मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-07)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र–सातवां

ओ. के.। मैं तुम्हारी नोटबुक के खुलने की आवाज सुन रहा हूं। अब यह एक घंटे का समय मेरा है, और मेरे एक घंटे में साठ मिनट नहीं होते। वे कुछ भी हो सकते हैं–साठ, सत्तर, अस्सी, नब्बे, सौ… या संख्याओं के पार भी। यदि यह एक घंटा मेरा है तो इसे मेरे साथ संगति बिठानी होगी, इससे विपरीत नहीं हो पाएगा।

पोस्टस्क्रिप्ट, पश्चलेख जारी है।

आज का जो पहला नाम है: मलूक, इस नाम को पश्चिम में किसी ने सुना भी नहीं होगा। वे भारत के अत्यंय महत्वपूर्ण रहस्यदर्शियों में से एक हैं। उनका पूरा नाम है, मलूकदास, लेकिन वे अपने को केवल मलूक कहते हैं, जैसे कि वे कोई बच्चे हों–और वे सच में ही बच्चे थे, ‘बच्चे जैसे’ नहीं। Continue reading “मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-07)”

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-06)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-छठवां

अब पोस्टस्क्रिप्ट, पश्चलेख। पिछले सत्र में जब मैंने कहा था कि यह उन पचास पुस्तकों की श्रृंखला का अंत है, जिनको मुझे अपनी सूची में शामिल करना था, यह तो मैंने बस ऐसे ही कह दिया था। मेरा मतलब यह नहीं था कि मेरी प्रिय पुस्तकों का अंत हो गया है, बल्कि संख्या से था। मैंने इसलिए पचास चुनी थी, क्योंकि मुझे लगा कि वह एक सही संख्या होगी। फिर भी निर्णय तो लेना ही पड़ता है, और सभी निर्णय स्वैच्छिक होते हैं। लेकिन आदमी प्रस्ताव रखता है और परमात्मा निपटारा करता है–परमात्मा, जो कि है नहीं। Continue reading “मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-06)”

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-05)

मेरी प्रिय पुस्तकें–ओशो 

सत्र—पांचवां

अब काम शुरू होता है…

‘‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा–अब ब्रह्म की जिज्ञासा’’… इस तरह से बादरायण अपनी महान पुस्तक की शुरुआत करते हैं, शायद महानतम। बादरायण की पुस्तक प्रथम है जिस पर आज मैं बोलने जा रहा हूं। वे अपनी महान पुस्तक ‘ब्रह्मसूत्र’ का प्रारंभ इस वाक्य से करते हैं: ‘‘ब्रह्म की जिज्ञासा।’’ पूरब में सभी सूत्र हमेशा इसी तरह से शुरू होते हैं ‘‘अब… अथातो’’ कह कर, इससे अन्यथा कभी नहीं। Continue reading “मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-05)”

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-04)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-चौथा

ओ. के.। नोट्‌स लिखने के लिए तैयार हो जाओ।

देवगीत जैसे लोग अगर न होते तो संसार से बहुत कुछ खो जाता। यदि प्लेटो ने नोट्‌स न लिखे होते तो सुकरात के बारे में हम कुछ भी नहीं जान पाते, न बुद्ध के बारे में, न ही बोधिधर्म के बारे में। जीसस के बारे में भी उनके शिष्यों के नोट्‌स के माध्यम से पता चलता है। कहा जाता है कि महावीर एक शब्द कभी नहीं बोले। मैं यह जानता हूं कि ऐसा क्यों कहा जाता है। ऐसा नहीं है कि वे एक शब्द भी नहीं बोले, लेकिन संसार से सीधे उनका संवाद कभी नहीं रहा। शिष्यों के नोट्‌स के माध्यम से ही जानकारी प्राप्त हुई। Continue reading “मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-04)”

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-03)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-तीसरा

अब मेरा काम शुरू होता है। यह कैसा मजाक है! सबसे बड़ा मजाक यह कि चीनी संत सोसान मेरी चेतना का द्वार खटखटा रहे थे। ये संत भी बड़े अजीब होते हैं। तुम कुछ नहीं कह सकते कि कब ये तुम्हारे दरवाजे खटखटाने लगें। तुम अपनी प्रेमिका के साथ प्रेम कर रहे हो और सोसान लगे दरवाजा खटखटाने। वे कभी भी आ जाते हैं–किसी भी समय–वे किसी शिष्टाचार में विश्वास नहीं करते। और वे मुझसे क्या कह रहे थे? वे कह रहे थे कि तुमने मेरी पुस्तक शामिल क्यों नहीं की?’ Continue reading “मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-03)”

