गीता दर्शन-(प्रवचन-187)

नरक के द्वार: काम, क्रोध, लोभ—

(प्रवचन—आठवां)  अध्‍याय—16

सूत्र—

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।

काम: क्रोधस्तथा लौभस्तस्मादैतन्त्रयं त्यजेत्।। 21।।

एतैर्विमुक्त: कौन्तेय तमद्धोरैस्प्रिभिर्नर:।

आचरत्यक्ष्मन: श्रेयस्‍स्‍ततो यति परां गतिम्।। 22।।

यः शास्त्रविश्वैमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।

न स सिद्धिमावाप्‍नोतिप्त न सुखं न परां गतिम्।। 23।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-187)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-186)

जीवन की दिशा—(प्रवचन—सातवां)

अध्‍याय—16

सूत्र:

अत्मसंभाविता: स्तब्धा धनमानमदान्विता:।

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।। 17।।

अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोध च संश्रता:।

मामत्‍मपरहेहेषु प्रद्धईषन्तोऽभ्यसूक्का:।। 18।।

तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।

क्षियाम्यजस्रमशुभानासुरीष्येव योनिषु।। 19।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-186)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-185)

ऊर्ध्‍वगमन और अधोगमन—

(प्रवचन—छठवां) अध्‍याय—16

सूत्र

इदमद्य मया लब्‍धमिमं प्राप्‍स्‍ये मनोरथम् ।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्।। 13।।

असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्‍ये चापरानपि।

ईश्वरोऽहम्हं भोगी सिद्धोsहं बलवान्तुखी।। 14।।

आढ्योऽभिजनवानस्मि कीऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्‍ये दास्यामि मौदिष्य इत्‍याज्ञानविमीहिता:।। 15।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-185)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-184)

शोषण या साधना—(प्रवचन—पांचवां)

अध्‍याय—16

सूत्र—

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता:।

मोहाङ्गाहींत्त्वीसद्ग्राहागर्क्तन्‍तेउशुचिव्रता:।। 10।।

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुयश्रिता:।

कामोयभोगपरमा एतावदिति निश्चिता: ।। 11।।

आशापाशशातैर्बद्धा: कामक्रोधयरायणा ।

ईहन्‍ते कामभोगार्थमन्यायेनार्श्रसंचयान्।। 12।।

और वे मनुष्य दंभ, मान और मद से युक्त हुए किसी प्रकार भी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आसरा लेकर तथा मोह से मिथ्‍था सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों से युक्‍त हुए संसार में बर्तते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-184)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-183)

आसुरी व्‍यक्‍ति की रूग्‍णताएं—

(प्रवचन—चौथा) अध्‍याय—16

सूत्र—

प्रवृत्तिं च निवृत्ति च जना न विदरासरा:।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।। 7।।

असत्यमप्रितष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।

अपरस्थरसंभूतं किमन्यत्काकैक्कुम्।। 8।।

एंता दृष्टिमवष्टथ्य नष्टमानोऽल्पबुद्धय:।

प्रभवन्‍ज्युक्कर्माण: क्षयाय जगतीऽहिता:।। 9।।

और हे अर्जुन, आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य कर्तव्य—कार्य में प्रवृत्त होने को और अकर्तव्य—कार्य से निवृत्त होने को भी नहीं जानते हैं। इसलिए उनमें न तो बाहर—भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-183)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-182)

आसुरी संपदा—(प्रवचन—तीसरा)

अध्‍याय—16

सूत्र:

दम्भो दयोंऽभिमानश्च क्रोध: पारूष्‍यमेव च।

अज्ञानं चाभिजातस्म पार्थ संपदमासुशँम्।। 4।।

दैवी संयद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।

मा शुचः संपदं दैवीमीभजातोऽसि पाण्डव।। 5।।

द्वौ भूतसगौं लस्कैऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।

दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे मृणु।। 6।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-182)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-181)

दैवीय लक्षण—(प्रवचन—दूसरा)

अध्‍याय—16

सूत्र—

अहिंसा सत्‍यमक्रोधस्‍त्‍याग: शान्‍तिरपैशुनम्।

दया भूतेष्‍वलोलुप्‍त्‍वं मार्दवं ह्ररिचापलम्।। 2।।

तेज: क्षमा धृति: शौचमद्रोहोनातिमानिता ।

भवन्ति संपदं दैवीमीभिजातस्य भारत।। 3।।

दैवी संयदायुक्‍त पुरुष के अन्य लक्षण हैं : अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति और किसी की भी निंदादि न करना तथा सब भूत प्राणियों में दया, अलोलुपता, कोमलता तथा लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव; तथा तेज, क्षमा, धैर्य और शौच अर्थात बाहर— भीतर की शुद्धि एवं अद्रोह अर्थात किसी में भी शत्रु— भाव का न होना और अपने में पूज्‍यता के अभिमान का अभाव— ये सब तो हे अर्जुन, दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरूष के लक्षण हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-181)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-180)

