गीता दर्शन-(प्रवचन-112)

क्षणभंगुरता का बोध—(प्रवचन—तेरहवां)

अध्‍याय—9

सूत्र:

मां हि पार्थ व्यपाश्त्यि येऽपि स्युः पापयोनय:।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रस्तिऽपि यान्ति परां गतिम्।। 32।।

किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।। 33।।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू।

मामेवैष्यीसि युज्ज्वैवमात्मानं मत्यरायण:।। 34।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-112)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-111)

नीति और धर्म—(प्रवचन—बारहवां)

अध्‍याय—9

सूत्र:

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।

ये भजन्ति तु मां भक्त्‍या मयि ते तेषु चाप्यहम्।। 29।।

अपि चेत्सुदराचारो भजते मामनन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवलितो हि सः।। 30।।

क्षिपं भवति धर्मात्मा शश्वव्छान्तिं निगव्छीत।

कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति।। 31।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-111)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-110)

कर्ताभाव का अर्पण—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

सूत्र:

अध्‍याय—9

पत्रं पष्पं फलं तोर्य यो मे भक्या प्रकछीत।

तदहं भक्मुष्ठतमश्नामि प्रयतात्मन:।। 26।।

यत्करोषि यदश्नासि यज्‍जुएषि ददासि यत्।

यत्तयस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्य मदर्यणम्।। 27।।

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कमंबन्धनै:।

संन्यासयोगयुक्तात्मा विख्सुाए मामुयैष्यसि।। 28।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-110)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-109)

खोज की सम्‍यक दिशा—प्रवचन—दसवां

अध्‍याय—9

सूत्र

येऽम्मन्यदेक्ता भक्त? यजन्ते श्रद्धायान्त्रिता।

तेऽयि मामेव कौन्तेय यजन्‍त्यविधिपूर्वकम् ।। 23।।

अहं हि सर्वज्ञानां भोक्‍ता च प्रभुरेव च।

न तु मामीभजानन्ति तत्‍वेनातश्व्यवन्ति ते।। 24।।

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन्यान्ति पितृक्ता।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।। 25।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-109)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-108)

वासना और उपासना—प्रवचन—नौवां

अध्‍याय—9  (गीता दर्शन भाग—4)

सूत्र:

ते तं भुक्त्‍वा स्वर्ग्लोकं विशलं क्षीणे पुण्ये मर्त्‍यलोकं विशान्‍ति।

एवं त्रयींधर्ममच्छुयन्‍ना गतरगतं काक्कामा लभन्ते।। 21।।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।

तेषां नित्याभिस्त्युक्‍तानां योग्स्सेमं वहाम्यहम्।। 22।।

और वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म के शरण हुए और भोगों की कामना वाले पुरूष बारंबार जाने-आने को प्राप्त होते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-108)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-107)

जीवन के ऐक्‍स का बोध—अ—मन में—(प्रवचन—आठवां)

अध्‍याय—9 

सूत्र:

तपाम्यहमहं वर्ष निग्ष्टृणान्स्पृउजामि च।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चछमर्जुन ।। 19।।

त्रैविद्या मां सोमया: पूतपापा

यज्ञैरिष्टवा स्वग्रतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमामाद्य सुरेन्द्रलस्केम्

अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ।। 20।।

मैं ही सूर्यरूप हुआ तपता हूं तथा वर्क को आकर्षित करता हूं और वर्षाता हूं। और हे अर्जुन? मैं ही अमृत और मृत्‍यु एवं सत और असत भी? सब कुछ मैं ही हूं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-107)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-106)

मैं ओंकार हूं—(प्रवचन—सातवां)

अध्‍याय—9

सूत्र:

पिताहमस्य जगतो माता धाता पिताम्ह:।

वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।। 17।।

गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुह्रत्।

प्रभव: प्रलय: स्थानं निधान बीजमध्ययम्।। 18।।

और हे अर्जुन! मैं ही इस संपूर्ण जगत का धाता अर्थात धारण करने वाला, पिता, माता और पितामह हूं, और जानने योग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेदु सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-106)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-105)

ज्ञान, भक्‍ति, कर्म—प्रवचन—छठवां

अध्‍याय—9

  सूत्र:

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।

एकत्‍वेन पृथक्‍त्‍वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ।। 12।।

अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमीग्नरहं हुतम्।। 13।।

कोई तो मुझ विराट स्वरूय परमत्‍मा को ज्ञान— यज्ञ के द्वारा पूजन करते हुए एकत्व भाव से अर्थात जो कुछ है सब वासुदेव ही है, हम भाव से उपासते हैं और दूसरे पृथकत्व भाव से अर्थात स्वामी— सेवक भाव से और कोई—कोई अच्छे प्रकार से भी उपासते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-105)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-104)

दैवी या आंसुरी धारा—(अध्‍याय—9)