मेरी प्रिय पुस्तकें-सत्र-02

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र–दूसरा

मैं क्षमा चाहता हूं, क्योंकि कुछ पुस्तकों का उल्लेख आज सुबह मुझे करना चाहिए था, लेकिन मैंने किया नहीं। जरथुस्त्र, मीरदाद, च्वांग्त्सु, लाओत्सु, जीसस और कृष्ण से मैं इतना अभिभूत हो गया था कि मैं कुछ ऐसी पुस्तकों को भूल ही गया जो कि कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। मुझे भरोसा नहीं आता कि खलील जिब्रान की ‘दि प्रोफेट’ को मैं कैसे भूल गया। अभी भी यह बात मुझे पीड़ा दे रही है। मैं निर्भार होना चाहता हूं–इसीलिए मैं कहता हूं मुझे दुख है, किंतु किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं। Continue reading “मेरी प्रिय पुस्तकें-सत्र-02”

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-01)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र–पहला 

अतिथि, आतिथेय, श्वेत गुलदाउदी… यही वे क्षण हैं, श्वेत गुलाबों जैसे, उस समय कोई न बोले:

न तो अतिथि,

न ही आतिथेय…

केवल मौन।

लेकिन मौन अपने ही ढंग से बोलता है, आनंद का, शांति का, सौंदर्य का और आशीषों का अपना ही गीत गाता है; अन्यथा न तो कभी कोई ‘ताओ तेह किंग’ घटित होती और न ही कोई ‘सरमन ऑन दि माउंट।’ इन्हें मैं वास्तविक काव्य मानता हूं जब कि इन्हें किसी काव्यात्मक ढंग से संकलित नहीं किया गया है। ये अजनबी हैं। इन्हें बाहर रखा गया है। एक तरह से यह सच भी है: इनका किसी रीति, किसी नियम, किसी मापदंड से कुछ लेना-देना नहीं है; ये उन सबके पार हैं, इसलिए इन्हें एक किनारे कर दिया गया है। Continue reading “मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-01)”

36-गूलाल-(ओशो)

36-गूलाल-भारत के संत

झरत दसहुं दिस मोती-ओशो

आंखें हों तो परमात्मा प्रति क्षण बरस रहा है। आंखें न हों तो पढ़ो कितने ही शास्त्र, जाओ काबा, जाओ काशी, जाओ कैलाश, सब व्यर्थ है। आंख है, तो अभी परमात्मा है..यहीं! हवा की तरंग-तरंग में, पक्षियों की आवाजों में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के पत्तों में!

परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। हो भी नहीं सकता। परमात्मा एक अनुभव है। जिसे हो, उसे हो। किसी दूसरे को समझाना चाहे तो भी समझा न सके। शब्दों में आता नहीं, तर्को में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, गाओ कितने ही गीत, छूट-छूट जाता है। फेंको कितने ही जाल, जाल वापस लौट आते हैं। उस पर कोई पकड़ नहीं बैठती। Continue reading “36-गूलाल-(ओशो)”

35-दुल्हन-(ओशो)

35-दुल्हन-भारत के संत

प्रेम रस रंग औढ चदरियां-ओशो

मनुष्य तो बांस का एक टुकड़ा है–बस, बांस का! बांस की एक पोली पोंगरी । प्रभु के ओंठों से लग जाए तो अभिप्राय का जन्म होता है, अर्थ का जन्म होता है, महिमा प्रगट होती है। संगीत छिपा पड़ा है बांस के टुकड़े में, मगर उसके जादुई स्पर्श के बिना प्रकट न होगा। पत्थर की मूर्ति भी पूजा से भरे हृदय के समक्ष सप्राण हो जाती है। प्रेम से भरी आंखें प्रकृति में ही परमात्मा का अनुभव कर लेती हैं।

सारी बात परमात्मा से जुड़ने की है। उससे बिना जुड़े सब है और कुछ भी नहीं है। Continue reading “35-दुल्हन-(ओशो)”

34-यारि-(ओशो)

34-यारि-भारत के संत

विरहिनी मंदिर दियान बार-ओशो

एक बुद्धपुरुष का जन्म इस पृथ्वी पर परम उत्सव का क्षण है। बुद्धत्व मनुष्य की चेतना का कमल है। जैसे वसंत में फूल खिल जाते हैं, ऐसे ही वसंत की घड़ियां भी होती हैं पृथ्वी पर, जब बहुत फूल खिलते हैं, बहुत रंग के फूल खिलते हैं, रंग-रंग के फूल खिलते हैं। वैसे वसंत आने पृथ्वी पर कम हो गए, क्योंकि हमने बुलाना बंद कर दिया। वैसे वसंत अपने-आप नहीं आते, आमंत्रण से आते हैं। अतिथि बनाए हम उन्हें तो आते हैं। आतिथेय बनें हम उनके तो आते हैं। Continue reading “34-यारि-(ओशो)”

33-सरहपा-तिलोमा-(ओशो)

