बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-10)

शरद चांदनी बरसी—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 20 जनवरी, 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार :

1—भगवान! आपने कहा: “सत्संग, जागो। सुबह पास ही है; हाथ फैलाओ और पकड़ो। परमात्मा को याद करने का क्षण सत्संग, करीब आ गया। नाचो, गुनगुनाओ, मस्त होओ। बांटो। जागो–नाचते हुए।’

इस मधुभरी मस्ती को छलकते देख अपने अपने न रहे। घर घर न रहा। यह कैसा जागना हुआ–लोग नफरत करने लगे! भगवान, यह कैसी नई जिंदगी आई! गुनगुनाती, नाचती हुई, मधुभरी मस्ती ले आई! सब छूट गया! Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-10)”

बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-09)

कह यारी घर ही मिलै—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 19 जनवरी, 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :

जोतिसरूपी आतमा, घट घट रही समाय।

परमतत्त मन भावनो नेक न इत-उत जाय।।

रूप रेख बरनौं कहा, कोटि सूर परगास।

अगम अगोचर रूप है कोउ पावै हरि को दास।।

नैनन आगे देखिए, तेजपुंज जगदीस।

बाहर भीतर रमि रह्यो, सो धरि राखो सीस।।

आठ पहर निरखत रहौ, सनमुख सदा हजूर। Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-09)”

बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-08)

सत्‍य के अनबोल बोल—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 18 जनवरी, 1979;  श्री ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार:

1—भगवान! स्वामी चैतन्य भारती जब शिविर लेने जाते हैं, तो कहते हैं कि मैं भी ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं। ऐसा किस भाव से कहते हैं?

2—मैं आपको सुनते-सुनते कई बार रोने लगता हूं और मुझे पता भी नहीं चलता कि कब मेरे आंसू सूख गए और मैं आनंद-विभोर होकर उड़ानें भरने लगा! कृपया इस स्थिति को समझाएं।

3—आप कहते हैं कि यहां खोने को कुछ भी नहीं है। फिर भी मैं क्यों सब कुछ दांव पर नहीं लगा सकता हूं? Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-08)”

बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-07)

मरिके यारी जुग-जुग-जीया—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 17 जनवरी, 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :

बिन बंदगी इस आलम में, खाना तुझे हराम है रे।।

बंदा करै सोई बंदगी, खिदमत में आठो जाम है रे।

यारी मौला बिसारिके, तू क्या लागा बेकाम है रे।

कुछ जीते बंदगी कर ले, आखिर को गोर मुकाम है रे।।

गुरु के चरन की रज लैके, दोउ नैन के बीच अंजन दीया।

तिमिर माहिं उजियार हुआ, निरंकार पिया को देखि लीया।। Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-07)”

बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-06)

प्रार्थना के पंख—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 16 जनवरी, 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—हम आपसे जो सवाल पूछ रहे हैं, वे सब मूर्च्छा से पूछे गए हैं। और आपका जवाब तो पूर्ण चैतन्य से आ रहा है। तो इन दोनों का मिलन कैसे संभव हो? और मिलन नहीं होता, तब तो सवाल पूछना ही गलत है। तब आप हमें जो सवाल पूछने के लिए कहते हैं, उसका क्या मतलब है?

2—आपने कहा दर्शनों के अध्ययन से ईश्वर नहीं मिलता। मैं पूछना चाहता हूं कि फिर ईश्वर कैसे मिलता है?

3—आप हर रोज इतनी पिलाते हो, फिर भी तृप्त होने के बजाए प्यास दिन-ब-दिन बढ़ती नहीं है, ऐसा क्यों? Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-06)”

बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-05)

तत्‍वमसि—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 15 जनवरी, 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

आंधरे को हाथी हरि, हाथ जाको जैसो आयो,

बूझो जिन जैसो तिन तैसोई बतायो है।।

टकाटोरी दिन रैन हिये हू के फूटे नैन,

आंधरे को आरसी में कहां दरसायो है।।

भूल की खबरि नाहिं जासो यह भयो मुलक,

वाकों बिसारि भोंदू डारेन अरुझायो है।।

आपनो सरूप रूप आपू माहिं देखै नाहिं

कहै यारी आंधरे ने हाथी कैसो पायो है! Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-05)”

बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-04)

संन्यास–एक नयी आँख—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 14 जनवरी, 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—भगवान! बचपन से ही सुनता रहा हूं तथाकथित साधु-महात्माओं से कि संसार असार है। इधर आप कहते हैं कि संसार असार नहीं है–एक प्रेमपूर्ण महोत्सव है, अविरल रसपूर्ण बहता हुआ झरना है। पीने वाला चाहिए।

रवीन्द्रनाथ ने भी एक बार कहा था: “मोरिते चाहिना आमि, एक शुन्दोर भूवने! मैं इस सुंदर रसपूर्ण संसार को छोड़कर यूं ही मरना नहीं चाहता। Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-04)”

बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-03)

निरगुन चुनरी निर्बान—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 13 जनवरी, 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना।

सारसूत्र :

निरगुन चुनरी निर्बान, कोउ ओढ़ै संत सुजान।।

षट दरसन में जाइ खोजो, और बीच हैरान।।

जोतिसरूप सुहागिनी चुनरी, आव बधू धर ध्यान।।

हद बेहद के बाहरे यारी, संतन को उत्तम ज्ञान।।

कोऊ गुरु गम ओढ़ै चुनरिया, निरगुन चुनरी निर्बान।। Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-03)”

बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-02)

जागो सखि, बसंत आ गया—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 12 जनवरी,1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार :

1—उस परम प्रभु परमात्मा का सत्य नाम क्या है?

2—भगवान, सिक्ख-निरंकारी संघर्ष के संबंध में आपका क्या मत है? क्या यह खतरा नहीं है कि जो लोग आपके दर्शन या विचार के साथ असहमत ही नहीं उसे सहने को भी तैयार नहीं हैं, वे आपके साथ भी ऐसी ही स्थिति पैदा करें? Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-02)”

बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-01)

यारी कहै सुनो भाई संतो—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 11 जनवरी, 1979;  श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :

बिरहिनी मंदिर दियना बार।

बिन बाती बिन तेल जुगति सों बिन दीपक उजियार।।

प्रानपिया मेरे गृह आयो, रचि-रचि सेज संवार।।

सुखमन सेज परमतत रहिया, पिया निर्गुन निरकार।।

गावहु री मिलि आनंद मंगल, यारी मिलि के यार।। Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(प्रवचन-01)”

बिरहिनी मंदिर दियना बार-(यारी)-ओशो

बिरहिनी मंदिर दियना बार—(यारी)  ओशो

यारी की पुकार भी खाली नहीं गयी। यारी भी भर उठे–बड़ी सुगंध से! और लुटी सुगंध! उनके गीतों में बंटी सुगंध! और जब भी किसी व्यक्ति के जीवन में परमात्मा का आगमन होता है तो गीतों की झड़ी लग जाती है; उस व्यक्ति की श्वास-श्वास गीत बन जाता है। उसका उठना-बैठना संगीत हो जाता है। उसके पैर जहां पड़ जाते हैं वहां तीर्थ बन जाते हैं। Continue reading “बिरहिनी मंदिर दियना बार-(यारी)-ओशो”

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