बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-10)

नए सूर्य को नमस्कार-(प्रवचन-दसवां)

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक  आशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

कहते हैं कि बुद्ध पुरुष जहां वास करते हैं, जहां भ्रमण करते हैं, वे स्थान तीर्थ बन जाते हैं। यह बात तो समझ में आती है। लेकिन श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि संत स्वयं तीर्थों को पवित्र करते हैं। स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति संतः। यह बात समझ में नहीं आती।

भगवान, समझाने की अनुकंपा करें।

सहजानंद,

पहली बात अगर समझ में आती है तो दूसरी भी जरूर समझ में आएगी। और यदि दूसरी समझ में नहीं आती तो पहली भी समझ में आई नहीं, सिर्फ समझने का भ्रम हुआ है। क्योंकि पहली बात ज्यादा कठिन है, दूसरी बात तो बहुत सरल है। Continue reading “बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-10)”

बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-09)

आओ, बैठो–शून्य की नाव में-(प्रवचन-नौवां)

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक  आशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

आपके विचार मेरे विचारों से मिलते हैं। क्या मैं आपके किसी काम आ सकता हूं?

रामदास गुलाटी,

यह तो भूल से ही भूल हो गई। अगर मेरे विचार तुम्हारे विचारों से मिलते हैं तो मुझे पूछना चाहिए कि क्या तुम्हारे किसी काम आ सकता हूं। तुम्हारे पास तो पहले से ही बोध है। तुम्हें तो शिष्यों की तलाश है, गुरु की नहीं। और तुम्हारे पास अगर विचार हैं ही, तो उन्हें क्या मिलाते फिर रहे हो? Continue reading “बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-09)”

बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-08)

जिन खोजा तिन पाइयां-(प्रवचन-आठवां)

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक  आशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

मैं क्या करूं? मेरे लिए क्या आदेश है?

दिनकर,

मैं करने पर जोर नहीं देता हूं। मेरा जोर है होने पर। कृत्य तो बाहरी घटना है–मनुष्य के जीवन की परिधि है, केंद्र नहीं। और परिधि को हम कितना ही सजा लें, आत्मा वैसी की वैसी दरिद्र की दरिद्र ही बनी रहती है। लेकिन सदियों से यह अभिशाप मनुष्य की छाती पर सवार रहा है: यह करने का भूत–क्या करें! नहीं कोई पूछता कि मैं कौन हूं। बिना यह जाने कि मैं कौन हूं, लोग पूछे चले जाते हैं–क्या करूं? फिर तुम जो भी करोगे गलत होगा। भीतर तो अंधेरा है; फिर नाम चाहे तुम दिनकर ही रखो, कुछ भेद न पड़ेगा। आंखें तो अंधी हैं, फिर चाहे तुम चश्मा ही लगा लो, तो भी किसी काम नहीं आएगा। Continue reading “बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-08)”

बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-07)

संन्यास यानी ध्यान—(प्रवचन-सातवां)

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक आशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

कुछ बनने की आस में उलझता रहा, कुछ न हुआ। सिर्फ यह बोध रह गया कि मैं हूं। न धन आया, न मकान बना, संगीत, न विद्वान बना। न जीना ही मुझको रास आया। वहां आ कर जीवन को एक नयी दिशा अनजाने ही दे दी। अतीत भटकाव में बीत गया, वर्तमान संन्यास में, और भविष्य का निर्णय आप करें, क्या होगा?

दीपक भारती, Continue reading “बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-07)”

बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-06)

मैं तो एक चुनौती हूं-(प्रवचन-छठवां)

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक  आशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

सितारवादक पंडित रविशंकर से जब हालैंड के प्रसिद्ध दैनिक पत्र वोल्क्सक्रान्ट के प्रतिनिधि ने आपके संबंध में पूछा तो उन्होंने जो वक्तव्य दिया वह इस प्रकार है: “इस लोकतांत्रिक जगत में प्रत्येक व्यक्ति वह काम करने को स्वतंत्र है, जिसे वह उचित मानता है। इसलिए लोग अगर भगवान रजनीश के पास जाना चाहते हैं तो उन्हें स्वयं ही तय करना होगा। मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूं, लेकिन वे पाश्चात्य लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय मालूम पड़ते हैं। आपको कुछ त्याग नहीं करना पड़ता है और पाश्चात्य जन जो चाहते हैं वे उसे सर्वाधिक मात्रा में वहां उपलब्ध करते हैं। अगर आपको यह द्वंद्व है तो यह चीज आपके सर्वथा योग्य है। वहां आपको सभी चीजें मिल सकती हैं–सेक्स, गांजा-भांग और आध्यात्मिक मुक्ति, सब एक साथ।’ Continue reading “बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-06)”

बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-05)

बहुरि ने ऐसा दांव—(प्रश्नोतर) –प्रवचन-पांचवां

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक  आशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

आपने आचार्य तुलसी और मुनि नथमल पर अपने विचार व्यक्त किए। क्या इनकी साधना, आध्यात्मिक ज्ञान एवं अनुभव के विषय में भी बताने की अनुकंपा करेंगे? इनके साधना-स्थल बिलकुल सूने पड़े हैं। अभी जैन विश्व भारती लाडनूं देखने का अवसर मिला, सुजानगढ़ शिविर के समय। दो करोड़ की लागत से खड़ी संस्था में इमारतें तो बहुत हैं, लेकिन साधक बहुत ही कम। आचार्य तुलसी एवं मुनि नथमल दोनों वहां हैं, फिर भी कोई भीड़ साधकों की नहीं है। मुनि नथमल आपकी तरह शिविर भी लेने लगे हैं और उनके ध्वनि-मुद्रित प्रवचन भी तैयार होने लगे हैं। मुनि नथमल कहते हैं: “संगीत से ध्यान में गति एक सीमा से आगे नहीं होती है।’ आचार्य तुलसी ने अपने शिष्यों को कहा है कि वे आपका साहित्य न पढ़ें। लेकिन जैन साधु एवं साध्वी मेरे यहां ठहरते हैं, आपकी पुस्तकें पढ़ते हैं व टेप सुनते हैं और वे आपसे प्रभावित हैं। फिर इनके आचार्य आपका क्यों विरोध करते हैं? कृपया समझाएं।

स्वामी धर्मतीर्थ, Continue reading “बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-05)”

बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-04)

स्वस्थ हो जाना उपनिषद है-(प्रवचन-चौथा)

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक आशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

तैत्तरीयोपनिषद में एक कथा है कि गुरु ने शिष्य से नाराज हो कर उसे अपने द्वारा सिखाई गई विद्या त्याग देने को कहा। तो एवमस्तु कह कर शिष्य ने विद्या का वमन कर दिया, जिसे देवताओं ने तीतर का रूप धारण कर एकत्र कर लिया। वही तैत्तरीयोपनिषद कहलाया।

भगवान, इस उच्छिष्ट ज्ञान के संबंध में समझाने की कृपा करें।

जिनस्वरूप Continue reading “बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-04)”

बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-03)

सारे धर्म मेरे हैं-(प्रवचन-तीसरा)

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक  आशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

आपने उस दिन हमारे पूज्य आचार्य श्री तुलसीदास को भोंदूमल कहा तथा मुनि श्री नथमल को थोथूमल कहा तथा अन्य साधुओं को गधा कहा। जब आप हमारे पूज्य मुनियों और साधुओं को ऐसी गालियां देते हैं तो आपका विरोध क्यों न हो? भगवान महावीर ने तो साधुओं, मुनियों, सिद्धों आचार्यों और उपाध्यायों को नमस्कार कहा है, जिसका आपने महावीर-वाणी के एक प्रवचन में समर्थन भी किया है। फिर यह विरोधाभास क्यों?

हीरालाल जैन, Continue reading “बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-03)”

बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-02)

विज्ञान और धर्म का समन्वय-(प्रवचन-दूसरा)

 दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक  आशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

आप गांधीवादी विचारधारा के विरोधी और आधुनिक प्रविधि और यंत्र के समर्थक मालूम पड़ते हैं। लेकिन आपको मालूम है कि प्रविधि और यंत्र के कारण पश्चिम का जीवन कितना अशांत और तनावग्रस्त एवं क्षुब्ध हो चला है। वह सामूहिक विक्षिप्तता के कगार पर खड़ा है। तब क्यों आप उसका अंध-समर्थन करते हैं?

चिमनभाई देसाई,

मैं विचारधाराओं मात्र का विरोधी हूं, गांधीवादी विचारधारा का ही नहीं। विचार के पार जाना है, तो किस वाद को मान कर तुम उलझे हो, इससे भेद नहीं पड़ता। किस झाड़ी के कांटों में उलझे हो, इससे मुझे बहुत प्रयोजन नहीं है। कांटों से मुक्त होना है। और मस्त विचार से ज्यादा नहीं है; उलझा सकते हैं, सुलझा नहीं  सकते। चूंकि मैं Continue reading “बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-02)”

बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-01)

जीवित गुरु–जीवंत धर्म—(प्रवचन-पहला)

दिनांक 01-08-1980 से 10-08-1980 तक  आशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

जीवित सदगुरु के पास इतना खतरनाक क्यों है? सब कुछ दांव पर लगा कर आपके बुद्ध-ऊर्जा क्षेत्र में डूबने के लिए इतने कम लोग क्यों आ पाते हैं? जबकि पलटू की तरह आपका आह्वान पूरे विश्व में गूंज उठा है–

बहुरि न ऐसा दाव, नहीं फिर मानुष होना,

क्या ताकै तू ठाढ़, हाथ से जाता सोना।

भगवान, अनुकंपा करें, बोध दें। Continue reading “बहुरि ने ऐसा दांंव-(प्रवचन-01)”

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