दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-20)

‘मैं’ की मुक्ति नहीं, ‘मैं’ से मुक्ति—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक 10 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सदगुरु तोसोत्सु ने तीन रोधक (ईंततपमते) निर्मित किये। और उन्हें वे साधुओं से पार करवाते थे।

पहला रोधक: झेन का अध्ययन है। झेन के अध्ययन का उद्देश्य है, अपने ही सच्चे स्वभाव का दर्शन करना।

अब तुम्हारा सच्चा स्वभाव क्या है?

दूसरा: जब कोई अपने सच्चे स्वभाव को प्राप्त कर लेता है तब वह जन्म और मृत्यु से मुक्त हो जायेगा। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-20)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-19)

परिधि के विसर्जन से केंद्र में प्रवेश—(प्रवचन—उन्नीसवां)

दिनांक 9 अक्टूबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सदगुरु जोशु उस जगह पर गए जहां एक भिक्षु ध्यान कर रहा था। उन्होंने भिक्षु से पूछा, ‘जो है, सो क्या है?’ ‘What is, is what?’

भिक्षु ने अपनी मुट्ठी उठाई।

जोशु ने उत्तर दिया, ‘जहाज वहां नहीं रह सकते जहां पानी बहुत उथला हो।’ और वे चले गए।

कुछ दिनों के बाद सदगुरु जोशु फिर उस भिक्षु के पास गए, और उन्होंने वही प्रश्न पूछा। भिक्षु ने पुराने ढंग से ही उत्तर दिया। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-19)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-18)

समर्पित हृदय में ही सत्य का अवतरण—(प्रवचन—अठारहवां)

दिनांक 8 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सूफी सत्य के खोजी माने जाते हैं–उस सत्य के जो विषयगत हकीकत ९ठइरमबजपअम तमंसपजल० का ज्ञान होता है।      

एक अज्ञानी, लालची और प्रजापीड़क राजा ने निश्चय किया कि मैं इस सत्य को भी अपने अधिकार में ला कर रहूंगा। स्पेन के मुर्सिया नामक स्थान का स्वामी था वह और नाम था उसका रोडरिक। उसने यह भी तय किया कि तरागोना के सूफी उमर-अल-अलावी को यह सत्य बताने के लिए मजबूर किया जाये।

फलतः उमर को गिरफ्तार कर राज-दरबार में हाजिर किया गया। रोडरिक ने उनसे कहा, ‘मैंने निर्णय किया है कि जो सत्य आप जानते हैं उसे आप मुझे उन शब्दों में बता देंगे जिन्हें मैं समझ सकूं। और यदि ऐसा नहीं हुआ तो आपको अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ेगा।’ Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-18)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-17)

अतियों से बचकर मध्य में जीना प्रज्ञा है—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक 7 अक्टूबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान !

महान सुलतान महमूद एक दिन अपनी राजधानी गजनी की सड़कों पर घूम रहे थे। उन्होंने देखा कि एक गरीब भारिक पीठ पर भारी पत्थर का बोझ लिये दम तोड़ रहा है। उसकी हालत से द्रवीभूत होकर महमूद ने शाही ढंग से हुक्म दिया,  ‘ओ भारिक, उस पत्थर को नीचे गिरा दे।’

तुरंत ही आज्ञा का पालन हुआ। पर पत्थर उस रास्ते पर राहगीरों की बाधा बन कर बहुत वर्षों पड़ा रहा। अंत में अनेक नागरिकों ने बादशाह से प्रार्थना की कि वे उस पत्थर के हटाये जाने का हुक्म निकालें। प्रशासकीय बुद्धि से विचार कर सुलतान ने कहा, ‘जो हुक्म के द्वारा किया गया है, वह वैसे ही समान हुक्म से रद्द नहीं किया जा सकता। क्योंकि उससे लोग यही सोचेंगे कि शाही फरमान झक से प्रेरित होते हैं। पत्थर जहां है, वहीं रहेगा।’ Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-17)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-16)

धर्म का मूल रहस्य स्वभाव में जीना है—(प्रवचन—सोलहवां)

दिनांक 6 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सेहेई के शिष्य सुईबी ने एक दिन अपने गुरु से पूछा, ‘गुरुदेव, धर्म का मूल रहस्य क्या है?’

