ययों, अवधारणाओं का उदय होता है। इनका निराकरण भी अन्य मनस्तापों की भांति किया जाना चाहिए। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-99)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-98)

श्रद्धा: किसी के प्रति नहीं होती—(प्रवचन—अट्ठारहवां)

दिनांक  8 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍न—सार:

1—आपके प्रति श्रद्धा रखने और स्वयं में श्रद्धा रखने में क्या विरोधाभास है?

2—बुद्ध को क्या प्रेरित करता है?

3—बच्चे पैदा करने का उचित समय कौन सा है?

4—केवल सेक्स, प्रेम और रोमांस के बारे में सोचना क्या गलत है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-98)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-97)

साक्षी स्‍वप्रकाशित है—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक  7 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र  (कैवल्‍यपाद)

सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तह्मभो: पुरुषस्यपिम्णामित्वात्।। 18।।

मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभु, पुरुष, को शुद्ध चेतना के सातत्य के कारण होता है।

न तत्‍स्‍वाभासं दृश्यत्यात्।। 19।।

मन स्व प्रकाशित नहीं है, क्योंकि स्वयं इसका प्रत्यक्षीकरण हो जाता है।

एकसमये चोभयानवधारणमू।। 20।।

मन के लिए अपने आप को और किसी अन्य वस्तु को उसी समय में जानना असंभव है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-97)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-96)

बिना तुम्‍हारे किसी निजी चुनाव के—(प्रवचन—सौलहवां)

दिनांक  6 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

 प्रश्‍नसार:

1—मैं आपके और रूडोल्फ स्टींनंरं के उपायों के बीच बंट गया हूं?

2—प्रकृति के सान्निध्य में ठीक लगता है, लोगों के साथ नहीं, यह विभाजन क्यों?

3—स्त्री के रूप मैं मेरे लिए संबोधि क्या है?

4—क्या हम वास्तव में अपने जीवन में घटित होने वाली चीजों को चुनते हैं? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-96)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-95)

यही है यह—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक  5 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र (कैवल्‍यपाद)

     हेतुफलाश्रयालम्बुत्रैं संगृहीत्‍त्‍वादेषमभावे तदभाक:।। 11।।

प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं।

अतीतानागतं स्वरूपतोऽख्यध्यभेदाद्धर्माणाम्।। 12।।

अतीत और भविष्य का अस्तित्व वर्तमान में है, किंतु वर्तमान में उनकी अनुभूति नहीं हो पाती है, क्योंकि वे विभिन्न तलों पर होते हैं। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-95)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-94)

सभी कुछ परस्‍पर निर्भर है—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक  4 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍न—सार:

1—आप कहते हैं, ‘पूरब में हम’ कृपया इसका अभिप्राय समझाएं?

2—आप संसार में उपदेश देने क्यों नहीं जाते?

3—कपटी घड़ियाल की चेतना के बारे में कुछ कहिए?

4—परस्पर निर्भरता और पूर्ण स्वार्थ में क्या संबंध है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-94)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-93)

मौलिक मन पर लौटना—(प्रवचन—तैरहवां)

दिनांक  3 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र: (कैवल्‍यपाद)

तत्र ध्यानजमनाशयम्‍ ।। 6।।

केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।

कंर्माशुल्काकृष्णं योगिनस्तिबिधमितरेषामू।। 7।।

योगी के कर्म न शुद्ध होते हैं, न अशुद्ध, लेकिन अन्य सभी कर्म त्रि—आयामी होते हैं—शुद्ध, अशुद्ध और मिश्रित।

ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्बासनानामू।। 8।।

जब उनकी पूर्णता के लिए परिस्थियां सहायक होती हैं तो इन कर्मों से इच्छाएं उठती हैं।’’ Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-93)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-92)

एकांत अंतिम उपलब्‍धि है—(प्रवचन—बारहवां)

 दिनांक  2 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:

1—क्या शिष्य अपने सदगुरु से कुछ चुराता है?

2—क्या व्यक्ति जीवन का आनंद अकेले नहीं ले सकता है?

3—जीवन क्या है? काम— भोग में संलग्न होना, धन कमाना, सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करना, व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर होना, और क्या यह सब खोजी की खोज को बहुत लंबा नहीं बना देगा?

