अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-25)

सब जागरण उसका है—पांचवां प्रवचन

पांचवां प्रवचन   15 मार्च 1978;    श्री रजनीश आश्रम पूना।

  सूत्र :

नामेति जैमिनि: सम्भवात्।। 61।।

अत्राड़;गप्रयोगाणां यथाकालसम्भवो गुहादिवत्।। 62।।

ईश्वर तुष्टेरेकोऽपि बली।। 63।।

अबन्धोऽर्पणस्य मुखम्।। 64।।

ध्यानवनियमस्तु दृष्टसौकर्यात्।। 65।। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-25)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-24)

प्रार्थना निरालंभ दशा है—चौथा प्रवचन :

चौथा प्रवचन   14 मार्च 1978;    श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

1–मैं क्या करूं? कैसे प्रार्थना करूं? कैसे अर्चना करूं?

2–आपने कहा : ‘न मैं पूर्ण हूं और न संत’। इससे मुझे बड़ा सदमा लगा। मैं रातभर सो भी    न सका।

3–संन्यास लेने में अहंकार ही सबसे बड़ी बाधा है; तो इसको कैसे हटाया जा सकता है?

4–आप शास्त्र—शान का विरोध क्यों करते हैं?

5–गरीब जानके हमको न तुम भुला देना 

तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना

6–आप सहित सभी महापुरुष जो जिंदा हैं, कभी इकट्ठे क्यों नहीं होते? प्रार्थना निरालंब दशा है Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-24)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-23)

गौणी-भक्‍ति में लगो, पराभक्‍ति की प्रतीक्षा करो—तीसराप्रवचन

प्रवचन तीसरा   13 मार्च 1978;    श्री रजनीश आश्रम, पूना।

 सूत्र :

भकत्‍या भजनोपसंहाराद्गौण्या परायैतद्धेतुत्वात्।।56।।

रागार्थे प्रकीर्त्तिसाहचर्याच्चेतरेषाम्।।57।।

अंतराले तू शेषा: स्युरुपास्यादौ च काण्डत्वात्।।58।।

ताभ्यः पाविन्दमुपक्रमात्।। 59।।

तासुप्रधान योगात् फलाऽधिक्यमेके।। 60।।

भक्ति की यात्रा को दो खंडों में बांटा जा सकता है। एक तो भक्त के हृदय में विरह की अवस्था है—वियोग की, रुदन की। और फिर दूसरी भक्त के हृदय में योग की अवस्था है—मिलन की, हर्ष—उन्माद की। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-23)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-22)

परमात्मा के प्रति राग है भक्ति—दूसरा प्रवचन

दूसरा प्रवचन   12 मार्च 1978;   श्री रजनीश आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार :

1–मेरे प्रति लोगों की क्या धारणा होगी, इससे सदा भयभीत रहता हूं। अब संन्यास लेना है, लेकिन भय के कारण रुका हूं। क्या करूं?

2–गीता में कृष्‍ण द्वारा अपने बार—बार आने में निमित्त रूप बताए गये तीन कारणों को क्या आप पूरा कर रहे हैं? क्योंकि आप अपने को भगवान कहते हैं।

3–आप अपने को भगवान क्यों कहते हैं? क्या आप सबको पैदा कर रहे हैं?

4–क्या इस जगत में प्रेम का असफल होना अनिवार्य ही है? परमात्मा के प्रति राग है भक्ति Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-22)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-21)

भगवान को नहीं, भक्‍ति को खोजो—पहला प्रवचन

पहला प्रवचन   11मार्च 1978;   श्री रजनीश आश्रम पूना।

 सूत्र :

 द्यूतराजसेवयो: प्रतिषेधाच्च।। 51 ।।

वासुदेवेऽपीति चेन्नाकारमात्रत्वात्।। 52 ।।

प्रत्यभिज्ञान्नाच्च।। 53 ।।

वृष्णिषु श्रेष्ठत्वमेतत्।। 54 ।।

एवं प्रसिद्धेषु च।। 55 ।।

अथातो भक्तिजिज्ञासा!

Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-21)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(शांडिल्य)-भाग-2

अथातो भक्ति जिज्ञासा—(भाग—२)

(ऋषिविर  शांडिल्‍य) –ओशो

प्रवेश से पूर्व

‘पूछा तुमने, कैसा धर्म इस पृथ्वी पर आप लाना चाहते हैं?

जीवन— स्वीकार का धर्म। परम स्वीकार का धर्म।

चूंकि जीवन— अस्वीकार की बातें बहुत प्रचलित रही हैं, इसलिये स्वभावत: लोग देह के विपरीत हो गए। अपने शरीर को ही सताने में संलग्न हो गए। और यह देह परमात्मा का मंदिर है। मैं इस देह की प्रतिष्ठा करना चाहता हूं। और चूंकि लोग संसार के विपरीत हो गए, देह के विपरीत हो गए, इसलिए देह के सारे सबंधों के विपरीत हो गए। भूल हो गई। Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(शांडिल्य)-भाग-2”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-20)

अद्वैत प्रीति की परमदशा है—बीसवां प्रवचन

दिनांक 30 जनवरी 1978;    श्री रजनीश आश्रम, पूना

 प्रश्‍न सार :

1–भक्ति सहज, इसलिए वैज्ञानिक। सहज को वैज्ञानिक कहने का आपका आशय क्या है?

      प्रीति अद्वैत है तो अद्वैत के नाम पर जो कहा जाता रहा है, वह क्या है?

      2–भगवान बुद्ध और भगवान कृष्ण के दो परस्पर विरोधी लगने वाले वचनों पर प्रकाश डालने       के लिए भगवान से अनुरोध।

      3–प्रवचन के बाद आपको जाते हुए देखती हूं तो एक निःश्वास निकल जाती है कि एक दिन   और व्यर्थ गया! कि एक दिन यह दिव्यपुरुष ऐसे ही आंखों से ओझल हो जाएगा और ऐसे   ही खड़ी—खड़ी देखती रह जाऊंगी।

      4–मैं अपना प्रेम प्रकट नहीं कर पाया। न मालूम कौन से भय ने पंगु बना रखा है। यह अविकसित    प्रेम कैसे भक्ति बनेगा?

      5–अब हम करें क्या? Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-20)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-19)

सब हो रहा है—उन्‍नीसवां प्रवचन

दिनांक 27 जनवरी 1978; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :

     तद्वाक्यशेषात् प्रादुर्भावेष्‍वपि सा।।46।

      जन्मकर्म्मविदश्चाजन्मशब्दात्।।47।।

      तच्च दिव्यं स्वशक्तिमात्रोद्भवात्।।48।।

      मुख्य तस्य हि कारुण्यम्।।49।।

      प्राणित्वान्न विभूतिषु।।50।। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-19)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-18)

विरह की परिपूर्णता ही परमात्मा से मिलन—अठारहवां प्रवचन

दिनांक 28 जनवरी 1978;    श्री रजनीश आश्रम, पूना

 प्रश्‍न सार :

1–आपने कहा जो सहज है वही भक्त है, वही भक्ति है। पर हमारे जीवन की सहजताएं किस भांति भक्ति कहे जा सकते हैं?

      2–भगवान का प्रवचन आंख बंद करके सुनना, या खुली आंख सुनना? एक साधिका की समस्या।

      3–यह मन—पंछी बहुत ऊंची उड़ाने भरता है, लेकिन पहुंचता कहीं नहीं। प्रभु, इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।

      4–शीघ्र समाधि की चाह एक भयंकर तनाव बनी जा रही है। मैं क्या करूं?

      5–क्या ध्यान भक्ति और ज्ञान से परे तीसरा ही कोई मार्ग है?

      6–विरह क्या है? Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-18)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-17)

भक्ति अति स्वाभाविक है—सत्रहवां प्रवचन

सत्रहवां प्रवचन   27 जनवरी 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र :

युकतौ च सम्परायात्।।41।।

      शक्तित्वान्नानृत वेद्यम्।।42।।

      तत्परिशुद्धिश्च गम्यालोकवल्लिंगेभ्य:।।43।।

      सम्मान बहुमान प्रीति विरहेतर विचिकित्सा।

      महिमख्याति तदर्थ प्राण स्थान तदीयता सर्व तदभावा।

      प्रातिकूल्यादीनिच स्मरचेभ्यो बाहुल्यात्।।44।।

      द्वेषादयस्तु नैवम्।।45।। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-17)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-16)

धर्म आमूल बगावत है—सोलहवां प्रवचन

सोलहवां प्रवचन,   26 जनवरी 1978;  श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍न सार :

1–क्या भक्ति और ज्ञान का भेद सतही है? क्या गहरे में दोनों एक हैं?

      2–क्या धर्म विद्रोह है?

      3–क्या संन्यास भक्ति की शुरुआत है?

      4–मैं तो प्रेम से बहुत पीड़ित हो चुका हूं; और आप कहते हैं—

      प्रेम का ऊर्ध्वगमन ही भक्ति है। अब उस कीचड़ में और नहीं पड़ना चाहता।

      5–भक्त, भक्ति और भगवान, इन तीनों शब्दों को समझाएं।

      6–आपके पास आना और बैठना अच्छा लगता है। प्रवचन सुनने के बाद लगता है कि कोई

      गहरा नशा किया हो; ध्यान वगैरह करने की भी इच्छा नहीं होती। पर संन्यास लेने की इच्छा होने लगी है। क्या इस योग्य हूं? Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-16)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-15)

भक्ति अंतिम सिद्धि है—पंद्रहवां प्रवचन

दिनांक 25 जनवरी 1978;    श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :

      सर्वानृते किमितिवेन्नैव बुद्धधानत्त्वात्।।36।।

      प्रकृत्यन्तरालादवैकार्यचित्त्वेनानुवर्तमानत्वात्।।37।।

      तत्पष्ठिगृहपीठवत्।।38।।

      मिथेपेक्षणादुभयम्।।39।।

      चैत्याचितोर्नत्रितीयम्।।40।। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-15)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-14)

परमात्मा परमनिर्धारणा का नाम—चौदहवां प्रवचन

दिनांक 24 जनवरी 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍न सार :

।–हसीद फकीरों ने मैं —तू भाव से;सूफियो एवं भक्तो ने तू— भाव से; वेदांत, उपनिषद एवं जैन परंपरा ने मैं— भाव से; बुद्ध एवं झेन परंपरा ने न मैं—न तू— भाव से और शांडिल्य ऋषि ने उभयपरा—स्वयाद्— भाव—से ईश्वर को अभिव्यक्त किया। पर आप तो पिछले सभी उपायो से अभिव्यक्ति दे रहे हैं!

     2–आपने कहा, नेति—नेति ज्ञान का और इति—इति भक्ति का उदघोष है। भक्ति के इस उदघोष में तो अंधेरा, कल्मष, पाप, सब आ जाते हैं। क्या परमात्मा सब है?

      3–तथ्य और सत्य में क्या अंतर है?

      4–मैं असंतुष्ट हूं हर बात से असंतुष्ट। और कभी—कभी सोचता हूं कि आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-14)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-13)

स्वभाव यानी परमात्मा—तेरहवां प्रवचन

दिनांक 23 जनवरी 1978;    श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :

     अभयपरां शांडिल्य: शब्दोपपत्तिभ्याम्।।31।।

      वैषम्यादऽसिद्धमितिचेन्नाभिज्ञानवदवैशिष्ट्यात।।32।।

      न च क्लिष्ट: परस्मादनन्तरं विशेषात्।।33।।

      ऐश्वर्ये तथेति चेन्‍न स्वाभाव्यात्।।34।।

      अप्रतिषिद्धं परैश्वर्थ्य तद्भावाच्च नैवमितरेषाम्।।35।।

प्रभु को पाना कठिन। लेकिन उसे पाकर उसे कहना और भी कठिन। पाना इतना कठिन नहीं है, क्योंकि वस्तुत: हम उससे क्षणभर को भी दूर नहीं हुए है। मछली सागर में ही है। सागर का विस्मरण हुआ है, जिस क्षण याद आ जाएगी उसी क्षण सागर मिल गया। सागर छूटा कभी न था। संपत्ति गंवायी नहीं है। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-13)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-12)

भक्ति एकमात्र धर्म—बारहवां प्रवचन

दिनांक 22 जनवरी 1978;    श्री रजनीश आश्रम, पूना

 प्रश्‍न सार :

1–शुभ क्या है, अशुभ क्या है? फिर शुभाशुभ के पार क्या है?

