मिट्टी के दीये-(कथा-59)

बोधकथा-उन्नसठवी

मैं एक 84 वर्ष के बू.ढे आदमी की मरणशय्या के पास बैठा था। जितनी बीमारियां एक ही साथ एक व्यक्ति को होनी संभव हैं, सभी उन्हें थीं। एक लंबे अर्से से वे असह्य पीडा झेल रहे थे। अंत में आंखें भी चली गई थीं। बीच-बीच में मूच्र्छा भी आ जाती थी। बिस्तर से तो अनेक वर्षों से नहीं उठे थे। दुख ही दुख था। लेकिन फिर भी वे जीना चाहते थे। ऐसी स्थिति में भी जीना चाहते थे। मृत्यु उन्हें अभी भी स्वीकार नहीं थी।

जीवन चाहे साक्षात मृत्यु ही हो, फिर भी मृत्यु को कोई स्वीकार नहीं करता है। जीवन का मोह इतना अंधा और अपूर्ण क्यों है? यह जीवेषणा क्या-क्या सहने को तैयार नहीं कर देती है? मृत्यु में ऐसा क्या भय है? और जिस मृत्यु को मनुष्य जानता ही नहीं, उसमें भय भी कैसे हो सकता है? भय तो ज्ञात का ही हो सकता है। अज्ञात का भय कैसा? उसे तो जानने की जिज्ञासा ही हो सकती है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-59)”

मिट्टी के दीये-(कथा-58)

बोधकथा-अट्ठावनवी

मैं एक महानगरी में था। वहां कुछ युवक मिलने आए। वे पूछने लगेः ‘‘क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं? ’’ मैंने कहाः ‘‘नहीं। विश्वास का और ईश्वर का क्या संबंध? मैं तो ईश्वर को जानता हूं।’’

फिर मैंने उनसे एक कहानी कही।

किसी देश में क्रांति हो गई थी। वहां के क्रांतिकारी सभी कुछ बदलने में लगे थे। धर्म को भी वे नष्ट करने पर उतारू थे। उसी सिलसिले में एक वृद्ध फकीर को पकड कर अदालत में लाया गया। उस फकीर से उन्होंने पूछाः ‘‘ईश्वर में क्यों विश्वास करते हो? ’’ वह फकीर बोलाः ‘‘महानुभाव, विश्वास मैं नहीं करता। लेकिन, ईश्वर है। अब मैं क्या करूं? ’’ उन्होंने पूछाः ‘‘यह तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि ईश्वर है? ’’ वह बू.ढा बोलाः ‘‘आंखें खोल कर जब से देखा, तब से उसके अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं पडता है।’’ Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-58)”

मिट्टी के दीये-(कथा-57)

बोधकथा-सत्तावनवी

एक यात्रा की बात है। कुछ वृद्ध स्त्री-पुरुष तीर्थ जा रहे थे। एक संन्यासी भी उनके साथ थे। मैं उनकी बात सुन रहा था। संन्यासी उन्हें समझा रहे थेः ‘‘मनुष्य अंत समय में जैसे विचार करता है, वैसी ही उसकी गति होती है। जिसने अंत सम्हाल लिया, उसने सब सम्हाल लिया। मृत्यु के क्षण में परमात्मा का स्मरण होना चाहिए। ऐसे पापी हुए हैं, जिन्होंने भूल से अंत समय में परमात्मा का नाम ले लिया था और आज वे मोक्ष का आनंद लूट रहे हैं।’’

संन्यासी की बात अपेक्षित प्रभाव पैदा कर रही थी। वे वृद्धजन अपने अंत समय में तीर्थ जा रहे थे और मनचाही बात सुन उनके हृदय फूले नहीं समाते थे। सच ही सवाल जीवन का नहीं, मृत्यु का ही है और जीवन भर के पापों से छूटने को भूल से ही सही, बस परमात्मा का नाम लेना ही पर्याप्त है। फिर वे तो भूल से नहीं, जान-बूझ कर तीर्थ जा रहे थे। उनकी प्रसन्नता स्वाभाविक ही थी। इसी प्रसन्नता में वे संन्यासी की सेवा भी कर रहे थे। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-57)”

मिट्टी के दीये-(कथा-56)

बोधकथा-छप्पनवी

एक दिन मैं सुबह-सुबह उठ कर बैठा ही था कि कुछ लोग आ गए। उन्होंने मुझसे कहाः ‘‘आप के संबंध में कुछ व्यक्ति बहुत आलोचना करते हैं। कोई कहता है आप नास्तिक हैं। कोई कहता है अधार्मिक। आप इन सब व्यर्थ की बातों का उत्तर क्यों नहीं देते? ’’ मैंने कहाः ‘‘जो बात व्यर्थ है, उसका उत्तर देने का सवाल ही कहां है? क्या उत्तर देने योग्य मान कर हम स्वयं ही उसे सार्थक नहीं मान लेते हैं? ’’ यह सुन कर उनमें से एक ने कहाः ‘‘लेकिन लोक में गलत बात चलने देना भी तो ठीक नहीं।’’ मैंने कहाः ‘‘ठीक कहते हैं। लेकिन जिन्हें आलोचना ही करना है, निंदा ही करनी है, उन्हें रोकना कभी भी संभव नहीं हुआ है। वे बडे आविष्कारक होते हैं और सदा ही नये मार्ग निकाल लेते हैं। इस संबंध में मैं आपको एक कथा सुनाता हूं।’’ और जो कथा मैंने उनसे कही, वही मैं आपसे भी कहता हूं। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-56)”