दैवी संपदा का अर्जन—

(प्रवचन—पहला) अध्‍याय—16

सूत्र—

(श्रीमद्भगवद्गीता)

श्रीभगवानवाच:

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।

दानं दमश्च यज्ञश्‍च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।। 1।।

उसके उपरांत श्रीकृष्‍ण भगवान फिर बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरूषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक—पृथक कहता हूं। दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरूष के लक्षण हैं : Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-180)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-179)

प्‍यास और धैर्य—

(प्रवचन—सातवां) अध्‍याय—15

सूत्र—

यो मामैवमसंमूढो जानति पुरुषोत्तमम्।

स सर्वोविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।। 19।।

इति गुह्यतमं शास्त्रीमदमुक्‍तं मयानघ।

एतदबद्ध्वा बुद्धिमान्‍स्‍यत्‍कृतकृत्‍यश्‍च भारत।। 20।।

है भारत, हस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार मे निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-179)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-179)

प्‍यास और धैर्य—

(प्रवचन—सातवां) अध्‍याय—15

सूत्र—

यो मामैवमसंमूढो जानति पुरुषोत्तमम्।

स सर्वोविद्भजति मां सर्वभावेन भारत।। 19।।

इति गुह्यतमं शास्त्रीमदमुक्‍तं मयानघ।

एतदबद्ध्वा बुद्धिमान्‍स्‍यत्‍कृतकृत्‍यश्‍च भारत।। 20।।

है भारत, हस प्रकार तत्व से जो ज्ञानी पुरुष मेरे को पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार मे निरंतर मुझ परमेश्वर को ही भजता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-179)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-178)

पुरूषोत्‍तम की खोज—

(प्रवचन—छठवां) अध्‍याय—15

सूत्र—

 द्वाविमौ पुरूषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।

क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्‍यते।। 16।।

उत्तम: पुरूषस्‍त्‍वन्य: परमात्मेत्युदाह्वत:।

यो लस्केत्रयमाविश्य बिभर्त्सव्यय ईश्वर:।। 17।।

यस्मात्‍क्षरमर्तोतोऽहमक्षरादीप चोत्तम:।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।। 18।।

हे अर्जुन, हम संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ जीवात्‍मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-178)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-177)

एकाग्रता और ह्रदय—शुद्धि—

(प्रवचन—पांचवां) अध्‍याय—15

सूत्र—

यदादित्यगतं तेजो जगद्यासयतेऽखिलम्।

यच्‍चन्द्रमलि यचाग्नौ तत्तेजो विद्धि मांक्कम्।। 12।।

गामांविश्य च भूतानि धारयाथ्यमोजसा।

पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:।। 13।।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमांश्रित:।

प्राणायानसमांयुक्त: पचाम्यन्‍नं चतुर्विधम्।। 14।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-177)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-176)

समर्पण की छलांग—

(प्रवचन—चौथा) अध्‍याय—15

सूत्र—

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुज्‍जानं वा गुणान्यितम्।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचमुष:।। 10।।

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यज्यात्मन्यवस्थितम्।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यक्यधेतस:।। 11।।

परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी ज्ञानीजन नहीं जानते है केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व से जानते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-176)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-175)

संकल्‍प—संसार का या मोक्ष का—

(प्रवचन—तीसरा) अध्‍याय—15

सूत्र—

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पाक्क:।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 6।।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।

मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। 7।।

शरीरं यदवाम्नोति यच्‍चाप्‍युत्‍क्रामतीश्‍वर:।

गृहीत्‍वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्:।। 8।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-175)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-174)

दृढ़ वैराग्‍य और शरणागति—

(प्रवचन—दूसरा) अध्‍याय—15

सूत्र—

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।

अश्वथमेनं सुविरूद्धमूलम् असङ्गशस्त्रेण दृढ़ेन छित्‍वा।। 3।।

तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यीस्मन्गता न निवतर्न्ति भूय:।

