ताओ उपनिषद-प्रवचन-106

धर्म की राह ही उसकी मंजिल है—(प्रवचन—एकसौछ:वां)

प्रश्न-सार

01-क्या प्रत्येक व्यक्ति का मज्झिम निकाय अलग है?

02-छोटी सी भूल के चलते बड़ा पतन कैसे संभव है?

03-क्या संत लोगों को बदलना नहीं चाहते?

पहला प्रश्न:

महावीर, बुद्ध, लाओत्से, आप, आप सबके मध्य अलग-अलग प्रतीत होते हैं। क्या हम सामान्य जनों के भी मध्य अलग-अलग होंगे? मज्झिम निकाय की इस बात को हमें समझा दें।

क-एक व्यक्ति अनूठा है, बेजोड़ है; उस जैसा न कभी कोई हुआ, न कभी कोई फिर और होगा। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-106”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-105

वे वही सीखते हैं जो अनसीखा है—(प्रवचन—एकसौपांचवां)

अध्याय 64 : खंड 2

आरंभ और अंत

जो कर्म करता है, वह बिगाड़ देता है;

जो पकड़ता है, उसकी पकड़ से चीज फिसल जाती है।

क्योंकि संत कर्म नहीं करते, इसलिए वे बिगाड़ते भी नहीं हैं;

क्योंकि वे पकड़ते नहीं हैं, इसलिए वे छूटने भी नहीं देते।

मनुष्य के कारबार अक्सर पूरे होने के करीब आकर बिगड़ते हैं।

आरंभ की तरह ही अंत में भी सचेत रहने से, असफलता से बचा जाता है।

इसलिए संत कामनारहित होने की कामना करते हैं। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-105”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-104

जो प्रारंभ है वही अंत है—(प्रवचन—एकसौचारवां)

अध्याय 64 : खंड 1

आरंभ और अंत

जो शांत पड़ा है, उसे नियंत्रण में रखना आसान है;

जो अभी प्रकट नहीं हुआ है, उसका निवारण आसान है;

जो बर्फ की तरह तुनुक है, वह आसानी से पिघलता है;

जो अत्यंत लघु है, वह आसानी से बिखरता है।

किसी चीज के अस्तित्व में आने से पहले उससे निपट लो;

परिपक्व होने के पहले ही उपद्रव को रोक दो।

जिसका तना भरा-पूरा है, वह वृक्ष नन्हे से अंकुर से शुरू होता है; Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-104”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-103

स्वादहीन का स्वाद लो—(प्रवचन—एकसौतीनवां) 

अध्याय 63

कठिन और सरल

निष्क्रियता को साधो। अकर्म पर अवधान दो। स्वादहीन का स्वाद लो।

चाहे वह बड़ी हो या छोटी, बहुत या थोड़ी, घृणा का प्रतिदान पुण्य से दो।

कठिन से तभी निबट लो, जब वह सरल ही हो;

बड़े से तभी निबट लो, जब वह छोटा ही हो;

संसार की कठिन समस्याएं तभी हल की जाएं, जब वे सरल ही हों;

संसार की महान समस्याएं तभी हल की जाएं, जब वे छोटी ही हों।

इसलिए संत सदा बड़ी समस्याओं से निबटे बिना ही महानता को संपन्न करते हैं। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-103”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-102

ताओ की भेंट श्रेयस्कर है—प्रवचन—एक सौदोवां)

अध्याय 62

सज्जन का खजाना

ताओ संसार का रहस्य भरा मर्म है,

सज्जन का खजाना, और दुर्जन की पनाह।

सुंदर वचन बाजार में बिक सकते हैं,

श्रेष्ठ चरित्र भेंट में दिया जा सकता है।

यद्यपि बुरे लोग हो सकते हैं,

तथापि उन्हें अस्वीकृत क्यों किया जाए?

इसलिए सम्राट के राज्याभिषेक पर,

तीन मंत्रियों की नियुक्ति पर,

मणि-माणिक्य और चार-चार घोड़ों

के दल भेंट में भेजने के बजाय,

ताओ की भेंट भेजना श्रेयस्कर है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-102”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-101

स्त्रैण गुण से बड़ी कोई शक्ति नहीं—(प्रवचन—एकसौएकवां) 

अध्याय 61

बड़े और छोटे देश

बड़े देश को नदीमुख नीची भूमि की तरह होना चाहिए,

क्योंकि वह संसार का संगम है, और संसार का स्त्रैण गुण है।

स्त्री पुरुष को मौन से जीत लेती है, और मौन से वह नीचा स्थान प्राप्त करती है।

इसलिए यदि एक बड़ा देश अपने को छोटे देश के नीचे रखता है,

तो वह छोटे देश को आत्मसात कर लेता है।

और यदि छोटा देश अपने को बड़े देश के नीचे रखता है,

तो वह बड़े देश को आत्मसात कर लेता है।

इसलिए कुछ दूसरों को आत्मसात करने के लिए अपने को नीचे रखते हैं; Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-101”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-100

