समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा

लोकशाही समाजवादः एक भ्रांत धारणा

मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से सवाल बाकी रह गए हैं और अंतिम चर्चा होने के कारण मैं अधिकतम सवालों के संबंध में बात करना पसंद करूंगा, इसलिए सवालों के जवाब संक्षिप्त ही हो सकेंगे।

बहुत से मित्रों ने पूछा है कि आप समाजवाद और साम्यवाद का पर्यायवाची की तरह प्रयोग कर रहे हैं। क्या दोनों में भेद नहीं मानते हैं?

भेद मानता हूं। जैसे टी. बी. के स्टेजेस होते हैं वैसा ही भेद मानता हूं। समाजवाद बीमारी की पहली स्टेज है। साम्यवाद उसकी अंतिम स्टेज है। इधर से मरीज शुरू समाजवाद से करता है, मरता साम्यवाद में है। भेद तो है, लेकिन एक ही बीमारी बढ़ी हुई अवस्था का भेद है। मगर कोई बुनियादी भेद नहीं है। और जो लोग समझाने की कोशिश करते हैं कि समाजवाद साम्यवाद से भिन्न चीज है वे केवल साम्यवाद के नाम पर…! साम्यवाद के नाम के साथ एक बदनामी जुड़ गई है। उस बदनामी को काटने को नये नाम का प्रयोग कर रहे हैं, अन्यथा कोई फर्क नहीं है।

समाजवादी चेहरे के पीछे साम्यवादी हाथ है। Continue reading “समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-04)”

समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

पूंजीवादः ज्यादा मानवीय व्यवस्था

मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से सवाल पूछे गए हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि समाजवाद परार्थवाद, अलटुइस्टिक व्यवस्था है। पूंजीवाद स्वार्थवादी, सेलफिश व्यवस्था है। और आप परार्थवादी व्यवस्था का विरोध करते हैं और स्वार्थ की व्यवस्था का समर्थन करते हैं। इसका क्या कारण है?

 

सबसे पहली बात तो यह ध्यान में लेने जैसी है कि जगत में न कोई परार्थवादी कभी पैदा हुआ है, न हो सकता है। इसका कोई उपाय ही नहीं है। परार्थवाद असंभावना है। और इस सत्य को जितना ठीक से समझा जा सके उतना पाखंड से, हिपोक्रेसी से बचा जा सकता है। परार्थवाद के नाम पर सिवाय पाखंड के और कुछ भी नहीं है। असल में मनुष्य की चेतना मूलतः स्वार्थी है और उचित भी है, अनुचित भी नहीं है। बुरा भी नहीं है, स्वाभाविक भी है। हां, स्वार्थ बहुत तल के हो सकते हैं। तीन तरह के स्वार्थ हो सकते हैं। श्रेष्ठतम स्वार्थ, जिसमें मेरे स्वार्थ में आपके स्वार्थ को भी गति मिलती हो। यह भी श्रेष्ठतम इसीलिए है कि आपके स्वार्थ को भी गति मिलती है, और कोई कारण नहीं है। मध्यम स्वार्थ, जिसमें मेरा स्वार्थ तो हल होता है लेकिन किसी और के स्वार्थ को न तो कोई फायदा होता है, न कोई हानि होती है। वह मध्यम इसलिए है कि दूसरे के प्रति पूर्ण उपेक्षा है। न हानि है, न लाभ है। निकृष्ट स्वार्थ वह है, जिसमें मेरा स्वार्थ आपके स्वार्थ को नुकसान पहुंचाता है। वह निकृष्ट इसीलिए है कि आपके स्वार्थ को नुकसान पहुंचाता है। और कोई कारण नहीं है। Continue reading “समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-03)”

समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

समाजवादः दासता की एक व्यवस्था

मेरे प्रिय आत्मन्!

कल के विचारों के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि समाजवाद का अर्थ क्या है?

समाजवाद का अर्थ है, राज्य-पूंजीवाद–स्टेट-कैपिटलिज्म। समाजवाद का अर्थ है, संपत्ति व्यक्तियों के पास न हो, संपत्ति की मालकियत राज्य के पास हो। लेकिन समाजवाद यह नहीं कहता है कि वह ‘राज्य-पूंजीवाद’ है। वह कहता हे, वह पूंजीवाद का विरोधी है। यह बात झूठ है। समाजवाद पूंजीवाद का विरोधी नहीं है। समाजवाद, जो पूंजी की सत्ता बहुत लोगों में वितरित है उसे राज्य में केंद्रित कर देना चाहता है। और व्यक्तियों के हाथ में जब पूंजीवाद इतना नुकसान पहुंचाता है तो राज्य के हाथ में कितना पहुंचाएगा, इसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। Continue reading “समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-02)”

समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(समाजवाद क्या–सिर्फ राजनीति है!)

मेरे प्रिय आत्मन्!

समाजवाद अर्थात आत्मघात! इस संबंध में कुछ कहूं, उसके पहले एक बात की देना उचित है।

समाजवाद सिर्फ राजनैतिक दृष्टि नहीं है। और अगर समाजवाद सिर्फ राजनैतिक दृष्टि होती, तो इतना खतरा भी नहीं था। समाजवाद में सिर्फ आर्थिक प्रोगे्रस ही होता तो जिंदगी की बहुत बाहर की बात भी बहुत गहरी लगती। समाजवाद समग्र जीवन-दर्शन है। समाजवाद मनुष्य के आमूल जीवन को स्पर्श करता है। और विशेष रूप से इसी कारण इसके खतरे भी बढ़े हैं।

मैं समाजवाद पर समग्र जीवन की तरह विचार करना चाहूंगा। Continue reading “समाजवाद अर्थात आत्मघात-(प्रवचन-01)”

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