समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

पूंजीवाद, समाजवाद और सर्वोदय

मेरे प्रिय आत्मन्!

पिछले चार दिनों में कुछ बातें मैंने आप से कही हैं उसके संबंध में सैकड़ों प्रश्न उपस्थित हुए हैं। आज संक्षिप्त में जितने ज्यादा से ज्यादा प्रश्नों के संबंध में बात हो सके, मैं करने की कोशिश करूंगा।

एक मित्र ने पूछा है कि क्या आप यह मानते हैं कि विनोबा जी के सर्वोदय से समाजवाद आ सकेगा?

 

विनोबा जी का सर्वोदय हो, या गांधी जी का; समाजवाद उससे नहीं आ सकेगा। क्योंकि सर्वोदय की पूरी धारणा ही मनुष्य को आदिम व्यवस्था की तरफ लौटाने की है। सर्वोदय की पूरी धारणा ही पूंजीवाद की विरोधी है; लेकिन पूंजीवाद से आगे जाने के लिए नहीं, पूंजीवाद से पीछे जाने के लिए है। पूंजीवाद से दो तरह से छुटकारा हो सकता है। या तो पूंजीवाद से आगे जाएं या और पूंजीवाद से पीछे लौट जाएं। पीछे लौटना कुछ लोगों को सदा सरल मालूम होता है और आकर्षक भी, लेकिन पीछे लौटना न तो संभव है, न उचित है; जाना सदा आगे ही पड़ता है–चाहे मजबूरी से Continue reading “समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-05)”

समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-04)

प्रवचन -चौथा

कोरा शब्दः लोकतांत्रिक समाजवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!

पिछली चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि आप समाजवाद या साम्यवाद की जो आलोचना कर रहे हैं उसमें डेमोक्रेटिक सोशलिज्म (लोकतांत्रिक समाजवाद) के संबंध में शायद आपने विचार नहीं किया।

डेमोक्रेटिक सोशलिज्म या लोकतांत्रिक समाजवाद आत्मविरोधी शब्दों से निर्मित हुआ है, जैसे कोई कहे वंध्या-पुत्र। बांझ स्त्री का बेटा, अगर कोई कहे तो जैसी गलती होगी, वैसी ही यह गलती है। अगर बच्चा है तो स्त्री बांझ न रही होगी, अगर स्त्री बांझ है तो बच्चा नहीं हो सकता है। इसलिए वंध्या-पुत्र शब्द तो बनता है, सत्य नहीं होता। डेमोक्रेटिक सोशलिज्म जैसी कोई चीज नहीं है, लोकतांत्रिक समाजवाद जैसी कोई चीज नहीं है, शब्द भर है; क्योंकि समाजवाद लाने में ही लोकशाही की हत्या करनी पड़ती है। लोकशाही की बिना हत्या के तथाकथित समाजवाद नहीं लाया जा सकता। इस बात का फर्क समझ लेना उचित होगा कि लोकशाही की हत्या क्यों करनी पड़ती है। Continue reading “समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-04)”

समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

पूंजीवाद की नैसर्गिक व्यवस्था

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि पूूंजीवाद तो स्वार्थ की व्यवस्था है और फिर भी आप उसका समर्थन कर रहे हैं?

 

इस संबंध में थोड़ी सी बात समझ लेना जरूरी है। पहली बात तो यह समझ लेना जरूरी है कि आज तक मनुष्य को जो बहुत सी गलत बातें सिखाई गई हैं, उनमें एक गलत बात यह है कि अपने लिए जीना बुरा है। मनुष्य पैदा ही इसलिए होता है कि अपने लिए जीए! मनुष्य को समझाया जाता रहा है कि दूसरे के लिए जीओ, अपने लिए जीना बुरा है। बाप बेटे के लिए जीए, और बेटा फिर अपने बेटे के लिए जीए; और इस तरह न बाप जी पाए, न बेटा जी पाए! समाज के लिए जीओ, राष्ट्र के लिए जीओ, मनुष्यता के लिए जीओ, भगवान के लिए जीओ, मोक्ष के लिए जीओ। बस, एक भूल भर मत करना–अपने लिए मत जीना। यह बात इतनी बार समझाई गई है कि हमारे प्राणों में गहरी पैठ गई है कि अपने लिए जीना जैसे पाप है, जब कि कोई भी आदमी अगर जीए तो सिर्फ अपने लिए ही जी सकता है और अगर दूसरे के लिए जीना भी निकलता है तो वह अपने लिए जीने की गहराई का परिणाम है, वह उसकी सुगंध है। Continue reading “समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-03)”

समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

धर्म-विरोधी तथाकथित समाजवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि हम तो स्वयं की आत्मा को पाना चाहते हैं, और आपने कल जो बातें कहीं उनसे स्वयं की आत्मा को पाने का क्या संबंध है?

 

संबंध अवश्य है। आज रूस में या चीन में अपनी आत्मा को पाने का कोई उपाय नहीं रह गया है और अगर आज रूस या चीन में माक्र्स भी पैदा होना चाहे तो पैदा नहीं हो सकता। महावीर, बुद्ध, मोहम्मद और क्राइस्ट के पैदा होने की तो बात बहुत दूर है। स्वयं मनुष्य की आत्मा की खोज भी स्वतंत्रता की एक हवा में संभव है। मनुष्य की आत्मा की स्वीकृति भी, जिसे आप समाजवाद कहते हैं, वह नहीं देता है। समाजवाद मौलिक रुप से भौतिकवादी जीवन व्यवस्था है। समाज की मौलिक धारणाओं में एक यह भी है कि मनुष्य पदार्थ से ज्यादा नहीं है। इस बात को थोड़ा समझ लेना आवश्यक है, क्योंकि मेरी समझ में ऐसा समाजवाद, जो मनुष्य की आत्मा को स्वीकृति नहीं देता, बहुत घातक सिद्ध होगा। Continue reading “समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-02)”

समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन

समाजवाद अर्थात पूर्ण विकसित पूंजीवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं।

एक महानगरी में भीड़ थी। रास्ते पर लाखों लोग खड़े थे जो आतुरतापूर्वक सम्राट के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुछ समय पश्चात सम्राट की सवारी आई। भीड़ के सभी लोग सम्राट के वस्त्रों की चर्चा करने लगे और मजा यह कि सम्राट बिलकुल नग्न था, उसके शरीर पर वस्त्र थे ही नहीं। केवल एक छोटे से बच्चे को, जो अपने बाप के कंधे पर बैठ कर आ गया था, बड़ी हैरानी हुई। उसने अपने बाप से कहा कि लोग सम्राट के सुंदर वस्त्रों की चर्चा कर रहे हैं, लेकिन मुझे तो सम्राट नग्न दिखाई पड़ रहा है। उसके बाप ने उससे कहाः चुप नासमझ, कोई सुन लेगा तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी और वह उस बच्चे को लेकर भीड़ से बाहर हो गया। Continue reading “समाजवाद से सावधान -(प्रवचन-01)”

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