कृष्ण में राम-रावण आलिंगन में हैं—(प्रवचन—सौवां)

अध्याय 60

बड़े देश की हुकूमत

एक बड़े देश की हुकूमत ऐसे करो जैसे कि तुम छोटी मछली भूंजते हो।

जो संसार की हुकूमत ताओ के अनुसार चलाता है,

उसे पता चलेगा कि अशुभ आत्माएं अपना बल खो बैठती हैं।

यह नहीं कि अशुभ आत्माएं अपना बल खो देती हैं,

लेकिन वे लोगों को कष्ट देना बंद कर देती हैं।

इतना ही नहीं कि वे लोगों को हानि पहुंचाना बंद कर देती हैं,

संत स्वयं भी लोगों की हानि नहीं करते।

जब दोनों एक-दूसरे की हानि नहीं करते,

तब मौलिक चरित्र पुनःस्थापित होता है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-100”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-099

 मेरी बातें छत पर चढ़ कर कहो—(प्रवचन—निन्‍यनवां)

प्रश्न-सार

1–मात्र होने और बनने में क्या भेद है?

2–क्या शत प्रतिशत शुभ संभव नहीं है?

3–क्या आपकी बात दूसरों को समझाई जाए?

4–आपकी जैसी दृष्टि कैसे उपलब्ध हो?

पहला प्रश्न:

आप कहते हैं कि कुछ होने, बनने या बिकमिंग की चेष्टा मत करो, बस जो हो वही हो रहो–जस्ट बीइंग। विस्तार से बताएं कि यह कैसे साधा जाए? Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-099”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-098

नियमों का नियम प्रेम व स्वतंत्रता है—(प्रवचन—अट्ठानवां) 

अध्याय 59

मिताचारी बनो

मानवीय कारबार की व्यवस्था में मिताचारी

होने से बढ़िया दूसरा नियम नहीं है।

मिताचार पूर्व-निवारण करना है;

पूर्व-निवारण करना तैयार रहने और सुदृढ़ होने जैसा है;

तैयार रहना और सुदृढ़ होना सदाजयी होना है;

सदाजयी होना अशेष क्षमता प्राप्त करना है;

जिसमें अशेष क्षमता है,

वही किसी देश का शासन करने योग्य है;

और शासक देश की माता (सिद्धांत) दीर्घजीवी हो सकती है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-098”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-097

शासन जितना कम हो उतना ही शुभ—(प्रवचन—सतानवां)

अध्याय 58

आलसी शासन

शासन जब आलसी और सुस्त होता है,

तब उसकी प्रजा निष्कलुष होती है।

जब शासन दक्ष और साफ-सुथरा होता है,

तब प्रजा असंतुष्ट रहती है।

विपत्ति भाग्य के लिए छांहदार रास्ता है,

और भाग्य विपत्ति के लिए ओट है।

इसके अंतिम नतीजों को जानने योग्य कौन है?

जैसा यह है, सामान्य कभी भी अस्तित्व में नहीं होगा,

लेकिन सामान्य शीघ्र ही पलट कर छलावा बन जाएगा, Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-097”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-096

आदर्श रोग है; सामान्य व स्वयं होना स्वास्थ्य—(प्रवचन—छियानवां) 

 अध्याय 57

शासन की कला

राज्य का शासन सामान्य के द्वारा करो।

युद्ध असामान्य, अचरज भरी युक्तियों से लड़ो।

संसार को बिना कुछ किए जीतो।

मैं कैसे जानता हूं कि यह ऐसा है?

इसके द्वारा:

जितने अधिक निषेध होते हैं,

लोग उतने ही अधिक गरीब होते हैं।

जितने अधिक तेज शस्त्र होते हैं,

राज्य में उतनी ही अधिक अराजकता होती है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-096”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-095

सत्य कह कर भी नहीं कहा जा सकता—(प्रवचन—पिचानवां)

अध्याय 56

मान और अपमान के पार

जो जानता है, वह बोलता नहीं है;

जो बोलता है, वह जानता नहीं है।

इसके छिद्रों को भर दो, इसके द्वारों को बंद करो,

इसकी धारों को घिस दो, इसकी ग्रंथियों को निर्ग्रंथ करो,

इसके प्रकाश को धीमा करो, इसके शोरगुल को चुप करो;

