सत्य की खोज-(प्रवचन-05)

सत्य की खोज-ओशो

पांचवां–प्रवचन

शुन्य  से सत्य की ओर

(27 फरवरी 1969 रात्रि)

मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है, आत्मा दिखाई नहीं देती है और जो नहीं दिखाई देती, उसका इतना महत्व क्यों माना जाता है? और आप भी उसी न दिखाई पड़ने वाली आत्मा की बात क्यों कर रहे हैं?

वृक्ष दिखाई पड़ता है, जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं; जड़ें जमीन के भीतर छिपी होती हैं। लेकिन इस कारण नहीं दिखाई पड़ने वाली जड़ों का मूल्य कम नहीं हो जाता है। बल्कि जो वृक्ष दिखाई पड़ता है, वह उन्हीं जड़ों पर निर्भर होता है, जो दिखाई नहीं पड़तीं। और वृक्ष की ही देख-सम्हाल में जो समय गंवा देगा और जड़ों की फिकर नहीं करेगा, उसका वृक्ष सूख जाने वाला है। उस वृक्ष पर न पत्ते आएंगे, न फूल आएंगे, न फल लगेंगे। नहीं दिखाई पड़ने वाली जड़ों में ही वृक्ष के प्राण छिपे हैं। Continue reading “सत्य की खोज-(प्रवचन-05)”

सत्य की खोज-(प्रवचन-04)

चौथा–प्रवचन

स्वप्न से सत्य की ओर

(27 फरवरी 1969 सुबह)

प्रिय आत्मन्!

सूर्य के प्रकाश में गिरनार के चमकते मंदिरों को अभी देख कर मैं आया–उन मंदिरों को देख कर मुझे ख्याल आया, आत्मा के भी ऐसे ही गिरनार-शिखर हैं। आत्मा के उन शिखरों पर भी इनसे भी ज्यादा चमकते हुए मंदिर हैं। उन मंदिरों पर परमात्मा का और भी तीव्र प्रकाश है।

लेकिन हम तो बाहर के मंदिरों में ही भटके रह जाते हैं और भीतर के मंदिरों का कोई पता भी नहीं चल पाता! हम तो पत्थर के शिखरों में ही यात्रा करते हुए जीवन गंवा देते हैं! चेतना के शिखरों का कोई अनुभव ही नहीं हो पाता! Continue reading “सत्य की खोज-(प्रवचन-04)”

सत्य की खोज-(प्रवचन-03)

तीसरा–प्रवचन

श्रद्धा से सत्य की ओर

(26 फरवरी 1969 रात्रि)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि मैं कहता हूं सत्य शब्दों सें नहीं मिल सकता है, शास्त्रों से नहीं मिल सकता है, गुरुओं से नहीं मिल सकता है, तो फिर मैं प्रतिदिन क्यों बोलता हूं? क्योंकि मेरे बोलने से भी सत्य नहीं मिल सकेगा।

 

मेरे बोलने से भी सत्य नहीं मिलेगा, इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। किसी के भी बोलने से सत्य नहीं मिल सकता है। एक कांटा पैर में लग गया हो तो दूसरे कांटे से लगे हुए कांटे को निकाला जा सकता है। लेकिन कांटे के निकल जाने पर दोनों कांटे एक जैसे व्यर्थ हो जाते हैं और फेंक देने के योग्य हो जाते हैं। Continue reading “सत्य की खोज-(प्रवचन-03)”

सत्य की खोज-(प्रवचन-02)

दूसरा–प्रवचन

भ्रम से सत्य की ओर

(26 फरवरी 1969 सुबह)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक विस्तार मनुष्य के बाहर है। आंखें बाहर देखती हैं, हाथ बाहर स्पर्श करते हैं, कान बाहर सुनते हैं।

एक विस्तार बाहर है, एक विस्तार भीतर भी है, लेकिन न वहां आंख देखती है, न वहां हाथ स्पर्श करते हैं, न वहां कान सुनते हैं। शायद इसीलिए जो भीतर है, वह अनजाना और अपरिचित रह जाता है। या इसलिए भी कि वह इतने निकट है कि हमें दिखाई नहीं पड़ता। जो दूर है, वह दिखाई पड़ जाता है। जो निकट है, वह छिप जाता है!

देखने के लिए भी दूरी चाहिए, फासला चाहिए। आप मुझे दिखाई पड़ रहे हैं, क्योंकि मुझसे दूर हैं। मैं स्वयं को ही दिखाई नहीं पडूंगा, क्योंकि वहां दूरी जरा भी नहीं है। आंख सब कुछ देखती है, सिर्फ स्वयं को छोड़ कर। आंख अपने को ही नहीं देख पाती, जो सबको देखती है वह भी अपने को नहीं देख पाती है। Continue reading “सत्य की खोज-(प्रवचन-02)”

सत्य की खोज-(प्रवचन-01) 

सत्य की खोज-(साधना-शिविर)

पहला-प्रवचन

परतंत्रता से सत्य की ओर

(25 फरवरी 1969 रात्रि)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक सम्राट ने जंगलों में गीत गाते एक पक्षी को बंद करवा लिया।

गीत गाना भी अपराध है, अगर आस-पास के लोग गलत हों! उस पक्षी को पता भी नहीं होगा कि गीत गाना भी परतंत्रता बन सकता है।

आकाश में उड़ते और वृक्षों पर बसेरा करने वाले उस पक्षी को यद्यपि सम्राट ने सोने के पिंजड़े में रखा था! उस पिंजड़े में हीरे-जवाहरात लगाए थे! करोड़ों रुपये का पिंजड़ा था वह! Continue reading “सत्य की खोज-(प्रवचन-01) “

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