मिट्टी के दीये-(कथा-55)

बोधकथा-पच्चपनवी

मनुष्य को परमात्मा तक पहुंचने से कौन रोकता है? और मनुष्य को पृथ्वी से कौन बांधे रखता है? वह शक्ति कौन सी है जो उसकी जीवन-सरिता को सत्ता के सागर तक नहीं पहुंचने देती है?

मैं कहता हूंः मनुष्य स्वयं। उसके अहंकार का भार ही उसे ऊपर नहीं उठने देता है। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण नहीं, अहंकार का पाषाणभार ही हमें ऊपर नहीं उठने देता है। हम अपने ही भार से दबे हैं, और गति में असमर्थ हो गए हैं। पृथ्वी का वश देह के आगे नहीं है। उसका गुरुत्वाकर्षण देह को बांधे हुए है। किंतु अहंकार ने आत्मा को भी पृथ्वी से बांध दिया है। उसका भार ही परमात्मा तक उठने की असमर्थता और अशक्ति बन गया है। देह तो पृथ्वी की है। वह तो उससे ही जन्मी है और उसमें ही उसे लीन हो जाना है। लेकिन आत्मा अहंकार के कारण परमात्मा से वंचित हो, व्यर्थ ही देहानुसरण को विवश हो जाती है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-55)”

मिट्टी के दीये-(कथा-54)

बोधकथा-चव्वनवी

सुबह से सांझ तक सैकडों लोगों को मैं एक दूसरे की निंदा में संलग्न देखता हूं। हम सब कितना शीघ्र दूसरों के संबंध में निर्णय कर लेते हैं, जब कि किसी के भी संबंध में निर्णय करने से कठिन और कोई बात नहीं है। शायद परमात्मा के अतिरिक्त किसी के संबंध में निर्णय करने का कोई अधिकारी नहीं, क्योंकि एक व्यक्ति को–एक छोटे से, साधारण से मनुष्य को भी जानने के लिए जिस धैर्य की अपेक्षा है, वह परमात्मा के सिवाय और किसमें है?

क्या हम एक दूसरे को जानते हैं? वे भी जो एक दूसरे के बहुत निकट हैं, क्या वे भी एक दूसरे को जानते हैं?

मित्र, क्या मित्र भी एक दूसरे के लिए अपरिचित और अजनबी ही नहीं बने रहते हैं?

लेकिन, हम तो अपरिचितों को भी जांच लेते हैं और निर्णय ले लेते हैं और वह भी कितनी शीघ्रता से! Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-54)”

मिट्टी के दीये-(कथा-53)

बोधकथा-त्रेपनवी

वर्षा की अंधेरी रात्रि है। आकाश में बादल घिरे हैं। बीच-बीच में बिजली तेजी से कडकती और चमकती है। एक युवक उसकी चमक के प्रकाश में ही अपना मार्ग खोज रहा था। अंततः वह उस झोपडी के द्वार पर पहुंच ही गया, जहां एक अत्यंत वृद्ध फकीर पूरे जीवन से रह रहा है। वह वृद्ध उस झोपडी को छोड कर कभी भी कहीं नहीं गया था। जब उससे कोई पूछता था कि क्या आपने संसार बिल्कुल ही नहीं देखा है, तो वह कहता थाः ‘‘देखा है, खूब देखा है। स्वयं में ही क्या सारा संसार नहीं है? ’’

मैं भी उस वृद्ध को जानता हूं। वह मेरे भीतर बैठा हुआ है। सच में ही उसने कभी अपना आवास नहीं छोडा है। वह वहीं है और वही है, जहां सदा से है और जो है। और मैं उस युवक को भी भलीभांति जानता हूं, क्योंकि मैं ही तो वह युवक भी हूं! Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-53)”

मिट्टी के दीये-(कथा-52)