      2–जीवन दुख है, फिर भी आदमी जागता नहीं। जीवन के नर्क के बावजूद आदमी जीए किस तरह चले जाता ?

      3–जिसे चाहो वह ठुकराता क्यों है?

      4–ज्ञान, ध्यान और योग के मुकाबले में भक्ति अधिक परंपराग्रस्त और रूढ़िवादी क्यों?

      5–आपने अपने प्रेमी और प्रेयसी में भी परमात्मा ही देखने को कहा, यह मेरी समझ में नहीं आया। शरीर के नाते—रिश्ते व वासना के संबंधों में कहा परमात्मा! Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-12)”

अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-11)

भक्ति आत्यंतिक क्रांति है—ग्‍यारहवां प्रवचन

दिनांक 21 जनवरी 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :

ब्रह्मकांडं तु भक्तौ तस्यानुज्ञानाय सामान्यात्।।26।।

      बुद्धिहेतुप्रवृत्तिराविशुद्धेरवधातवत्।।27।।

      तदङगानाज्‍च।।28।।

      तामैंश्वर्थ्यपदा काश्यप: परत्वात्।।29।।

      आत्मैकपरां बादरायण:।।30।।

मनुष्य का अस्तित्व तीन तलों में विभाजित है—शरीर, बुद्धि, हृदय। या दूसरी तरह से कहें तो कर्म, विचार और भाव। इन तीनों तलों से स्वयं की यात्रा हो सकती है। स्थूलतम यात्रा होगी कर्मवाद की। इसलिए धर्म के जगत में कर्मकांड स्थूलतम प्रक्रिया है। Continue reading “अथातो भक्ति जिज्ञासा-(प्रवचन-11)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-10)

संन्यास शिष्यत्व की पराकाष्ठा है—दसवां प्रवचन

दिनांक 20 जनवरी 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍न सार:

  1–क्या प्रार्थना और भक्ति भिन्न—भिन्न हैं?

      2–संन्यास की वैज्ञानिक विधि क्या है? जो पथ मुझे मौन में मिला है, वह श्रेष्ठ है या   संन्यास?

      3–क्या संन्यास लिए बगैर मेरा शिष्य रहना संभव? सोचता हूं आपकी साधना में एक शाखा ऐसी भी रहे जिसमें बिना संन्यास वगैरह लिए उस सत्ता तक पहुंचा जाए।

      4–यह संसार क्या है, यह माया क्या है?

      5–क्या आप शराब भी पीते हैं? Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-10)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-09)

अनुराग है तुम्‍हारा अस्‍तित्‍व—नौवां प्रवचन

दिनांक 19 जनवरी 1978; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :

       रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।।21।।

      तदेव कर्म्मिज्ञानियोगिभ्य आधिक्यशब्दात्।।22।।

      प्रश्ननिरूपणाभ्यामाधिक्यसिद्धे:।।23।।

      नैवश्रद्धा तु साधारण्यात्।।24।।

      तस्यां तत्वेचानवस्थानात्।।25।।

‘रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।

‘ अनुराग का ही नाम भक्ति है। कोई ऐसा भी कहते हैं कि अनुराग दुख का कारण है, इसलिए उसका त्याग करना उचित है। परंतु यह बात ऐसी नहीं है;क्योंकि संग की भांति इसका आश्रय उत्तम है। ‘ Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-09)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-08)

प्रीति की पराकाष्ठा भक्ति है—आठवां प्रवचन

दिनांक 18 जनवरी 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

 प्रश्‍न सार:

1–मनुष्य की आस्था धर्म से क्यों उठ गयी है?

      2–शांडिल्य ज्ञान और योग को भक्ति का सहायक बताते हैं। वैसे ही ज्ञान और योग के    प्रस्तोता भक्ति को अपना सहायक मानते हैं या नहीं?

      3–क्या भक्त भी कभी भगवान से झगड़ता है?

      4–संन्यासी के संबंध में नीत्से का कथन—कहा तक सही, कहा तक गलत?

      5–समर्पण यानी क्या? Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-08)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-07)

स्वानुभव ही श्रद्धा है—सातवां प्रवचन

दिनांक 17 जनवरी 1978;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र :

प्रागुक्त च।।16।।

      एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्त :।।17।।

      देवभक्तिरितरस्मिन् साहचर्थ्यात्।।18।।

      योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्प्रयोजवत्।।19।।

      गौण्यातु समाधिसिद्धि:।।20।।

भक्ति परम है। उसके पार कुछ और नहीं, भगवान भी नहीं।

भक्ति है वह बिंदु जंहा भक्त और भगवान का द्वैत समाप्त हो जाता है; जंहा सब दुई मिट जाती है; जहां दो—पन एक—पन में लीन हो जाता है। Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-07)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-06)

भक्‍त के मिटने से भगवान का उदय—छठवां प्रवचन

दिनांक 16 जनवरी 1976;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार :

1–प्रसाद से प्रभु —उपलब्धि कैसे?

      2–नारद और शांडिल्य के भक्ति—सूत्रों में इतना भेद क्यो?

      3–दर्शनशास्त्र में इतनी उलझनें क्यों?

      4–भक्ति के साथ जिज्ञासा शब्द का उपयोग अजीब लगता है! क्या ज्ञान की जिज्ञासा में व भक्ति की जिज्ञासा में फर्क है?

      5–मेरे संन्यास लेने की चाह में मित्र व प्रियजन बाधा बन रहे हैं। में क्या करूं? Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-06)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-05)

भक्‍ति याने जीने का प्रारंभ—पांचवां प्रवचन

दिनांक 15 जनवरी 1978; श्री रजनीश आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।

सूत्र :

प्रकरणाच्च।। ११।।

      दर्शनफलमितिचेन्न तेनव्यवधानात्।। १२।।

      दृष्टत्वाच्च।। १३।।

      अत एव तदभावाद्वल्लवीनाम्।। १४।।

      भक्ला जानातीतिचेन्नभिज्ञप्तया साहाथ्यात्।। १५।

कदम उसी मोड़ पर जमे हैं

नजर समेटे हुए खड़ा हूं

जुनू यह मजबूर कर रहा है पलट के देखूं Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-05)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-04)

प्रीति-स्‍नेह-प्रेम-श्रद्धा-भक्‍ति—चौथा प्रवचन

दिनांक 14 जनवरी 1979;   श्री रजनीश आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।

प्रश्‍न सार:

1–क्‍या प्रति स्‍नेह, प्रेम, श्रद्धा से गुजर कर स्‍वभावत: ही भक्‍ति में रूपांतरित होती है?

2–वर्णनातीत को कहकर क्‍यों कोई शांडिल्‍य मनुष्‍यता के सामने एक पत्‍थर धर देता है?

3–क्‍या परमात्‍मा काअनुभव प्रत्‍येक का अलग-अलग तरह का है?

4–क्‍या प्रार्थनाएं प्रभु तक पहुंचती है? Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-04)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-03)

भक्‍ति परमात्‍मा की किरण है—तीसरा प्रवचन

13 जनवरी 1978,    श्री रजनीश आश्रम, पुना।

सूत्र :

द्वेषप्रतिक्षभाद्रसशब्‍दाच्‍च राग:।।6।।

      नक्रियाकृत्‍यनपेक्षणाज्‍ज्ञानवत्।।7।।

      अत एवफलानन्‍त्‍यम् ।।8।।

      तद्वत:प्रपत्‍तिशब्‍दाच्‍च नज्ञानमितरप्रपत्‍तिवत्।।9।।

      सा मुख्‍येतरापेक्षितत्‍वात्।।10।।

मनुष्‍य है एक द्वंद्व। प्रकाश और अंधकार का; प्रेम और घृणा का। यह द्वंद्व अनेक सतहों पर प्रकट होता है। यह द्वंद्व मनुष्‍य के कण—कण्रामें छिपा है। राम और रावण प्रतिपल संघर्ष में रत है। प्रत्‍येक  व्‍यक्‍ति  कूरुक्षेत्र में ही खड़ा है। महाभारत कभी हुआ और समाप्‍त हो गया, ऐसा नही, जारी है। हर नए बच्‍चे  के साथ फिर पेदा होता है। Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-03)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-02)

प्रीति को कामना से मुक्‍त करो—दूसरा प्रवचन

दिनांक 12 जनवरी 1978; श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍न सार: 

  01-वन क्या है?

      02-शांडिल्य ऋषि के संबंध में कुछ कहें?

      03-बुद्धि श्रद्धा करने में बाधा बनती है। वह आशंका और प्रश्न उठाती है! प्रीति और  कामना   के  बीच क्या कुछ संबंध है?

      04-प्रीति को कामना से मुक्त करो

पहला प्रश्न : जीवन क्या है?

ऐसे प्रश्न सरल लगते हैं। सभी के मन में उठते है। पर ऐसे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। ऐसे प्रश्न वस्तुत: प्रश्न ही नहीं हैं, इसलिए उनका उत्तर नहीं। Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-02)”

अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-01)

भक्ति जीवन का परम स्वीकार है—पहला प्रवचन

दिनांक 11 जनवरी, 1987,  श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र :

ओम् अथातोभक्तिजिज्ञासा।।1।।

      सापरानुरक्तिरीश्वरे।।2।।

      तत्संस्थास्यामृतत्वोपदेशात्।।3।।

      ज्ञानमितिचेन्नद्विषतोऽपिज्ञानस्यतदसस्थिते:।।4।।

      तयोपक्षयाच्च।। 5।।

      ओम् अथातोभक्तिजिज्ञासा!

यह सुबह, यह वृक्षों में शांति, पक्षियों की चहचहाहट… या कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना, पहाड़ों का सन्नाटा… या कि नदियां का पहाड़ों से उतरना… या सागरों में लहरों की हलचल, नाद… या आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट—यह सभी ओंकार है। Continue reading “अथातो भक्‍ति जिज्ञासा-(प्रवचन-01)”

अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-10)

अनंत भजनों का फल : सुरित-प्रवचन-दसवां

दिनांक 30 जूलाई 1977, ओशो आश्रम पूना।

प्रश्नसार:

1-क्या भजन जब पूरा हो जाता है, तब जो शेष रह जाता है, वही सुरति है?

2-रामकृष्ण परमहंस अपने संन्यासियों को कामिनी और कांचन से दूर रहने के लिए सतत चेताते रहते थे। आप प्रगाढ़ता से भोगने को कहते हैं। इस फर्क का कारण क्या है?

3-जहां ज्ञानी मुक्ति या मोक्ष की महिमा बखानते हैं, वहां भक्त उत्सव और आनंद के गीत गाते हैं। ऐसा क्यों है?

4-आपने कहा कि तुम जो भी करोगे गलत ही करोगे, क्योंकि तुम गलत हो। ऐसी स्थिति में आप हमें साफ-साफ क्यों नहीं बताते कि हम क्या करें? Continue reading “अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-10)”

अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-09)

भक्ति आंसुओ से उठी एक पूकार-प्रवचन-नौवा

दिनांक 29 जुलाई, 1977 ओशो आश्रम पूना।

सारसूत्र:

सोई सती सराहिए, जरै पिया के साथ।।

जरै पिया के साथ, सोइ है नारि सयानी।

रहै चरन चित लाय, एक से और न जानी।।

जगत् करै उपहास, पिया का संग न छोड़ै।

प्रेम की सेज बिछाय, मेहर की चादर ओढ़ै।

ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।

मारै भूख-पियास याद संग चलती स्वासा।। Continue reading “अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-09)”

अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-08)

धर्म का जन्म..एकांत में—प्रवचन-आठवां

प्रशनसार-

1-क्या ध्यान की तरह भक्ति भी एकाकीपन से ही शुरू होती है?