सदगुरु ने कहा, ‘प्रतीक्षा करो। और जब हम दोनों के अतिरिक्त यहां कोई भी नहीं होगा, तब मैं तुम्हें बताऊंगा।’

और फिर उस दिन बहुत बार ऐसे मौके आये जब कि वे दो ही झोपड़े में थे और हर बार सुईबी ने अपने प्रश्न भी दुहराये, लेकिन वह अपना प्रश्न पूरा भी नहीं कर पाता था, कि सेहेई अपने होठों पर उंगली रख कर उसे चुप होने को इशारा कर देते थे। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-16)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-15)

संतत्व का लक्षण: सर्वत्र परमात्मा की प्रतीति—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक 5 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

संत रयोकान किसी पहाड़ की तलहटी में एक झोपड़े में रहते थे। अत्यंत ही सादा जीवन था उनका। एक संध्या एक चोर उनके झोपड़े में घुसा, लेकिन उसने देखा कि झोपड़े में तो कुछ भी नहीं है।

इस बीच संत झोपड़े पर वापस आए और उन्होंने चोर को निकलते देख लिया। उस चोर से उन्होंने कहा, ‘तुम लंबी यात्रा करके मुझसे मिलने आये, इसलिए तुम्हारा खाली हाथ लौटना उचित नहीं है। कृपा कर भेंट में मेरे अंगवस्त्र लिये जाओ।’

चोर तो बहुत हैरान रह गया। बहुत झेंप के साथ उसने कपड़े लिये और चुपचाप गायब हो गया। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-15)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-14)

प्रकृत और सहज होना ही परमात्मा के निकट होना—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 4 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

एक लंबी और थकान भरी यात्रा में, तीन मुसाफिर साथ हो लिये। उन्होंने अपने पाथेय से लेकर सुख-दुख, सबकी साझेदारी कर ली।

कई दिनों के बाद उन्हें मालूम हुआ कि अब उनके पास सिर्फ कौर भर रोटी और घूंट भर पानी बचा है और वे इस बात के लिये झगड़ने लगे कि यह पूरा भोजन किसको मिले? नहीं बात बनी, तो उन्होंने रोटी और पानी को बांटने की कोशिश की। फिर भी वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके।      

जब रात उतरी तब एक ने सो जाने का सुझाव दिया। तय किया कि जागने पर वह व्यक्ति निर्णय करेगा जो रात में सबसे बढ़िया स्वप्न देखेगा। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-14)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-13)

मृत्यु है जीवन का केंद्रीय तथ्य—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक 3 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

किसी समय एक आदमी के पास बहुत से पशु-पक्षी थे। उसने सुना कि हजरत मूसा पशु-पक्षियों की भाषा समझते हैं। वह उनके पास गया और बहुत हठ करके उसने उनसे वह कला सीखी। तब से वह आदमी अपने पशु-पक्षियों की बातचीत सुनने लगा।

एक दिन मुर्गे ने कुत्ते से कहा कि घोड़ा शीघ्र ही मर जायेगा। यह सुनकर उस व्यक्ति ने घोड़े को बेच दिया ताकि हानि से वह बच जाये। कुछ दिनों के बाद उसने उसी मुर्गे को कुत्ते से कहते सुना कि जल्द ही खच्चर मरने वाला है। मालिक ने खच्चर को भी बेच दिया। फिर मुर्गे ने कहा कि अब गुलाम की मृत्यु होनेवाली है। और मालिक ने गुलाम को भी वैसे ही बेच डाला और बहुत खुश हुआ कि ज्ञान का इतना-इतना फल प्राप्त हो रहा है। तब एक दिन उसने मुर्गे को कुत्ते से कहते सुना कि यह आदमी खुद मर जानेवाला है। अब तो वह भय से कांपने लगा। वह दौड़ता हुआ मूसा के पास पहुंचा और पूछा कि अब मैं क्या करूं? Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-13)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-12)

मन से मुक्त होना ही मुक्ति है—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 2 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