तमेव ब्राह्य पुरुषं पुपद्ये यत: प्रवृत्ति: प्रमृता पुराणी।। 4।।

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृक्कामा:।

द्वन्द्वैर्विमुक्‍ता: सुखदुखसंज्ञै: गव्छज्यमूढा: पदमव्ययं तत्।। 5।।

इस संसार— वृक्ष का रूप जैसा कहा है, वैसा यहां नहीं पाया जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अंत है तथा न अच्‍छी प्रकार से स्थिति ही है। इसलिए हम अहंता? ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा काटकर, उसके उपरांत उस परम पद रूप परमेश्वर को अच्छी प्रकार खोजना चाहिए कि जिसमें गए हुए पुरुष फिर पीछे संसार में नहीं आते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-174)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-173)

मूल—स्‍त्रोतककी और वापसी—

(प्रवचन—पहला)  अध्‍याय—15

सूत्र—

श्रीमद्भगवद्गीता अथ पन्‍चदशोऽध्याय:

 श्रीभगवानुवाच:

ऊर्ध्वमूलमध:शाखमश्वत्‍थं प्राहुरव्ययम्।

छन्दांसि यस्य पर्णीनि यस्तं वेद स वेदवित्।। 1।।

अधश्चोर्थ्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गण्णप्रवृद्धा विषयप्रवाला:।

अधश्च मूलान्यनुसंततनि कर्मानुबन्धीनि मनष्यलोके।। 2।।

गणन्‍तय— विभाग— योग को समझाने के बाद श्रीकृष्‍ण भगवान बोले हे अर्जुन, जिसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर है, ऐसे संसाररूप पीपल के वृक्ष को Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-173)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-172)

अव्‍यभिचारी भक्‍ति—

(प्रवचन—दसवां) अध्‍याय—14

सूत्र—

मां च योऽव्‍यभिचारैण भक्तियोगेन सेवते।

स गुणान्समतींत्‍यैतान्‍ब्रह्मभयाय कल्पते।। 26।।

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।

शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।। 27।।

और जो पुरुष अव्यभिचरीं भक्तिरूप योग के द्वारा मेरे को निरंतर भजता है, वह इन तीनों गुणों को अच्‍छी प्रकार उल्लंघन करके सच्चिदानंदघन ब्रह्म में एकीभाव होने के लिए योग्य होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-172)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-171)

आत्‍म—भाव और समत्‍व—

(प्रवचन—नौवां) अध्‍याय—14

सूत्र—

समदुःखसुखः स्वस्थ: समलोष्टाश्स्फाञ्जन:

तुल्‍याप्रियाप्रियो धीरस्‍तुल्‍यनिन्‍दात्‍मसंस्‍तुति:।। 24।।

मानापमानयोस्‍तुल्‍यस्‍तुल्‍यो मिप्रारियक्षयो:।

सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते।। 25।।

और जो निरंतर आत्म— भाव में स्थित हुआ, दुख— सुख को समान सोचने वाला है तथा मिट्टी पत्थर और सुवर्ण में समान भाव वाला और धैर्यवान है; तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निंदा— स्तुति में भी समान भाव वाला है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-171)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-170)

संन्‍यास गुणातीत है—

(प्रवचन—आठवां) अध्‍याय—14

सूत्र—

अर्जन उवाच:

कैर्लिङ्गैस्त्रीनुाणानेतानतझीए भवति प्रभो।

किमाचार: कथं चैतांस्प्रीनुाणानतिवर्तते।। 21।।

श्रभिगवानवाच:

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।

न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति।। 22।।

उदासीनवदासीनो गुणैयों न विचाल्यते।

गुणा वर्तन्त इत्‍येव योऽवतिष्ठीत नेङ्ग्ले।। 23।।

अर्जुन ने पूछा कि हे पुरुषोत्तम, इन तीनों गुणों से अतीत हुआ पुरूष किन— किन लक्षणों से युक्त होता है? और किस प्रकार के आचरणों वाला होता है? तथा हे प्रभो? मनुष्य किस उपाय से इन तीनों गुणों से अतीत होता है? Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-170)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-169)

असंग साक्षी—(प्रवचन—सातवां)

अध्‍याय—14

सूत्र—

नान्यं गुणेभ्‍य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यीत।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्‍छति।। 19।।

गुणानेतानतीत्‍य त्रीन्‍देही देहसमुद्भवान्।

जन्मस्त्युऋजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।। 20।।

और हे अर्जुन, जिस काल में द्रष्टा तीनों गुणों के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता है अर्थात गुण ही गुणों में बर्तते है, ऐसा देखता है और तीनों गुणों से अति परे सच्चिदानंदधनस्वरूप मुझ परमात्‍मा को तत्‍व से जानता है, उस काल में वह पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-169)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-168)

रूपांतरण का सूत्र: साक्षी—भाव—

(प्रवचन—छठवां) अध्‍याय—14

सूत्र:  

कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्‍विक निर्मलं फलम्।

रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमस: फलम्।। 16।।

सत्‍वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ श्व च।

प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ।। 17।।

ऊर्ध्व गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठीन्त राजसाः।

जधन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्‍छन्ति तामसा:।। 18।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-168)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-167)

संबोधि और त्रिगुणात्‍मक अभिव्‍यक्‍ति—

(प्रवचन—पाँचवाँ) अध्‍याय—14

सूत्र: 

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।

तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।। 13।।

यदा सत्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।

तदोत्तमीवदां लोकानमलान्मीतयद्यते ।। 14।।

रजसि प्रलयं गत्वा कर्ममङ्गिषु जायते ।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढयीनिषु जायते।। 15।।

है अर्जुन, तमोगुण के बढने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश एवं कर्तव्य— क्रमों में अप्रवृति और प्रमाद और निद्रादि अंतःकरण की मोहिनी वृत्तियां, ये सब ही उत्पन्‍न होते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-167)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-166)

होश: सत्‍व का द्वार—

(प्रवचन—चौथा) अध्‍याय—14

सूत्र:

रजस्तमश्चाभिभूय सत्वं भवति भारत।

रज: सत्वं तमश्चैव तम: सत्व रजस्तथा ।। 10।।

सर्वद्वरेषु देहेऽस्मिप्रकाश उयजाक्ते।

ज्ञानं यदा तदा विद्यद्ववृद्धं सत्‍वमित्‍युत।। 11।।

लोभ: प्रवृत्तिरारम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा।

रजस्यैतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ।। 12।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-166)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-165)

हे निष्‍पाप अर्जुन—

(प्रवचन—तीसरा) अध्‍याय—14

सूत्र: 

रजो रागत्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।

तन्‍न्‍िबघ्‍नति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।। 7।।

तमस्थ्यानजं विद्धि मोहन सर्वदेहिनाम्।

प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्‍निबध्‍नाति भारत।। 8।।

सत्यं सुखे संजयीत रज: कर्मणि भारत।

ज्ञानमावृत्‍य तु तम: प्रमादे संजयन्वत।। 9।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-165)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-164)

त्रिगुणात्‍मक जीवन के पार—

(प्रवचन—दूसरा)  अध्‍याय—14

सूत्र—

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या:।

तासो ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता।। 4।।

सत्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसंभवा।

निबध्‍नन्ति महाबाहो देहे देहिनमध्ययम्।। 5।।

तत्र सत्वं निर्मलत्‍वात्प्रकाशकमनामयम्।

सुखसङ्गेन बध्‍नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ।। 6।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-164)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-163)

चाह है संसार और अचाह हे परम सिद्धि—

(प्रवचन—पहला) अध्‍याय—14

सूत्र:

 श्रीमद्भगवद्गली अथ चतर्दशोऽध्याय —

 श्रीभगवानवाच:

परं भूय: प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।

यज्ज्ञात्वा मुनय: सर्वे परां सिद्धिमितो गता।। 1।।

हदं ज्ञानमुपाश्‍चित्‍य मम साधर्म्यमागता:।

सगेंऽपि नोयजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।। 2।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-163)”

गीता दर्शन-भाग-7 (ओशो)

गीता—दर्शन—(भाग सात)–ओशो

(ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय चौदह ‘गुणत्रय—विभाग—योग’, अध्याय पंद्रह ‘पुरुषोत्तम—योग’ एवं अध्याय सोलह ‘दैव— असुर—संपद—विभाग—योग’ पर दिए गए पच्चीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

भूमिका: (मणि—कांचन संयोग) 

णि—काचन संयोग शायद इसे ही कहते होंगे। ग्रंथों में ग्रंथ गीता और व्याख्याताओं में व्याख्याता ओशो। व्याख्या भी सिर्फ एक विद्वान की नहीं, सिद्ध की! इसलिए गीता—दर्शन के इन अध्यायों को. पढ़ना जैसे समुद्र और उसके भीतर बहती गंगा की धारा में एक साथ दोहरा अवगाहन करना है। इस अवगाहन में सिर्फ गीता के उपदेश—रत्न नहीं मिलते, न सिर्फ ओशो का प्रसिद्ध उक्ति—सौंदर्य, गीता के माध्यम से ओशो की उद्भट प्रतिभा और प्रज्ञा संसार के लगभग हर प्रमुख धर्म और उसकी विभूतियों को जोड्ने वाले सूत्र को आपके हाथ में थमा देती है। वह सूत्र आध्यात्मिक अनुभूति का है, साधना का है, साक्षित्व का है, वहां आप चाहे जिस राह से पहुंचें। Continue reading “गीता दर्शन-भाग-7 (ओशो)”

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