— यही रहस्यमयी एकता है।

तब प्रेम और घृणा उसे नहीं छू सकतीं।

लाभ और हानि उससे दूर रहती हैं।

मान और अपमान उसे प्रभावित नहीं कर सकते। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-095”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-094

शिशुवत चरित्र ताओ का लक्ष्य है—(प्रवचन—चौरनवां)

अध्याय 55

शिशु का चरित्र

जो चरित्र का धनी है, वह शिशुवत होता है।

जहरीले कीड़े उसे दंश नहीं देते,

जंगली जानवर उस पर हमला नहीं करते,

और शिकारी परिन्दे उस पर झपट्टा नहीं मारते।

यद्यपि उसकी हड्डियां मुलायम हैं,

उसकी नसें कोमल, तो भी उसकी पकड़ मजबूत होती है।

यद्यपि वह नर और नारी के मिलन से अनभिज्ञ है,

तो भी उसके अंग-अंग पूरे हैं।

जिसका अर्थ हुआ कि उसका बल अक्षुण्ण है।

दिन भर चीखते रहने पर भी उसकी आवाज भर्राती नहीं है; Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-094”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-093

धर्म है समग्र के स्वास्थ्य की खोज—(प्रवचन—तिरनवां)

अध्याय 54

व्यक्ति और राज्य

जो दृढ़ता से स्थापित है, उसे आसानी से डिगाया नहीं जा सकता।

जिसकी पकड़ पक्की है, वह आसानी से छोड़ता नहीं है।

पीढ़ी दर पीढ़ी उसके पूर्वजों के त्याग अबाध रूप से जारी रहेंगे।

व्यक्ति में उसके पालन से, चरित्र प्रामाणिक होगा;

परिवार में उसके पालन से, चरित्र अतिशय होगा;

गांव में उसके पालन से, चरित्र बहुगुणित होगा;

राज्य में उसके पालन से, चरित्र समृद्ध होगा;

संसार में उसके पालन से, चरित्र सार्वभौम बनेगा। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-093”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-092

संगठन, संप्रदाय, समृद्धि, समझ और सुरक्षा—(प्रवचन—बानववां)

प्रश्न-सार

1–उनके पीछे संप्रदाय न बने, इसके लिए बुद्ध पुरुष उपाय क्यों नहीं करते?

2–आदमी की जरूरत, समृद्धि और धर्म में क्या संबंध है?

3–भगवान मनुष्य को वासनाएं क्यों देता है?

4–ताओ में प्रवेश विकास है या पीछे लौटना?

5–आप कैसे कहते हैं कि समझ काफी है?

6–आश्रम में सुरक्षा की व्यवस्था क्यों है?

पहला प्रश्न:

आपने कल संप्रदायों को पगडंडी की संज्ञा दी और धर्म को राजपथ की। लेकिन प्रायः सभी संप्रदाय राजपथ से गुजरने वाले ज्ञानियों के पीछे निर्मित हुए। फिर इन परम ज्ञानियों ने इसकी चिंता क्यों नहीं की कि उनके पीछे संप्रदाय न बनें? और इसके निवारण के लिए आप क्या कर रहे हैं? Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-092”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-091

धर्म का मुख्य पथ सरल है—(प्रवचन—इक्‍यानवां)

 अध्याय 53

लूटपाट

मुख्य पथ (ताओ) पर चल कर,

मैं यदि तपःपूत ज्ञान को प्राप्त होता,

तो मैं पगडंडियों से नहीं चलता।

मुख्य पथ पर चलना आसान है;

तो भी लोग छोटी पगडंडियां पसंद करते हैं।

दरबार चाकचिक्य से भरे हैं,

जब कि खेत जुताई के बिना पड़े हैं और बखारियां खाली हैं।

तथापि जड़ीदार चोगे पहने, चमचमाती तलवारें हाथों में लिए,

श्रेष्ठ भोजन और पेय से अघाए, वे धन-संपत्ति में सराबोर हैं। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-091”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-090

पुनः अपने मूल स्रोत से जुड़ो—(प्रवचन—नब्‍बवां)

अध्याय 52

परम की चोरी

ब्रह्मांड का एक आदि था,

जिसे ब्रह्मांड की माता माना जा सकता है।

माता से हम उसके पुत्रों को जान सकते हैं।

पुत्रों को जान कर, माता से जुड़े रहो;

इस प्रकार व्यक्ति का पूरा जीवन हानि से बचाया जा सकता है।

उसके छिद्रों को भर दो, उसके द्वारों को बंद करो,

और व्यक्ति का पूरा जीवन श्रम-मुक्त हो जाता है।

उसके छिद्रों को खुला छोड़ दो, उसके कारोबार में व्यस्त रहो, Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-090”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-089