33-सरहपा-तिलोमा-भारत के संत

सहज-योग-ओशो

वसंत आया हुआ है। द्वार पर दस्तक दे रहा है। लेकिन तुम द्वार बंद किये बैठे हो।

जिस अपूर्व व्यक्ति के साथ हम आज यात्रा शुरू करते हैं, इस पृथ्वी पर हुए अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तियों में वह एक है। चौरासी सिद्धों में जो प्रथम सिद्ध है, सरहपा उसके साथ हम अपनी यात्रा आज शुरू करते हैं।

सरहपा के तीन नाम हैं, कोई सरह की तरह उन्हें याद करता है, कोई सरहपाद की तरह, कोई सरहपा की तरह। ऐसा प्रतीत होता है सरहपा के गुरु ने उन्हें सरह पुकारा होगा, सरहपा के संगी-साथियों ने उन्हें सरहपा पुकारा होगा, सरहपा के शिष्यों ने उन्हें सरहपाद पुकारा होगा। मैंने चुना है कि उन्हें सरहपा पुकारूं, क्योंकि मैं जानता हूं तुम उनके संगी-साथी बन सकते हो। तुम उनके समसामयिक बन सकते हो। सिद्ध होना तुम्हारी क्षमता के भीतर है। Continue reading “33-सरहपा-तिलोमा-(ओशो)”

32-बाबा गोरखनाथ—(ओशो)

32-बाबा गोरखनाथ—भारत के संत

मरो हे जोगी मरो-ओशो

महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन बारह लोग हैं–मेरी दृष्टि में–जो सबसे चमकते हुए सितारे हैं? मैंने उन्हें यह सूची दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखें बंद कर लीं, सोच में पड़ गये…।

सूची बनानी आसान भी नहीं है, क्योंकि भारत का आकाश बड़े नक्षत्रों से भरा है! किसे छोड़ो, किसे गिनो?…वे प्यारे व्यक्ति थे–अति कोमल, अति माधुर्यपूर्ण, स्त्रैण…। वृद्धावस्था तक भी उनके चेहरे पर वैसी ही ताजगी बनी रही जैसी बनी रहनी चाहिए। वे सुंदर से सुंदरतर होते गये थे…। मैं उनके चेहरे पर आते-जाते भाव पढ़ने लगा। उन्हें अड़चन भी हुई थी। कुछ नाम, जो स्वभावतः होने चाहिए थे, नहीं थे। राम का नाम नहीं था! उन्होंने आंख खोली और मुझसे कहा: राम का नाम छोड़ दिया है आपने! मैंने कहा: मुझे बारह की ही सुविधा हो चुनने की, तो बहुत नाम छोड़ने पड़े। Continue reading “32-बाबा गोरखनाथ—(ओशो)”

31-वाजिद शाह-(ओशो)

31-वाजिद शाह-भारत के संत

कहे वाजिद पूकार-ओशो

वाजिद–यह नाम मुझे सदा से प्यारा रहा है–एक सीधे-सादे आदमी का नाम, गैर-पढ़े-लिखे आदमी का नाम; लेकिन जिसकी वाणी में प्रेम ऐसा भरा है जैसा कि मुश्किल से कभी औरों की वाणी में मिले। सरल आदमी की वाणी में ही ऐसा प्रेम हो सकता है; सहज आदमी की वाणी में ही ऐसी पुकार, ऐसी प्रार्थना हो सकती है। पंडित की वाणी में बारीकी होती है, सूक्ष्मता होती है, सिद्धांत होता है, तर्क-विचार होता है, लेकिन प्रेम नहीं। प्रेम तो सरल-चित्त हृदय में ही खिलने वाला फूल है।

वाजिद बहुत सीधे-सादे आदमी हैं। एक पठान थे, मुसलमान थे। जंगल में शिकार खेलने गए थे। धनुष पर बाण चढ़ाया; तीर छूटने को ही था, छूटा ही था, कि कुछ घटा–कुछ अपूर्व घटा। भागती हिरणी को देखकर ठिठक गए, हृदय में कुछ चोट लगी, और जीवन रूपांतरित हो गया। तोड़कर फेंक दिया तीर-कमान वहीं। चले थे मारने, लेकिन वह जो जीवन की छलांग देखी–वह जो सुंदर हिरणी में भागता हुआ, जागा हुआ चंचल जीवन देखा–वह जो बिजली Continue reading “31-वाजिद शाह-(ओशो)”

30-संत चरण दास-(ओशो)