मात्सु साधना में था। वह अपने गुरु-आश्रम के एकांत झोपड़े में, अहर्निश मन को साधने का अभ्यास करता था। जो उससे मिलने भी जाते, उनकी ओर भी वह कभी ध्यान नहीं देता था।

उसके गुरु एक दिन उसके झोपड़े पर गये। मात्सु ने उनकी ओर भी कोई ध्यान नहीं दिया। पर गुरु दिन भर वहीं बैठे रहे और एक ईंट को पत्थर पर घिसते रहे।

मात्सु से अंततः न रहा गया और उसने पूछा, ‘आप यह क्या कर रहे हैं?’ Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-12)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-11)

बुद्धि के अतिक्रमण से अद्वैत में प्रवेश—(प्रवचन—ग्यारहवां)

दिनांक 1 अक्टूबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सदगुरु शुजान ने अपना छोटा डंडा उठाया और कहा:

‘अगर तुम इसे छोटा डंडा कहते हो, तो तुम इसके सत्य का विरोध करते हो। और अगर तुम इसे छोटा डंडा नहीं कहते हो, तो तुम इसके तथ्य को अस्वीकारते हो। अब कहो, तुम इसे क्या कहना पसंद करोगे?’

If you call it a short] you oppose its reality. And if you do not call it a short staff, you ignore the face.’

(‘टिलवन बंसस पजीवतज जिलवन वचचवेम पजे तमंसपजल् : दकपिलवन कव दवज बंसस पजीवतज जिलवन पहदवतम जीम बिज्’)

भगवान! झेनगुरु की इस पहेली में निहित अभिप्राय समझाने की अनुकंपा करें। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-11)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-10)

श्रद्धा की आंख से जीवित ज्योति की पहचान—(प्रवचन—दसवां) 

दिनांक 30 सितंबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

एक अंधेरी रात में किसी सुनसान सड़क पर दो आदमी मिले। पहले ने कहा: ‘मैं एक दूकान की खोज में हूं जिसे लोग दीये की दूकान कहते हैं।’

दूसरे ने कहा, ‘मैं यहां पास ही रहता हूं और तुम्हें उसका रास्ता बता सकता हूं।’

‘मैं खुद खोज लूंगा। मुझे रास्ता बता दिया गया है और उसे मैंने लिख भी लिया है।’ पहला आदमी बोला।

‘फिर तुम इस संबंध में बात ही क्यों करते हो?’ दूसरे ने पूछा। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-10)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-09)

सत्य और असत्य के बीच चार अंगुल का अंतर—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 29 सितंबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

किसी समय एक शहर था, जिसमें दो समानांतर गलियां थीं। एक दरवेश किसी दिन एक गली से दूसरी गली में जा पहुंचा और लोगों ने देखा कि उसकी आंखों में आंसू हैं।

‘दूसरी गली में कोई मर गया है,’ एक आदमी ने चीखकर कहा। और तुरंत ही पास के बच्चों ने उसकी बात को सिर पर उठा लिया। वास्तव में हुआ यह था कि दरवेश प्याज छील रहा था।

थोड़ी ही देर में बच्चों की आवाज पहली गली में पहुंच गई। और दोनों गलियों के सयाने इतने दुखी और भयभीत हुए कि उन्हें चीख-पुकार का कारण जानने की हिम्मत भी नहीं रही। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-09)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-08)

द्वैत के विसर्जन से एक-स्वरता का जन्म—(प्रवचन—आठवां) 

दिनांक 28 सितंबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

झेन सदगुरु बांकेई के विहार के पास ही एक अंधा आदमी रहता था। बांकेई की मृत्यु हुई, तब उस अंधे व्यक्ति ने अपने एक मित्र से कहा:

‘क्योंकि मैं अंधा हूं और किसी व्यक्ति के चेहरे का निरीक्षण नहीं कर सकता, इसलिये मुझे उसके चरित्र का निर्णय उसकी आवाज से ही करना होता है। आमतौर से जब मैं किसी को उसकी खुशी या सफलता के लिये दूसरे को बधाई देते सुनता हूं, तो उसमेंर् ईष्या की प्रच्छन्न ध्वनि भी सुनता हूं। और जब दूसरे की विपत्ति में शोक प्रकट किया जाता है, तब मैं उसके भीतर प्रसन्नता और संतोष भी सुनता हूं। मानो शोक प्रगट करनेवाला सचमुच खुश है कि उसकी अपनी दुनिया में कोई उपलब्धि होनेवाली है। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-08)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-07)

कृत्य नहीं, भाव है महत्वपूर्ण—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 सितंबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

सीरो विहार के सदगुरु होगेन, रात्रि-भोजन के पूर्व प्रवचन करने ही वाले थे कि उन्होंने देखा कि जो बांस की जाली ध्यान के लिए लटकायी गयी थी, वह अभी तक समेटी नहीं गयी है। उन्होंने उसकी ओर इशारा किया और तुरंत दो साधु सभा से उठकर उसे समेटने लगे।

उस प्रकृत क्षण का निरीक्षण करते हुए सदगुरु ने कहा: ‘पहले साधु की दशा तो अच्छी है, पर दूसरे की नहीं।’        

भगवान! इस झेन बोध-कथा का अभिप्राय बताने की कृपा करें।

स बोध कथा में प्रवेश के पूर्व कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-07)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-06)

प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाहिं—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 सितंबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

रूमी ने एक गीत में कहा है:

प्रेयसी के द्वार पर किसी ने दस्तक दी।

भीतर से आवाज आई, ‘कौन है?’

जो द्वार के बाहर खड़ा था उसने कहा, ‘मैं हूं।’

प्रत्युत्तर में उसे सुनाई पड़ा, ‘यह घर मैं और तू, दो को नहीं संभाल सकता।’ Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-06)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-05)

मृत्यु के सतत स्मरण से अमृत की उपलब्धि—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 सितंबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

एक दरवेश समुद्र-यात्रा पर था। परिपाटी के अनुसार सभी यात्री एक-एक कर उसके पास गये और उससे नेक सलाह मांगी। दरवेश ने सबको एक ही बात कही:

‘मृत्यु के प्रति होश रखो, जब तक मृत्यु को जान ही न लो।’ दरवेश-ध्यान का एक सूत्र था यह। लेकिन किसी मुसाफिर को भी यह बात रास नहीं आई।

थोड़ी देर बाद समुद्र में भयानक तूफान उठा। समूचे जहाज में त्राहि-त्राहि मच गई। नाविक और यात्री, सभी घुटनों पर झुक गये और ईश्वर से जहाज को बचाने की प्रार्थना करने लगे। लेकिन इस आतंक के बीच भी दरवेश अनुद्विग्न और शांत बैठा रहा। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-05)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-04)

मृत शब्दों से जीवित सत्य की प्राप्ति असंभव—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 24 सितंबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

एक घुमक्कड़ साधु ने एक बूढ़ी स्त्री से तैजान का रास्ता पूछा। तैजान एक प्रसिद्ध मंदिर है और समझा जाता है कि वहां पूजा करने से विवेक की उपलब्धि होती है।

बूढ़ी स्त्री ने कहा: ‘सीधे आगे चले जाओ।’

जब साधु कुछ दूर गया था तो बुढ़िया ने स्वयं से कहा: ‘यह भी एक साधारण मंदिर जाने वाला है।’

किसी ने यह बात जोशू से कह दी।

जोशू ने कहा: ‘रुको, जब तक मैं जांच-पड़ताल न कर लूं।’ Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-04)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-03)

समाज की उपेक्षा कर स्वयं में छिपे ध्यान-स्रोत की खोज करें—(प्रवचन—तीसरा)  

दिनांक 23 सितंबर, 1974. श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

किसी पुराने समय में मूसा के गुरु खिद्र ने चेतावनी दी कि एक खास तारीख के बाद दुनिया के सारे पानी का गुण बदल जायेगा और उसे पीनेवाले पागल हो जायेंगे। केवल वे ही लोग सही-सलामत रहेंगे जो थोड़ा पानी अलग बचा कर रख लेंगे और उसे ही पीयेंगे।

केवल एक व्यक्ति ने खिद्र की चेतावनी पर ध्यान दिया। उसने थोड़ा पानी बचाकर रख लिया।