ताओ या धर्म पारनैतिक है—(प्रवचन—नवासीवां)

अध्याय 51

रहस्यमय सदगुण

ताओ उन्हें जन्म देता है,

और तेह (चरित्र) उनका पालन करता है;

भौतिक संसार उन्हें रूपायित करता है;

और वर्तमान परिस्थितियां पूर्ण बनाती हैं।

इसलिए संसार की सभी चीजें ताओ की

पूजा करती हैं और तेह की प्रशंसा।

ताओ पूजित है और तेह प्रशंसित।

और ऐसा अपने आप है,

किसी के हुक्म से नहीं।

इसलिए ताओ उन्हें जन्म देता है,

तेह उनका पालन करता है,

उन्हें बड़ा करता है, विकास देता है,

उन्हें आश्रय देता है, शांति से रहने की जगह देता है।

यह उन्हें जन्म देता है, और उन पर स्वामित्व नहीं करता;

यह कर्म (सहायता) करता है, और उन्हें अधिकृत नहीं करता;

श्रेष्ठ है, और नियंत्रण नहीं करता।

— यही है रहस्यमय सदगुण। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-089”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-088

जीवन और मृत्यु के पार—(प्रवचन—अट्ठासीवां)

 अध्याय 50

जीवन का संरक्षण

जीवन से ही निकल कर मृत्यु आती है।

जीवन के साथी (अंग) तेरह हैं;

मृत्यु के भी साथी (अंग) तेरह हैं;

और जो मनुष्य को इस जीवन में मृत्यु

के घर भेजते हैं, वे भी तेरह ही हैं।

यह कैसे होता है?

जीवन को विस्तार देने की तीव्र कर्मशीलता के कारण। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-088”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-087

धारणारहित सत्य और शर्तरहित श्रद्धा—(प्रवचन—सत्‍तासीवां) 

 अध्याय 49

लोगों के हृदय

संत के कोई अपने निर्णीत मत व भाव नहीं होते;

वे लोगों के मत व भाव को ही अपना मानते हैं।

सज्जन को मैं शुभ करार देता हूं,

दुर्जन को भी मैं शुभ करार देता हूं;

सदगुण की यही शोभा है।

ईमानदार का मैं भरोसा करता हूं,

और झूठे का भी मैं भरोसा करता हूं;

सदगुण की यही श्रद्धा है।

संत संसार में शांतिपूर्वक, लयबद्धता के साथ जीते हैं।

संसार के लोगों के बीच हृदयों का सम्मिलन होता है।

और संत उन सब को अपनी ही संतान की तरह मानते हैं। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-087”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-086

ताओ उपनिषाद—(भाग—5)  ओशो

(ओशो द्वारा लाओत्‍से के ‘ताओ तेह किंग’पर दिए गये 127 अमृत प्रचवनों में से 21 (86 से 106) (छियासी से एकसौछ)

दि ओशो की ऋतंभरा प्रज्ञा लाओत्‍से के रहस्‍यम सूत्रो को प्रकाशित नहीं करती तो वर्तमान युग ताओ की अकूत संपदा से वंचित रह जाता। हमने लाओत्‍से का नाम ही तब सुना जब ओशो उसका हाथ पकड़कर अपने दरबार में ले आये और उसे उच्‍चतम आसन पर प्रतिष्‍ठित कर दिया। यहां तक कि अपने आवास का नाम भी उन्‍होने ‘लाओत्‍से हाउस’ ही रखा।

ओशो को लाओत्‍से के प्रति इतनी आत्‍मीयता क्‍यों रही होगी? अब वैसे तो रहस्‍यदर्शी के रहस्‍यों में कौन उत्‍तर सकता है। रहस्‍यदर्शी को सीधे समझ पाना तब तक संभव नहीं है। जब तक हम उसमें पूरी तरह घूल मिल न जाये। पूर्ण एक रस होकर…एक अनछूआ से छूकर…को गीत काम में  कहता हे। जैसे नमक सागर में विलिन हो जाता है।

ओशो और लाओत्‍से की इस मधुर समस्‍वरता में आपका स्‍वागत्‍म है। अगर लाओत्‍से से पूछें तो वह इस घटना का वर्णन करेंगे—जहां स्‍वर्ग और पृथ्‍वी का आलिंगन होता है वहीं मीठी वर्षा होती है।

आत्म-ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है—(प्रवचन—छियासीवां)

अध्याय 48

निष्क्रियता के द्वारा विश्व-विजय

Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-086”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें