भिक्षु तिष्‍य की चादर-(कथा यात्रा-058)

भिक्षु तिष्‍य की चादर-(एस धम्‍मो सनंतनो)

एक भिक्षु थे तिष्य। वर्षा—वास के पश्चात किसी ने उन्हें एक बहुत मोटे सूत केला चादर भेट किया।

बहुत भिक्षु वर्षा के दिनों में रुक जाते थे, तीन—चार महीने, और वर्षा—वास के बाद जब वे यात्रा पर पुन: निकलते तो लोग उन्हें भेंट देते। भेंट भी क्या? थोड़ी सी भेंट लेने की उन्हें आज्ञा थी। तीन वस्त्र रख सकते थे, इससे ज्यादा नहीं। तो कोई चादर भेंट कर देता, या कोई भिक्षापात्र भेंट कर देता। तो पुराना भिक्षापात्र छोड़ देना पड़ता, पुरानी चादर छोड़ देनी पड़ती।

यह भिक्षु तिष्य ने वर्षा—वास किया किसी गांव में जब वर्षा—वास के बाद उन्हें एक मोटे सूत वाला चादर भेट किया गया तो उन्हें पसंद न आया। बहुत मोटे सूत वाला था। Continue reading “भिक्षु तिष्‍य की चादर-(कथा यात्रा-058)”

मरणशय्या पर लम्बी आयु की कामना-(कथा यात्रा-57)

 मरणशय्या पर स्‍वर्णकर द्वारा लम्‍बी आयु की कामना-(एस धम्‍मो सनंतनो)

क स्वर्णकार मरणशध्या पर था। स्वभावत: मृत्यु से बहुत भयभीत क्योकि मृत्यु के लिए कोई तैयारी तो की नहीं थी। कोई भी करता नहीं। जीवन ऐसे ही बीत जाता है और आखिरी घड़ी जब करीब आती है तब बेचैनी होती है। उस दूर की यात्रा के लिए कुछ आयोजन तो किया नहीं था। बहुत घबड़ाने लगा। उसके बेटों ने अपने पिता के जीवन के लिए भिक्षुसंघ के साथ भगवान को नियंत्रित करके दान दिया। भोजनोपरांत पुत्रों ने कहा भंते इस भोजन को हम लोगों ने पिता के जीवन के लिए दिया है आप उन्हें आशीष दें। आशीष दें कि उनकी आयु लंबी हो। Continue reading “मरणशय्या पर लम्बी आयु की कामना-(कथा यात्रा-57)”

पंचेंद्रियों संबर-भिक्षुओं का विवाद-(कथा यात्रा-56)

पंचेंद्रियों का संबर करने वाल पाँच बोद्ध—भिक्षुओं का विवाद-(एस धम्‍मो सनंतनो)

गवान के जेतवन में विहरते समय पांच ऐसे भिक्षु थे जो पंचेद्रिय में से एक— एक का संवर करते थे। कोई आंख का कोई कान का कोई जीभ का। एक दिन उन पांचों में बड़ा विवाद हो गया कि किसका संवर कठिन है। प्रत्येक अपने संवर को कठिन और फलत: श्रेष्ठ मानता था। विवाद की निष्पत्ति न होती देख अंतत: वे पांचों भगवान के चरणों में उपस्थित हुए और उन्होंने भगवान से पूछा : भंते! इन पांच इंद्रियों में से किसका संवर अति कठिन है?

भगवान हंसे और बोले भिक्षुओ! संवर दुष्कर है। संवर कठिन है। इसका संवर या उसका संवर नहीं— संवर ही कठिन है। भिक्षुओ। ऐसे व्यर्थ के विवादों में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि विवाद मात्र के मूल में अहंकार छिपा है। इसलिए विवाद की कोई निष्पत्ति नहीं हो सकती। विवादों में शक्ति व्यय न करके समग्र शक्ति संवर में लगाओ। सभी द्वारों का संवर करो। संवर में दुखमुक्ति का उपाय है। Continue reading “पंचेंद्रियों संबर-भिक्षुओं का विवाद-(कथा यात्रा-56)”

अतुल पांच सौ व्‍यक्‍तियों के साथ धर्मश्रवण को आया-(कथायात्रा-055)

अतुल नामक व्‍यक्‍ति पाँच सौ व्‍यक्‍तियों के साथ धर्मश्रवण को आया—(एस धम्मो सनंतनो)

श्रावस्ती का अतुल नामक एक व्यक्ति पांच सौ और व्यक्तियों के साथ भगवान के संघ में धर्मश्रवण के लिए गया। वह क्रमश: स्थविर रेवत स्थविर सारिपुत्र और आयुष्मान आनंद के पास जा फिर भगवान के पास पहुंचा।

ऐसी ही व्यवस्था थी। बुद्ध के जो बड़े शिष्य थे, पहले लोग उनको सुनें, समझें, कुछ थोड़ी पकड़ आ जाए, कुछ थोड़ा समझ आ जाए तो फिर भगवान को वे जाकर  पूछ लें। Continue reading “अतुल पांच सौ व्‍यक्‍तियों के साथ धर्मश्रवण को आया-(कथायात्रा-055)”

अनागामी स्‍थविर मर ब्रह्मलोक में उत्पन्‍न-(कथा यात्रा-054)

 अनागामी स्‍थविर मर कर ब्रह्मलोक में उत्पन्‍न होना—(एस धम्मो सनंतनो)

गवान के जेतवन में विहरते समय एक अनागामी स्थविर मरकर शुद्धावास ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए। मरते समय जब उनके शिष्यों ने पूछा क्या भंते कुछ विशेषता प्राप्त हुई है? तब निर्मलचित स्थविर ने यह सोचकर कि यह भी क्या कोई उपलब्धि है या विशेषता है चुप्पी ही साधे रखी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्य रोते हुए भगवान के पास जाकर उनकी गति पूछे। भगवान ने कहा भिक्षुओ रोओ मत वह मरकर शुद्धावास में उत्पन्न हुआ है। भिक्षुओ देखते हो तुम्हारा उपाध्याय कामों से रहित चित्त वाला हो गया है जाओ खुशी मनाओ।

तब शिष्यों ने कहा पर उन्होंने मरते समय चुप्पी क्यों साधे रखी? हमने तो पूछा था उन्होंने बताया क्यों नहीं? भगवान ने कहा इसीलिए भिक्षुओ इसीलिए क्योकि निर्मल चित्त को उपलब्धि का भाव नहीं होता। Continue reading “अनागामी स्‍थविर मर ब्रह्मलोक में उत्पन्‍न-(कथा यात्रा-054)”

बेटे की मृत्‍यु शोक में डूबा श्रावक—(कथा यात्रा—053)

बेटे की मृत्‍यु के शोक में डूबा श्रावक—(एस धम्मो सनंतनो)

क श्रावक का बेटा मर गया। वह बहुत दुखी हुआ।

श्रावक कहते हैं सुनने वाले को, बुद्ध को सुनता था। अगर सुना होता तो दुखी होना नहीं था, तो कानों से ही सुना होगा, हृदय से नहीं सुना था। नाममात्र को श्रावक था, वस्तुत: श्रावक होता तो यह बात नहीं होनी थी।

जब बुद्ध को पता चला कि उस श्रावक का बेटा मर गया और वह बहुत दुखी है तो बुद्ध ने कहा अरे तो फिर उसने सुना नहीं। फिर कैसा श्रावक! श्रावक का फिर अर्थ क्या हुआ। वर्षों सुना और जरा भी गुना नहीं। तो आज बेटे ने मरकर सब कलई खोल दी सब उघाड़ा कर दिया। Continue reading “बेटे की मृत्‍यु शोक में डूबा श्रावक—(कथा यात्रा—053)”

माता-पिता मोहवश संन्‍यस्‍त-(कथा यात्रा-052)

युवक के माता—पिता का मोहवश संन्‍यस्‍त होना—(एस धम्मो सनंतनो)

क युवक बुद्ध से दीक्षा लेकर संन्यस्त होना चाहता था युवक था अभी बहुत कच्ची उम्र का था? जीवन अभी जाना नहीं था। लेकिन घर से ऊब गया था मां— बाप से ऊब गया था—इकलौता बेटा था मां—बाप की मौजूदगी धीरे— धीरे उबाने वाली हो गयी थी। और मां— बाप का बड़ा मोह था युवक पर ऐसा मोह था कि उसे छोड़ते ही नहीं थे एक ही कमरे में सोते थे तीनों। एक ही साथ खाना खाते थे। एक ही साथ कहीं जाते तो जाते थे।

थक गया होगा घबड़ा गया होगा। संन्यास में उसे कुछ रस नहीं था लेकिन ये मां— बाप से किसी तरह पिंड छूट जाए और कोई उपाय नहीं दिखता था तो वह बुद्ध के संघ में दीक्षित होने की उसने आकांक्षा प्रगट की मां—बाप तो रोने लगे चिल्लाने— चीखने लगे। यह तो बात ही उन्होंने कहा मत उठाना उनका मोह उससे भारी था। Continue reading “माता-पिता मोहवश संन्‍यस्‍त-(कथा यात्रा-052)”

 तिष्‍यस्‍थविर-परिनिवृत की कथा-(कथा यात्रा-051)

 तिष्‍यस्‍थविर और बुद्ध के परिनिवृत होने की कथा—(कथा—यात्रा)

पविवेकं रसं पीत्वा रसं उपसमस्स च।

निद्दरो होति निप्पापो धम्मपीतिरसं पिवं। 

     तस्‍माहि:

धीरन्च पज्‍च्‍ज्‍च बहुस्सुतं व धोरय्हसीलं वतवतमरियं।

न तादिसं सपुरिसं सुमेधं भजेथ नक्सतपथं व चंदिमा ।।

क दिन वैशाली में विहार करते हुए भगवान ने भिक्षुओं से कहा—भिक्षुओं सावधान। मैं आज से चार माह बाद परिनिवृत्त हो जाऊंगा। मेरी घड़ी करीब आ रही है मेरे विदा का क्षण निकट आ रहा है। इसलिए जो करने योग्य हो करो। देर मत करो।

ऐसी बात सुन भिक्षुओं में बड़ा भय उत्पन्न हो गया स्वाभाविक। भिक्षु— संघ महाविषाद में डूब गया। स्वाभाविक। जैसे अचानक अमावस हो गयी। भिक्षु रोने लगे छाती पीटने लगे। झुंड के झुंड भिक्षुओं के इकट्टे होने लगे और सोचने लगे और रोने लगे और कहने लगे अब क्या होगा? अब क्या करेंगे। Continue reading ” तिष्‍यस्‍थविर-परिनिवृत की कथा-(कथा यात्रा-051)”

 भोजन भट्ट सम्राट प्रसेनजित-(कथा यात्रा-050)

 भोजन भट्ट सम्राट प्रसेनजित—(एस धम्मो सनंतनो)

 म्राट प्रसेनजित भोजन— भट्ट था। उसकी सारी आत्मा जैसे जिह्वा में थी। खाना-खाना और खाना। और तब स्वभावत: सोना-सोना और सोना। इतना भोजन कर लेता कि सदा बीमार रहता। इतना भोजन कर लेता कि सदा चिकित्सक उसके पीछे सेवा में लगे रहते। देह भी स्थूल हो गयी। देह की आभा और कांति भी खो गयी। एक मुर्दा लाश की तरह पड़ा रहता। इतना भोजन कर लेता।

बुद्ध गांव में आए तो प्रसेनजित उन्हें सुनने गया।

जाना पड़ा होगा। सारा गाव जा रहा है और गाव का राजा न जाए तो लोग क्या कहेंगे? लोग समझेंगे, यह अधार्मिक है। उन दिनों राजाओं को दिखाना पड़ता था कि वे धार्मिक हैं। नहीं तो उनकी प्रतिष्ठा चूकती थी, नुकसान होता था। अगर लोगों को पता चल जाए कि राजा अधार्मिक है, तो राजा का सम्मान कम हो जाता था। तो गया होगा। जाना पड़ा होगा। Continue reading ” भोजन भट्ट सम्राट प्रसेनजित-(कथा यात्रा-050)”

बुद्ध का विवाह में निमंत्रण-(कथा यात्रा-048)

 श्रावस्‍ती में बुद्ध को कुलकन्‍या के विवाह में निमंत्रण—(एस धम्मो सनंतनो)

श्रावस्‍ती में एक कुलकन्‍या का विवाह। मां—बाप ने भिक्षु संध के साथ भगवान को भी निमंत्रित किया। भगवान भिक्षु—संध के साथ आकर आसन पर विराजे है। कुलकन्या भगवान के चरणों में झुकी और फिर अन्य भिक्षुओं के चरणों में। उसका होने वाला पति उसे देखकर नाना प्रकार के काम— संबंधी विचार करता हुआ रागाग्नि से जल रहा था। उसका मन काम की गहन बदलियों और धुओं से ढंका था। उसने भगवान को देखा ही नहीं। न देखा उस विशाल भिक्षुओं के संघ को। उसका मन तो वहां था ही नहीं। वह तो भविष्य में था। उसके भीतर तो सुहागरात चल रही थी। वह तो एक अंधे की भांति था। Continue reading “बुद्ध का विवाह में निमंत्रण-(कथा यात्रा-048)”

पाँच सौ भिक्षुओं से एक जेतवन रूक जाना (उत्‍तारर्द्ध)—(कथायात्रा—047)

पाँच सौ भिक्षुओं में से एक आलस्‍यवश जेतवन में रूक जाना (उत्तारर्द्ध)—(एस धम्मो सनंतनो)

भगवान से नवदृष्टि ले उत्साह से भरे वे भिक्षु पुन: अरण्य में गये। उनमें से सिर्फ एक जेतवन में ही रह गया

चार सौ निन्यानबे गये इस बार, पहले पांच सौ गये थे। एक रुक गया।

वह आलसी था और आस्थाहीन भी। उसे भरोसा नहीं था कि ध्यान जैसी कोई स्थिति भी होती है!

वह तो सोचता था, यह बुद्ध भी न—मालूम कहां की बातें करते हैं! कैसा ध्यान! आलस्य की भी अपनी व्यवस्था है तर्क की। आलस्य भी अपनी रक्षा करता है। आलसी यह न कहेगा कि होगा, ध्यान होता होगा, मैं आलसी हूं। आलसी कहेगा, ध्यान होता ही नहीं। मैं तो तैयार हूं करने को, लेकिन यह ध्यान इत्यादि सब बातचीत है, यह कुछ होता नहीं। आलसी यह न कहेगा कि मैं आलसी हूं इसलिए परमात्मा को नहीं खोज पाता हूं, आलसी कहेगा, परमात्मा है कहां! होता तो हम कभी का खोज लेते, है ही नहीं तो खोजें क्या? और चांदर तानकर सो रहता है। आलस्य अपनी रक्षा में बड़ा कुशल है। बड़े तर्क खोजता है। बजाय इसके कि हम यह कहें कि मेरी सामर्थ्य नहीं सत्य को जानने की, हम कहते हैं, सत्य है ही नहीं। बजाय इसके कि हम कहें कि मैं जीवन में अमृत को नहीं जान पाया, हम कहते हैं, अमृत होता ही नहीं। Continue reading “पाँच सौ भिक्षुओं से एक जेतवन रूक जाना (उत्‍तारर्द्ध)—(कथायात्रा—047)”

पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्‍यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)-(कथा यात्रा-046)

पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्‍यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)—(एस धम्मो सनंंतनो)

गवान जेतवन में विहरते थे। उनकी देशना में निरंतर ही ध्यान के लिए आमंत्रण था सुबह दोपहर सांझ बस एक ही बात वे समझाते थे— ध्यान ध्यान ध्यान सागर जैसे कहीं से भी चखो खारा है वैसे ही बुद्धों का भी एक ही स्वाद है— ध्यान। ध्यान का अर्थ है— निर्विचार चैतन्य। पांच सौ भिक्षु भगवान का आवाहन सुन ध्यान को तत्पर हुए। भगवान ने उन्हें अरण्यवास में भेजा। एकांत ध्यान की भूमिका है। अव्यस्तता ध्यान का द्वार है। प्रकृति— सान्निध्य अपूर्वरूप से ध्यान में सहयोगी है।

उन पांच सौ भिक्षुओं ने बहुत सिर मारा पर कुछ परिणाम न हुआ। वे पुन: भगवान के पास आए ताकि ध्यान— सूत्र फिर से समझ लें। भगवान ने उनसे कहा— बीज को सम्यक भूमि चाहिए अनुकूल ऋतु चाहिए सूर्य की रोशनी चाहिए ताजी हवाएं चाहिए जलवृष्टि चाहिए तभी बीज अंकुरित होता है। और ऐसा ही है ध्यान। सम्यक संदर्भ के बिना ध्यान का जन्म नहीं होता। Continue reading “पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्‍यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)-(कथा यात्रा-046)”

भिक्षुगण भ्रांत धारणाओं के शिकार-(कथा यात्रा-045)

 भिक्षुगण भ्रांत धारणाओं के शिकार—(एस धम्मो सनंतनो) 

भगवान के जेतवन में रहते समय बहुत शीलसंपन्न भिक्षुओं के मन में ऐसे विचार हुए— हम लोग शीलसंपन हैं ध्यानी हैं जब चाहेगे तब निर्वाण प्राप्त कर लेने। ऐसी भ्रांत धारणाएं साधना— पथ पर अनिवार्य रूप से आती हैं।

जरा सा कुछ हुआ कि आदमी सोचता है, बस.. .किसी ने जरा सा ध्यान साध लिया, किसी ने जरा सच बोल लिया, किसी ने जरा दान कर दिया, किसी ने जरा वासना छोड़ दी कि वह सोचता है बस, मिल गयी कुंजी, अब क्या देर है, जब चाहेंगे तब निर्वाण उपलब्ध कर लेंगे। आदमी बड़ी जल्दी पड़ाव को मंजिल मान लेता है। जहां रातभर रुकना है और सुबह चल पड़ना है, सोचता है—आ गयी मंजिल।

ऐसी प्रांत धारणाएं साधना— पथ पर अनिवार्य रूप से आती हैं। Continue reading “भिक्षुगण भ्रांत धारणाओं के शिकार-(कथा यात्रा-045)”

भिक्षुओं का गृहस्‍थों का निमंत्रित—(कथा यात्रा—044)

 भिक्षुओं का गृहस्‍थों के घर निमंत्रित होना—(एस धम्मो सनंतनो) 

भिक्षु गृहस्थों के घर निमंत्रित होने पर भोजनोपरांत दानानुमोदन करते थे। किंतु तीर्थक सुखं होतु आदि कहकर ही चले जाते थे। लोग स्वभावत: भिक्षुओं की प्रशंसा करते और तीर्थको की निंदा करते थे। यह जानकर तीर्थको ने हम लोग मुनि हैं मौन रहते हैं श्रमण गौतम के शिष्य भोजन के समय महाकथा कहते हैं बकवासी हैं ऐसा कहकर प्रतिक्रिया में निंदा शुरू कर दी।

बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को सदा कहा है कि जितना लो, उससे ज्यादा लौटा देना। कहीं ऋण इकट्ठा मत करना। इसलिए बुद्ध का भिक्षु जब भोजन भी लेता कहीं तो भोजन के बाद, धन्यवाद कै रूप में, जो उसको मिला है उसकी थोड़ी बात करता था। जो आनंद उसने पाया, जो ध्यान उसे मिला है, जो शील की संपदा उसे मिली है, जो नयी—नयी किरणें और नयी—नयी उमंगों के तूफान उसके भीतर उठ रहे हैं, जो नया उत्सव उसके भीतर जगा है; जो नए गीत, नए नृत्य उसके भीतर आ रहे हैं, भोजन लेता तो धन्यवाद में वह अपने भीतर की कुछ खबर देता। भोजन लिया है, ऋणी नहीं होना है। स्वभावत:, जो तुम्हारे पास है वह दे देना। दो रोटी के बदले बुद्ध का भिक्षु बहुत कुछ लौटाता था। वह अपना सारा प्राण उंडेल देता था। Continue reading “भिक्षुओं का गृहस्‍थों का निमंत्रित—(कथा यात्रा—044)”

ब्राह्मण दार्शनिक-बुद्ध से विवाद-(कथा यात्रा-043)

 एक ब्राह्मण दार्शनिक का बुद्ध से विवाद-(एस धम्मो सनंतनो)

क ब्राह्मण दार्शनिक भगवान के पास आया और बोला हे गौतम! आप अपने शिष्यों को भिक्षाटन करने से भिक्षु कहते हैं। मैं भी भिक्षाटन करता हूं अत: मुझे भी भिक्षु कहिए। वह विवाद करने को उत्सुक था और किसी भी बहाने उलझने को तैयार था। शब्दों पर उसकी पकड़ थी सो उसने भिक्षु शब्द से ही विवाद को उठाने की सोची। उसे तो बस कोई भी निमित्त चाहिए था।

भगवान ने उससे कहा ब्राह्मण भिक्षाटन मात्र से कोई भिक्षु नहीं होता; लै भिखारी चाहो तो मान ले सकते हो। पर भिखारी और भिक्षु पर्यायवाची नहीं हैं। मैं भिक्षु उसे कहता हूं जिसने सब संस्कार छोड़ दिए। जिसके पास भीतर कोई संस्कार न बचे उसे भिक्षु कहता हूं। Continue reading “ब्राह्मण दार्शनिक-बुद्ध से विवाद-(कथा यात्रा-043)”

हत्थक मौन में दरिद्र-(कथा यात्रा-042)

शब्दो के धनी, मौन में दरिद्र भिक्षु ’हत्‍थक’—(कथा—यात्रा)

एक भिक्षु थे— हत्थक। वे स्वयं को सत्य का अथक खोजी मानते थे।

स्वभावत:, जो अपने को सत्य का अथक खोजी माने, वह शास्त्रों में उलझ जाता है। जैसे कि शास्त्रों में सत्य हो। निकले सत्य की खोज को, खो जाते हैं शास्त्रों के अरण्य में। चाहते तो थे गहरे में जान लें कि जीवन क्या है, चाहते तो थे कि जान लें यह विराट अस्तित्व क्या है, लेकिन आंखें अटक जाती हैं शास्त्रों में। तो हत्‍थक बड़े शास्त्री बन गए। सत्य की खोज मन ने झुठला दी। मन ने कहा, सत्य चाहिए, शास्त्र में झांको। सत्य चाहिए, तो सारे सिद्धातों में झांको। Continue reading “हत्थक मौन में दरिद्र-(कथा यात्रा-042)”

नाटे लंकुटक स्‍थविर बुद्ध दर्शन-(कथा यात्रा-041)

नाटे लंकुटक स्‍थविर बुद्ध के दर्शन को आये—(कथा—यात्रा)

कुंटक भद्दीय स्थविर नाटे थे—अति नाटे एक दिन अरण्य से तीस भिक्षु भगवान का दर्शन करने के लिए जेतवन आए। जिस समय वे शास्ता की वंदना करने जा रहे थे उसी समय लकुंटक भद्दीय स्थविर भगवान को वंदना करके लौटे थे। उन भिक्षुओं के आने पर भगवान ने पूछा क्या तुम लोगों ने जाते हुए एक स्थविर को देखा है? भंते हम लोगों ने स्थविर को तो नहीं देखा केवल एक श्रामणेर जा रहा था भगवान ने कहा भिक्षुओ वह श्रामणेर नहीं स्थविर है। भिक्षु बोले भंते अत्यंत छोटा है इतना छोटा, कैसे कोई स्थविर होगा। भगवान ने कहा भिक्षुको वृद्ध होने और स्थविर के आसन पर बैठने मात्र से कोई स्थविर नहीं होता। किंतु जो आर्य— सत्यों का ज्ञान प्राप्त कर महा जनसमूह के लिए अहिंसक हो गया है वही स्थविर है। स्थविर का संबंध उम्र या देह से नहीं बोध से है। बोध न तो समय में और न स्थान में ही सीमित है। बोध समस्त सीमाओं का अतिक्रमण है। बोध तादाक्य से मुक्ति है

और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं— Continue reading “नाटे लंकुटक स्‍थविर बुद्ध दर्शन-(कथा यात्रा-041)”

देवता और एकुदान का उपदेश-(कथा यात्रा-040)

देवता और एकुदान का उपदेश—(एस धम्मो सनंतनो)

कुदान नामक एक छीनास्रव— आस्रव क्षीण हो गए हैं जिनके— ऐसे अर्हत थे भिक्षु थे। वे जंगल में अकेले रहते थे। उन्हें एक ही उपदेश आता था— बस एक ही उपदेश जैसा मुझे आता है— बस रोज उसी को कहते रहते थे। वे उसे ही रोज देते उपदेश को। स्वभावत: उनका कोई शिष्य नहीं था

हो भी कैसे! कोई आता भी तो भाग जाता, वही उपदेश रोज। शब्दशः वही। उसमें कभी भेद ही नहीं पड़ता था। उन्हें कुछ और इसके अलावा आता ही नहीं था। लेकिन वे देते रोज थे।

कोई आदमी तो उनके पास टिकता नहीं था लेकिन जंगल के देवता उनका उपदेश सुनते थे। और जब वे उपदेश पूरा करते तो जंगल के देवता साधुकार देकर स्वागत करते थे— साधु! साधु! सारा जंगल गुंजायमान हो जाता था— साधु। साधु! धन्यवाद! धन्यवाद! Continue reading “देवता और एकुदान का उपदेश-(कथा यात्रा-040)”

विनिश्‍चयशाला और भिक्षुओं-(कथा यात्रा-039)

विनिश्‍चयशाला और भिक्षुओं का संदेश-(एस धम्मो सनंंतनो)

श्रावस्ती नगर उन दिनों की प्रसिद्ध राजधानी। कुछ भिक्षु भिक्षाटन करके भगवान के पास वापस लौट रहे थे कि अचानक बादल उठा और वर्षा होने लगी। भिक्षु सामने वाली विनिश्चयशाला (अदालत) में पानी से बचने के लिए गए उन्होंने वहां जो दृश्य देखा वह उनकी समझ में ही न आया। कोई न्यायाधीश पक्षपाती था कोई न्यायाधीश बहरा था— सुनता नहीं थ( ऐसा नहीं कान तो ठीक थे मगर उसने पहले ही से कुछ मान रखा थ( इसलिए सुनता नहीं था इसलिए बहरा था और कोई आंखों के रहते ही अंधा था। किसी ने रिश्वत ले ली थी कोई वादी— प्रतिवादी को सुनते समय झपकी खा रहा था, कोई धन के दबाव में था, कोई पद के कोई जाति— वंश के कोई धर्म के। और उन्होंने वहां देखा कि सत्य झूठ बनाया जा रहा है और झूठ सच बनाया जा रहा है। न्याय से किसी को भी कोई प्रयोजन नहीं  और जहां न्याय तक न हो वहां करुणा तो हो ही कैसे सकती थी। उन भिक्षुओं ने लौटकर यह बात भगवान को कही। भगवान ने कहा ऐसा ही है भिक्षुओ। जैसा नहीं होना चाहिए वैसा ही हो रहा है इसका नाम ही तो संसार है। Continue reading “विनिश्‍चयशाला और भिक्षुओं-(कथा यात्रा-039)”

महाबलवान हाथी और कीचड़-(कथा यात्रा-038)

(महाबलवान हाथी का कीचड़ में फसना—(एस धम्मो सनंतनो)

कौशल— नरेश के पास बद्धरेक नाम का एक महाबलवान हाथी था। उसके बल और पराक्रम की कहानियां दूर— दूर तक फैली थीं। लोग कहते थे कि युद्ध में उस जैसा कुशल हाथी कभी देखा ही नहीं गया था। बड़े— बड़े सम्राट उस हाथी को खरीदना चाहते थे पाना चाहते थे। बड़ों की नजरें लगी थीं उस हाथी पर। वह अपूर्व योद्धा था हाथी। युद्ध से कभी किसी ने उसको भागते नहीं देखा। कितना ही भयानक संघर्ष हो कितने ही तीर उस पर बरस रहे हो और भाले फेके जा रहे हो वह अडिग चट्टान की तरह खड़ा रहता था। उसकी चिंघाड़ भी ऐसी थी कि दुश्मनों के दिल बैठ जाते थे। उसने अपने मालिक कौशल के राजा की बड़ी सेवा की थी। अनेक युद्धों में जिताया था।

लेकिन फिर वह वृद्ध हुआ और एक दिन तालाब की कीचड़ में फंस गया। बुढ़ापे ने उसे इतना दुर्बल कर दिया था कि वह कीचड़ से अपने को निकाल न पाए।

उसने बहुत प्रयास किए लेकिन कीचड़ से अपने को न निकाल सका सो न निकाल सका। राजा के सेवकों ने भी बहुत चेष्टा की पर सब असफल गया। Continue reading “महाबलवान हाथी और कीचड़-(कथा यात्रा-038)”

विरोधिओं का कीचड़ उछालना-(कथा यात्रा-037)

 विरोधी धर्म गुरूओं का बुद्ध पर कीचड़ उछालना—(एस धम्मो सनंतनो)

गवान् केर कौशांबी में विहरते समय की घटना है। बुद्ध—विरोधी धर्म गुरुओं ने गुंडों—बदमाशों को रुपए—पैसे खिला—पिलाकर भगवान का तथा भिक्षुसंघ का आक्रोशन? अपमान करके भगा देने के लिए तैयार कर लिया था। वे भिक्षुओं को देखकर भद्दी गालिया देते थे। नहीं लिखी जा सकें ऐसी शास्त्र कहते हैं। जो लिखी जा सके वे ये थी—भिक्षुनिकलते तो उनसे कहते तुम मूर्ख हो पागल हो झक्की हो, चोर—उचक्के हो बैल—गधे हो पशु हो पाशविक हो नारकीय हो पतित हो विकृत हो इस तरह के शब्द भिक्षुओं से कहते।

ये तो जो लिखी जा सकें। न लिखी जा सकें तुम समझ लेना।

वे भिक्षणिओं को भी अपमानजनक शब्द बोलते थे। वे भगवान पर तरह— तरह की कीचड़ उछालते थे। उन्होंने बड़ी अनूठी— अनूठी कहानियां गढ़ रखी थीं और उन कहानियों में उस कीचड़ में बहुत से धर्मगुरुओं का हाथ था।

जब बहुत लोग बात कहते हों तो साधारणजन मान लेते हैं कि ठीक ही कहते होंगे। आखिर इतने लोगों को कहने की जरूरत भी क्या है? ठीक ही कहते होंगे। Continue reading “विरोधिओं का कीचड़ उछालना-(कथा यात्रा-037)”

बच्‍चेें और बुद्ध आकर्षण-(कथा यात्रा-36)

बच्‍चों ने बुद्ध में चुम्‍बकीय आकर्षण देखा—(एस धम्मो सनंतनो) 

गौतम बुद्ध का नाम ही संकीर्ण सांप्रदायिक चित्त के लोगों को भयाक्रांत कर देता था। उस नाम में ही विद्रोह था। वह नाम आमूल क्रांति का ही पर्यायवाची था ऐसे भयभीत लोग स्वयं तो बुद्ध से दूर—दूर रहते ही थे अपने बच्चों को भी दूर—दूर रखते थे। बच्चों के लिए युवकों— युवतियों के लिए उनका भय स्वभावत: और भी ज्यादा था। ऐसे लोगों ने अपने बच्चों को कह रखा था कि वे कभी बुद्ध की हवा में भी न जाएं। उन्हें उन्होंने शपथें दिला रखी थीं कि वे कभी भी बुद्ध या बुद्ध के भिक्षुओं को प्रणाम न करेगे।

एक दिन कुछ बच्चे जेतवन के बाहर खेल रहे थे। खेलते—खेलते उन्हें प्यास लगी। वे भूल गए अपने माता—पिताओं और धर्मगुरुओं को दिए वचन और जेतवन में पानी की तलाश में प्रवेश कर गए। संयोग की बात कि भगवान से ही उनका मिलना हो गया। Continue reading “बच्‍चेें और बुद्ध आकर्षण-(कथा यात्रा-36)”

लव कुंठक-भगवान से विदा-(कथा यात्रा-035)

लव कुंठक भद्दीय बुद्धभगवान से विदा ली—(एस धम्मो सनंतनो)

यह बहुत अनूठा सूत्र है।

बुद्ध के अनूठे से अनूठे सूत्रों में एक। इसे खूब खयाल से समझ लेना।

प्रभातवेला आकाश में उठता सूर्य आम्रवन में पक्षियों का कलरव भगवान जेतवन में विहरते थे। उनके पास ही बहुत से आगंतुक भिक्षु भगवान की वंदना कर एक ओर बैठे थे। उसी समय लव कुंठक भद्दीय स्थविर भगवान से विदा ले कुछ समय के लिए भगवान से दूर जा रहे थे। उन्हें जाते देख भगवान ने उनकी ओर संकेत कर कहा— भिक्षुओ देखते हो इस भाग्यशाली भिक्षु को? वह माता— पिता को मारकर दुखरहित होकर जा रहा है। Continue reading “लव कुंठक-भगवान से विदा-(कथा यात्रा-035)”

वैशाली में मृत्‍यु तांडव-(कथा यात्रा-034)

वैशाली में मृत्‍यु का तांडव नृत्‍य—(एस धम्मो सनंतनो)

क समय वैशाली में दुर्भिक्ष हुआ था और महामारी फैली थी। लोग कुत्तों की मौत पर रहे थे। मृत्यु का तांडव नृत्य हो रहा था। मृत्यु का ऐसा विकराल रूप तो लोगों ने कभी नहीं देखा था न सुना था। सब उपाय किए गए थे लेकिन सब उपाय हार गए थे। फिर कोई और मार्ग न देखकर लिच्छवी राजा राजगृह जाकर भगवान को वैशाली लाए। भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नंगा नृत्य धीरे— धीरे शांत हो गया था— मृत्यु पर तो अमृत की ही विजय हो सकती है। फिर जल भी बरसा था सूखे वृक्ष पुन: हरे हुए थे; फूल वर्षों से न लगे थे फिर से लगे थे फिर फल आने शुरू हुए थे। लोग अति प्रसन्न थे।

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बुद्ध परिनिर्वाण और धम्‍माराम-(कथा यात्रा-033)

 बुद्ध के परिनिर्वाण घोषणा और धम्‍माराम—(एस धम्मो सनंतनो)

गवान के यह कहने पर कि चार माह के पश्चात मेरा परिनिर्वाण होगा भिक्षु अपने को रोक नहीं सके— जार— जार रोने लगे भिक्षुओं के आंसू बहने लगे। भिक्षुओं की तो क्या कही जाए बात अर्हतों के भी धर्मसंवेग का उदय हुआ। उनकी आंखें तो आंसुओ से नहीं भरी लेकिन हृदय उनका भी डांवाडोल हो गया

उस समय धम्माराम नाम के एक स्थविर ने यह सोचकर कि मैं अभी रागरहित नहीं हुआ और शास्ता का परिनिर्वाण होने जा रहा है इसलिए शास्ता के रहते ही मुझे अर्हत्व प्राप्त कर लेना चाहिए— ऐसा सोच एकांत में जाकर समग्र संकल्प से साधना में लग गया

धम्माराम उस दिन से एकांत में रहते मौन रखते ध्यान करते। भिक्षुओं के कुछ पूछने पर भी उत्तर नहीं देते थे स्वभावत; भिक्षुओं को इससे चोट लगी। धम्माराम अपने को समझता क्या है? पूछने पर उत्तर नहीं देता। उपेक्षा करता है। इस तरह चलता है जैसे अकेला है कोई यहां है ही नहीं। Continue reading “बुद्ध परिनिर्वाण और धम्‍माराम-(कथा यात्रा-033)”

स्‍थविर अंकूर का दान-(कथा यात्रा-032)

 स्‍थविर अंकूर का दान—(एस धम्मो सनंतनो)

 गवान के तातविंस भवन में पांडुकमल शिलासन पर बैठे समय देवताओं में यह चर्चा चली— कि इंदक के अपने लिए लाए भोजन में से कलछीभर अनुरुद्ध स्थविर को दिया दान का फल अंकुर के दस हजार वर्ष तक बारह योजन तक चूल्हों की कतार बनवाकर दिए हुए दान से भी महाफल का हुआ। यह कैसा गणित है? इसके पीछे तर्क— सरणी क्या है?

इसे सुनकर शास्ता ने अंकुर से कहा : अंकुर! दान चुनकर देना चाहिए। ऐसा करने से वह अच्छे खेत में भली प्रकार बोए हुए बीज के सदृश्य महाफल होता है। किंतु तूने वैसा नहीं किया इसलिए तेरा दान महाफल नहीं हुआ। दान ही सब कुछ नहीं है; जिसे दिया वह भी अति महत्वपूर्ण है। और जिस भावदशा से दिया वह भी अति महत्वपूर्ण है। और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं.

 तिणदोसानि खेत्‍तानि रागदोसा अयं पजा।

तस्‍मा हि वितरागेसु दिन्‍नं होति महप्फलं ।।

तिणदोसानि खेत्‍तानि दोसदोसा अयं पजा। Continue reading “स्‍थविर अंकूर का दान-(कथा यात्रा-032)”

कौशल नरेश-धन में उलझना—(कथा यात्रा-031)

कौशल नरेश का धन में उलझना—(एस धम्मो सनंतनो)

श्रावस्ती के एक अपुत्रक श्रेष्ठी के मर जाने के बाद कोशल नरेश ने सात दिन तक उसके धन को गाड़ियों में खुलवाकर राजमहल में मंगवाया। इन सात दिनों तक धन ढुलवाने में वह इस तरह उलझा कि भगवान के पास एक दिन भी न जा सका। वैसे साधारणत: वह नियम से प्रतिदिन प्रातःकाल भगवान के दर्शन और सत्संग के लिए आता था।

जिस दिन धन खुलवाने का कार्य पूरा हुआ उस दिन उसे भगवान की याद आयी सो वह भरी दुपहरी में ही भगवान के पास जा पहुंचा। Continue reading “कौशल नरेश-धन में उलझना—(कथा यात्रा-031)”

इंद्र देवता जेतवन आये-(कथा यात्रा-030)

 इंद्र सहित सभी देवता जेतवन आये—(एस धम्मो सनंतनो)

क बार देवताओं में यह प्रश्न उठा कि दानों में कोन दान श्रेष्ठ है? रसो में कोन रस श्रेष्ठ है? रतियों में कोन रति श्रेष्ठ है? और तृष्णा— क्षय को क्यों सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है?

कोई भी इन प्रश्नों का उत्तर न दे सका। देवताओं ने सबसे पूछने के बाद इंद्र से पूछा। वह भी इसका उत्तर न दे सका। तब इंद्र सहित सभी देवताओं ने जेतवन में जाकर भगवान के पास आ इन प्रश्नों को पूछा।

भगवान ने कहा धर्म के अनुभव में सब प्रश्नों के उत्तर हैं। फिर प्रश्न बहुत नहीं हैं एक ही है। सोचने मात्र से समाधान नहीं होगा। जागो। जागने में समाधान है। धर्म के अनुभव में समाधान है। सब व्याधियों के लिए एक ही औषधि है— धर्म। तब उन्होंने यह सूत्र कहा।

सबदानं धम्मदानं जिनाति सब्बं रसं धम्मरसो जिनाति।

सब्बं रति धम्मरती जिनाति तण्हक्सयो सबदुखं जिनाति ।। Continue reading “इंद्र देवता जेतवन आये-(कथा यात्रा-030)”

सारनाथ-जीवक का मिलना-(कथा यात्रा-029)

 सारनाथ में आजीवक का मिलना—(एस धम्मो सनंंतनो)

गवान सर्वप्रथम ऋषिपत्तन मृगदाय में— जिसे अब सारनाथ कहते है— पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश देने के लिए उरुवेला से काशी की ओर आ रहे थे। मार्ग में उन्हें एक आजीवक मिला। वह तथागत को देखकर बोला आवुस। तेरी इंद्रियां परिशुद्ध और विमल हैं तुम किसे उद्देश्य कर प्रव्रजित हुए हो? कोन तुम्हारे शास्ता कोन तुम्हारे गुरु? या तुम किसके धर्म को मानते हो? ऐसा पूछा। तब शास्ता ने कहा : मेरे आचार्य या उपाध्याय नहीं हैं। मेरा कोई धर्म नहीं है। मेरे जीवन में कोई उद्देश्य नहीं है। तब उन्होंने यह गाथा कही:

सब्‍बाभिभु सब्‍बविदूहमस्‍मि सब्‍बेसु धम्‍मे अनूलितो।

सब्‍बज्‍जहो तण्‍हक्‍खये विमुत्‍तो सयं अभिज्‍जाय कमुद्दिसेय्यं ।। Continue reading “सारनाथ-जीवक का मिलना-(कथा यात्रा-029)”

 भिक्षु स्‍त्री आग्रह पर चीवर छोड़ना-(कथा यात्रा-28)

 तरूण भिक्षु स्‍त्री आग्रह पर चीवर छोड़ना (एस धम्मो सनंतनो)

गवान जेतवन में विहरते थे। एक तरुण भिक्षु पर एक स्त्री मोहित होकर उसे गृहस्थ बनाने के लिए नाना प्रकार के प्रलोभन। वह भिक्षु अंतत: उसकी बातों में आकर चीवर छोड़कर गृहस्थ हो जाने के तैयार हो गया। भगवान यह सब चुपचाप देखते रहे थे। जब युवक गिरने को ही हो गया तब उन्होंने उसे पास बुलाया और कहा. स्मृति को सम्हाल! होश को जगा? पागल ऐसे ही तो पूर्व में भी तू गिरा है और बार— बार पछताया है। अब फिर वही! भूलों से कुछ सीख! स्मृति को सम्हाल. और तब उन्होंने ये दो गाथाएं कहीं :

वितक्‍कपमथितस्‍स जंतुनो तिब्‍बरागस्‍स सुभानुपास्सिनो।

भिय्यो तण्‍हा पबड्ढति एसो खो दल्‍हं करोति बंधनं ।।

वितक्‍कूपसमें च यो रत्‍तो असुभं भावयति सदा सतो।

एस खो व्‍यन्‍तिकाहिनी एसच्‍छेच्‍छति मारबंधनं ।। Continue reading ” भिक्षु स्‍त्री आग्रह पर चीवर छोड़ना-(कथा यात्रा-28)”

उग्‍गसेन-नटकन्‍या पर मोहित-(कथा यात्रा-27)

उग्‍गसेन का नट कन्‍या पर मोहित होना-(एस धम्मो सनंतनो)

 राजगृह में प्रतिवर्ष एक विशेष समारोह में नटों के खेलों का आयोजन होता था। एक बार जब नटों का खेल हो रहा था तब राजगृह नगर के श्रेष्ठी का उग्गसेन नामक पुत्र एक नट— कन्या के खेल को देखकर उस पर मोहित हो उसी से अपना विवाह कर नटों के साथ हो लिया। वह उनके साथ घूमते हुए थोडे ही वर्षों में नट— विद्या में निपुण हो गया। फिर एक उत्सव में भाग लेने वह भी राजगृह आया। उसका खेल देखने स्वभावत: हजारों लोग इकट्ठे हुए। वह नगर के सब से बड़े सेठ का बेटा था—— नगरसेठ का बेटा था।

उस दिन जब भगवान भिक्षाटन को निकले तो श्रेष्ठीपुत्र उग्गसेन साठ हाथ ऊंचे दो भवनों के बीच में बंधी रस्सी पर चलकर अपना खेल दिखाना शुरू करने ही वाला था। लेकिन भगवान को देखकर सभी दर्शक उग्गसेन की ओर से मुख मोड़कर भगवान को देखने लग गए! उग्गसेन उदास हो बैठ रहा। Continue reading “उग्‍गसेन-नटकन्‍या पर मोहित-(कथा यात्रा-27)”

बुद्ध-सुअरी देख मुस्‍कुराए-(कथा यात्रा-026)

 बुद्ध-सुअरी को देख कर मुस्‍कुराए–(कथा–यात्रा)

गवान वेणुवन में विहार करते थे। एक दिन भिक्षाटन को जाते हुए राह में एक सुअरी को देखकर ठिठक गए और फिर कुछ सोचकर मुस्कुराए और आगे बड़े एक सुअरी को देखकर…। आनंद स्थविर ने— जो उनके साथ सदा छाया की तरह लगा रहता था उनका सेवक था— यह देखा कि बुद्ध ठिठके एक सुअरी को देखकर! कुछ सोचा। फिर मुस्कुराए और आगे बड़े। आनंद अपनी जिज्ञासा को न रोक सका। और उसने भगवान से ठिठकने फिर कुछ सोचने और फिर मुस्कुराने का कारण पूछा

शास्ता ने कहा. आनंद! यह सुअरी ककुसंध बुद्ध के शासन में एक मुर्गी थी। और प्राचीन बुद्ध ककुसंधु उनके शासन में एक मुर्गी थी। भगवान ककुसंध के वचनों को सुनकर और भगवान के विहार— स्थल के पास ही रहने के कारण उनके प्रति प्रीति को उत्पन्न हो गयी थी। Continue reading “बुद्ध-सुअरी देख मुस्‍कुराए-(कथा यात्रा-026)”

 आनंद पर बुद्ध प्रसाद वर्षा-(कथा यात्रा-025)

 आनंद पर बुद्ध के प्रसाद की वर्षा–(एस धम्मो सनंतनो)

गवान के मिगारमातु— प्रसाद में विहार करते समय एक दिन आनंद स्थविर ने भगवान को प्रणाम करके कहा भंते! आज मैं यह जानकर धन्य हुआ हूं कि सब प्रकाशों में आपका प्रकाश ही बस प्रकाश है। और प्रकाश तो नाममात्र को ही प्रकाश कहे जाते हैं। आपके प्रकाश के समक्ष वे सब अंधेरे जैसे मालूम हो रहे हैं। भंते! मैं आज ही आपको और आपकी अलौकिक ज्योतिर्मयता को देख पाया हूं दर्शन कर पाया हूं और अब मैं कह सकता हूं कि मैं अंधा नहीं हूं।

शास्ता ने यह सुन आनंद की आंखों में देर तक झांका। और और—और आलोक उसके ऊपर फेंका।

आनंद डूबने लगा होगा उस प्रसाद में, उस प्रकाश में, उस प्रशांति में। Continue reading ” आनंद पर बुद्ध प्रसाद वर्षा-(कथा यात्रा-025)”

वक्‍कलि बुद्ध काा सौंदर्य-(कथा यात्रा-024)

वक्‍कलि का बुद्ध के सौंदर्य से अटूट मोह–(एस धम्मो सनंतनो)

क्कलि स्थविर श्रावस्ती में ब्राह्मण— कुल में उत्पन्न हुए थे। वे तरुणाई के समय भिक्षाटन करते हुए तथागत के सुंदर रूप को देखकर अति मोहित हो गए। फिर ऐसा सोचकर कि यदि मैं इनके पास भिक्षु हो जाऊंगा तो सदा इन्हें देख पाऊंगा प्रव्रजित हो गए। वे प्रव्रज्या के दिन से ही ध्यान— भावना आदि न कर केवल तथागत के रूप— सौदर्य को ही देखा करते थे। भगवान भी उनके ज्ञान की अपरिपक्वता को देखकर कुछ नहीं कहते थे। फिर एक दिन ठीक घड़ी जान— वक्कलि के शान में थोड़ी प्रौढ़ता देखकर— भगवान ने कहा वक्कलि। इस अपवित्र शरीर को देखने से क्या लाभ? वक्कलि जो धर्म को देखता है वह मुझे देखता है।

फिर भी वक्कलि को सुध न आयी। वे शास्ता का साथ छोड़कर कहीं भी न जाते थे। शास्ता के कहने पर भी नहीं। उनका मोह छूटता ही नहीं था।

तब शास्ता ने सोचा यह भिक्षु चोट खाए बिना नहीं सम्हलेगा। यह संवेग को प्राप्त हो तो ही शायद समझे। सो एक दिन किसी महोत्सव के समय हजारों भिक्षुओं के समक्ष उन्होंने बड़ी कठोर चोट की। कहा. हट जा वक्कलि! हट जा वक्कलि। मेरे सामने से हट जा। और ऐसा कहकर वक्कलि को सामने से हटा दिया। Continue reading “वक्‍कलि बुद्ध काा सौंदर्य-(कथा यात्रा-024)”

नंगलकुल का वैराग्‍य-(कथा यात्रा-023)

नंगलकुल उदासी में वैराग्‍य पैदा हुआ–(एस धम्मो सनंतनो)

श्रावस्ती का एक निर्धन पुरुष हल चलाकर किसी भांति जीवन— यापन करता था। वह अत्यंत दुखी था जैसे कि सभी प्राणी दुखी हैं।

फिर उस पर बुद्ध की ज्योति पड़ी। वह संन्यस्त हुआ। किंतु संन्यस्त होते समय उसने अपने हल— नंगल को विहार के पास ही एक वृक्ष पर टांग दिया। अतीत से संबंध तोड़ना आसान भी तो नहीं है चाहे अतीत में कुछ हो या न हो। न हो तो छोड़ना शायद और भी कठिन होता है।

संन्यस्त हो कुछ दिन तो वह बड़ा प्रसन रहा और फिर उदास हो गया। मन का ऐसा ही स्वभाव है— द्वंद्व। एक अति से दूसरी अति। इस उदासी में वैराग्य से वैराग्य पैदा हुआ। वह सोचने लगा इससे तो गृहस्थ ही बेहतर थे। यह कहां की झंझट मोल ले ली! यह संन्यस्त होने में क्या सार है?

इस विराग से वैराग्य की दशा में वह उस हल को लेकर पुन: गृहस्थ हो जाने के लिए वृक्ष के नीचे गया। किंतु वहां पहुंचते— पहुंचते ही उसे अपनी मूढ़ता दिखी। उसने खड़े होकर ध्यानपूर्वक अपनी स्थिति को निहारा— कि मैं यह क्या कर रहा हूं।

उसे अपनी भूल समझ आयी। पुन: विहार वापस लौट आया फिर यह उसकी साधना ही हो गयी। जब— जब उसे उदासी उत्पन्न होती वह वृक्ष के पास जाता; अपने हल को देखता और फिर वापस लौट आता। Continue reading “नंगलकुल का वैराग्‍य-(कथा यात्रा-023)”

पांच सौ भिक्षुओं का संकल्प-(कथा यात्रा-022)

(पाँच सौ भिक्षुओं का ध्‍यान की गहराइयों में जाने का संकल्‍प-एस धम्मो सनंतनो)

गवान जेतवन में विहरते थे। उस समय पांच सौ भिक्षुओं ने भगवान का आशीष ले ध्यान की गहराइयों में उतरने का संकल्प किया। समाधि से कम उनका लक्ष्य नहीं था। गंधकुटी के बाहर ही सुबह के उगते सूरज के साथ वे ध्यान करने बैठे। गंधकुटी के चारों ओर जुही के फूल खिले थे

शास्ता ने उन भिक्षुओं को कहा. भिक्षुओ! जुही के खिले इन फूलों को देखते हो? सुबह खिले हैं और सांझ मुर्झा जाएंगे ऐसा ही क्षणभंगुर जीवन है। अभी है अभी नहीं है। इन फूलों को ध्यान में रखना भिक्षुओ! यह स्मृति ही क्षणभंगुर के पार ले जाने वाली नौका है

भिक्षुओं ने फूलों को देखा और संकल्प किया : संध्या तुम्हारे कुम्हलाकर गिरने के पूर्व ही हम ध्यान को उपलब्ध होने हम रागादि से मुक्त होंगे। फूलों! तुम हमारे साक्षी साधु! साधु! Continue reading “पांच सौ भिक्षुओं का संकल्प-(कथा यात्रा-022)”

चोरों का सरदार सन्यासी  हुआ-(कथा-यात्रा-021)

(चोरों का सरदार बुद्ध को सुन सन्यासी  हुआ-एस धम्मो सनंंतनो)

गवान के अग्रणी शिष्यों में से एक महाकात्यायन के शिष्य कुटिकण्ण सोण स्थविर कुररघर से जेतवन जा भगवान का दर्शन कर जब वापस आए तब उनकी मां ने एक दिन उनके उपदेश सुनने के लिए जिज्ञासा की और नगर में भेरी बजवाकर सबके साथ उनके पास उपदेश सुनने गयी। जिस समय वह उपदेश सुन रही थी उसी समय चोरों के एक बड़े गिरोह ने उसके घर में सेधं लगाकर सोना— चांदी हीरे— जवाहरात आदि ढोना शुरू कर दिया। एक दासी ने चोरों को घर में प्रवेश किया देख उपासिका को जाकर कहा।

उपासिका हंसी और बोली जा चोरों की जो इच्छा हो सो ले जावें; तू उपदेश सुनने में विध्‍न न डाल

चोरों का सरदार जो कि दासी के पीछे— पीछे उपासिका की प्रतिक्रिया देखने आया था यह सुनकर ठगा रह गया अवाक रह गया। उसने तो खतरे की अपेक्षा की थी। Continue reading “चोरों का सरदार सन्यासी  हुआ-(कथा-यात्रा-021)”

ब्राह्मणी ने ब्राह्ममण को छुपाया-(कथा यात्रा-020)

ब्राह्मणी ने ब्राह्ममण को छुपाया-(एस धम्‍मों सनंतनो)

गवान श्रावस्ती में विहरते थे। श्रावस्ती में पंचग्र— दायक नामक एक ब्राह्मण था। वह खेत बोने के पश्चात फसल तैयार होने तक पांच बार भिक्षुसंघ को दान देता था एक दिन भगवान उसके निश्चय को देखकर भिक्षाटन करने के लिए जाते समय उसके द्वार पर जाकर खड़े हो गए। उस समय ब्राह्मण घर में बैठकर द्वार की ओर पीठ करके भोजन कर रहा था। ब्राह्मणी ने भगवान को देखा। वह चिंतित हुई कि यदि मेरे पति ने श्रमण गौतम को देखा तो फिर यह निश्चय ही भोजन उन्हें दे देगा और तब मुझे फिर से पकाने की झंझट करनी पड़ेगी ऐसा सोच वह भगवान की ओर पीठ कर उन्हें अपने पति से छिपाती हुई खड़ी हो गयी जिससे कि ब्राह्मण उन्हें न देख सके। Continue reading “ब्राह्मणी ने ब्राह्ममण को छुपाया-(कथा यात्रा-020)”

जुहो! जुहो! जुहो!-(कथा यात्रा-019)

जुहो! जुहो! जुहो!-(एस धम्मो सनंतनो)

मैं एक छोटी सी कहानी कहूंगा।

हिमालय की घाटियों में एक चिड़िया निरंतर रट लगाती है—जुहो! जुहो! जुहो!

अगर तुम हिमालय गए हो तो तुमने इस चिड़िया को सुना होगा। इस दर्द भरी पुकार से हिमालय के सारे यात्री परिचित हैं। घने जंगलों में, पहाड़ी झरनों के पास, गहरी घाटियों में निरंतर सुनायी पड़ता है—जुहो! जुहो! जुहो! और एक रिसता दर्द पीछे छूट जाता है। इस पक्षी के संबंध में एक मार्मिक लोक—कथा है।

किसी जमाने में एक अत्यंत रूपवती पहाडी कन्या थी, जो वर्ड्सवर्थ की लूसी की भांति झरनों के संगीत, वृक्षों की मर्मर और घाटियों की प्रतिध्वनियों पर पली थी। लेकिन उसका पिता गरीब था और लाचारी में उसने अपनी कन्या को मैदानों में ब्याह दिया। वे मैदान, जहां सूरज आग की तरह तपता है। और झरनों और जंगलों का जहां नाम— Continue reading “जुहो! जुहो! जुहो!-(कथा यात्रा-019)”

राहुल पर मार का हमला-(कथा यात्रा-018)

राहुल पर मार का हमला-(एस धम्मो सनंतनो)

राहुल गौतम बुद्ध का बेटा था। राहुल के संबंध में थोड़ा जान लें। फिर इस दृश्‍य को समझना आसान हो जायेगा।

जिस रात बुद्ध ने घर छोड़ा, महा अभिनिष्क्रमण किया, राहुल बहुत छोटा था। एक ही दिन का था। अभी-अभी पैदा हुआ था। बुद्ध घर छोड़ने के पहले गए थे यशोधरा के कमरे में इस नवजात बेटे को देखने। यशोधरा अपनी छाती से लगाए राहुल को सो रही थी। चाहते थे, देख ले राहुल का मुंह, क्‍योंकि फिर मिले देखने ल मिले। लेकिन इस डर से की अगर राहुल के और पास गए, उसका मुंह देखने की कोशिश की, कहीं यशोधरा जग न जाए, जग जाए, तो रोएगी, चीखेगी, चिल्‍लाएगी, जाने न देगी। इसलिए चुपचाप द्वार से ही लोट गए थे। Continue reading “राहुल पर मार का हमला-(कथा यात्रा-018)”

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