बोधकथा-बाववनवी

बृहस्पति का पुत्र कच संपूर्ण शास्त्रों का अध्ययन कर पितृगृह लौटा था। जो भी जाना जा सकता था, वह जान कर आया था। लेकिन चित्त उसका अशांत था। वासनाएं उसे उद्विग्न किए थीं। अहंता के उत्ताप से वह व्याकुल था। इनसे मुक्त होने ही को तो वह ज्ञान की खोज में गया था। लेकिन अशांति जहां की तहां थी और ऊपर से ज्ञान का बोझ और बढ़ गया था। यही होता ही है। शास्त्र-ज्ञान से शांति के जन्म का संबंध ही कौन सा है? शास्त्र और शांति का नाता ही कोई नहीं है। उल्टे वैसा ज्ञान अहंता को और प्रगाढ़ कर अशांति के लिए अधखुले द्वार पूरे ही खोल देता है। लेकिन जिससे शांति ही उपलब्ध न हो, क्या उसे ज्ञान कहना भी उचित है? ज्ञान तो शांत और निर्भार करता है और जो अशांत और भारग्रस्त करता हो, क्या वह भी ज्ञान है? अज्ञान दुख है और यदि ज्ञान भी दुख है तो फिर आनंद कहां है? ज्ञान ही शांति नहीं देगा तब शांति पानी असंभव ही है। सत्य के द्वार पर भी यदि शांति न मिली तो शांति मिलेगी कहां? फिर क्या शास्त्रों में सत्य नहीं है? Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-52)”

मिट्टी के दीये-(कथा-51)

बोधकथा-इक्यावनवी

जीवन क्या है?

एक पवित्र यज्ञ। लेकिन उन्हीं के लिए जो सत्य के लिए स्वयं की आहुति देने को तैयार होते हैं।

जीवन क्या है?

एक अमूल्य अवसर। लेकिन उन्हीं के लिए जो साहस, संकल्प और श्रम करते हैं।

जीवन क्या है?

एक वरदान देती चुनौती। लेकिन उन्हीं के लिए जो उसे स्वीकारते हैं, और उसका सामना करते हैं।

जीवन क्या है? Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-51)”

मिट्टी के दीये-(कथा-50)

बोधकथा-पच्चासवी

रात एक युवती ने आकर कहाः ‘‘मैं सेवा करना चाहती हूं।’’

उससे मैंने कहाः ‘मैं’ को जाने दो तो सेवा अपने आप आ जाती है।

अहंकार के अतिरिक्त जीवन के सेवा बन जाने में और क्या बाधा है?

अहंकार सेवा मांगता है। वस्तुतः वह सब कुछ मांगता ही है, देता कुछ नहीं। वह दान में असमर्थ है। वह उसकी सामथ्र्य ही नहीं। अहंकार सदा का भिखारी है। इसीलिए अहंकारी व्यक्ति से दीन और दरिद्र व्यक्ति खोजना असंभव है।

सेवा तो वही कर सकता है, जो सम्राट है। जिसके पास स्वयं ही कुछ नहीं है, वह किसी को देगा क्या? देने के पहले होना तो आवश्यक ही है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-50)”

मिट्टी के दीये-(कथा-49)

बोधकथा-उन्नचासवी

मैं परमात्मा की प्रार्थना के लिए तुम्हें मंदिरों में जाते देखता हूं तो सोचता हूं कि क्या परमात्मा केवल मंदिरों में ही है? क्योंकि मंदिरों के बाहर न तो तुम्हारी आंखों में पवित्रता की झलक होती है और न तुम्हारी श्वासों में प्रार्थना की ध्वनि। मंदिरों के बाहर तो तुम ठीक वैसे ही होते हो, जैसे वे लोग जो कभी भी मंदिरों में नहीं गए हैं! क्या इससे तुम्हारा मंदिरों में जाना व्यर्थ सिद्ध नहीं हो जाता है? क्या यह संभव है कि मंदिर की सी.िढयों के बाहर तुम कठोर और भीतर करुण हो जाते होगे? क्या यह विश्वासयोग्य है कि मंदिरों के द्वारों में प्रविष्ट होते ही हिंसक चित्त प्रेम से भर जाते हों? जिन हृदयों में सर्व के प्रति प्रेम नहीं है, उनमें परमात्मा के प्रति प्रार्थनाओं का जन्म ही कैसे हो सकता है?

जीवन ही जिसका प्रेम नहीं है, उस जीवन में प्रार्थना असंभव है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-49)”

मिट्टी के दीये-(कथा-48)

बोधकथा-अड़तालीसवी

मैं धर्म पर क्या कहूं? धर्म मृत्यु की विधि से जीवन को पाने का द्वार है।

एक रात्रि मैं नाव पर था। बडी नाव थी और बहुत से मित्र साथ थे। मैंने उनसे पूछाः ‘‘यह सरिता तेजी से भागी जा रही है। लेकिन कहां? ’’ किसी ने कहाः ‘‘सागर की ओर।’’ सच ही सरिताएं सागर की ओर भागी जाती हैं, लेकिन क्या सरिता का सागर की ओर जाना अपनी ही मृत्यु की ओर जाना नहीं? सरिता सागर में मिटेगी ही तो? शायद इसीलिए सरोवर सागर की ओर नहीं जाते हैं! अपनी ही मृत्यु की ओर कौन समझदार जाना पसंद करेगा? इसीलिए तथाकथित समझदार भी धर्म की ओर नहीं जाते हैं। सरिता के लिए जो सागर है, मनुष्य के लिए वही धर्म है। धर्म है, स्वयं को, सर्व में, समग्रीभूत रूप से खो देना। अहंता के लिए वह महामृत्यु है। इसीलिए जो स्वयं को बचाना चाहते हैं, वे अहंकार का सरोवर बन कर परमात्मा के सागर में मिलने से रुके रहते हैं। सागर में मिलने की अनिवार्य शर्त तो स्वयं को मिटाना है। लेकिन वह मृत्यु वस्तुतः मृत्यु नहीं है। क्योंकि उससे होकर जो जीवन पाया जाता है, उसके समक्ष जिसे हम जीवन कहते हैं, वही मृत्यु हो जाता है। मैं स्वयं मर कर ही यह कह रहा हूं। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-48)”