30-संत चरण दास-भारत के संत-ओशो

नहीं सांझ नहीं भोरओशो

चरणदास उन्नीस वर्ष के थे, तब यह तड़प उठी। बड़ी नई उम्र में तड़प उठी।

मेरे पास लोग आते है, वे पूछते हैः क्यों आप युवकों को भी संन्यास दे देते हैं? संन्यास तो वृद्धों के लिए है। शास्त्र तो कहते हैंः पचहत्तर साल के बाद। तो शास्त्र बेईमानों ने लिखे होंगे, जो संन्यास के खिलाफ हैं। तो शास्त्र उन्होंने लिखें होंगे, जो संसार के पक्ष में हैं। क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर तो पचहत्तर साल के बाद तुम बचोगे ही नहीं। संन्यास कभी होगा ही नहीं; मौत ही होगी। और इस दुनिया में जहां जवान को मौत आ जाती हो, वहां संन्यास को पचहत्तर साल तक कैसे टाला जा सकता है? Continue reading “30-संत चरण दास-(ओशो)”

29-मीरा बाई-(ओशो)

29-मीरा बाई-भारत के संत

पद धूंधरू बांध मीरा नाची रे-ओशो

आओ, प्रेम की एक झील में नौका-विहार करें। और ऐसी झील मनुष्य के इतिहास में दूसरी नहीं है, जैसी झील मीरा है। मानसरोवर भी उतना स्वच्छ नहीं।

और हंसों की ही गति हो सकेगी मीरा की इस झील में। हंस बनो, तो ही उतर सकोगे इस झील में। हंस न बने तो न उतर पाओगे।

हंस बनने का अर्थ है: मोतियों की पहचान आंख में हो, मोती की आकांक्षा हृदय में हो। हंसा तो मोती चुगे! Continue reading “29-मीरा बाई-(ओशो)”

28-अष्ठावक्र –(ओशो)

28-अष्ठावक्र –भारत के संत

अष्ठावक्र महागीता-ओशो

एक अनूठी यात्रा पर हम निकलते हैं।

मनुष्य-जाति के पास बहुत शास्त्र हैं, पर अष्टावक्र-गीता जैसा शास्त्र नहीं। वेद फीके हैं। उपनिषद बहुत धीमी आवाज में बोलते हैं। गीता में भी ऐसा गौरव नहीं; जैसा अष्टावक्र की संहिता में है। कुछ बात ही अनूठी है!

सबसे बड़ी बात तो यह है कि न समाज, न राजनीति, न जीवन की किसी और व्यवस्था का कोई प्रभाव अष्टावक्र के वचनों पर है। इतना शुद्ध भावातीत वक्तव्य, समय और काल से अतीत, दूसरा नहीं है। शायद इसीलिए अष्टावक्र की गीता, अष्टावक्र की संहिता का बहुत प्रभाव नहीं पड़ा। Continue reading “28-अष्ठावक्र –(ओशो)”

27-संत रैैदास-(ओशो)

27-संत रैदास-भारत के संत-ओशो

मन ही पूजा मन ही धूप-रैदास

दमी को क्या हो गया है? आदमी के इस बगीचे में फूल खिलने बंद हो गए! मधुमास जैसे अब आता नहीं! जैसे मनुष्य का हृदय एक रेगिस्तान हो गया है, मरूद्यान भी नहीं कोई। हरे वृक्षों की छाया भी न रही। दूर के पंछी बसेरा करें, ऐसे वृक्ष भी न रहे। आकाश को देखने वाली आखें भी नहीं। अनाहत को सुनने वाले कान भी नहीं। मनुष्य को क्या हो गया है?

मनुष्य ने गरिमा कहां खो दी है? यह मनुष्य का ओज कहां गया? इसके मूल कारण की खोज करनी ही होगी। और मूल कारण कठिन नहीं है समझ लेना। जरा अपने ही भीतर खोदने की बात है और जड़ें मिल जाएंगी समस्या की। एक ही जड़ है कि हम अपने से वियुक्त हो गए हैं; अपने से ही टूट गए हैं अपने से ही अजनबी हो गए हैं! Continue reading “27-संत रैैदास-(ओशो)”

26-भगवान महावीर-(ओशो)

26-भगवान महावीर-भारत के संत

महावीर मेंरी दृष्टि में-ओशो प्रवचन-01

 महावीर से प्रेम

मैं महावीर का अनुयायी तो नहीं हूं, प्रेमी हूं। वैसे ही जैसे क्राइस्ट का, कृष्ण का, बुद्ध का या लाओत्से का। और मेरी दृष्टि में अनुयायी कभी भी नहीं समझ पाता है।

और दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं, साधारणतः। या तो कोई अनुयायी होता है, और या कोई विरोध में होता है। न अनुयायी समझ पाता है, न विरोधी समझ पाता है। एक और रास्ता भी है–प्रेम, जिसके अतिरिक्त हम और किसी रास्ते से कभी किसी को समझ ही नहीं पाते। अनुयायी को एक कठिनाई है कि वह एक से बंध जाता है और विरोधी को भी यह कठिनाई है कि वह विरोध में बंध जाता है। सिर्फ प्रेमी को एक मुक्ति है। प्रेमी को बंधने का कोई कारण नहीं है। और जो प्रेम बांधता हो, वह प्रेम ही नहीं है। Continue reading “26-भगवान महावीर-(ओशो)”

