ध्यान योग-(अध्याय-06)

ओशो ध्यान योग प्रथम ओर अंतिम मुक्ति–अध्याय-छठवाां

साधना – सूत्र

 

यहां प्रस्तुत हैं ओशो के विभिन्न साधकों को संकेत कर व्यक्तिगत रूप से लिखे गए साधना-संबंधी इक्कीस पत्र।

 

ये पत्र “प्रेम के फूल, ढाई आखर प्रेम का, अंतर्वीणा, पद घुंघरू बांध, तत्वमसि तथा टरनिंग इन, गेटलेस गेट, दि साइलेंट म्यूज़िक, व्हाट इज़ मेडीटेशन” आदि विविध पत्र-संकलनों से चुने गए हैं।

इन पत्रों में साधना सूत्रों की ओर सूक्ष्म इशारे हैं।

 

तीन सूत्रसाक्षी-साधना के

 

साक्षी-भाव की साधना के लिए इन तीन सूत्रों पर ध्यान दो–

  1. संसार के कार्य में लगे हुए श्वास के आवागमन के प्रति जागे हुए रहो। शीघ्र ही साक्षी का जन्म हो जाता है।
  2. भोजन करते समय स्वाद के प्रति होश रखो। शीघ्र ही साक्षी का आविर्भाव होता है।
  3. निद्रा के पूर्व जब कि नींद आ नहीं गयी है और जागरण जा रहा है–सम्हलो और देखो। शीघ्र ही साक्षी पा लिया जाता है।

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ध्यान योग-(अध्याय-05)

ओशो ध्यान योग प्रथम ओर अंतिम मुक्ति–अध्याय-पांचवां

 प्रवचन – अंश

क्या तुम ध्यान करना चाहते हो?

 

क्या तुम ध्यान करना चाहते हो? तो ध्यान रखना कि ध्यान में न तो तुम्हारे सामने कुछ हो, न पीछे कुछ हो। अतीत को मिट जाने दो और भविषय को भी। स्मृति और कल्पना–दोनों को शून्य होने दो। फिर न तो समय होगा और न आकाश ही होगा। उस क्षण जब कुछ भी नहीं होता है–तभी जानना कि तुम ध्यान में हो। Continue reading “ध्यान योग-(अध्याय-05)”

ध्यान योग-(अध्याय-04)

ध्यान योग-(प्रथम और अंतिम मुक्ति)

अध्याय -चौथा -(विभिन्न ध्यान प्रयोग)

 

01-सक्रिय ध्यान

हमारे शरीर और मन में इकट्ठे हो गए दमित आवेगों, तनावों एवं रुग्णताओं का रेचन करने, अर्थात उन्हें बाहर निकाल फेंकने के लिए ओशो ने इस नई ध्यान विधि का सृजन किया है। शरीर और मन के इस रेचन अर्थात शुद्धिकरण से, साधक पुनः अपनी देह-ऊर्जा, प्राण-ऊर्जा, एवं आत्म-ऊर्जा के संपर्क में–उनकी पूर्ण संभावनाओं के संपर्क में आ जाता है–और इस तरह साधक आध्यात्मिक जागरण की ओर सरलता से विकसित हो पाता है।

सक्रिय ध्यान अकेले भी किया जा सकता है और समूह में भी। लेकिन समूह में करना ही अधिक परिणामकारी है। Continue reading “ध्यान योग-(अध्याय-04)”

ध्यान योग-(अध्याय-03)

ओशो ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति)

अध्याय -तीसरा

ध्यान-एक वैज्ञानिक दृष्टि

मेरे प्रिय आत्मन्!

सुना है मैंने, कोई नाव उलट गई थी। एक व्यक्ति उस नाव में बच गया और एक निर्जन द्वीप पर जा लगा। दिन, दो दिन, चार दिन; सप्ताह, दो सप्ताह उसने प्रतीक्षा की कि जिस बड़ी दुनिया का वह निवासी था, वहां से कोई उसे बचाने आ जाएगा। फिर महीने भी बीत गए और वर्ष भी बीतने लगा। फिर किसी को आते न देखकर वह धीरे-धीरे प्रतीक्षा करना भी भूल गया। पांच वर्षों के बाद कोई जहाज वहां से गुजरा, उस एकांत निर्जन द्वीप पर उस आदमी को निकालने के लिए जहाज ने लोगों को उतारा। और जब उन लोगों ने उस खो गए आदमी को वापस चलने को कहा, तो वह विचार में पड़ गया। Continue reading “ध्यान योग-(अध्याय-03)”

ध्यान योग-(अध्याय-02)

ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति)

अध्याय-दूसरा-प्रवचन अंश

ध्यान है भीतर झांकना

बीज को स्वयं की संभावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है। ऐसा ही मनुष्य भी है। उसे भी पता नहीं है कि वह क्या है–क्या हो सकता है। लेकिन, बीज शायद स्वयं के भीतर झांक भी नहीं सकता है। पर मनुष्य तो झांक सकता है। यह झांकना ही ध्यान है। स्वयं के पूर्ण सत्य को अभी और यहीं, हियर एंड नाउ जानना ही ध्यान है। ध्यान में उतरें–गहरे और गहरे। गहराई के दर्पण में संभावनाओं का पूर्ण प्रतिफलन उपलब्ध हो जाता है। और जो हो सकता है, वह होना शुरू हो जाता है। जो संभव है, उसकी प्रतीति ही उसे वास्तविक बनाने लगती है। बीज जैसे ही संभावनाओं के स्वप्नों से आंदोलित होता है, वैसे ही अंकुरित होने लगता है। शक्ति, समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित कर दें। क्योंकि ध्यान ही वह द्वार हीन द्वार है जो कि स्वयं को ही स्वयं से परिचित कराता है। Continue reading “ध्यान योग-(अध्याय-02)”

ध्यान योग-(अध्याय-01) 

ध्यान योग-(प्रथम ओर अंतिम मुक्ति)

अध्याय -पहला – (साधकों लिखे पत्र)

ध्यान में घटने वाली घटनाओं, बाधाओं, अनुभूतियों, उपलब्धियों, सावधानियों, सुझावों तथा निर्देशों संबंधी साधकों को लिखे गए ओशो के इक्कीस पत्र अंततः सब खो जाता है

सुबह सूर्योदय के स्वागत में जैसे पक्षी गीत गाते हैं–ऐसे ही ध्यानोदय के पूर्व भी मन-प्राण में अनेक गीतों का जन्म होता है। वसंत में जैसे फूल खिलते हैं, ऐसे ही ध्यान के आगमन पर अनेक-अनेक सुगंधें आत्मा को घेर लेती हैं। और वर्षा में जैसे सब ओर हरियाली छा जाती है, ऐसे ही ध्यान-वर्षा में भी चेतना नाना रंगों से भर उठती है, यह सब और बहुत-कुछ भी होता है। लेकिन यह अंत नहीं, बस आरंभ ही है। अंततः तो सब खो जाता है। रंग, गंध, आलोक, नाद–सभी विलीन हो जाते हैं। आकाश जैसा अंतर्आकाश (इनर स्पेस) उदित होता है। शून्य, निर्गुण, निराकार। उसकी करो प्रतीक्षा। उसकी करो अभीप्सा। लक्षण शुभ हैं, इसीलिए एक क्षण भी व्यर्थ न खोओ और आगे बढ़ो। मैं तो साथ हूं ही। Continue reading “ध्यान योग-(अध्याय-01) “

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