मिट्टी के दीये-(कथा-47)

बोधकथा-सत्तालीसवी

सत्य की खोज में पहला सत्य क्या है? व्यक्ति जो है, जैसा है उसे स्वयं को वैसा ही जानना पहला सत्य है। यह सीढी का पहला पाया है। किंतु अधिकांशतः सीढ़ियों में यह पहला पाया ही नहीं होता है और इसलिए वे केवल देखने मात्र के लिए सीढ़ियां रह जाती हैं। उनसे चढ़ना नहीं हो सकता है। कोई चाहे तो उन्हें कंधों पर ढो सकता है, लेकिन उनसे चढ़ना असंभव है।

मनुष्य औरों को धोखा देता है, स्वयं को धोखा देता है, और परमात्मा को भी धोखा देना चाहता है। फिर इस धोखे में वह स्वयं ही खो जाता है। जिस धुएं से उसकी आंखें अंधी हो जाती हैं, उसे वह स्वयं ही पैदा करता है।

क्या हमारी सभ्यता, संस्कृति और धर्म ऐसे ही धोखों के सुंदर नाम नहीं हैं? क्या इन सब धुओं के भीतर हमने अपनी असभ्यता, असंस्कृति और अधर्म को ही छिपाने की असफल चेष्टा नहीं की है? और परिणाम क्या हुआ है? परिणाम यह है कि सभ्यता के कारण ही हम सभ्य नहीं हो पाते हैं, और धर्म के कारण ही धार्मिक नहीं हो पाते हैं। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-47)”

मिट्टी के दीये-(कथा-46)

बोधकथा-छियालीसवी

एक मंदिर निर्मित हो रहा है। मैं उसके पास से निकलता हूं तो सोचता हूंः मंदिर तो बहुत हैं। शायद उनमें जानेवाले ही कम पडते जाते हैं। लेकिन फिर यह नया मंदिर क्यों बन रहा है? और यही अकेला भी तो नहीं है। और भी मंदिर बन रहे हैं। रोज ही नये मंदिर बन रहे हैं। मंदिर बनते जाते हैं और मंदिरों में जाने वाले घटते जाते हैं। इसका रहस्य क्या है? बहुत खोजता रहा, लेकिन राज हाथ नहीं आता था। फिर उस मंदिर को बनाने वाले एक वृद्ध कारीगर से पूछा। सोचा, शायद नये-नये मंदिरों के बनते जाने का रहस्य उसे ज्ञात हो, क्योंकि उसने तो बहुत से मंदिर बनाए हैं?

वह वृद्ध मेरा प्रश्न सुन हंसने लगा और फिर मुझे मंदिर के पीछे ले गया, जहां पत्थरों पर काम हो रहा था। वहां भगवान की मूर्तियां भी बन रही थीं। मैंने सोचा कि शायद वह कहेगा कि भगवान की इन मूर्तियों के लिए मंदिर बन रहा है, लेकिन इससे तो मेरी जिज्ञासा शांत नहीं होगी, क्योंकि तब प्रश्न होगा कि भगवान की ये मूर्तियां क्यों बन रही हैं? लेकिन नहीं, मैं भूल में था। उसने मूर्तियों की कोई बात ही नहीं उठाई। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-46)”

मिट्टी के दीये-(कथा-45)

बोधकथा-पैत्तालीसवी

एक दिन स्वर्ग के द्वार पर बडी भीड थी। कुछ पंडित चिल्ला रहे थेः ‘‘जल्दी द्वार खोलो।’’ लेकिन द्वारपालों ने उनसे कहाः ‘‘थोडा ठहरिए। हम आपके संबंध में पता लगा लें कि जो ज्ञान आपने पाया, वह शास्त्रों से पाया था या स्वयं से। क्योंकि शास्त्रों से पाए हुए ज्ञान का यहां कोई मूल्य नहीं है।’’

इतने में ही एक संन्यासी भीड के आगे आया और बोलाः ‘‘द्वार खोलो। मैं स्वर्ग में प्रवेश पाना चाहता हूं। मैंने बहुत उपवास किए और शारीरिक कष्ट सहे। मेरे समय में मुझसे बडा और कौन तपस्वी था? ’’

द्वारपालों ने कहाः ‘‘स्वामी जी, थोडा ठहरिए। हम पता लगा लें कि तपश्चर्या आपने क्यों की थी? क्योंकि जहां कुछ भी पाने की आकांक्षा है, वहां न त्याग है न तप है।’’

और तभी जनता के कुछ सेवक आ गए। वे भी स्वर्ग में प्रवेश चाहते थे। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-45)”

मिट्टी के दीये-(कथा-44)

बोधकथा-चव्वालीसवीं

मैं प्रत्येक से पूछता हूं कि जीवन में तुम क्या खोज रहे हो? जीवन की खोज में ही जीवन का अर्थ और मूल्य छिपा है।

कोई यदि कंकड-पत्थर ही खोजता हो तो उसके जीवन का मूल्य उसकी खोज से ज्यादा कैसे होगा?