25-भगवान कृष्ण-(ओशो)

25-भगवान कृष्ण-भारत के संत

कृष्णस्मृति-ओशो

पूर्णता का नाम कृष्ण

जीवन एक विशाल कैनवास है, जिसमें क्षण-क्षण भावों की कूची से अनेकानेक रंग मिल-जुल कर सुख-दुख के चित्र उभारते हैं। मनुष्य सदियों से चिर आनंद की खोज में अपने पल-पल उन चित्रों की बेहतरी के लिए जुटाता है। ये चित्र हजारों वर्षों से मानव-संस्कृति के अंग बन चुके हैं। किसी एक के नाम का उच्चारण करते ही प्रतिकृति हंसती-मुस्काती उदित हो उठती है।

आदिकाल से मनुष्य किसी चित्र को अपने मन में बसाकर कभी पूजा, तो कभी आराधना, तो कभी चिंतन-मनन से गुजरता हुआ ध्यान की अवस्था तक पहुंचता रहा है। इतिहास में, पुराणों में ऐसे कई चित्र हैं, जो सदियों से मानव संस्कृति को प्रभावित करते रहे हैं। महावीर, क्राइस्ट, बुद्ध, राम ने मानव-जाति को गहरे छुआ है। इन सबकी बातें अलग-अलग हैं। कृष्ण ने इन सबके रूपों-गुणों को अपने आपमें समाहित किया है। Continue reading “25-भगवान कृष्ण-(ओशो)”

24-भगवान गौतमबुद्ध-(ओशो)

भगवान गौतम बुद्ध-भारत के संत

एस धम्मों सनंतनो-भाग-01 -ओशो

गौतम बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं, हिमाच्छादित पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे। पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है, उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम-भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं।

गौतम बुद्ध की वाणी अनूठी है। और विशेषकर उन्हें, जो सोच-विचार, चिंतन-मनन, विमर्श के आदी हैं। Continue reading “24-भगवान गौतमबुद्ध-(ओशो)”

23-गुरू नानन देव-(ओशो)

गुरू नानन देव-भारत के संत

इक ओंकार सतिनाम –ओशो

एक अंधेरी रात। भादों की अमावस। बादलों की गड़गड़ाहट। बीच-बीच में बिजली का चमकना। वर्षा के झोंके। गांव पूरा सोया हुआ। बस, नानक के गीत की गूंज।

रात देर तक वे गाते रहे। नानक की मां डरी। आधी रात से ज्यादा बीत गई। कोई तीन बजने को हुए। नानक के कमरे का दीया जलता है। बीच-बीच में गीत की आवाज आती है। नानक के द्वार पर नानक की मां ने दस्तक दी और कहा, बेटे! अब सो भी जाओ। रात करीब-करीब जाने को हो गई।

नानक चुप हुए। और तभी रात के अंधेरे में एक पपीहे ने जोर से कहा, पियू-पियू। Continue reading “23-गुरू नानन देव-(ओशो)”

22-आदि शंकरा चार्य-(ओशो)

आदि शंकरा चार्य-भारत के संत

भजगोविंद मुढ़मते-ओशो

धर्म व्याकरण के सूत्रों में नहीं है, वह तो परमात्मा के भजन में है। और भजन, जो तुम करते हो, उसमें नहीं है। जब भजन भी खो जाता है, जब तुम ही बचते हो; कोई शब्द आस-पास नहीं रह जाते, एक शून्य तुम्हें घेर लेता है। तुम कुछ बोलते भी नहीं, क्योंकि परमात्मा से क्या बोलना है! तुम्हारे बिना कहे वह जानता है। तुम्हारे कहने से उसके जानने में कुछ बढ़ती न हो जाएगी। तुम कहोगे भी क्या? तुम जो कहोगे वह रोना ही होगा। और रोना ही अगर कहना है तो रोकर ही कहना उचित है, क्योंकि जो तुम्हारे आंसू कह देंगे, वह तुम्हारी वाणी न कह पाएगी। अगर अपना अहोभाव प्रकट करना हो, तो बोल कर कैसे प्रकट करोगे? शब्द छोटे पड़ जाते हैं। अहोभाव बड़ा विराट है, शब्दों में समाता नहीं, उसे तो नाच कर ही कहना उचित होगा। अगर कुछ कहने को न हो, तो अच्छा है चुप रह जाना, ताकि वह बोले और तुम सुन सको। Continue reading “22-आदि शंकरा चार्य-(ओशो)”

जीवन के विभिन्न आयाम-(प्रवचन-10)

जीवन के विभिन्न आयामों पर ओशो का नजरिया-(प्रवचन-दसवां)

Misc. English discourses

जीवन के विभिन्न आयामों पर ओशो का नजरिया

अध्याय-10

प्रेमः

यह प्रेम कोई बंधन नहीं निर्मित कर सकता। और यह प्रेम ही हृदय को सम्पूर्ण आकाश के प्रति, सारी हवाओं के प्रति खोल देना है।

ईर्ष्या बहुत जटिल है। उसमें कई उपादान सम्मिलित हैं। कायरता उनमें से एक है; अहंकारी ढंग दूसरा है; एकाधिकारत्व की आकांक्षा- प्रेम की अनुभूति नहीं बल्कि पकड़ की; प्रतिस्पर्धात्मक प्रवृत्ति; हीन होने का एक गहरे में बैठा भय। Continue reading “जीवन के विभिन्न आयाम-(प्रवचन-10)”

संसार क्यों है?-(प्रवचन-09)

संसार क्यों है? ताकि मुक्ति फलित हो सके!-(प्रवचन-नौंवां)

(पतंजलि योग सूत्र से अनुवादित- ‘कष्ट, दुख और शांति’ में भी प्रकाशित)

published in a book titled- “Kasht, Dukh aur Shanti” from- “Yoga: The Alpha and the Omega”, Vol 5, Chapter #1, Chapter title: The bridegroom is waiting for you,1 July 1975 am in Buddha Hall

वैज्ञानिक मानस सोचा करता था कि अव्यक्तिगत ज्ञान की, विषयगत ज्ञान की संभावना है। असल में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का यही ठीक-ठीक अर्थ हुआ करता था। ‘अव्यक्तिगत ज्ञान’ का अर्थ है कि ज्ञाता अर्थात जानने वाला केवल दर्शक बना रह सकता है। जानने की प्रक्रिया में उसका सहभागी होना जरूरी नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि यदि वह जानने की प्रक्रिया में सहभागी होता है तो वह सहभागिता ही ज्ञान को अवैज्ञानिक बना देती है। वैज्ञानिक ज्ञाता को मात्र द्रष्टा बने रहना चाहिए, अलग-थलग बने रहना चाहिए, किसी भी तरह उससे जुड़ना नहीं चाहिए जिसे कि वह जानता है। Continue reading “संसार क्यों है?-(प्रवचन-09)”

21-ऋषि नारद-(ओशो)

ऋषि नारद-भारत के संत

भक्ति सूत्र–ओशो

जीवन है ऊर्जा — ऊर्जा का सागर। समय के किनारे पर अथक, अंतहीन ऊर्जा की लहरें टकराती रहती हैं: न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत; बस मध्य है, बीच है। मनुष्य भी उसमें एक छोटी तरंग है; एक छोटा बीज है — अनंत संभावनाओं का।

तरंग की आकांक्षा स्वाभाविक है कि सागर हो जाए और बीज की आकांक्षा स्वाभाविक है कि वृक्ष हो जाए। बीज जब तक फूलों में खिले न, तब तक तृप्ति संभव नहीं है। Continue reading “21-ऋषि नारद-(ओशो)”

20-ऋषि शांडिल्य-(ओशो)

ऋषि शांडिल्य-भारत के संत

( अथातो भक्ति जिज्ञासा)–ओशो

इस जगत को पीने की कला है भक्ति। और जगत को जब तुम पीते हो तो कंठ में जो स्वाद आता है, उसी का नाम भगवान है। इस जगत को पचा लेने की कला है भक्ति। और जब जगत पच जाता है तुम्हारे भीतर और उस पचे हुए जगत से रस का आविर्भाव होता है–रसो वै सः–उस रस को जगा लेने की कीमियां है भक्ति।

शांडिल्य ने ठीक ही किया जो भगवान की जिज्ञासा से शुरू नहीं की बात। भगवान की जिज्ञासा दार्शनिक करते हैं। दार्शनिक कभी भगवान तक पहुंचते नहीं; विचार करते हैं भगवान का। जैसे अंधा विचार करे प्रकाश का। बस ऐसे ही उनके विचार हैं। अंधे की कल्पनाएं, अनुमान। उन अनुमानों में कोई भी निष्कर्ष कभी नहीं। निष्कर्ष तो अनुभव से आता है। Continue reading “20-ऋषि शांडिल्य-(ओशो)”

झेन शुद्ध धर्म है-(प्रवचन-08)

झेन शुद्ध धर्म है–(प्रवचन-आठवांं)

(ओशो झेनः दि पाथ ऑफ पैराडॉक्स अंग्रेजी से अनुवादित)

Zen: The Path of Paradox, Vol 1, Chapter #1, Chapter title: Join the Farthest Star,

11 June 1977 am, Poona.

झेन कोई दर्शनशास्त्र नहीं है, बल्कि एक धर्म है। और धर्म जब बिना दर्शनशास्त्र के होता है, बिना किसी शाब्दिक जाल के तो वह घटना बहुत अनोखी हो जाती है। बाकी के सभी धर्म परमात्मा की धारणा के आसपास घूमते हैं। उनके अपने दर्शन हैं। वे धर्म परमात्मा की ओर केंद्रित हैं, मनुष्य केंद्रित नहीं हैं; उनके लिए मनुष्य लक्ष्य नहीं है, परमात्मा उनका लक्ष्य है। Continue reading “झेन शुद्ध धर्म है-(प्रवचन-08)”

 तंत्र की कल्पना की विधि-(प्रवचन-07) 

तंत्र की कल्पना की विधि–प्रवचन-सातवां

(ओशो दि ट्रांसमिशन ऑफ दि लैंप से अनुवादित)

The Transmission of the Lamp, Chapter #6,

(Chapter title: Pure consciousness has never gone mad, 29 May 1986 am in Punta Del Este, Uruguay)

प्यारे ओशो,

बारह से पंद्रह वर्ष की उम्र के बीच, रात के समय बिस्तर पर लेटे हुए मुझे कुछ विचित्र अनुभव हुआ करते थे, जो मुझे बहुत अच्छे लगते थे। मैं बिस्तर पर लेटकर ऐसी कल्पना किया करता था कि जैसे मेरा बिस्तर गायब हो गया, फिर मेरा कमरा, फिर घर, फिर शहर, सभी लोग, पूरा देश, पूरा संसार…  जगत में जो कुछ है सब गायब हो गया। बिल्कुल अंधेरा और सन्नाटा बचता; मैं अपने को आकाश में तैरता हुआ पाता। Continue reading ” तंत्र की कल्पना की विधि-(प्रवचन-07) “

19-दरियाशाह (बिहार वाले)-ओशो

दरियाशाह (बिहार वाले)-भारत के संत

दरिया कहै शब्द निरबाना-(ओशो)

निर्वाण को शब्द में कहा तो नहीं जा सकता है। निर्वाण को भाषा में व्यक्त करने का कोई उपाय तो नहीं। फिर भी समस्त बुद्धों ने उसे व्यक्त किया है। जो नहीं हो सकता उसे करने की चेष्टा की है। असंभव प्रयास अगर पृथ्वी पर काई भी हुआ है तो वह एक ही है–उसे कहने की चेष्टा, जो नहीं कहा जा सकता। उसे बताने की व्यवस्था, जो नहीं बताया जा सकता।

और ऐसा भी नहीं है कि बुद्धपुरुष सफल न हुए हों। सभी के साथ सफल नहीं हुए, यह सच है। क्योंकि जिन्होंने न सुनने की जिद्द ही कर रखी थी, उनके साथ सफल होने का कोई उपाय ही न था। उनके साथ तो अगर निर्वाण को शब्द में कहा भी जा सकता होता तो भी सफलता की कोई संभावना न थी। क्योंकि वे वज्र-बधिर थे। Continue reading “19-दरियाशाह (बिहार वाले)-ओशो”

18-दरिया दास—(ओशो)

दरिया दास—भारत के संत

अमी झरत विगसत कंवल–ओशो 

मनुष्य-चेतना के तीन आयाम हैं। एक आयाम है–गणित का, विज्ञान का, गद्य का। दूसरा आयाम है–प्रेम का, काव्य का, संगीत का। और तीसरा आयाम है–अनिर्वचनीय। न उसे गद्य में कहां जा सकता, न पद्य में! तर्क  तो असमर्थ है ही उसे कहने में, प्रेम के भी पंख टूट जाते हैं! बुद्धि तो छू ही नहीं पाती उसे, हृदय भी पहुंचते-पहुंचते रह जाता है!

जिसे अनिर्वचनीय का बोध हो वह क्या करें? कैसे कहे? अकथ्य को कैसे कथन बनाए? जो निकटतम संभावना है, वह है कि गाये, नाचे, गुनगुनाए। इकतारा बजाए कि ढोलक पर थाप दे, कि पैरों में घुंघरू बांधे, कि बांसुरी पर अनिर्वचनीय को उठाने की असफल चेष्टा करे। Continue reading “18-दरिया दास—(ओशो)”

17-संत भीखा दास-(ओशो)

संत भीखा दास—गुरू प्रताप साध की  संगत-(ओशो) 

भीख जब छोटा बच्‍चा था। लोग हंसते थे कि तू समझता क्‍या। शायद साधुओं के विचित्र रंग-ढंग को देखकर चला जाता है। शायद उनके गैरिक वस्‍त्र,दाढ़ियां उनके बड़े-बड़े बाल, उनकी धूनी उनके चिमटे, उनकी मृदंग, उनकी खंजड़ी,यह सब देखकर तू जाता होगा भीखा। लेकिन किसको पता था कि भीखा यह सब देख कर नहीं जाता। उसका सरल  ह्रदय उसका अभी कोरा

