तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)
प्रवचन-तीसरा-(चार मुद्राओं अर्थात चार तालों को तोड़ना)
दिनांक 03 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।
सूत्र-
वो अपने अंदर जो भी अनुभव करते हैं,
उसे वे उच्चतम सचेतनता की स्थिति बतलाते हुए,
उसकी ही शिक्षा वे देते हैं,
वे उसकी को मुक्ति कह कर पुकारेंगे,
एक हरे रंग कम मूल्य का कांच का टुकड़ा ही
उसके लिए पन्ने-रत्न जैसा ही होगा।
भ्रम में पड़कर वे यह भी नहीं जानते है
कि अमूल्य रत्न को कैसा होना चहिए?
सीमित बुद्धि के विचारों के कारण,
वे तांबे को भी स्वर्ण की भांति लेते हैं,
और मन के शूद्र-विचारों को वे अंतिम सत्य की तरह सोचते हैं।
वे शरीर और मन के सपनों जैसे सुखमय अनुभवों को ही
सर्वोच्च अनुभव मानकर वहीं बने रहते है,
और नाशवान शरीर और मन के अनुभवों को ही शाश्वत आनंद कहते है।
‘इवाम’ जैसे मंत्रों को दोहराते हुए वे सोचते हैं कि वे आत्मोपलब्ध हो रहे हैं।
जब कि विभिन्न स्थितियों से होकर गुजरने के लिए चार
मुद्राओं को तोड़ने की जरूरत होती है,
वे अपनी इच्छानुसार सृजित की गई सुरक्षा की चार दीवारी
तक वे स्वयं तक पहुंच जाना कहते है,
लेकिन यह केवल दर्पण में प्रतिबिम्बों को देखा जैसा है।
जैसे मरूस्थल में भ्रमवश जल समझ कर हिरणों का झुंड उसके पीछे भागेगा
वैसे ही दर्पण में झूठा प्रतिबिम्ब देखकर वे मृगतृष्णा के जल की भांति
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