प्रवचन—पाँचवाँ (104)

सूत्र:

 महात्मानस्तु मां पार्थ दैवौं प्रकृतिमश्रिता:।

भजज्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। 13।।

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्‍या नित्‍ययुक्‍ता उपासते ।। 141।

परंतु हे पार्थ दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्माजन है, वे तो मेरे को अब भूतों का सनतन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूय जानकर अनन्य मन से युक्‍त हुए निरंतर भजते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-104)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-103)

विराट की अभीप्‍सा—(अध्‍याय—9)—प्रवचन—चौथा

सूत्र:

मयाध्‍यक्षेण प्रकृति: सूयतेसचाराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्धइयीश्वर्त्से।। 10।।।

अवजानीन्त मां मूढ़ा मानुषी तनुमख्सिम् ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। 11।।

मोघाशा मोघकर्माणो मोख्ताना विचेतस:।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मौहिनौं श्रिता:।। 12।।

और हे अर्जुन मुझ अधिष्ठता की उपस्थिति मात्र से यह मेरी प्रकृति अर्थात माया चराचर— सहित सर्व जगत को रचती है और इस ऊपर कहे हुए हेतु से ही यह जगत बनता—बिखरता रहता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-103)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-102)

जगत एक परिवार है(अध्‍याय—9)—प्रवचन—तीसरा

सूत्र:

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् ।

कल्पक्षये युनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।। 7।।

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य धिसृजामि पुन: पुन:।

भूतग्राममिमं कृल्लमवशं क्कृतैर्वशात्।। 8।।

न च मां तानि कमगॅण निबश्वन्ति धनंजय।

उदासीनवदासीनमसक्त तेषु कर्मसु।। 9।।

और हे अर्जुन कल्य के अंत में सब भूत मेरी प्रकृति की प्राप्त होते हैं अर्थात मेरी प्रकृति में लय होते हैं। और कल्य के आदि में उन्‍हें मैं फिर रचता हूं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-102)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-101)

अतर्क्‍य रहस्‍य में प्रवेश—(अध्‍याय—9)

प्रवचन—दूसरा

सूत्र:

मया ततमिदं सर्व जगदस्थ्यमूर्तिना।

मत्‍स्‍थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्यवीस्थ्य:।। 4।।

न च मत्‍स्‍थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।

भूतभृन्‍न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:।। 5।।

यथाकाशीस्थ्योनित्यं वायु: सर्वन्‍नगो महान्।

तथा सर्वाणि भूतानि मत्‍स्‍थानीत्युयधारय ।। 6।।

और हे अर्जुन मेरे अव्‍यक्‍त स्वरूय से यह सब जगत परिपूर्ण है और सब भूत मेरे में स्थित हैं। इसलिए वास्तव में मैं उनमें स्थित नही हूं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-101)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-100)

गीता दर्शन—(अध्‍याय—9) प्रवचन—पहला

श्रीमद्भगवद्गीता

अथ नवमोऽध्याय:

 श्रीभगवानवाच

हदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।

ज्ञानं विज्ञानसीहतं यज्ञ्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।। 1।।

राजविद्या राजगुह्मं यीवप्रीमदमुत्तमम्।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।। 2।।

अश्रद्दधाना: पुरूषा धर्मस्यास्य परंतप।

अप्राप्‍य मां निवर्कन्ते मृत्युसंसारवर्त्मीन।। 3।। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-100)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-099)

तत्‍वज्ञकर्मकांड के पारप्रवचनग्‍यारहवां

अध्‍याय—8

सूत्र:

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्मति कश्‍चन।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयक्तो भवार्जुन।। 27।।

वेदेषु यज्ञषु तप:सु चैव दानेषु यत्‍युण्यफलं प्रदिष्टम्।

अत्येति तत्सवर्मिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।। 28।।

और हे पार्थ इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्व से जानता हुआ, कोई भी योगी मोहित नहीं होता है। हस कारण हे अर्जुन, तू सब काल में योग से युक्‍त हो अर्थात निरंतर मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाला हो। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-099)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-098)

दक्षिणायण के जटिल भटकाव—(प्रवचन—दसवां)

अध्याय—8

धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।। 25।।

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।

एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।। 26।।

तथा जिस मार्ग में धूम है और रात्रि है, तथा कृष्णपक्ष है और दक्षिणायण के छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गया हुआ योगी, चंद्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर पीछे आता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-098)”

गीता दर्शन-(जूगाड……)

गीता दर्शन-भाग-04

जूगाड….जूगाड…जूगाड….