2-पलटूदास जी कहते हैं : “लगन-महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम’। और नक्षत्र-विज्ञान कहता है कि लग्न-मुहूर्त से काम बनने की संभावना बढ़ जाती है?

3-काम पकने पर उसमें रुचि क्षीण होने लगती है। प्रेम पकने पर क्या होता है?

4-सब कुछ दांव पर लगा देने का क्या अर्थ है?

5-प्रबल जीवेषणा के होते हुए भी किस भांति भक्त को अपने हाथ से अपना सीस उतारना संभव होता है?

6-संत पलटूदास उसे गंवार कहते हैं जो जगत् की झूठी माया में फंसा है और उसे बेवकूफ, जो प्रेम की ओर कदम बढ़ाता है। फिर बुद्धिमान कौन है? Continue reading “अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-08)”

अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-07)

सहज आसिकी नाहिं—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 जूलाई, 1977;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र:

सीस उतारै हाथ से, सहज आसिकी नाहिं।।

सहज आसिकी नाहिं, खांड खाने को नाहीं।

झूठ आसिकी करै, मुलुक में जूती खाहीं।।

जीते जी मरि जाय, करै ना तन की आसा।

आसिक का दिन रात रहै सूली उपर बासा।।

मान बड़ाई खोय नींद भर नाहीं सोना।

तिलभर रक्त न मांस, नहीं आसिक को रोना।। Continue reading “अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-07)”

अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-06)

जानिये तो देव, नहीं तो पत्‍थर—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 जुलाई, 1977;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

1—कहावत हैः”मानिए तो देव, नहीं तो पत्थर’। क्या सब मानने की ही बात है?

2—आपके पास रहकर भी मुझे अपने को मिटाने में भय लगता है। मैं अपना यह भय कैसे दूर करूं?

3—मन से मुक्त होना असंभव-सा लगता है। हमें पता भी नहीं चलता कि मन कई तरह की वासनाओं में भटकने लगता है। और बहुत सावधानी रखकर थोड़ा-सा होश संभालता है कि फिर-फिर मन कल्पनाओं में बहने लगता है। कृपया इसे समझाएं।

4—जब आप अष्टावक्र, बुद्ध या लाओत्से पर बोलते हैं, तब आपकी वाणी में बुद्धि और तर्क का अपूर्व तेज प्रवाहित होता है। लेकिन जब वही आप भक्ति-मार्गी संतों पर बोलते हैं, तब बातें अटपटी होने लगती हैं। ऐसा क्यों? Continue reading “अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-06)”

अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-05)

जीवन : एक बसंत की बेला—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 जुलाई, 1977;   श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र:

क्या सोवै तू बावरी, चाला जात बसंत।।

चाला जात बसंत, कंत ना घर में आए।

धृग जीवन है तोर, कंत बिन दिवस गंवाए।।

गर्व गुमानी नारि फिरै जोवन की माती।

खसम रहा है रूठि, नहीं तू पठवै पाती।।

लगै न तेरो चित्त, कंत को नाहिं मनावै।।

कापर करै सिंगार, फूल की सेज बिछावै।।

पलटू ऋतु भरि खेलि ले, फिर पछतावै अंत।

क्या सोवै तू बावरी, चाला जात बसंत।।7।। Continue reading “अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-05)”

अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-04)

जीवन एक श्‍लोक है—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 24 जूलाई, 1977;  श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

।–आप कहते हैं कि शिष्य गुरु को नहीं खोज सकता; गुरु ही शिष्य को खोजता है। लेकिन कोई शिष्य यह कैसे समझे कि उसे सद्गुरु ने खोजा है?

2—हेतु के साथ प्रधानमंत्री के चरण छूने में और हेतु के साथ संत के चरण छूने में क्या कुछ भी फर्क नहीं है?

3—सुबह और शाम, रात और दिन आपका ही खयाल उठता है। घरवाले पागल कहते हैं। प्रभु, एक धक्का और दें कि गहरे ध्यान में डूबूं और आपसे छुटकारा हो।

4—आप तो बड़ी सरलता और सहजता से कह देते हैं कि दुःखी तुम अपने कारण हो, चाहो तो दुःख से मुक्त हो जाओ। आपके लिए तो बात छोटी-सी है; पर इस छोटी-सी बात को आप से सुन-सुन कर भी हम क्यों नहीं समझ पाते हैं?

5—चौरासी कोटि योनियों का अभिप्राय कृपा करके समझाइए और हमें भय से मुक्त करिए। Continue reading “अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-04)”

अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-03)

बड़ी से बड़ी खता—खुदी—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 23 जूलाई, 1977;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र:

दीपक बारा नाम का, महल भया उजियार।।

महल भया उजियार, नाम का तेज विराजा।

सब्द किया परकास, मानसर ऊपर छाजा।।

दसों दिसा भई सुद्ध, बुद्ध भई निर्मल साची।

छूटी कुमति की गांठ, सुमति परगट होय नाची।।

होत छतीसो राग, दाग तिर्गुन का छूटा।

पूरन प्रगटे भाग, करम का कलसा फूटा।।

पलटू अंधियारी मिटी, बाती दीन्ही बार। Continue reading “अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-03)”

अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-02)

मनुष्‍य का मौलिक गंवारपन—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 22 जूलाई 1977;   श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1—अजहूं चेत गंवार–पलटूदास जी का यह संबोधन तो सभी के लिए है; पर हम सबका एक मात्र गंवारपन क्या है? आप कृपा करके हमें कहें।

2—संत पलटूदास कहते हैं कि भागवत-धन की लूट हो रही है और जो चाहे सो लेय। यदि ऐसी बात है तो क्यों इस बात का धनी करोड़ों में एकाध हो पाता है?

3—संन्यास का फल मधुर है, फिर भी सभी उसे क्यों नहीं चखते? कृपा करके कहिए। Continue reading “अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-02)”

अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-01)

प्रवचन—पहला    आस्‍था का दीप—सदगुरू की आँख में

दिनांक 21 जुलाई, 1977;   श्री रजनीश आश्रम पूना।

नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार। ।

कैसे उतरै पार पथिक विश्वास न आवै।

लगै नहीं वैराग यार कैसे कै पावै। ।

मन में धरै न ग्यान, नहीं सतसंगति रहनी।

बात करै नहिं कान, प्रीति बिन जैसी कहनी। ।

छूटि डगमगी नाहिं, संत को वचन न मानै।

मूरख तजै विवेक, चतुराई अपनी आनै। ।

पलटू सतगुरु सब्द का तनिक न करै विचार।

नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार ।।1।।

 साहिब वही फकीर है जो कोई पहुंचा होय। । Continue reading “अजहू चेत गवांर-(प्रवचन-01)”

अजहूं चेत गवांर-(पलटू दास)-ओशो

 अजहूं चेत गंवार (संत पलटू दास)   ओशो

पलटू उत्सव के पक्षपाती हैं

प्रभु से मित्र ने का निकटतम मार्ग. है उत्सव।

निकटतम मार्ग है : नृत्य।

बुलाओ प्रभु को–आनंद के आंसुओं से बुलाओ!

पैरों में घूंघर बांधो। नृत्य, गीत-गान से बुलाओ!

हृदय की वीणा बजाओ! गीत को फूटने दो!

उत्सव की बांसुरी बजाओ, रास रचाओ!

देखते नहीं, परमात्मा चारो तरफ कितने उत्सव में है! Continue reading “अजहूं चेत गवांर-(पलटू दास)-ओशो”

अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-10

अंतर की खोज-(विविध)   ओशो   (दसवां-प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

तीन मुक्ति-सूत्रों के संबंध में सुबह मैंने आपसे बात की। सत्य को जानने की दिशा में, या आनंद की उपलब्धि में, या स्वतंत्रता की खोज में मनुष्य का चित्त सीखे हुए ज्ञान से, अनुकरण से और वृत्तियों के प्रति मरूच्छा से मुक्त होना चाहिए, यह मैंने कहा।

इस संबंध में बहुत से प्रश्न आए हैं। उन पर हम विचार करेंगे।

बहुत से मित्रों ने पूछा है कि यदि शास्त्रों पर श्रद्धा न हो, महापुरुषों पर विश्वास न हो, तब तो हम भटक जाएंगे, फिर तो कैसे ज्ञान उपलब्ध होगा? Continue reading “अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-10”

अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-09

अंतर की खोज-(विविध)

ओशो

नौवां-प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक संध्या एक पहाड़ी सराय में एक नया अतिथि आकर ठहरा। सूरज ढलने को था, पहाड़ उदास और अंधेरे में छिपने को तैयार हो गए थे। पक्षी अपने निबिड़ में वापस लौट आए थे। तभी उस पहाड़ी सराय में वह नया अतिथि पहुंचा। सराय में पहुंचते ही उसे एक बड़ी मार्मिक और दुख भरी आवाज सुनाई पड़ी। पता नहीं कौन चिल्ला रहा था? पहाड़ की सारी घाटियां उस आवाज से…लग गई थीं। कोई बहुत जोर से चिल्ला रहा था–स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।

वह अतिथि सोचता हुआ आया, किन प्राणों से यह आवाज उठ रही है? कौन प्यासा है स्वतंत्रता को? कौन गुलामी के बंधनों को तोड़ देना चाहता है? कौनसी आत्मा यह पुकार कर रही? प्रार्थना कर रही?

और जब वह सराय के पास पहुंचा, तो उसे पता चला, यह किसी मनुष्य की आवाज नहीं थी, सराय के द्वार पर लटका हुआ एक तोता स्वतंत्रता की आवाज लगा रहा था।

वह अतिथि भी स्वतंत्रता की खोज में जीवन भर भटका था। उसके मन को भी उस तोते की आवाज ने छू लिया।

रात जब वह सोया, तो उसने सोचा, क्यों न मैं इस तोते के पिंजड़े को खोल दूं, ताकि यह मुक्त हो जाए। ताकि इसकी प्रार्थना पूरी हो जाए। अतिथि उठा, सराय का मालिक सो चुका था, पूरी सराय सो गई थी। तोता भी निद्रा में था, उसने तोते के पिंजड़े का द्वार खोला, पिंजड़े के द्वार खोलते ही तोते की नींद खुल गई, उसने जोर से सींकचों को पकड़ लिया और फिर चिल्लाने लगा–स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।

वह अतिथि हैरान हुआ। द्वार खुला है, तोता उड़ सकता था, लेकिन उसने तो सींकचे को पकड़ रखा था। उड़ने की बात दूर, वह शायद द्वार खुला देख कर घबड़ा आया, कहीं मालिक न जाग जाए। उस अतिथि ने अपने हाथ को भीतर डाल कर तोते को जबरदस्ती बाहर निकाला। तोते ने उसके हाथ पर चोटें भी कर दीं। लेकिन अतिथि ने उस तोते को बाहर निकाल कर उड़ा दिया।

निश्चिंत होकर वह मेहमान सो गया उस रात। और अत्यंत आनंद से भरा हुआ। एक आत्मा को उसने मुक्ति दी थी। एक प्राण स्वतंत्र हुआ था। किसी की प्रार्थना पूरी करने में वह सहयोगी बना। वह रात सोया और सुबह जब उसकी नींद खुली, उसे फिर आवाज सुनाई पड़ी, तोता चिल्ला रहा था–स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।

वह बाहर आया, देखा, तोता वापस अपने पिंजड़े में बैठा हुआ है। द्वार खुला है और तोता चिल्ला रहा है–स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। वह अतिथि बहुत हैरान हुआ। उसने सराय के मालिक को जाकर पूछा, यह तोता पागल है क्या? रात मैंने इसे मुक्त कर दिया था, यह अपने आप पिंजड़े में वापस आ गया है और फिर भी चिल्ला रहा, स्वतंत्रता?

सराय का मालिक पूछने लगा, उसने कहा, तुम भी भूल में पड़ गए। इस सराय में जितने मेहमान ठहरते हैं, सभी इसी भूल में पड़ जाते हैं। तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी आकांक्षा नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं। तोता जो चिल्ला रहा है, वह उसकी अपनी प्रार्थना नहीं, सिखाए हुए शब्द हैं, यांत्रिक शब्द हैं। तोता स्वतंत्रता नहीं चाहता, केवल मैंने सिखाया है वही चिल्ला रहा है। तोता इसीलिए वापस लौट आता है। हर रात यही होता है, कोई अतिथि दया खाकर तोते को मुक्त कर देता है। लेकिन सुबह तोता वापस लौट आता है।

मैंने यह घटना सुनी थी। और मैं हैरान होकर सोचने लगा, क्या हम सारे मनुष्यों की भी स्थिति यही नहीं है? क्या हम सब भी जीवन भर नहीं चिल्लाते हैं–मोक्ष चाहिए, स्वतंत्रता चाहिए, सत्य चाहिए, आत्मा चाहिए, परमात्मा चाहिए? लेकिन मैं देखता हूं कि हम चिल्लाते तो जरूर हैं, लेकिन हम उन्हें सींकचों को पकड़े हुए बैठे रहते हैं जो हमारे बंधन हैं। हम चिल्लाते हैं, मुक्ति चाहिए, और हम उन्हीं बंधनों की पूजा करते रहते हैं जो हमारा पिंजड़ा बन गया, हमारा कारागृह बन गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह मुक्ति की प्रार्थना भी सिखाई गई प्रार्थना हो, यह हमारे प्राणों की आवाज न हो? अन्यथा कितने लोग स्वतंत्र होने की बातें करते हैं, मुक्त होने की, मोक्ष पाने की, प्रभु को पाने की। लेकिन कोई पाता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। और रोज सुबह मैं देखता हूं, लोग अपने पिंजड़ों में वापस बैठे हैं, रोज अपने सींकचों में, अपने कारागृह में बंद हैं। और फिर निरंतर उनकी वही आकांक्षा बनी रहती है।

सारी मनुष्य-जाति का इतिहास यही है। आदमी शायद व्यर्थ ही मांग करता है स्वतंत्रता की। शायद सीखे हुए शब्द हैं। शास्त्रों से, परंपराओं से, हजारों वर्ष के प्रभाव से सीखे हुए शब्द हैं। हम सच में स्वतंत्रता चाहते हैं? और स्मरण रहे कि जो व्यक्ति अपनी चेतना को स्वतंत्र करने में समर्थ नहीं हो पाता, उसके जीवन में आनंद की कोई झलक कभी उपलब्ध नहीं हो सकेगी। स्वतंत्र हुए बिना आनंद का कोई मार्ग नहीं है।

दासता ही दुख है। यह जो स्प्रिचुअल स्लेवरी है, यह जो हमारी मानसिक गुलामी है, वही हमारा दुख, वही हमारी पीड़ा, वही हमारे जीवन का संकट है। शायद हम सबके मन में उससे मुक्त होने का खयाल भी पल रहा हो। लेकिन हमें पता नहीं कि जिन बातों को हम पकड़े हुए बैठे रहते हैं वे ही हमारे बंधन को पुष्ट करने वाली बातें हैं। उन थोड़े से बंधनों पर मैं चर्चा करूंगा। और उन्हें तोड़ने के संबंध में भी। ताकि मनुष्य की आत्मा मुक्ति का कोई मार्ग खोज सके।

मनुष्य के ऊपर सबसे बड़े बंधन क्या हैं?

हैरान होंगे आप यह जान कर कि मनुष्य के ऊपर सबसे बड़े बंधन विश्वास के,…के बंधन हैं। शायद हमें इसका खयाल भी न हो। हम तो सोचते हैं, जो मनुष्य विश्वासी है, जो मनुष्य श्रद्धालु है, वही धार्मिक है। और मैं आपसे निवेदन करना चाहूंगा, धर्म का श्रद्धा और विश्वास से कोई भी संबंध नहीं है। श्रद्धा और विश्वास से गुलामी का संबंध है, धर्म का संबंध नहीं। धर्म तो परम स्वतंत्रता से संबंध रखता है। धर्म तो परम स्वतंत्रता की आकांक्षा है। और विश्वास और श्रद्धाएं बंधन हैं, स्वतंत्रताएं नहीं।

विश्वास का मतलब है: जो हम नहीं जानते उसे हमने मान रखा है। और जो हम नहीं जानते उसे मान लेना चित्त को गुलाम बनाता है। ज्ञान तो मुक्त करता है। विश्वास? विश्वास बंधन में बांधता है। सारी दुनिया विश्वासों के बंधन में पीड़ित है। फिर चाहे उन विश्वासों का नाम हिंदू हो, उन विश्वासों का नाम मुसलमान हो, उन विश्वासों का नाम ईसाई हो, उन विश्वासों का नाम जैन हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। विश्वास मात्र मनुष्य के चित्त को मुक्त नहीं होने देते। विश्वास मात्र मनुष्य के जीवन में विचार को पैदा नहीं होने देते। और विचार, विचार की तीव्र शक्ति का जाग जाना विवेक का प्रबुद्ध हो जाना ही स्वतंत्रता का पहला चरण है। मनुष्य की आत्मा मुक्त हो सकती है  विचार की ऊर्जा से, विश्वासों के बंधनों से नहीं।

लेकिन यदि हम अपने मन की खोज करेंगे, तो पाएंगे, हम सब विश्वासों से बंधे हुए हैं। विश्वास हमारे अज्ञान को बचा लेने का कारण बन जाते हैं। बचपन से ही हमें कुछ बातें सिखा दी जाती हैं और हम उनको मान लेते हैं बिना पूछे, बिना प्रश्न किए, बिना खोजे, बिना अनुभव किए हम स्वीकार कर लेते हैं। यह स्वीकृति, यह सहयोग ही हमारे हाथ से अपने ही बंधन निर्मित करने का कारण हो जाते हैं।

मैं एक छोटे से अनाथालय में गया था। वहां अनाथालय के संयोजकों ने मुझसे कहा कि हम अपने बच्चों को धर्म की शिक्षा देते हैं।

मेरी दृष्टि में तो धर्म की कोई शिक्षा हो ही नहीं सकती। धर्म की साधना हो सकती है, शिक्षा नहीं। क्योंकि शिक्षा दी जाती है बाहर से और साधना का जन्म होता है भीतर से। धर्म की कोई शिक्षा मेरी दृष्टि में नहीं हो सकती।

तो मैंने उनसे पूछा, मैं जरूर चल कर देखना चाहूंगा, आप क्या शिक्षा देते हैं।

वे मुझे बहुत खुशी से अपने अनाथालय में ले गए।

अनाथ, दीन-हीन बच्चे थे, उन्हें जो भी सिखाया था सीखना पड़ा था। उन्होंने उन बच्चों से पूछा, ईश्वर है? वे सारे दीन-हीन बच्चे हाथ उठा कर ऊपर खड़े हो गए ईश्वर की स्वीकृति में कि ईश्वर है!

उन बच्चों को पता है ईश्वर के होने का? उन्हें ईश्वर का कोई भी अंदाज है? कोई भी अनुभव? उन्हें ईश्वर के प्रकाश की कोई भी किरण मिली है? नहीं, कोई भी किरण का उन्हें पता नहीं। उन्हें जो यह सिखाया गया है कि ईश्वर है, और जब हम पूछें कि ईश्वर है, तो तुम हाथ ऊपर उठाना।

उन्होंने हाथ ऊपर उठा दिए।

वे हाथ बिलकुल झूठे और असत्य हैं। वे हाथ ज्ञान के हाथ नहीं, विश्वास के हाथ हैं। वे हाथ असत्य हैं।

फिर उनसे पूछा कि आत्मा है?

उन सारे बच्चों ने फिर हाथ उठा दिए।

उनसे पूछा, आत्मा कहां है?

उन सबने अपने हृदय पर हाथ रख लिए।

ये सारी सूचनाएं झूठी हैं। यह हृदय पर जाता हुआ हाथ झूठा है। सिखाया हुआ हाथ है यह।

मैंने एक छोटे से बच्चे से पूछा, हृदय कहां है?

उस बच्चे ने कहा, यह तो हमें बताया नहीं गया, मुझे मालूम नहीं।

जिस बच्चे को हृदय का भी पता नहीं कि कहां है, उसे यह पता है कि आत्मा यहां है, परमात्मा यहां है! यह कैसे पता हो सकता है? फिर यह बच्चे को जब वह अबोध है, जब अभी उसके भीतर विचार का, चिंतन का जन्म नहीं हुआ, यह बात उसके मन में डाल दी गई। वह बच्चा बड़ा होगा, यह बात उसके खून में मिल जाएगी। वह जवान होगा, वह बूढ़ा हो जाएगा, और जब भी जीवन में प्रश्न उठेगा उसके ईश्वर है, तो बचपन का सीखा हुआ हाथ ऊपर उठ जाएगा और कहेगा, ईश्वर है। यह उत्तर झूठा होगा। चूंकि यह उत्तर बाहर से सिखाया गया है। इस उत्तर का धर्म से कोई संबंध नहीं रह जाता।

अगर ये बच्चे रूस में पैदा हुए होते, तो रूस की हुकूमत और रूस के गुरु इन्हें दूसरी बात सिखाते। वे सिखाते: कोई ईश्वर नहीं है, कोई आत्मा नहीं है। ये बच्चे रूस में इस बात को सीख लेते और जिंदगी भर इसी बात को दोहराते रहते। रूस में जो बात सिखाई जाती है वह सत्य होती है? शायद आपका मन कहेगा कि हम तो सत्य सिखा रहे हैं, वे असत्य सिखा रहे हैं। लेकिन मैं आपसे निवेदन करता हूं, सत्य को सिखाया ही नहीं जा सकता, जो भी सिखाया जाता है वह सब असत्य होता है। क्योंकि सिखाई गई बात व्यक्ति के प्राणों से नहीं उठती, ऊपर से डाल दी जाती है। हम सब भी जो बातें जानते हैं जीवन के संबंध में, वे भी सीखी हुई बातें हैं इसलिए झूठी हैं। इसलिए उन बातों से हमारे जीवन का अंधकार नहीं मिटता है। इसलिए उस ज्ञान से हमारे जीवन में आनंद की कोई वर्षा नहीं होती। इसलिए उस रोशनी से हमारे जीवन में कोई मुक्ति, कोई स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं होती।

विश्वास से उपलब्ध हुआ ज्ञान धर्म नहीं है। लेकिन हमारा सारा ज्ञान ही विश्वास से उपलब्ध हुआ है। क्या हमें कोई ऐसे ज्ञान का भी अनुभव है जो विश्वास से नहीं अनुभव से उपलब्ध हुआ हो? अगर ऐसे किसी ज्ञान का कोई अनुभव नहीं है तो उचित है कि हम अपने को अज्ञानी जानें, ज्ञानी न मान लें। तो उचित है कि हम समझें कि हम नहीं जानते हैं। वैसी समझ से भी, मैं नहीं जानता हूं, जानने की खोज का प्रारंभ हो सकता है। लेकिन इस भ्रांत खयाल से कि मुझे पता है, हमारे जानने की यात्रा भी शुरू नहीं हो पाती। और तब यह जानने का भ्रम हमारा पिंजड़ा बन जाता है, जिसमें हम बंद हो जाते हैं।

हम सब अपने-अपने ज्ञान में बंद हो गए हैं, थोथे ज्ञान में, शब्दों के ज्ञान में, शास्त्रों और सिद्धांतों के ज्ञान में बंद हो गए हैं। और उसी बंधन को हम जोर से पकड़े हुए हैं। और फिर चाहते हैं कि स्वतंत्र हो जाएं, यह स्वतंत्र होना कैसे संभव हो सकेगा? ज्ञान की उपलब्धि के लिए, जो ज्ञान बाहर से सीख लिया गया उससे, उससे छुटकारा पाना होता है। यह बहुत कष्टपूर्ण प्रक्रिया है। वस्त्र निकालना आसान है, धन छोड़ देना आसान है, घर-द्वार, पत्नी-बच्चों को छोड़ देना बहुत आसान है, कठिन है तपश्चर्या उस ज्ञान को छोड़ देने की जो हम सीख कर बैठ गए होते हैं। इसलिए एक व्यक्ति घर छोड़ देता, पत्नी छोड़ देता, समाज छोड़ देता, लेकिन उन शास्त्रों को नहीं छोड़ पाता है जिनको बचपन से सीख लिया है।

संन्यासी भी कहता है, मैं जैन हूं। संन्यासी भी कहता है, मैं हिंदू हूं। संन्यासी भी कहता है, मैं ईसाई हूं। हद्द पागलपन की बातें हैं। संन्यासी भी हिंदू, ईसाई और मुसलमान हो सकता है? संन्यासी की भी सीमाएं हो सकती हैं? संन्यासी का भी संप्रदाय हो सकता है? नहीं, लेकिन बचपन से सीखी गई धारणाओं से छुटकारा पाना बहुत कठिन है।

नग्न खड़ा हो जाना आसान। भूखा, उपवासी खड़ा हो जाना अत्यंत सरल। प्रियजनों को, समाज को छोड़ देना बहुत सुविधापूर्ण, लेकिन चित्त पर सिखाए गए ज्ञान की जो पर्तें जम जाती हैं उन्हें उखाड़ देना बहुत कठिन है, बहुत आर्डुअस है।

इसलिए मैं तपश्चर्या एक ही बात को कहता हूं, सीखे हुए ज्ञान को छोड़ देना तप है। और जो सीखे हुए ज्ञान को छोड़ने की सामर्थ्य उपलब्ध कर लेता है, उसे उस ज्ञान की उपलब्धि होनी शुरू हो जाती है जो अनसीखा है जिसे कभी सीखा नहीं जाता, जो भीतर छिपा है और मौजूद है। ज्ञान तो मनुष्य की चेतना में समाविष्ट है। ज्ञान ही तो मनुष्य की आत्मा है। लेकिन चूंकि हम बाहर से सीखे हुए ज्ञान को इकट्ठा कर लेते हैं इसलिए भीतर के ज्ञान को बाहर पाने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह भीतर ही पड़ा रह जाता है। वह तो बाहर उठता तभी है जब हम बाहर से जो भी सीखा है उसको अलग कर दें ताकि भीतर जो छिपा है वह प्रकट हो सके। आत्मा के ज्ञान की, आत्मा के ज्ञान के आविर्भाव की संभावना ऊपर की सारी पर्तों को तोड़ देने पर ही उपलब्ध होती है। लेकिन हम तो इन पर्तों को मजबूत किए चले जाते हैं। रोज इकट्ठा किए चले जाते हैं। रोज इन पर्तों को भरते चले जाते हैं, ताकि हमें यह खयाल हो सके कि मैं जानता हूं।

यह मैं जानता हूं बाहर से सीखे गए शब्दों के आधार से बिलकुल झूठ और व्यर्थ है। क्या आपको पता है, अब तो मशीनें भी इस तरह के ज्ञान को जानने लगी हैं। कंप्यूटर्स पैदा हो गए हैं। अब तो ऐसी मशीनें बन गई हैं जिन्हें ज्ञान सिखाया जा सकता है। जिन्हें महावीर की पूरी वाणी सिखाई जा सकती है। और फिर उन मशीनों से प्रश्न पूछे जा सकते हैं कि महावीर ने अहिंसा पर क्या कहा? मशीन इतने सही उत्तर देती है कि कोई आदमी कभी नहीं दे सका है।

आपको शायद पता न हो, कोरिया का युद्ध आदमी की सलाह से बंद नहीं हुआ, कोरिया का युद्ध मशीन की सलाह से बंद किया गया। मशीन को सारा ज्ञान दे दिया गया कि चीन के पास कितनी सामग्री है युद्ध की, कितने सैनिक हैं, चीन की कितनी शक्ति है, चीन कितने दिन लड़ सकता है। और हमारी, कोरिया के पास कितनी ताकत है, कितने सैनिक हैं, कितने दिन लड़ सकते हैं। मशीन को दोनों ज्ञान दे दिए गए। फिर मशीन से पूछा गया, युद्ध जारी रखा जाए या बंद कर दिया जाए? मशीन ने उत्तर दिया, युद्ध बंद कर दिया जाए। कोरिया हार जाएगा।

आज अमेरिका और रूस में सारा ज्ञान मशीनों को खिलाया-पिलाया जा सकता है, और उनसे उत्तर लिए जा सकते हैं।

आप भी क्या करते हैं बचपन से? ज्ञान खिलाया जाता है स्कूलों में, पाठशालाओं में, धर्म-मंदिरों में, आपके दिमाग में ज्ञान डाला जाता है। फिर उस डाले हुए ज्ञान की स्मृति इकट्ठी हो जाती है। फिर उसी स्मृति से आप उत्तर देते हैं। इस उत्तर देने में आप कहीं भी नहीं हैं, केवल मन की मशीन काम कर रही है।

आपको सिखा दिया गया है कि ईश्वर है। फिर कोई प्रश्न पूछता है, ईश्वर है, आप कहते हैं, हां, ईश्वर है।

इस उत्तर में आप कहीं भी नहीं हैं। यह सीखा हुआ उत्तर मन का यंत्र वापस लौटा रहा है। अगर यह आपको न बताया जाए कि ईश्वर है, आप उत्तर नहीं दे सकेंगे।

आपसे कोई पूछता है, आपका नाम क्या है? आप कहते हैं, मेरा नाम राम है। इसमें आप सोचते हों कि कुछ सोच-विचार है, तो आप गलती में हैं। बचपन से आपकी स्मृति पर थोपा जा रहा है तुम्हारा नाम, राम, तुम्हारा नाम राम। फिर कोई पूछता है, आपका नाम? स्मृति उत्तर देती है, मेरा नाम राम है।

मेरे एक मित्र डाक्टर हैं, वे ट्रेन से गिर पड़े। सिर को चोट लग गई। उनका नाम-वगैरह भूल गए। वह जो डाक्टरी उन्होंने पढ़ी थी, वह सब खतम हो गई। यंत्र चोट खा गया। तीन साल हो गए, अब उनसे कोई पूछे कि आपका नाम? वे बैठे रहें। इन तीन सालों में जो नई घटनाएं घटी हैं वे तो उन्हें याद हैं लेकिन तीन साल के पहले जो हुआ था वह उन्हें याद नहीं। यंत्र चोट खा गया।

स्मृति यांत्रिक है। मैकेनिकल है। स्मृति ज्ञान नहीं है। मैमोरी ज्ञान नहीं है। और हमारे पास स्मृति के सिवाय और क्या है। अगर आपसे मैं पूछूं कि आपके पास एकाध भी विचार ऐसा है जो आपका हो? तो क्या आप हां में उत्तर दे सकेंगे? एक भी विचार ऐसा है जो आपका हो? जो आपने सीख न लिया हो? सब विचार सीखे हुए हैं, सब विचार उधार हैं, सब विचार बारोड हैं। इसलिए विचार का संग्रह ज्ञान नहीं है। फिर ज्ञान क्या है? विचार का संग्रह ज्ञान नहीं है, बल्कि निर्विचार की उपलब्धि ज्ञान है। एक ऐसी चित्त-दशा जहां कोई विचार न रह जाए। इतनी शांत और मौन, जहां कोई विचार की तरंग न हो, वहां जो अनुभव होता है, वह ज्ञान है। वह ज्ञान मुक्त करता है। और जो ज्ञान हम इकट्ठा कर लेते हैं स्मृति से, वह मुक्त नहीं करता, बांधता है। हम सब अपने ही सीखे हुए ज्ञान में बंधे हुए लोग हैं। अपने ही ज्ञान से हमने पिंजड़ा बनाया हुआ है। यह जो हमारी पहली परतंत्रता है, पहला बंधन है, ज्ञान का।

दूसरा बंधन है, अनुकरण का। हम सब किसी का अनुकरण कर रहे हैं। कोई महावीर का, कोई बुद्ध का, कोई राम का, कोई कृष्ण का। हम सब किसी के पीछे चल रहे हैं। हम सब फॉलोअर्स हैं, अनुयायी हैं। पृथ्वी पर धर्म का जन्म नहीं हो पाया अनुयायियों के कारण। क्योंकि धर्म किसी का अनुगमन नहीं है। किसी के पीछे जाना नहीं है, धर्म है अपने भीतर जाना। और जो किसी के पीछे जाता है वह कभी अपने भीतर नहीं जा सकता। क्योंकि किसी के पीछे जाने के लिए बाहर जाना पड़ता है। महावीर के पीछे जाएं, बुद्ध के पीछे जाएं, कृष्ण के पीछे जाएं, मेरे पीछे जाएं, किसी के भी पीछे जाएं। किसी के पीछे जाएंगे तो आप बाहर जा रहे हैं। क्योंकि जिसके पीछे आप जा रहे हैं वह आपके बाहर है। जाना है अपने भीतर, जा रहे हैं किसी के पीछे। जो किसी के पीछे जाता है वह भटक जाता है। सब अनुयायी भटक जाते हैं। जो अपने भीतर जाता है, किसी का अनुयायी नहीं है जो, किसी का फॉलोअर नहीं है जो, जो अपनी ही आत्मा का अनुसरण करता है, वही व्यक्ति केवल धर्म को, सत्य को उपलब्ध होता है, वही केवल मुक्ति को उपलब्ध होता है। लेकिन हम सब तो किसी के अनुयायी हैं। और हमें हजारों वर्ष से यही सिखाया जा रहा है कि पीछे चलो। पीछे चलने की शिक्षा सबसे विषाक्त, सबसे विषपूर्ण, सबसे पायज़नस है। इसने आदमी के जीवन को नष्ट कर दिया। इसलिए नष्ट कर दिया है, पहली बात, कोई मनुष्य किसी के पीछे जब भी जाएगा तब आत्मच्युत हो जाएगा, तब वह अपनी आत्मा से डिग जाएगा। तब वह इस कोशिश में लग जाएगा कि मैं किसी दूसरे जैसा हो जाऊं–महावीर जैसा हो जाऊं, बुद्ध जैसा हो जाऊं। तब वह एक अभिनेता बन जाएगा, तब वह एक ऐक्टर, तब वह इस कोशिश में होगा कि मैं दूसरे जैसा हो जाऊं। लेकिन क्या आपको पता है कि कोई मनुष्य कभी भी दूसरे जैसा न हुआ है, न हो सकता है।