किंतु, अधिक व्यक्ति क्षुद्र की खोज में ही क्षुद्र हो जाते हैं और अंततः पाते हैं कि जीवन की संपदा उन्होंने ऐसी संपदा को खोजने में गंवाई है, जो संपदा ही नहीं थी।

यह उचित है कि किसी भी यात्रा के पहले हम ठीक से जान लें कि हम कहां पहुंचना चाहते हैं और क्यों पहुंचना चाहते हैं, और यह भी कि क्या गंतव्य यात्रा की कठिनाइयों और श्रम को झेलने योग्य भी है? Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-44)”

मिट्टी के दीये-(कथा-43)

बोधकथा-तिरतालिसवी

मैं मन के आमूल परिवर्तन का आग्रह करता हूं। शरीर के तल पर किसी भी परिवर्तन का कोई गहरा मूल्य नहीं। मात्र आचरण की बदलाहट अपर्याप्त है, क्योंकि अंतस की क्रांति के अभाव में वह आत्मवंचना से ज्यादा नहीं है।

लेकिन जिनके चित्त में भी स्वयं को परिवर्तित करने का विचार उठता है, वे शीघ्र ही हृदय को बिना बदले ही वस्त्रों को बदलने में संलग्न हो जाते हैं। स्वयं को धोखा देने की यह अंतिम विधि है। इससे सावधान होना बहुत आवश्यक है। अन्यथा संन्यास भी बाह्य घटना मात्र रह जाता है। संसार तो बाह्य है, लेकिन संन्यास भी बाह्य ही हो तो जीवन बहुत ही अंधकारपूर्ण पथों पर भटक जाता है।

वासना का पथ तो अज्ञान है ही। किंतु यदि त्याग भी बाह्य हो, तो वह और भी अज्ञानपूर्ण मार्गों पर ले जाता है।

वस्तुतः चेतना का स्वयं से बाह्य होना ही अज्ञान और अंधकार है। फिर इससे कोई भेद नहीं पडता है, वह बाह्यता संसार को लेकर है, या संन्यास को। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-43)”

मिट्टी के दीये-(कथा-42)

बोधकथा-बयालीसवीं

सुबह-सुबह ही एक मित्र आए। उनकी आंखों में क्रोध और घृणा की लपटें थीं। किसी के प्रति बहुत ही तीखे और विषाक्त अग्नि-उदगार प्रकट कर रहे थे। शांति से मैंने उनकी बातें सुनीं और उनसे कहाः ‘‘क्या आपने एक घटना सुनी है? ’’ वे तो कुछ भी सुनने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी बोलेः ‘‘कौन सी घटना? ’’ मैं हंसने लगा तो वे कुछ शिथिल हुए। फिर मैंने उनसे कहाः ‘‘एक मनोचिकित्सक प्र्रेम और घृणा पर शोध कर रहा था। उसने विश्वविद्यालय की एक कक्षा के 15 विद्यार्थियों से कहा कि वे शेष युवकों में से जिन्हें भी घृणित पाते हों, 30 सेकेंड में उनके नामों के प्रथमाक्षरों को लिख दें। एक युवक किसी का भी नाम नहीं लिख सका। कुछ ने कुछ नाम लिखे। एक ने अधिकतम अर्थात 13 नाम लिखे। इस प्रयोग से जो तथ्य सामने आया वह बहुत आश्चर्यजनक था। जिन युवकों ने अधिकतम व्यक्तियों को घृणित माना था, वे स्वयं भी अधिकतम व्यक्तियों द्वारा घृणित माने गए थे। और सबसे अदभुत और रहस्य की बात तो यह थी कि जिस युवक ने किसी का भी नाम नहीं लिखा था, उसका नाम भी किसी ने नहीं लिखा था।’’ Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-42)”

मिट्टी के दीये-(कथा-41)

बोधकथा-इक्तालीसवीं

यह विचारणीय नहीं है कि विचारों में धर्म है या नहीं। विचार नहीं, धर्म जब प्राण ही बनता है, तभी सार्थक है। विचारों में तो धर्म बहुत है। वह धर्म उबारता कहां है? वह तो डुबोता ही है। विचारों की नाव में क्या सागर की यात्रा पर कोई निकलता है? लेकिन सत्य के सागर में तो व्यक्ति विचारों की नाव को लेकर ही निकल जाते हैं। फिर यदि वे किनारों पर ही डूबते देखे जाते हों तो कोई आश्चर्य नहीं। विचारों की नाव से तो कागज की नाव भी कहीं दूर ले जा सकती है। वह भी कहीं ज्यादा वास्तविक है। विचार तो स्वप्न की भांति हैं, उन पर भरोसा उचित नहीं है।