मित्रो जीवन इतना सरल और सीधा नहीं होता है,  जितना दिखाई देता है। इस तरह जीवन में ध्‍यान है। परंतु आदमी चलता रहे तो मार्ग में आने वाली कोई भी रूकावट उसे एक कदम और उंचाई पर ले जाती है। हां कोई डर कर या घबरा कर रूक जाये जो उसका दूर्भाग्‍य, लेकिन जिस मार्ग पर गुरु का संग साथ हो वहां तो जेठ की तपिस भी मधुमास की उसास ह्रदय में भर जाती है। और थकान और परेशानी तो न जाने कहां कफूर हो जाती है। Continue reading “गीता दर्शन-(जूगाड……)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-097)

जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन–उत्तरायण पथ—(प्रवचन—नौवां)

अध्याय—8

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।। 23।।

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।। 24।।

और हे अर्जुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात मार्ग को कहूंगा।

उन दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, और दिन है, तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण के छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-097)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-096)

अक्षर ब्रह्म और अंतर्यात्रा—(प्रवचन—आठवां)

अध्याय—8

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। 21।।

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।

यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।। 22।।

और जो वह अव्यक्त अक्षर ऐसे कहा गया है उस ही अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परम गति कहते हैं, तथा जिस सनातन अव्यक्त को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे नहीं आते हैं, वह मेरा परम धाम है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-096)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-095)

सृष्टि और प्रलय का वर्तुल—(प्रवचन—सातवां) 

अध्याय—8

अव्यक्तात् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।। 18।।

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।। 19।।

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।

यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।। 20।।

इसलिए काल के तत्व को जानने वाले यह भी जानते हैं कि संपूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में अव्यक्त से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में उस अव्यक्त में ही लय होते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-095)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-094)

वासना, समय और दुःख—(प्रवचन—छठवां) अध्याय—8

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।। 15।।

आब्रह्मभुवनालोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।। 16।।

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।

रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।। 17।।

और वे परम सिद्धि को प्राप्त हुए महात्माजन मेरे को प्राप्त होकर, दुख के स्थान आलयरूप क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-094)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-093)

योगयुक्त मरण के सूत्र—(प्रवचन—पांचवां)  अध्याय—8

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।। 12।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।। 13।।

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।। 14।।

हे अर्जुन, सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर अर्थात इंद्रियों को विषयों से हटाकर तथा मन को उद्देश्य में स्थिर करके और अपने प्राण को मस्तक में स्थापन करके योगधारणा में स्थिर हुआ, जो पुरुष ओम, ऐसे इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मेरे को चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-093)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-092)

भाव और भक्ति—(प्रवचन—चौथा)  अध्याय—8

प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।

भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।। 10।।

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।। 11।।

वह भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापन करके, फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरूप परम पुरुष परमात्मा को ही प्राप्त होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-092)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-091)

स्मरण की कला—(प्रवचन—तीसरा)

अध्याय—8

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।

मय्यर्पित मनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।। 7।।

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।। 8।।

कविं पुराणमनुशासितारम् अणोरणीयां समनुस्मरेद्यः।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपम् आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्।। 9।।

इसलिए हे अर्जुन, तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे में अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त हुआ निःसंदेह मेरे को ही प्राप्त होगा। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-091)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-090)

मृत्यु-क्षण में हार्दिक प्रभु-स्मरण—(प्रवचन—दूसरा)

अध्याय—8

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।। 4।।

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।। 5।।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।। 6।।

उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं और हिरण्यमय पुरुष अधिदैव हैं और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन, इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूं।

और जो पुरुष अंतकाल में मेरे को ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-090)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-089)

 

स्वभाव अध्यात्म है—(प्रवचन—पहला)

अध्याय—8

श्रीमद्भगवद्गीता (अथ अष्टमोऽध्यायः)

अर्जुन उवाच

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।। 1।।

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।। 2।।

श्रीभगवानुवाच

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।

भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।। 3।।

अर्जुन बोला, हे पुरुषोत्तम, जिसका आपने वर्णन किया, वह ब्रह्म क्या है, और अध्यात्म क्या है तथा कर्म क्या है, और अधिभूत नाम से क्या कहा गया है तथा अधिदैव नाम से क्या कहा जाता है? Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-089)”

गीता दर्शन-(भाग-04)-ओशो

गीता दर्शन (भाग—4) ओशो
(ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्‍याय आठ ‘अक्षर—ब्रह्म—योग’ एंव अध्‍याय नौ ‘राजविद्या—राजगुह्म—योग’ पर दिए गए चौबीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)
कृष्‍ण ने यह गीता कही—इसलिए नहीं कि कह कर सत्‍य को कहा जा सकता है। कृष्‍ण से बेहतर यह कौन जानेगा कि सत्‍य को कहा नहीं जा सकता है। फिर भी कहा; करूणा से कहा।
सभी बुद्धपुरूषों ने इसलिए नहींबोला है कि बोल कर तुम्‍हें समझाया जा सकता है। बल्‍कि इसलिए बोला है कि बोलकर ही तुम्‍हें प्रतिबिंब दिखाया जा सकता है।

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