महावीर को हुए कितना समय हुआ? ढाई हजार वर्ष। ढाई हजार वर्ष में कितने नासमझ लोगों ने महावीर जैसे बनने की कोशिश नहीं की है। लेकिन कोई महावीर बन सका है? राम को हुए कितना समय हुआ? क्राइस्ट को हुए कितना समय हुआ? कोई दूसरा क्राइस्ट पैदा हुआ है? कोई व्यक्ति कभी किसी दूसरे जैसा नहीं बन सकता। प्रत्येक व्यक्ति, आदमी की आत्मा अद्वितीय, बेजोड़, यूनीक है। हर मनुष्य अपने ही तरह का हो सकता है, किसी दूसरे तरह का नहीं हो सकता है। एक-एक आदमी बेजोड़ है, अनूठा है। यही तो गरिमा है! यही तो सौंदर्य है! यही तो आत्मा की प्रतिष्ठा है कि कोई आत्मा किसी दूसरे की नकल नहीं है। जो चीज नकल हो सकती है वह जड़ हो जाती है।

फोर्ड की कारें एक जैसी लाखों हो सकती हैं। एक दिन में हजारों मोटरगाड़ियां एक सी निकाली जा सकती हैं, बिलकुल एक सी, क्योंकि गाड़ी, मोटरगाड़ी एक यंत्र है, उसके पास कोई चेतना नहीं है। लेकिन दो मनुष्य एक जैसे नहीं बनाए जा सकते। और जिस दिन दो मनुष्य एक जैसे बनाए जाएंगे, वह मनुष्य-जाति के इतिहास में सबसे दुर्भाग्य का दिन होगा। क्योंकि उसी दिन आदमी की हत्या हो जाएगी। आदमी मशीन हो जाएगा।

आदमी यंत्र नहीं है, आदमी है सचेतन प्राण। सचेतन प्राण किसी पैटर्न में, किसी ढांचे में नहीं ढाला जा सकता। चाहे वह ढांचा कितना ही सुंदर हो, कितने ही महापुरुष का हो, कोई किसी ढांचे में नहीं ढाला जा सकता। लेकिन हम ढांचे में ढालने की कोशिश करते रहे हैं। और इससे हमने आदमी के जीवन को बिलकुल ही विकृत कर दिया है। हम सब भी अपने को ढांचे में ढालने की कोशिश करते हैं। गांधी जैसे बन जाएं, इस जैसे बन जाएं, उस जैसे बन जाएं। गांधी बहुत सुंदर हैं, बहुत अच्छे; महावीर बहुत अनूठे हैं, बहुत अदभुत; बुद्ध बड़े महिमाशाली हैं, लेकिन आपको पता है, बुद्ध ने अपने को किसके ढांचे में ढाला? गांधी किसकी नकल हैं? क्राइस्ट किसकी कार्बनकापी हैं? वे सारे लोग अनूठे हैं अपने जैसे। लेकिन हम उन जैसे होने की कोशिश करेंगे तो भटक जाएंगे। हम भूल कर लेंगे। हमारा जीवन गलत पटरियों पर दौड़ जाएगा। और हमारा जीवन गलत पटरियों पर दौड़ रहा है।

दूसरी बात, अनुकरण मनुष्य के चित्त में गुलामी पैदा करता है। मनुष्य हीन हो जाता है। जब भी अनुकरण करता है तब दीन-हीन हो जाता है। अपने को अस्वीकार करता है, दूसरे को स्वीकार करता है। अपने को तोड़ता है, मिटाता है, दूसरे के नकल में अपने को बनाता है। तब उसकी आत्मा सब तरफ से दीन-हीन हो जाती है। और यह दीनता और हीनता मुक्ति नहीं ला सकती।

पहली बात है, अपनी आत्मा का, निजता का गौरव, गरिमा, अपनी आत्मा के अनूठे होने की स्वीकृति, अपने को दीन-हीन मानने के भाव का त्याग धार्मिक मनुष्य का दूसरा गुण है। पहला गुण है: विचार करने की क्षमता। दूसरा गुण है: स्वयं जैसे होने का साहस। करेज टु बी वनसेल्फ। खुद होने का, खुद जैसे होने का साहस। यही धार्मिक मनुष्य का दूसरा लक्षण है। जो खुद जैसे होने का साहस करता है उसे इस जगत में कोई बंधन नहीं बांध सकते। लेकिन हम तो अपने हाथ से दूसरे जैसे होने की कोशिश करते हैं। तो फिर बंधन तो अपने आप खड़े हो जाते हैं। पिंजड़े को हम खुद ही पकड़ लेते हैं और फिर रोते चिल्लाते हैं कि स्वतंत्र होना है, मोक्ष चाहिए। कैसे स्वतंत्र हो सकेंगे? दूसरी बात, बंधन है मनुष्य के ऊपर अनुकरण। और तीसरी बात, क्या है मनुष्य के ऊपर बंधन? और ये तीन सूत्र अगर हमें समझ आ जाएं, तो हम कैसे मुक्त हो सकते हैं वह भी समझ में आ सकता है। तीसरी कौनसी कड़ियां मनुष्य को बांध लेती हैं? तीसरी कड़ियां हैं, आदर्श, आइडियलस। मेरे भीतर हिंसा है, मेरे भीतर क्रोध है, मेरे भीतर सेक्स है, काम है, वासना है, मेरे भीतर झूठ है। दो रास्ते हैं इस स्थिति को सामना करने के लिए। एक रास्ता तो यह है कि मेरे भीतर हिंसा है, तो मैं अहिंसा ओढ़ने की कोशिश करूं, ताकि हिंसा मिट जाए। मेरे भीतर क्रोध है, तो मैं शांति साधने की कोशिश करूं, ताकि क्रोध नष्ट हो जाए। मेरे भीतर सेक्स है, तो मैं ब्रह्मचर्य की कसमें लूं, व्रत लूं, ताकि मेरा सेक्स विलीन हो जाए। एक रास्ता तो यह है। यह रास्ता गलत है। इस रास्ते में मनुष्य कभी भी शांत, स्वस्थ, मुक्त नहीं होता, बल्कि और बंधन में पड़ता चला जा सकता है। क्यों? क्योंकि भीतर होता है क्रोध, और वह शांति का एक आदर्श निर्मित कर लेता है और उस आदर्श को ओढ़ने की कोशिश करता है। परिणाम क्या होता है? परिणाम होता है दमन। भीतर क्रोध को दबा-दबा कर छिपाता है, ऊपर शांति को थोपता है। क्रोध ऐसे नष्ट नहीं होता। भीतर इकट्ठा होता चला जाता है। उसके और गहरे प्राणों में क्रोध प्रविष्ट हो जाता है।

मैंने सुना है, एक गांव में एक अत्यंत क्रोधी व्यक्ति था। उसके क्रोध की चरमसीमा आ गई, जब उसने अपनी पत्नी को थक्का देकर कुएं में फेंक दिया। किसी क्रोध में पत्नी की हत्या कर दी। उसे खुद भी बहुत पीड़ा और दुख हुआ, पश्चात्ताप हुआ। सभी क्रोधी लोगों को बहुत पश्चात्ताप होता है। इसलिए नहीं कि अब वे क्रोध को नहीं करेंगे, बल्कि इसलिए कि पश्चात्ताप करके वे मन में जो अपराध पैदा होता है क्रोध करने से उसको पोंछ कर साफ कर लेते हैं, ताकि फिर से क्रोध करने के लिए तैयार हो सकें। मन में जो ग्लानि पैदा होती है क्रोध करने की, पश्चात्ताप करके उस ग्लानि को पोंछ लेते हैं, भले आदमी फिर से हो जाते हैं कि मैंने पश्चात्ताप भी कर लिया, ताकि फिर क्रोध की तैयारी की जा सके।

उस व्यक्ति को पश्चात्ताप हुआ। गांव में एक मुनि का आगमन हुआ था। लोग उसे उस मुनि के पास ले गए। मुनि के चरणों में सिर रख कर उसने कहा कि मुझे कोई रास्ता बताएं, मैं तो पागल हुआ जाता हूं क्रोध के कारण। मुनि ने कहा, रास्ता एक है कि संन्यास ले लो और संसार छोड़ दो। शांति की साधना करो। उस आदमी ने तत्क्षण वस्त्र फेंक दिए, नग्न हो गया और उसने कहा कि मुझे आज्ञा दें, मैं संन्यासी हो गया! मुनि भी हैरान हुए। ऐसा संकल्पवान व्यक्ति पहले उन्होंने कभी नहीं देखा था कि इतनी शीघ्रता से, इतने त्वरित वस्त्र फेंक दे और संन्यासी हो जाए! उन्होंने उसकी पीठ ठोंकी, धन्यवाद दिया। और गांव भी जयजयकार से भर गया कि अदभुत व्यक्ति है यह। लेकिन भूल हो गई थी उनसे। वह आदमी था क्रोधी। क्रोधी आदमी कोई भी काम शीघ्रता से कर सकता है। यह कोई संकल्प न था, यह केवल क्रोध का ही एक रूप था। लेकिन वह साधु हो गया, उसकी बहुत प्रशंसा हुई। और चूंकि शांति की तलाश में वह आया था, तो मुनि ने उसे नया नाम दे दिया–शांतिनाथ। वह मुनि शांतिनाथ हो गया।

क्रोधी व्यक्ति था इतना वह। अब तक दूसरों पर क्रोध निकाला था, अब दूसरों पर निकालने का उपाय न रहा, तो उसने अपने पर निकालना शुरू किया। दूसरे साधु तीन दिन के उपवास करते थे, वह तीस दिन के कर सकता था। अपने पर क्रोध निकालने की क्षमता उसकी बहुत बड़ी थी। वह अपने पर हिंसक, वायलेंट हो सकता था। दूसरे साधु छाया में बैठते, तो वह धूप में खड़ा रहता। दूसरे साधु पगडंडी पर चलते, तो वह कांटों में चलता। वह सब तरह से शरीर को कष्ट दिया। बहुत जल्दी उसकी कीर्ति सारे देश में फैल गई। महान तपस्वी की तरह वह प्रसिद्ध हो गया।

वह देश की राजधानी में गया। उसकी कीर्ति उसके चारों तरफ फैल रही थी। वैसा कोई तपस्वी न था। सचाई यह थी कि उस आदमी का क्रोध ही था यह, यह कोई तपश्चर्या न थी। यह क्रोध का ही रूपांतरण था। यह क्रोध की ही अभिव्यक्ति थी। लेकिन दूसरों पर क्रोध निकलना बंद हो गया, अपने पर ही लौट आया। लेकिन इसका किसको पता चलता।

राजधानी में उसका एक मित्र रहता था, बचपन का साथी। उस मित्र को बड़ी हैरानी हुई कि यह आदमी जो इतना क्रोधी था, क्या शांतिनाथ हो गया होगा? जाऊं, देखूं, अगर यह परिवर्तन हुआ तो बहुत अदभुत है।

वह मित्र आया, मुनि तख्त पर बैठे थे, हजारों लोग उन्हें घेरे हुए थे।

जो आदमी प्रतिष्ठा पा जाता है, वह फिर किसी को भी पहचानता नहीं। चाहे वह मुनि हो जाए, चाहे मिनिस्टर हो जाए। फिर वह किसी को पहचानता नहीं। देख लिया मित्र को, लेकिन कौन पहचाने उस मित्र को, मुनि चुपचाप हैं। मित्र को भी समझ में तो आ गया कि उन्होंने पहचान लिया है लेकिन पहचानना नहीं चाहते हैं। मित्र निकट आया, थोड़ी देर बैठ कर उनकी बातें सुनता रहा, फिर उस मित्र ने पूछा, क्या मैं जान सकता हूं आपका नाम क्या है?