धर्म विचार में ही हो, तो उससे ज्यादा असत्य और कुछ भी नहीं है।

धर्म शास्त्रों में ही है, इसीलिए तो मृत है।

धर्म शब्दों में ही है, इसीलिए तो निष्क्रिय है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-41)”

मिट्टी के दीये-(कथा-40)

बोधकथा-चालीसवीं

एक मित्र कभी-कभी आते हैं। उन्हें देख सदा ही सुकरात का याद आ जाता है। किसी फकीर से सुकरात ने कहा थाः ‘‘बंधु, तुम्हारे फटे हुए फकीरी वस्त्रों में से सिवाय अभिमान के और कुछ भी नहीं झांकता है।’’

अहंकार के मार्ग अतिसूक्ष्म हैं। ओ.ढी हुई विनम्रता उसकी सूक्ष्मतम गति है। ऐसी विनम्रता उसे ढांकती कम, प्रकट ही ज्यादा करती है। वह उन वस्त्रों की भांति ही होती है, जो शरीर को ढांकते नहीं, अपितु उघाडते हैं। वस्तुतः न तो प्रेम को ओढ़ कर घृणा मिटाई जा सकती है और न ही विनम्रता के वस्त्रों से अहंकार की नग्नता ही ढांकी जा सकती है। राख के नीचे जैसे अंगारे छिपे और सुरक्षित होते हैं और हवा का जरा सा झोंका ही उन्हें प्रकट कर देता है, ऐसे ही आरोपित व्यक्तित्वों में यथार्थ दबा रहता है। एक धीमी सी खरोंच ही अभिनय को तोड कर उसे प्रत्यक्ष कर देती है। ऐसी परोक्ष बीमारियां प्रत्यक्ष बीमारियों से ज्यादा ही भयंकर और घातक होती हैं। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-40)”

मिट्टी के दीये-(कथा-39)

बोधकथा-उन्नतालिसवां

मैं एक छोटे से गांव में अतिथि था। गांव तो छोटा था, लेकिन उसमें मंदिर भी था, मस्जिद भी थी। लोग बडे धार्मिक थे और सुबह होते ही अपने-अपने पूजागृहों में जाते थे। रात्रि में भी पूजागृह से लौट कर ही सोते थे। सदा धार्मिक उत्सव भी होते रहते थे। लेकिन, उस गांव का जीवन और गांवों जैसा ही था। धर्म और जीवन एक-दूसरे को छूते नहीं मालूम होते थे। जीवन का अपना रास्ता है और धर्म का अपना। दोनों समानांतर चलते हैं, इसलिए उनके कहीं मिलने का सवाल ही नहीं है। परिणाम में धर्म निष्प्राण हो जाता है और जीवन अधर्म। जो सारी पृथ्वी पर हुआ है, वही उस गांव में भी हुआ था। मैं एक-एक, दो-दो दिन गांव के सभी पूजागृहों में गया और परमात्मा के तथाकथित भक्तों और पुजारियों के हृदय में झांकने की चेष्टा की। उनकी आंखों में खोजा। उनकी प्रार्थनाओं में कुरेदा। उनसे बातें कीं। उनके जीवन में टटोला। उनका आना-जाना, उठना-बैठना देखा। उनमें से कुछ के घर भी गया। उनकी दुकानों पर भी बैठा। जागते में उन्हें समझा। निद्रा में भी उनकी बडबडाहट सुनी। उनके पडोसियों से उनके संबंध में पूछा। एक भगवान के भक्तों से दूसरे भगवान के भक्तों के संबंध में सुना। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-39)”

मिट्टी के दीये-(कथा-38)

बोधकथा-अडतिसवी

आप पूछते हैं: आनंद कहां है?

मैं एक कथा कहता हूं। उस कथा में ही आपका उत्तर है।

एक दिन संसार के लोग सोकर उठे ही थे कि उन्हें एक अदभुत घोषणा सुनाई पडी। ऐसी घोषणा इसके पूर्व कभी भी नहीं सुनी गई थी। किंतु वह अभूतपूर्व घोषणा कहां से आ रही है, यह समझ में नहीं आता था। उसके शब्द जरूर स्पष्ट थे। शायद वे आकाश से आ रहे थे, या यह भी हो सकता है कि अंतस से ही आ रहे हों। उनके आविर्भाव का स्रोत मनुष्य के समक्ष नहीं था।

‘‘संसार के लोगो, परमात्मा की ओर से सुखों की निर्मूल्य भेंट! दुखों से मुक्त होने का अचूक अवसर! आज अर्धरात्रि में, जो भी अपने दुखों से मुक्त होना चाहता है, वह उन्हें कल्पना की गठरी में बांध कर गांव के बाहर फेंक आवे और लौटते समय वह जिन सुखों की कामना करता हो, उन्हें उसी गठरी में बांध कर सूर्योदय के पूर्व घर लौट आवे। उसके दुखों की जगह सुख आ जाएंगे। जो इस अवसर से चूकेगा, वह सदा के लिए ही चूक जाएगा। यह एक रात्रि के लिए पृथ्वी पर कल्पवृक्ष का अवतरण है। विश्वास करो और फल लो। विश्वास फलदायी है।’’ Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-38)”