निश्चित तिथि के बाद वही हुआ जो खिद्र ने कहा था। और इस एक आदमी को छोड़ कर गांव के सभी लोग पागल हो गये। लेकिन जब उसने लोगों से बातचीत की, तब उसे पता चला कि सब उसे ही पागल समझते हैं। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-03)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-02)

अकंप चित्त में सत्य का उदय—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 22 सितंबर, 1974.  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

दो साधु एक झंडे के बारे में विवाद कर रहे थे।

एक ने कहा: ‘झंडा डोल रहा है।’

दूसरे ने कहा: ‘हवा डोल रही है।’

तभी छठे कुलगुरु वहां से गुजर रहे थे।

उन्होंने कहा: ‘न हवा, न झंडा, मन डोल रहा है।’

भगवान! इस झेन लघुकथा का अर्थ क्या है?

स बोध कथा में प्रवेश के पहले मन के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी चाहिए। पहली बात, कितना ही तेज तूफान हो, सागर की सतह ही कंपित होती है, सागर का अंतस्तल नहीं। ऊपर आंधियां बहें, तो भी लहरें ही डोलती हैं। सागर का अंतस केंद्र बिना डोला ही रहता है। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-02)”

दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-01)

 शरीर से तादात्म्य के कारण आत्मिक दीये के तले अँधेरा—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 21 सितंबर, 1974;  श्री ओशो आश्रम, पूना।

भगवान!

‘पथ के प्रदीप’ में आपका वचन है:

‘मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई मनुष्य का अपने प्रति ही अज्ञान है। दीये के नीचे जैसे अंधेरा होता है, वैसे ही मनुष्य उस सत्ता के प्रति अंधकार में होता है जो कि उसकी आत्मा है। हम स्वयं को ही नहीं जानते हैं। और तब यदि हमारा सारा जीवन ही गलत दिशाओं में चला जाता है, तो आश्चर्य करना व्यर्थ है।’

भगवान! मिट्टी के दीये तले अंधेरे का इकट्ठा होना तो कुछ समझ में आता है; लेकिन यह आत्मिक दीये के नीचे जो घना अंधकार है, उससे हम बिलकुल अपरिचित हैं। वह क्या है, क्यों है, और कैसे दूर हो सकता है, यह हमें विस्तार से समझाने की कृपा करें। Continue reading “दीया तले अंधेरा-(प्रवचन-01)”

दीया तले अंधेरा-(झेन कथा)-ओशो

दीया तले अँधेरा-

(ओशो द्वाराझेन और सूफी बोध कथाओं पर 21 सितंबर से 10 अक्‍टूबर, 1974 तक श्री रजनीश आश्रम, पूना में दिये गये बीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

 ह अंधेरा कब तक रहेगा? जब तक तुमने स्वयं को शरीर माना है, यह अंधेरा रहेगा। जब तक दीया है, तब तक अंधेरा रहेगा। ज्योति अकेली हो, फिर उसके नीचे कोई अंधेरा नहीं रहेगा। ज्योति सहारे से है। थोड़ी देर को सोचो, ज्योति मुक्त हो गई अकेली आकाश में, उसके चारों तरफ प्रकाश होगा। लेकिन ज्योति दीये के सहारे है। दीया तो ज्योति नहीं है। जितनी जगह दीया घेरेगा, उतनी तो अंधेरे में रहेगी। इसलिए बड़ी विरोधाभासी घटना घटती है। दीया सबको प्रकाशित कर देता है और खुद अंधेरे में डूबा रह जाता है। तुम सब को देख लेते हो, बस खुद ही का दर्शन नहीं हो पाता। तुम सबको समझ लेते हो, बस एक ही अनसमझा रह जाता है–वह तुम स्वयं हो। तुम सबकी सहायता कर देते हो, बस एक ही असहाय रह जाता है–वह भीतर। तुम चारों तरफ संपत्ति के ढेर लगा लेते हो, बस भीतर एक खालीपन, एक निर्धनता रह जाती है।…. Continue reading “दीया तले अंधेरा-(झेन कथा)-ओशो”

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