मुनि ने उसे गौर से देखा और कहा, अखबार नहीं पढ़ते हो? सुनते नहीं हो लोगों की चर्चा? मेरा नाम कौन नहीं जानता है? मेरा नाम है, मुनि शांतिनाथ। मित्र तो पहचान गया, क्रोध अपनी जगह है, कहीं कोई फर्क नहीं हुआ। थोड़ी देर मुनि ने फिर बात की, दो मिनट बीत जाने पर उस मित्र ने फिर पूछा, क्या मैं पूछ सकता हूं आपका नाम क्या है? अब तो मुनि को हद हो गया, अभी इसने पूछा दो मिनट पहले। मुनि ने कहा, बहरे हो, पागल हो, कहा नहीं मैंने कि मेरा नाम है, मुनि शांतिनाथ। सुना नहीं? फिर दो मिनट बात चलती होगी, उस आदमी ने फिर पूछा कि क्या मैं पूछ सकता हूं आपका नाम क्या है? उन्होंने डंडा उठा लिया और कहा कि अब मैं बताऊंगा तुम्हें कि मेरा नाम क्या है। उस मित्र ने कहा, मैं पहचान गया, पुराने मित्र हैं आप मेरे, और कुछ भी नहीं बदला है, आप वही के वही हैं।

क्रोध भीतर हो, तो ऊपर से संन्यास ओढ़ लेने से समाप्त नहीं हो जाता। अगर घृणा भीतर हो, तो ऊपर से प्रेम के शब्द सीख लेने से घृणा समाप्त नहीं हो जाती। दुष्टता भीतर हो, तो करुणा के वचन सीख लेने से दुष्टता का अंत नहीं हो जाता। वासना भीतर हो, तो ब्रह्मचर्य के व्रत लेने से समाप्त नहीं हो जाती। इन बातों से भीतर जो छिपा है उसके अंत का कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन धोखा पैदा हो जाता है, प्रवंचना पैदा हो जाती है, ऊपर से हम वस्त्र ओढ़ लेते हैं अच्छे-अच्छे और नग्नता भीतर छिप जाती है, दुनिया के लिए हम भले मालूम होने लगते हैं, लेकिन भीतर? भीतर हम वही के वही हैं।

ऐसे कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं होता, और न मुक्त होता है। बल्कि और गहरे बंधनों में पड़ जाता है। फिर जो भीतर छिपा है वह नये-नये रास्ते खोजता है प्रकट होने के लिए। जैसे केतली में चाय बनती हो, हम ढक्कन को बंद करके ढांक दें जोर से, तो भाप थोड़ी देर में केतली को फोड़ कर बाहर निकल आएगी। भाप बन रही है तो रास्ता खोजेगी। मनुष्य के चित्त में जो भी बन रहा है वह रास्ता खोजेगा। तो फिर पीछे के रास्ते खोजेगा जब सामने के रास्ते हम बंद कर देंगे। तो वह कहीं पीछे के रास्तों से घूम-घूम कर आना शुरू हो जाएगा। और यह पीछे के रास्तों से चित्त का बार-बार आना, इतने बंधन, इतनी कांप्लेक्सिटी, इतनी उलझन खड़ी कर देगा जिसका कोई हिसाब नहीं। आदमी पागल भी हो सकता है उस उलझन में। और पागल न हुआ तो बात ठंडी हो जाए। कहेगा कुछ, करेगा कुछ; होगा कुछ, बताएगा कुछ।

लंदन में एक फोटोग्राफर था। उसने अपने दरवाजे पर, अपने स्टूडियो पर एक तख्ती टांग रखी थी। उस तख्ती पर उसने अपने स्टूडियो में फोटो उतरवाने की दरें, कीमतें लिख रही थीं, रेट्स लिख रखे थे। बड़े अजीब रेट्स थे उसके। एक भारतीय आदिवासी राजा लंदन गया था, वह भी फोटो उतरवाने गया। उस स्टूडियो में पहुंचा। दरवाजे पर ही तख्ती लगी थी, उस पर लिखा हुआ था: अगर आप वैसा फोटो उतरवाना चाहते हैं जैसे कि आप हैं, तो दाम पांच रुपया। अगर वैसा फोटो उतरवाना चाहते हैं जैसे कि आप लोगों को दिखाई पड़ते हैं, तो दाम दस रुपया। और अगर वैसा फोटो उतरवाना चाहते हैं जैसा कि आप सोचते हैं आपको होना चाहिए, तो दाम पंद्रह रुपया। वह राजा बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, फोटो भी तीन तरह के होते हैं यह मेरी कल्पना में नहीं था। उसने उस फोटोग्राफर को पूछा कि बड़ी आश्चर्य की बात है, क्या तीन तरह के फोटो होते हैं? फोटो तो मैं सोचता था एक ही तरह के होते हैं, जैसा मैं हूं। क्या नंबर दो और नंबर तीन के फोटो उतरवाने वाले लोग भी यहां आते हैं? उस फोटोग्राफर ने कहा, महाशय! आप पहले ही आदमी हैं जो नंबर एक का फोटो उतरवाने के खयाल में हैं। अब तक तो दूसरे और तीसरे ही लोग आते रहे। कोई वैसा चित्र नहीं उतरवाना चाहता जैसा कि वह है।

दूसरा ही चित्र हम सब बनाए हुए हैं। दूसरा ही व्यक्तित्व, झूठा व्यक्तित्व बनाए हुए हैं। आदर्श झूठा व्यक्तित्व पैदा करते हैं। हिंसा भीतर छिपी रहती है, ऊपर से अहिंसा ओढ़ ली जाती है। भीतर हिंसा उबलती रहती है, ऊपर अहिंसा का भेस। भीतर उबलता रहता है सेक्स, भीतर उबलती रहती है वासना, ऊपर ब्रह्मचर्य के व्रत।

एक साध्वी के पास एक सुबह समुद्र के किनारे में बैठा था। समुद्र की हवाएं आईं और मेरे चादर को उड़ा कर उन्होंने साध्वी को स्पर्श कर दिया। अब समुद्र की हवाओं को क्या पता कि साध्वी पुरुष के वस्त्र नहीं छूती हैं। मैं भी क्या करता हवाएं वस्त्र उड़ा ही ले गई थीं। साध्वी लेकिन घबड़ा आईं। मैंने उससे पूछा, आप बहुत घबड़ा गई हैं, बात क्या है? उसने कहा, पुरुष का वस्त्र छूना वर्जित है, पुरुष का वस्त्र में नहीं छू सकती हूं। यह मेरे ब्रह्मचर्य के व्रत के विरोध में है।

तो मैंने कहा, मैं तो बहुत हैरान हो गया। अभी हम आत्मा की बातें करते थे, और आप कहती थीं शरीर नहीं है, आत्मा अलग चीज है, मैं शरीर नहीं हूं। यह आप कह रही थीं अभी, और पुरुष का वस्त्र आपको छू गया, वस्त्र भी पुरुष और स्त्री हो सकते हैं? वस्त्र भी पुरुष और स्त्री हो सकते हैं? वस्त्र के साथ भी सेक्स का संबंध जोड़ती हैं आप? यह चादर मैंने ओढ़ ली तो पुरुष हो गई? और अगर चादर छूती है तो आपको छू सकती है? क्योंकि आप तो कहती हैं मैं आत्मा हूं, शरीर नहीं हूं। झूठ कहती होंगी। पढ़ी हुई बात कहती होंगी कि मैं आत्मा हूं। जानती तो बहुत गहरे में यही है कि मैं शरीर हूं। चद्दर भी छूता है तो प्राण कंप जाते हैं। यह कैसा ब्रह्मचर्य? भीतर सेक्स उबल रहा होगा, इसलिए चद्दर के छूने से इतनी तीव्र लहर दौड़ गई है, अन्यथा इतनी तीव्र लहर नहीं दौड़ सकती।

बुद्ध एक वन में निवास करते थे, गांव के कुछ लोग किसी वेश्या को लेकर जंगल में आ गए। उन सबने शराब पी ली थी। शराब पीया देख कर वेश्या उनको छोड़ कर भाग गई। वे उसके खोजने के लिए जंगल में ढूंढ़ते हुए घूमते थे, एक वृक्ष के नीचे बुद्ध को बैठे देखा, तो उन्होंने कहा कि सुनिए, स्वामी, क्या आप बता सकेंगे यहां से कोई स्त्री भागती हुई निकली है?

बुद्ध ने कहा, मेरे मित्रो, कोई भागता हुआ जरूर निकला, लेकिन स्त्री थी कि पुरुष, यह बताना कठिन है। क्योंकि जब से मेरी वासना चली गई स्त्री और पुरुष में बहुत फर्क नहीं दिखाई पड़ता है। कोई निकला जरूर, यह कहना मुश्किल स्त्री थी की पुरुष। जब से मेरी वासना चली गई तब से भेद करने का बहुत कारण नहीं रहा। जब तक बहुत गौर से ही न देखूं, तब तक खयाल भी नहीं आता। और गौर से देखने की कोई वजह नहीं रह गई है।

यह आदमी तो हुआ होगा ब्रह्मचर्य को उपलब्ध। लेकिन चद्दर को छूने से किसी के प्राण कंप जाते हों, तो यहां भीतर वासना उबल रही है, कोई ब्रह्मचर्य नहीं है। और ब्रह्मचर्य की कसमें खाई ही किसलिए जाती हैं? इसीलिए न कि भीतर वासना उबल रही है। कसमें खाने से कुछ अंत पड़ सकता है?

नहीं, आदर्शों से व्यक्तित्व नहीं बदलता, सिर्फ छिपता है। वंचना, धोखा, सेल्फ-डिसेप्शन पैदा होता है।

फिर कैसे बदलता है व्यक्तित्व?

ये तीन हैं बंधन: सीखा हुआ ज्ञान, किसी का अनुसरण, आदर्शों को थोपने की चेष्टा। ठीक इन तीन के व्यक्तित्व, इन तीन के घेरों के बाहर, इन तीन भूलों के बाहर व्यक्ति की स्वतंत्रता, मोक्ष और धर्म और आत्मा का प्रारंभ है।

सीखा हुआ ज्ञान भूल जाना पड़ता है। मन को कर लेना होता है सीखे हुए ज्ञान से मुक्त, ताकि भीतर जो छिपा है वह प्रकट होने के लिए द्वार पा सके।

अनुसरण छोड़ देना होता है। क्योंकि अनुसरण ले जाता है स्वयं के बाहर। किसी के पीछे चलना बंद कर देना होता है, और चलना होता है स्वयं के पीछे।

और तीसरी बात, आदर्श थोपने बंद कर देने होते हैं। फिर चित्त जैसा है उसे जानने के प्रति सजगता, निरीक्षण, ऑब्जर्वेशन विकसित करना होता है। अगर कोई व्यक्ति अपने क्रोध की वृत्ति के प्रति पूरी तरह सजग हो जाए, उस पूरी वृत्ति का निरीक्षण करने में समर्थ हो जाए, तो हैरान हो जाएगा, जैसे ही वह क्रोध को जानने में समर्थ हो जाएगा, वैसे ही पाएगा क्रोध विसर्जित हो गया है। क्रोध को जान कर भी कोई कभी क्रोध नहीं कर सका है। जैसे दीवाल को जान कर कोई दीवाल से निकलने की कोशिश नहीं करता है। हां, आंख बंद हों तो कभी दीवाल से टकरा कर निकलने की कोशिश करता है। लेकिन जिसे दरवाजा दिखाई पड़ता हो, वह दरवाजे से निकलता है दीवाल से नहीं।

हमने निरीक्षण नहीं किया है चित्त का, हमने चित्त को जाना नहीं है, इसलिए क्रोध से टकरा जाते हैं, सेक्स से टकरा जाते हैं, लोभ से टकरा जाते हैं। दीवालों से सिर टकरा जाता और टूट जाता है, लहूलुहान हो जाता है। रोते हैं, चिल्लाते हैं, कसमें खाते हैं, उससे कुछ भी नहीं होता, ठीक से चित्त के भीतर प्रवेश करके जानना होगा, क्या है यह चित्त? क्या हैं इसकी वृत्तियां? कहां से पैदा होती हैं? कैसे विकसित होती हैं? कैसे स्वयं को घेर लेती हैं? कैसे स्वयं को चालित कर देती हैं? अगर कोई वृत्तियों के सम्यक निरीक्षण को, राइट ऑब्जर्वेशन को उपलब्ध हो जाता है, तो वह पाता है कि वृत्ति तो विलीन हो गई और उनकी जगह एक अपूर्व शांति, एक अपूर्व सौम्य का एक…उपस्थित हो गई है।