4—क्या कोई शिष्य हुए बिना आपकी आत्मा से अंतरंग हो सकता है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-92)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-91)

कृत्रिम मन का परित्‍याग—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक  1 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र: (कैवल्‍यापाद)

जन्मौषधिमन्त्रतप समाषिजा: सिद्धंय:।। 1।।

सिद्धियां जन्म के समय प्रकट होतीं हैं, इन्हें औषधियों से, मंत्रों के जाप से, तपश्चर्याओं से या समाधि से भी अर्जित किया जा सकता है।

जात्यन्तर परिणाम: प्रकृत्यापूरात्।। 2।।

एक वर्ग, प्रजाति, या वर्ण से अन्य में रूपातरण, प्राकृतिक प्रवृत्तियों या क्षमताओं के अतिरेक से होता है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-91)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-90)

अब तुम वाटरूलू पुल से छलांग लगा सकते हो—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 30 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍न—सार:

1—काम की समस्या उठ खडी हुई है, क्‍या किया जाए?

2—निष्क्रियता पूर्वक सजग कैसे हुआ जाए?

3—मेरा सामान रेलगाड़ी ले जाती है, मैं रह जाता हूं। इस स्वप्न का अर्थ क्या है?

4—जिस समय आप मुझसे कुछ कहते हैं मैं आपकी बात नहीं मानता। इससे छुटकारा कैसे हो? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-90)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-89)

कैवल्‍य: परम एकांत—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 29 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र: (विभूतिपाद)

सत्त्वपुरुषके शुद्धिसाम्पे कैबल्‍यम्।। 56।।

जब पुरुष और सत्व के मध्य शुद्धता में साम्य होता है, तभी कैवल्य उपलब्ध हो जाता है।

छान्दोग्य उपनिषद में एक सुंदर कथा है। आओ हम इसी से आरंभ करें।

सत्‍यकाम ने अपनी मां जाबाला से पूछा. मां, मैं परम ज्ञान के विद्यार्थी के रूप में जीवन जीना चाहता हूं। मेरा पारिवारिक नाम क्या है? मेरे पिता कौन हैं? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-89)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-88)

समलैंगिकता के बारे में सब कुछ—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:

1—यदि मृत्यु ही आनी है, तो जीने में क्या सार है?

2—प्यारे ओशो, क्या आप वास्तव में बस एक मनुष्य हैं, जो सबुद्ध हो गया?

3—दिव्यता के भीतर कैसे प्रवेश हो?

4—क्या लोगों को अपनी समलैंगिक प्रवृत्तियों का दमन करना चाहिए? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-88)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-87)

उच्‍चतम ज्ञान: संपूर्ण अभी—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र– (‘विभूतिपाद’)

क्षणतत्कमयौ: संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्।। 53।।

वर्तमान क्षण पर संयम साधने से क्षण विलीन हो जाता है, और आने वाला क्षण परम तत्व के बोध से जन्मे ज्ञान को लेकर आता है।

जातिलक्षमदेशैरन्यतानवच्छेदात् तुल्ययोस्तत: प्रतिपत्ति:।। 54।

इससे वर्ग, चरित्र या स्थान से न पहचाने जा सकने वाली समान वस्तुओं मे विभेद की योग्यता आती है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-87)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-86)

केवल परमात्‍मा जानता है—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:

1—उपद्रव की स्थितियों के मध्‍य गहरे—और—गहरे कैसे संभव हो सकता है?

2—जब मैं आपसे निकटता अनुभव करती हूं, उन क्षणों में मैं हंसना चाहती हूं।

ऐसा क्यों होता है?

3—इन रोगों का उपचार .कैसे हो; कृपणता, बकवास रहना, अभिनेता व्यक्तिव और अभिमान। क्या इनसे निबटने के लिए ध्यान प्रर्याप्‍त है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-86)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-85)

अहंकार का अंतिम आक्रमण—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र: (विभुतिपाद)

तद्वैराग्यादैपि दोषबीणखूये कैवस्युमू।। 51।।

इन शक्तियों से भी अनासक्त होने से, बंधन का बीज नष्ट हो जाता है। तब आता है कैवल्य, मोक्ष।

स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रैसक्गात्।। 52।।

तब विभिन्न तलों की अधिष्ठाता, अधिभौतिक सत्ताओं के द्वारा भेजे गए निमंत्रणों के प्रति आसक्ति या उन पर गर्व से बचना चाहिए, क्योंकि यह अशुभ के पुनर्जीवन की संभावना लेकर आएगा।

द्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्।

‘इन शक्तियों से भी अनासक्त होने से, बंधन का बीज नष्ट हो जाता है। तब आता है कैवल्य, मोक्ष। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-85)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-84)

किसी वास्‍तविक प्रचंड स्‍त्री को खोज लो—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 24 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍न—सार:

1—मैं बूढ़ा होने से सदा भयभीत क्‍या रहता हूं?

