नये समाज की खोज-(प्रवचन-13)

आध्यात्मिक क्रांतिके दो सूत्र-(प्रवचन तेेेहरवां)

मेरे प्रिय आत्मन्!

“क्या भारत में आध्यात्मिक क्रांति की आवश्यकता है?’ इस संबंध में कुछ कहने के पहले, एक अत्यंत भ्रामक हमारी धारणा रही है, उस धारणा को समझ लेना जरूरी है।

सैकड़ों वर्षों से हम इस बात को मान कर बैठ गए हैं कि हमारा देश आध्यात्मिक है। और इस मान्यता ने हमें आध्यात्मिक होने से रोका है। अगर कोई बीमार आदमी यह समझ ले कि वह स्वस्थ है, तो उसके स्वस्थ होने की सारी संभावना समाप्त हो जाती है। बीमार आदमी को जानना जरूरी है कि वह बीमार है। इस जानने के द्वारा ही वह बीमारी से लड़ भी सकता है, बीमारी को बदल भी सकता है, स्वस्थ भी हो सकता है। लेकिन अभागा है वह बीमार आदमी जिसको यह भ्रम पैदा हो जाए कि मैं स्वस्थ हूं। क्योंकि यह भ्रम ही उसे बीमारी से मुक्त होने की कोई भी चेष्टा नहीं करने देगा। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-13)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-12)

समाज और सत्य-(प्रवचन-बारहवां)

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

जिसको नेतृत्व कहें, वह मुल्क में है ही नहीं। नेतृत्व ही नहीं है, लीडरशिप ही नहीं है। बहुत ही कमजोर किस्म के लोग ऊपर बैठे हुए हैं। न कोई ढंग की दिशा है, न कोई दृष्टि है। नेता होने भर का एक मजा है। बातचीत भी एकदम सामान्य है। नेतृत्व ही नहीं है देश में। यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। बुरा नेता भी हो, नेता तो हो! वह भी नहीं है।

 

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

 

अराजकता को हेल्प करे तब तो बड़ा अच्छा है, लेकिन कर नहीं पाती। क्योंकि इस सारे उपद्रव के भीतर से तानाशाही के सिवाय कुछ भी पैदा नहीं होता। अराजकता इससे नहीं पैदा होती। अराजकता जो दिखती है वह फाल्स है। यह जो सब चल रहा है मुल्क में यह पूर्व-आयोजित है। इससे अनार्की पैदा होती नहीं। अनार्की तो तभी पैदा हो सकती है जब बड़ी सुव्यवस्था हो। उससे ही अनार्की पैदा होती है, नहीं तो नहीं पैदा होती। अभी इस वक्त नहीं पैदा हो सकती है। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-12)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-11)

विश्व-शांति के तीन उपाय-(प्रवचन-ग्याहरवां)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य का इतिहास अशांति का और युद्धों का इतिहास रहा है। मनुष्य के अतीत की पूरी कथा दुख, पीड़ा, हिंसा और हत्या की कथा है।

आज ही यह कोई सवाल खड़ा नहीं हो गया है कि विश्व में शांति कैसे स्थापित हो, यह सवाल हमेशा से रहा है। यह सवाल आधुनिक नहीं है, यह मनुष्य का चिरंतन और सनातन का सवाल है। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध मनुष्य ने किए हैं। मनुष्य लड़ता ही रहा है। अब तक कोई शांति का समय नहीं जाना जा सका है! जो थोड़े-बहुत दिन के लिए शांति होती है वह भी शांति झूठी होती है। उस शांति में भी युद्ध की तैयारी चलती है। युद्ध के समय में हम लड़ते हैं और शांति के समय में हम आगे आने वाले युद्ध की तैयारी करते हैं। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-11)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-10)

नये समाज की खोज-(दसवां प्रवचन)

जिंदगी निरंतर चुनाव है

मेरे प्रिय आत्मन्!

तीन दिन की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। शायद सभी प्रश्नों के उत्तर देना संभव न हो पाए। फिर भी मैं ज्यादा से ज्यादा प्रश्नों को लेने की कोशिश करूंगा। इसलिए थोड़े संक्षिप्त में ही थोड़ी-थोड़ी बात की जा सकेगी।

एक मित्र ने पूछा है कि क्या आप बूढ़ी गायों को मारने के पक्ष में हैं? उनकी हिंसा के पक्ष में हैं?