एक छोटी सी कहानी जिससे मैं समझा सकूं कि निरीक्षण का क्या मतलब है।

बहुत पुरानी कथा है, तीन ऋषि थे, उनकी बहुत ख्याति थी। लोक-लोकांतर में उनका यश पहुंच गया था। इंद्र पीड़ित हो गया था उनके यश को देख कर। और इंद्र ने उर्वशी को, अपने उस गंधर्व नगर की श्रेष्ठतम अप्सरा को कहा, इन तीन ऋषियों को मैं निमंत्रित कर रहा हूं अपने जन्म-दिन पर, तू ऐसी कोशिश करना कि उन तीनों का चित्त विचलित हो जाए।

उन तीन ऋषियों को आमंत्रित किया गया। वे तीन ऋषि इंद्र के नगर में उपस्थित हुए। सारे देवता, सारा नगर देखने आया जन्म-दिन के उत्सव को। उर्वशी ऐसी सजी थी कि खुद इंद्र और देवता हैरान हो गए, जो उससे परिचित थे, भलीभांति जानते थे। वह आज इतनी सुंदर मालूम हो रही थी जिसका कोई हिसाब नहीं। फिर नृत्य शुरू हुआ। उर्वशी ने आधी रात बीतते तक अपने नृत्य से सभी को मोहित, मंत्रमुग्ध कर लिया। फिर जब रात गहरी होने लगी और लोगों पर नृत्य का नशा छाने लगा, तब उसने अपने अलंकार फेंकने शुरू कर दिए। फिर धीरे-धीरे वस्त्र भी। एक ऋषि घबड़ाया और चिल्लाया, उर्वशी बंद करो, यह तो सीमा के बाहर जाना है, यह नहीं देखा जा सकता। दूसरे दो ऋषियों ने कहा, मित्र, नृत्य तो चलेगा, अगर तुम्हें ने देखना हो तो अपनी आंखें बंद कर ले सकते हो। नृत्य क्यों बंद होता है। इतने लोग देखने को उत्सुक हैं, तुम्हारे अकेले के भयभीत होने से नृत्य बंद होने को नहीं। अपनी आंख बंद कर लो तुम्हें नहीं देखना। ऋषि ने आंखें बंद कर लीं। सोचा था उस ऋषि ने कि आंखें बंद कर लेने से उर्वशी दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। पाया कि यह गलती थी, भूल थी।

आंख बंद करने से कुछ दिखाई पड़ना बंद होता है? आंख बंद करने से तो जिससे डरते हम आंख बंद करते हैं वह और प्रगाढ़ होकर भीतर उपस्थित हो जाता है। रोज हम जानते हैं, सपनों में हम उनसे मिल लेते हैं, जिनको देख कर हमने आंख बंद कर ली थी। रोज हम जानते हैं जिस चीज से हम भयभीत होकर भागे थे वह सपनों में उपस्थित हो जाती है। दिन भर उपवास किया था तो रात सपने में किसी राज-भोज पर आमंत्रित हो जाते हैं। यह हम सब जानते हैं। उस ऋषि की भी वही तकलीफ। आंख बंद किए और मुश्किल में पड़ गया है। नृत्य चलता रहा, फिर उर्वशी ने और भी वस्त्र फेंक दिए, केवल एक ही अधोवस्त्र उसके शरीर पर रह गया। दूसरा ऋषि घबड़ाया और चिल्लाया कि बंद करो उर्वशी, यह तो अब अश्लीलता की हद हो गई, बंद करो, यह नृत्य नहीं देखा जा सकता। यह क्या पागलपन है? तीसरे ऋषि ने कहा, मित्र, तुम भी पहले जैसे ही…हो। आंख बंद कर लो, नृत्य तो चलेगा। इतने लोग देखने को उत्सुक हैं। फिर मैं भी देखना चाहता हूं। तुम आंख बंद कर लो। नृत्य बंद नहीं होगा। दूसरे ऋषि ने भी आंख बंद कर ली।

आंख जब तक खुली थी तब तक उर्वशी एक वस्त्र पहने हुई थी। आंख बंद करते ही ऋषि ने पाया वह वस्त्र भी गिर गया। स्वाभाविक है, चित्त जिस चीज से भयभीत होता है उसी में ग्रसित हो जाता है। चित्त जिस चीज को निषेध करता है, उसी में आकर्षित हो जाता है। फिर उर्वशी का नृत्य और आगे चला, उसने सारे वस्त्र फेंक दिए, वह नग्न हो गई। फिर उसके पास फेंकने को कुछ भी न बचा। वह तीसरा ऋषि बोला, उर्वशी, और भी कुछ फेंकने को हो तो फेंक दो, मैं आज पूरा ही देखने को तैयार हूं। अब तो अपनी इस चमड़ी को भी फेंक दे, ताकि मैं और भी देख लूं कि और आगे क्या है। उर्वशी ने कहा, मैं हार गई आपसे, वह पैरों पर गिर पड़ी उस शिष्य के, उसने कहा, अब मेरे पास फेंकने को कुछ भी नहीं है। मैं हार गई, क्योंकि आप अंत तक देखने को तैयार हो गए। दो ऋषि हार गए, क्योंकि बीच में ही उन्होंने आंख बंद कर ली। मैं हार गई, अब मेरे पास फेंकने को कुछ भी नहीं, और जिसने मुझे नग्न जान लिया, अब उसके चित्त में जानने को भी कुछ शेष न रहा। उसका चित्त मुक्त ही हो गया।

चित्त का निरीक्षण करना है पूरा। मन के भीतर जो भी उर्वशियां हैं, मन के भीतर जो भी वृत्ति की अप्सराएं हैं–चाहे काम की, चाहे क्रोध की, चाहे लोभ की, चाहे मोह की, उन सबको पूरी नग्नता में देख लेना है। उनका एक-एक वस्त्र उतार कर देख लेना है। आंख बंद करके भागना नहीं है। एस्केप नहीं है, पलायन नहीं है जीवन की साधना, जीवन की साधना है पूरी खुली आंखों से चित्त का दर्शन। और जिस दिन कोई व्यक्ति अपने चित्त के सब वस्त्रों को उतार कर चित्त की पूरी नग्नता में, पूरी नेकेडनेस में, पूरी अग्लीनेस में, चित्त की पूरी कुरूपता में पूरी आंख खोल कर देखने को राजी हो जाता है, उसी दिन चित्त की उर्वशी पैरों पर गिर पड़ती है और कह देती है मुझे क्षमा करें, मैं हार गई हूं। अब आगे जानने को कुछ भी नहीं है।

चित्त की पूरी जानकारी, चित्त का पूरा ज्ञान चित्त से मुक्ति बन जाता है।

ज्ञान से, सीखे हुए ज्ञान से छुटकारा; अनुकरण से छुटकारा और पलायन, एस्केप से छुटकारा। ये तीन छुटकारे धर्म के सूत्र हैं। और हम तीनों के उलटा कर रहे हैं, इसलिए हम बंधन में हैं। इन तीन को जो साधता है वह साधक है। इन तीन को जो साधता है वह परमात्मा के मंदिर में प्रविष्ट हो जाता है। उस मंदिर में नहीं जो आपके गांव में बना है। आदमियों का बनाया हुआ कोई मंदिर परमात्मा का मंदिर नहीं है। उस मंदिर में जो आपके भीतर है, जो चेतना का मंदिर है, जो चिन्मय मिट्टी का नहीं, पत्थरों का नहीं, चेतना की ईंटों से बना हुआ आपके भीतर मंदिर है। जो इन तीन सूत्रों को साध लेता है, वह उस मंदिर की सीढ़ियां पार कर जाता और प्रविष्ट हो जाता है। उस मंदिर में पहुंच कर ज्ञात होता है–न तो कोई दुख है, न कोई चिंता, न कोई पीड़ा। उस मंदिर में पहुंच कर ज्ञात होता है–कोई मृत्यु भी नहीं है। उस मंदिर में पहुंच कर ज्ञात होता है कि जीवन एक अमृत, एक अमृत, एक आनंद, एक आलोक है। उस मंदिर में पहुंच कर ही अनुभव होता है उस सत्य का जिसको हम प्रभु कहें। और उस मंदिर पर हम कोई भी नहीं पहुंच सकेंगे, क्योंकि मंदिर के बाहर हमने अपने पिंजड़े बना रखे हैं और उनके सींकचों को हम पकड़ कर जोर से चिल्ला रहे हैं–स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। और कोई चाहे भी कि आपको निकाल ले बाहर और मुक्त कर दे, सुबह होने के पहले आप वापस अपने पिंजड़े में बैठ जाएंगे। कोई दूसरा आपको निकाल भी नहीं सकता है। जब तक कि आपको ही यह दिखाई न पड़ने लगे कि मैं स्वतंत्रता चाहते हुए भी जो कर रहा हूं वह परतंत्रता निर्मित हो रही है उससे। जिस दिन आपको यह दिखाई पड़ जाएगा, यह कंट्राडिक्शन, जीवन का यह विरोधाभास कि मांगता हूं आजादी, निर्मित करता हूं गुलामी; जाना चाहता हूं पूरब, चलता हूं पश्चिम; खोजता हूं प्रकाश, आंखें बंद किए अंधेरे को बना लेता हूं स्वयं। जिस दिन यह विरोधाभास जीवन का दिखाई पड़ जाएगा, उसी दिन आपके जीवन में एक क्रांति हो सकती है।

ऐसी क्रांति का नाम ही धर्म है। हिंदू और मुसलमान और जैन होने का नाम धर्म नहीं। परतंत्रता से, परतंत्रता को देखने की क्षमता से स्वतंत्रता की तरफ जो अभीप्सा पैदा होती है, उसी अभीप्सा का, उसी प्यास का नाम धर्म है।

परमात्मा करे आप कभी धार्मिक हो सकें, क्योंकि जो धार्मिक होता है उसी का जीवन धन्य और उदार होता है।

मेरी इन थोड़ी सी बातों को आपने सुना, अगर इनसे कुछ प्रश्न पैदा हो गए हों, तो मैं समझूंगा बात काम कर गई। कोई प्रश्न आपके मन में आ गए हों, तो संध्या उन पर हम बात करेंगे।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। और अंत में सबके भीतर बने हुए मंदिर में छिपा जो प्रभु है, उसके लिए प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-08

अंतर की खोज-(विविध)  ओशो   (आठवां-प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!

सत्य की यात्रा पर मनुष्य का सीखा हुआ ज्ञान ही बाधा बन जाता है, यह पहले दिन की चर्चा में मैंने कहा। सीखा हुआ ज्ञान दो कौड़ी का भी नहीं। और जो सीखे हुए, पढ़े हुए ज्ञान के आधार पर सोचता हो कि जीवन के प्रश्न को हल कर लेगा, वह नासमझ ही नहीं, पागल है। जीवन के ज्ञान को तो स्वयं ही पाना होता है किसी और से उसे नहीं सीखा जा सकता।

दूसरे दिन की चर्चा में मैंने आपसे कहा कि जिसका अहंकार जितना प्रबल है वह स्वयं के और परमात्मा के बीच उतनी ही बड़ी दीवाल खड़ी कर लेता है। मैं हूं, यही भाव, जो सबमें छिपा है उससे नहीं मिलने देता। अहंकार की बूंद जब परमात्मा के सागर में स्वयं को खोने को तैयार हो जाती है तभी उसे जाना जा सकता है जो सत्य है और सबमें है। यह मैंने दूसरे दिन आपसे कहा। Continue reading “अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-08”

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