मिट्टी के दीये-(कथा-37)

बोधकथा-सेैैतीसवी

एक करोडपति ने महल बनवाया था। उसका जीवन बीतते-बीतते वह महल बन कर तैयार हुआ था। अक्सर ही ऐसा होता है। रहने के लिए जिसे बनाते हैं, उसे बनाने में ही रहने वाला चुक जाता है। निवास तैयार करते हैं और समाधि तैयार होती है। यही हुआ था। महल तो बन गया था लेकिन बनाने वाले के जाने के दिन आ गए थे। किंतु महल अद्वितीय बना था। अहंकार तो अद्वितीयता ही चाहता है। उसके लिए ही तो मनुष्य अपनी आत्मा भी खो देता है। ‘अहं’ जो है ही नहीं, सर्वप्रथम होकर ही तो स्वयं के होने का अनुभव कर पाता है। सौंदर्य में, शिल्प में, सुविधा में, सभी भांति वह भवन अद्वितीय था, और धनपति के पैर पृथ्वी पर नहीं पड रहे थे। राजधानी भर में उसकी ही चर्चा थी। जो भी देखता था मंत्रमुग्ध हो जाता था। अंततः स्वयं सम्राट भी उसे देखने आया। वह भी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर सका। उसके अपने महल भी फीके पड गए थे। भीतर तो उसे ईष्र्या ही हुई पर ऊपर से उसने प्रशंसा ही की। धनपति ने तो इसकी ईष्र्या को ही वस्तुतः प्रशंसा माना। सम्राट की प्रशंसा का आभार मानते हुए उसने कहाः ‘‘सब परमात्मा की कृपा है।’’ लेकिन, हृदय में तो वह जानता था कि सब मेरा ही पुरुषार्थ है! Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-37)”

मिट्टी के दीये-(कथा-36)

बोधकथा-छतिसवां

अहंकार हृदय को पाषाण बना देता है। जीवन में जो भी सत्य है, शिव है, सुंदर है, वह उस सबकी मृत्यु है। इसलिए अहंकार के अतिरिक्त परमात्मा के मार्ग में कोई बाधा नहीं। क्योंकि पाषाण-हृदय प्रेम को कैसे जानेगा? और जहां प्रेम नहीं, वहां परमात्मा कहां? प्रेम के लिए तो सरल और विनम्र हृदय चाहिए–सरल और संवेदनशील। और अहंकार जितना प्रगाढ़ होता है, उतना ही हृदय अपनी सरलता और संवेदनशीलता खो देता है।

‘‘धर्म क्या है? ’’ जब कोई मुझ से पूछता है तो मैं कहता हूंः ‘‘हृदय की सरलता–हृदय की संवेदनशीलता।’’

लेकिन, धर्म के नाम से जो कुछ प्रचलित है, वह तो अहंकार के ही बहुुत से सूक्ष्म और जटिल रूपों की अभिव्यक्ति है।

अहंकार समस्त हिंसा का मूल है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-36)”

मिट्टी के दीये-(कथा-35)

बोधकथा-पैतिसवी

एक सम्राट आकंठ चिंता में डूबा हुआ था। चिंताएं जब डुबाती हैं तो पूरा ही डुबाती हैं। क्योंकि एक चिंता जिस मार्ग से भीतर प्रवेश करती है, उसी मार्ग से और चिंताएं भी प्रविष्ट हो जाती हैं। जो एक को मार्ग देता है, वह अनजाने ही अनेक को मार्ग दे देता है। इसीलिए चिंताएं सदा भीड में आती हैं। अकेली एक चिंता से मिलन कभी भी किसी का नहीं होता है।

यह आश्चर्यजनक है कि सम्राट अक्सर ही चिंता में डूबे रहते हैं, हालांकि वस्तुतः सम्राट तो केवल वे ही हैं जो चिंता से मुक्त हो गए हैं। चिंता की दासता इतनी बडी है कि एक साम्राज्य की शक्ति भी उसे पोंछ नहीं पाती। शायद इसी कारण साम्राज्यों की शक्ति भी चिंता की सेवा में ही सन्नद्ध हो जाती है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-35)”

मिट्टी के दीये-(कथा-34)

बोधकथा-चौतिसवीं

एक दोपहर की बात है। कुछ व्यक्ति आए और कहने लगेः ‘‘परमात्मा नहीं है। और धर्म धोखाधडी है।’’