मैं किसी की भी हिंसा के पक्ष में नहीं हूं। लेकिन यदि मनुष्य मरने को हो जाए, तो मजबूरी की हालत में मनुष्य को अपने जीने के लिए बहुत सी हिंसाओं को स्वीकार करना पड़ेगा। हिंसा तो बुरी है, लेकिन अहिंसा पूरी तरह हो सके, इसके लिए पृथ्वी पर हम अभी तक इंतजाम नहीं कर पाए हैं। यदि आदमी की जिंदगी मुश्किल में पड़ जाए तो हमें बूढ़ी गायों को विदा करना ही पड़ेगा! Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-10)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-09)

नये समाज की खोज-(नौवां प्रवचन)

अध्यात्म की आधारशिला है भौतिकवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है कि आपने पहले दिन की चर्चा में कहा कि समाजवाद मनुष्य को पशु बना देता है। तो उन मित्र का कहना है कि आदमी तो आज पशु से भी बदतर हो गया है, इसलिए अगर आदमी पशु भी बन जाए तो हर्ज क्या है?

इस संबंध में दो-तीन बातें समझनी उपयोगी हैं। पहली बात तो यह है कि आदमी पशु से भी बदतर बन जाए, तब भी आदमी है। और पशु से बदतर बनने की क्षमता भी आदमी की क्षमता है, पशु की क्षमता नहीं है। और आदमी क्योंकि पशु से बदतर बन सकता है, इसलिए देवताओं से श्रेष्ठ भी बन सकता है। ये दोनों उसकी क्षमताएं हैं। पशु के पास दोनों क्षमताएं नहीं हैं। जो सीढ़ी ऊपर ले जाती है, वह नीचे भी ला सकती है। सीढ़ी दोनों तरफ चढ़ी जा सकती है। कोई आदमी चाहे तो सीढ़ी से ऊपर चला जाए और कोई आदमी चाहे तो सीढ़ी से नीचे आ जाए। लेकिन ये सीढ़ी की दोनों क्षमताएं एक ही साथ होती हैं। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-09)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन

मैं पूंजीवाद के समर्थन में हूं

मेरे प्रिय आत्मन्!

‘समाजवाद से सावधान’, इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कही थीं। उस बाबत कुछ प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि जो व्यक्ति समझता है कि उसकी आवश्यकताएं जितनी हैं, वह उनको ठीक तरह से पूरी कर रहा है, तो क्या उसे भी असंतुष्ट होने की आवश्यकता है?

इस संबंध में दो-तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह कि जो व्यक्ति ऐसा समझता है कि उसकी आवश्यकताएं पूरी हो रही हैं, वह व्यक्ति स्वयं के या अन्य के विकास के क्रम से रुक जाता है। ऐसा व्यक्ति जो समझता है कि जो उसे मिल गया वह पर्याप्त है, वह आगे बढ़ने से रुक जाता है। और हो सकता है कि उसे स्वयं को तो इससे बहुत ज्यादा नुकसान न पहुंचे, लेकिन जिस समाज का वह हिस्सा है उस समाज को जरूर नुकसान पहुंचता है। उसे स्वयं भी बहुत नुकसान पहुंचेगा। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-08)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-07)

नये समाज का आधार– भय नहीं, प्रेम-(प्रवचन-सातवां)

नये समाज की खोज शायद मनुष्य की सबसे पुरानी खोज है। पुरानी भी है और अब तक सफल भी नहीं हो पाई। कोई दस हजार वर्षों का इतिहास एक बहुत ही असफल कहानी का इतिहास है। प्रयास बहुत हुए कि नया समाज पैदा हो, लेकिन हर प्रयास के बाद पुराना समाज फिर नये रूप में स्थापित हो जाता है। नया समाज पैदा नहीं हो पाता है। क्रांतियां हुईं। क्रांति शब्द से पहले बहुत आशा बंधती थी, अब वह शब्द भी बहुत निराशाजनक हो गया है। क्योंकि कोई क्रांति सफल नहीं हो पाई है। चाहे फ्रांस में, चाहे रूस में, चाहे चीन में, क्रांतियां हुईं, रक्तपात हुआ, नये समाज को जन्म देने के लिए प्रसव की पूरी-पूरी पीड़ा सही गई, लेकिन नया समाज पैदा नहीं हुआ। पुराना समाज फिर नये रूप में स्थापित हो गया। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-07)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-06)

शून्य की दिशा-(प्रवचन-छट्ठवां)

आचार्य जी, उस दिन जो बात हुई थी उसमें सबसे बड़ा मूल प्रश्न जो हमारे ध्यान में आया था, जिसके बारे में हमें आपसे कुछ जानना है, वह यह है कि शून्यवाद का असर जो हमें बुद्धिज्म और जैनिज्म में दिखाई देता है, शायद वह शून्य का इंटरप्रिटेशन कितना ही पाजिटिव हो, लेकिन शब्द-प्रयोग से ही लोगों के जनरल खयालातों में इंटरप्रिटेशन हो जाते हैं। हर एक को नई फार्मूला एक पुराने शब्द के लिए नहीं दी जा सकती। लेकिन प्रापर शब्द शायद यूज किया जा सकता है। तो इस संभावना से हमें यह नजर आता है और कई लोगों के माइंड में भी यह फैक्ट आया हुआ है कि शून्य इज़ दि ओनली वर्ड व्हिच कैन डिस्क्राइब योर एप्रोच टु दि ट्रुथ? या और कोई ऐसी चीज है या रास्ता है या शब्द-प्रयोग है कि जिससे सामान्य जनता में यह निगेटिवइज्म के प्रति ले जाने की दृष्टि आप में है, ऐसा प्रतीत न हो। मिसअंडरस्टैंडिंग न हो। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-06)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-05)

जीवन-मूल्य और संघर्ष-(प्रवचन-पांचवां)

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, कई बार कोई चीज हमारे भीतर जागते-जागते किसी कोने में पड़ी रह जाती है। भूल जाते हैं, दूसरे काम में लग जाते हैं, दूसरी जिंदगी आ जाती है। कई दफा बीस वर्ष नहीं, बीस-बीस जन्म तक कोई चीज हमारे भीतर होकर पड़ी रहती है। और कभी भी उस पर चोट पड़ जाए, वह फिर जिंदा हो जाती है। क्योंकि भीतर कुछ मरता नहीं है, जन्मों-जन्मों तक नहीं मरता, प्रतीक्षा ही करता है और मौका देखता है कि कब ठीक पानी पड़ जाएगा और बीज फूट जाएगा। और जब वैसा होगा तो बहुत फर्क पड़ेगा। जिस आदमी के भीतर वैसी कोई बात नहीं हुई है कभी, वह भी सुनेगा, उसे यह बिलकुल फॉरेन मालूम पड़ेगा कि विजातीय बात है, पता नहीं क्या बात है। लेकिन जिसके भीतर कुछ सजातीय स्वर जग जाएगा, उसे बात ऐसी लगेगी कि यह मुझे कहनी थी और आपने कैसे कह दी! बस ऐसा ही लगेगा, इससे अलग कुछ और नहीं लगेगा। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-05)”

नये समाज की खोज-(प्रवचन-04)

अंतस की बदलाहट ही-(प्रवचन-चौथा)

एकमात्र बदलाहट

मेरे प्रिय आत्मन्!

अच्छा होगा कि मैं आज प्रश्नों के ही उत्तर दूं, क्योंकि बहुत प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। संक्षिप्त में ही देने की कोशिश करूंगा ताकि अधिकतम प्रश्नों के उत्तर हो सकें।

एक मित्र ने पूछा है: बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, इन तीन सूत्रों के संबंध में आपका क्या कहना है?

सूत्र तो जिंदगी में एक ही है–बुरे मत होओ। ये तीनों सूत्र तो बहुत बाहरी हैं। भीतरी सूत्र तो–बुरे मत होओ–वही है। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न देखे, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न सुने, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न बोले, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसा आदमी सिर्फ पागल हो जाएगा। क्योंकि भीतर बुरा होगा! अगर बुरे को देख लेता तो थोड़ी राहत मिलती। वह भी नहीं मिलेगी। अगर बुरे को बोल लेता तो थोड़ा बाहर निकल जाता, भीतर बुरा थोड़ा कम हो जाता, वह भी नहीं होगा। अगर बुरे को सुन लेता तो भी थोड़ी तृप्ति मिलती, वह भी नहीं हो सकेगी। भीतर बुरा अतृप्त रह जाएगा। Continue reading “नये समाज की खोज-(प्रवचन-04)”

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