कागज जैसा ह्रदय पीने लगा है, आत्‍मसात करने लगा है। वह जो परम अनुभव प्रकाश का साधुओं की मस्‍ती है उसे छूने लगी है। उसे दीवाना करने लगी है। वह जो परम अनुभव प्रकाश का साधुओं के पास है, उससे वह आन्‍दोलित होने लगा है। वह जो साधुओं की मस्‍ती है उसे छूने लगी है, उसे दीवाना करने लगी है। वह भी पियक्‍कड़ होने लगा है। Continue reading “17-संत भीखा दास-(ओशो)”

16-सदाशिव स्‍वामी—(ओशो)

सदाशिव स्‍वामी—भारत के संत -(ओशो)

    दक्षिण भारत में एक अपूर्व संत हुआ जिसका नाम था–सदाशिव स्‍वामी। एक दिन अपने गुरु के आश्रम में एक पंडित को आया देख कर विवाद में उलझ गया। उसने उस पंडित के सारे तर्क तोड़ दिये। उसके एक-एक शब्‍द को तार-तार कर दिया। उसके सारे आधार जिन पर वह तर्क कर रहा था धराशायी कर दिये। उसकी हर बात का खंडन करता चला गया। उस पंडित की पंडिताई को तहस नहस कर डाला। पंडित बहुत ख्‍यातिनाम था। तो सदाशिव सोचते थे कि गुरु पीठ थपथपायेगा और कहेगा, कि ठीक किया, इसको रास्‍तेपर लगाया। लेकिन जब पंडित चला गया तो गुरु ने केवल इतना ही कहां: सदाशिव, अपनी वाणी पर कब संयम करोगे? क्‍यों व्‍यर्थ, व्‍यर्थ उलझते हो इस जंजाल में। ये तुम्‍हें स्‍वयं के भीतर तुम्‍हें न जाने देगी। हो सकता है तुम्‍हारा ज्ञान तुम्‍हारे अहं को पोषित करने लग जाये। ज्ञान तलवार की तरह है। और ध्‍यानी का ज्ञान तो दो धारी तलवार। जिसके दोनों तरफ धार होती है। पंडित को ज्ञान तो एक तरफ का होता है। इससे बच संभल। और देख अपने अंदर।    Continue reading “16-सदाशिव स्‍वामी—(ओशो)”

दर्पण में देखना-(तंत्र विधि)-(प्रवचन-06)

तंत्र की विधि- दर्पण में देखना-प्रवचन-छठवांं

(ओशो दि ट्रांसमिशन ऑफ दि लैंप से अनुवादित)

Traslated from- The Transmission of the Lamp, Chapter #3, Chapter title: True balance, 27 May 1986 pm in Punta Del Este, Uruguay   

प्यारे ओशो,

जब मैं ग्यारह या बारह वर्ष की रही होंगी, मेरे साथ एक विचित्र घटना घटी। स्कूल में एक बार खेल-कूद का पीरियड चल रहा था, मैं यह देखने के लिए कि मैं ठीक-ठाक लग रही हूं या नहीं, बाथरूम में गई। शीशे के सामने मैं खुद को देखने लगी तो अचानक, मैंने पाया कि मैं अपने शरीर और शीशे में अपने प्रतिबिंब दोनों से अलग बीच में खड़ी हूं और देख रही हूं कि मेरा शरीर अपने प्रतिबिंब को शीशे में देख रहा है। Continue reading “दर्पण में देखना-(तंत्र विधि)-(प्रवचन-06)”

15-संत दादूदयाल-(ओशो)

15- दादूदयाल और सूंदरो—भारत के संत-(ओशो) 

कहो होत अधिर-पलटूदास 

दादू के चेले तो अनेक थे पर दो ही चेलों का नाम मशहूर है। एक रज्‍जब और दूसरा सुंदरो। आज आपको सुंदरो  कि विषय में एक घटना कहता हूं। दादू की मृत्‍यु हुई। तब दादू के दोनों चलो ने बड़ा अजीब व्यवहार किया। रज्‍जब ने आंखे बंध कर ली और पूरे जीवन कभी खोली ही नहीं। उसने कहां जब देखने लायक था वहीं चला गया तो अब और क्‍या देखना सो रज्‍जब जितने दिन जिया आंखे बंध किये रहा। और दूसरा सुंदरो—उधर दादू की लाश उठाई जा रही थी। अर्थी सजाई जारही थी। वह श्मशान घाट भी नहीं गया और दादू के बिस्‍तर पर उनका कंबल ओढ़ कर सो गया। फिर उसने कभी बिस्‍तर नहीं छोड़ा। बहुत लोगों ने कहा ये भी कोई ढंग है। बात कुछ जँचती नहीं।ये भी कोई जाग्रत पुरूषों के ढंग हुये एक ने आँख बंद कर ली और दूसरा बिस्‍तरे में लेट गया। और फिर उठा ही नहीं। जब तक मर नहीं गया। Continue reading “15-संत दादूदयाल-(ओशो)”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें