बोधकथा-उन्नसठवी
मैं एक 84 वर्ष के बू.ढे आदमी की मरणशय्या के पास बैठा था। जितनी बीमारियां एक ही साथ एक व्यक्ति को होनी संभव हैं, सभी उन्हें थीं। एक लंबे अर्से से वे असह्य पीडा झेल रहे थे। अंत में आंखें भी चली गई थीं। बीच-बीच में मूच्र्छा भी आ जाती थी। बिस्तर से तो अनेक वर्षों से नहीं उठे थे। दुख ही दुख था। लेकिन फिर भी वे जीना चाहते थे। ऐसी स्थिति में भी जीना चाहते थे। मृत्यु उन्हें अभी भी स्वीकार नहीं थी।
जीवन चाहे साक्षात मृत्यु ही हो, फिर भी मृत्यु को कोई स्वीकार नहीं करता है। जीवन का मोह इतना अंधा और अपूर्ण क्यों है? यह जीवेषणा क्या-क्या सहने को तैयार नहीं कर देती है? मृत्यु में ऐसा क्या भय है? और जिस मृत्यु को मनुष्य जानता ही नहीं, उसमें भय भी कैसे हो सकता है? भय तो ज्ञात का ही हो सकता है। अज्ञात का भय कैसा? उसे तो जानने की जिज्ञासा ही हो सकती है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-59)”