2—क मेरी तीन समस्याएं हैं : कामुक अनुभव करना, दसरे की खोज और मन में बना रहना कृपया मुझे मार्ग दिखाएं?

3—जीवन—साथी का होना या न होना किस प्रकार से व्‍यक्‍ति की अंतर—उम्मुखता और आध्यात्मिक विकास को प्रभावित करता है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-84)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-83)

तत्‍क्षण बोध—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 23 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र: (विभुतिपाद)

ग्रहणस्वरूपास्मिजन्वयार्थवत्यसंयमादिन्द्रियजय:।।48।।

उनकी बोध की शक्ति, वास्तविक स्वरूप, अस्मिता, सर्वव्यापकता और क्रियाकलापों पर संयम साधने से ज्ञानेंद्रियों पर स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है।

ततो मनोजवित्व विकरणभाक प्रधानजयक्य।।49।।

इसके उपरांत देहू के उपयोग के बिना ही तत्‍क्षण बोध और प्रधान (पौद्गलिक जगत) पर पूर्ण स्वामित्व उपलब्ध हो जाता है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-83)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-82)

चुनाव नरक है—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 21 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍न—सार:

1—‘ओशो, आप मुझसे बहने के लिए कहते हैं, यह कैसे संभव है?

2—‘मैं अनुत्तरदायी अनुभव करता हूं और उलझ जाता हूं कि संन्यास क्या है?  

3—ओशो समस्या क्या है?

4—‘आप कहते हैं, वही गलती दुबारा मत करो, यह कैसे हो पाएगा? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-82)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-81)

पंचभूतों  पर अधिपत्‍य—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 21 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र:  (विभुतिपाद)

बहिरकल्पिता वृत्तिर्महाविदेहा तत: प्रकाशावरणक्षय:।।44।।

चेतना के आयाम को संस्पर्शित करने की शक्‍ति मनस शरीर के परे है, अत: अकल्पनीय है, महाविदेह कहलाती है.।…इस शक्ति के द्वारा प्रकाश पर छाया हुआ आवरण हट जाता है।

  स्‍थूल स्वरूपस्वान्वयार्थवत्वसंयमाक्सजय:।। 45 ।।

उनके स्थूल, सतत, सूक्ष्‍म, सर्वव्यापी और क्रियाशील स्वरूप पर संपन्न हुआ संयम,

पंचभूतों, पाँच तत्‍वों पर आधिपत्‍य ले आता है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-81)”

पतंजलि: योग-सूत्र (भाग-5) ओशो

पतंजलि—योग सूत्र (भाग—5) ओशो

धर्म कोई अहंकार का खेल नहीं है।
तुम कोई अहंकार की खोज में संलग्न नहीं हो, बल्कि तुम तो समग्र को उपलब्ध करने का प्रयास कर रहे हो, और समग्र तभी संभव हो पाता है जब अहंकार के खेलों के सारे प्रकार छोड़ और त्याग दिए जाएं, जब तुम न बचो, बस परमात्मा रहे।
मैं तुम्हें एक प्रसिद्ध सूफी कहानी ‘पवित्र छाया’ सुनाता हूं।
एक बार की बर्ति— है, एक इतना भला फकीर था कि स्वर्ग से देवदूत यह देखने आते थे कि किस प्रकार  एक व्यक्ति इतना देवतुल्य भी हो सकता है। यह फकीर अपने दैनिक जीवन में, बिना इस बात ,को जाने, सदगुणों को इस प्रकार से बिखेरता था जैसे सितारे प्रकाश और फूल सुगंध फैलाते हैं। उसके दिन को दो शब्दों में बताया जा सकता था—बांटों और क्षमा करो—फिर भी ये शब्द कभी उसके होंठों पर नहीं आए। वे उसकी सहज मुस्कान, उसकी दयालुता, सहनशीलता और सेवा से अभिव्यक्त होते थे। देवदूतों नें परमात्मा से कहा : प्रभु, उसे चमत्कार कर पाने की भेंट दें।

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