मैं उनकी बात सुन हंसने लगा तो उन्होंने पूछाः ‘‘आप हंसते क्यों हैं? ’’ मैंने कहाः ‘‘क्योंकि अज्ञान मुखर है और ज्ञान मौन। क्या परमात्मा के होने या न होने के संबंध में कुछ भी कहना इतना आसान है? मनुष्य की क्षुद्र बुद्धि के सभी निर्णय क्या हंसने योग्य ही नहीं हैं? जो स्वयं की बुद्धि की सीमा को जानते हैं, वे निर्णय नहीं लेते, अपितु अवाक रह जाते हैं, और उस रहस्यपूर्ण क्षण में ही वे स्वयं की सीमा का अतिक्रमण भी कर जाते हैं। तब वे स्वयं को भी जानते हैं और सत्य को भी। क्योंकि सत्य स्वयं में है और सत्य में स्वयं की सत्ता है। क्या बूंद सागर में है और बूंद में सागर नहीं है? क्या यह उचित है कि बूंद स्वयं को जाने बिना सागर को जानने चले और जब न जान सके तो कहे कि सागर है ही नहीं। बूंद स्वयं को ही जान ले तो सागर को भी जान लेती है। परमात्मा का विचार व्यर्थ है। मैं आपसे पूछता हूं–क्या आप स्वयं को जानते हैं? क्या इस शर्त को पूरा किए बिना कोई भी परमात्मा के संबंध में होने या न होने का निर्णय लेने का अधिकारी है? ’’ Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-34)”

मिट्टी के दीये-(कथा-33)

बोधकथा-तैतीसवी

एक मित्र साधु हो गए हैं। साधु होने के बाद आज पहली बार ही मिलने आए थे। उन्हें गैरिक वस्त्रों में देखा तो मैंने कहाः ‘‘मैं तो सोचता था कि सच ही तुम साधु हो गए हो! लेकिन यह क्या? ये वस्त्र क्यों रंग डाले हैं? ’’

मेरे अज्ञान पर मुस्कुराते हुए वे बोलेः ‘‘साधु का अपना वेश होता है।’’ यह सुन मैं सोच में पड गया तो उन्होंने कहाः ‘‘इसमें सोच की क्या बात है? ’’ मैंने कहाः ‘‘बहुत सोच की बात है। क्योंकि साधु का कोई वेश नहीं है और जहां वेश है, वहां साधु नहीं है।’’ शायद मेरी बात वे समझे नहीं और उन्होंने पूछाः ‘‘साधु कुछ तो पहनेगा ही, या आप चाहते हैं, साधु नग्न ही रहे? ’’ मैंने कहाः ‘‘पहनने की मनाही नहीं है, न पहनने की शर्त नहीं है। प्रश्न कुछ विशेष पहनने या कुछ भी न पहनने के आग्रह का है। मित्र, वेश वस्त्रों में नहीं, आग्रह में है।’’ वे बोलेः ‘‘वेश से स्मृति रहती है कि मैं साधु हूं।’’ Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-33)”

मिट्टी के दीये-(कथा-32)

बोधकथा-बत्तीसवी

एक स्त्री ने पूछाः ‘‘मैं स्वयं को बदलना चाहती हूं। क्या करूं? ’’

मैंने कहाः ‘‘सबसे पहली बातः वस्त्रों को बदलने से बचना। क्योंकि जब भी किसी के जीवन में आत्मक्रांति की घडी आती है, तब उसका मन उसे वस्त्रों के बदलने में संलग्न कर देता है। मन के लिए यही सुविधापूर्ण है और इसमें ही उसकी सुरक्षा भी है। वस्त्रों के परिवर्तन से मन की मृत्यु तो होती नहीं, अपितु नये वस्त्रों में, जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों के बजाय, वह और भी दीर्घायु हो जाता है। वस्त्रों के परिवर्तन से आत्मक्रांति तो नहीं होती, उल्टे अहंतुष्टि हो जाती है। और अहंतुुष्टि आत्मघात ही है।

वह स्त्री पूछने लगीः ‘‘कौन से वस्त्र? ’’ Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-32)”

मिट्टी के दीये-(कथा-31)

बोधकथा-इक्कतिसवी

एक करोडपति ने बहुत से मंदिर बनवाए हैं। मेरे परिचित हैं और बडी आशा से उन्होंने धर्मों में पूंजी लगाई है। बडे कुशल व्यवसायी हैं और एक के दस कमाने के अभ्यस्त हैं। धर्म के धंधे में भी वे किसी से पीछे नहीं रहना चाहते। असल में पीछे रहने की उन्हें आदत ही नहीं। धन में पीछे नहीं रहे, तो धर्म में पीछे कैसे रहें? इस लोक में तो आगे और ऊपर हैं ही, परलोक की व्यवस्था भी कर ली है। स्वर्ग निश्चित है, इसीलिए वे भी निशिंचत हैं। धन से धरती ही नहीं, स्वर्ग भी खरीदा जाता है। इसीलिए ही तो धन की इतनी महिमा है। धन धर्म से भी ऊपर है। क्योंकि धर्म से धन तो नहीं, लेकिन धन से धर्म जरूर ही खरीदा जा सकता है। और जब धन से धर्म मिल सकता है, तो अधर्म से धन इकट्ठा करने का भय भी मिट जाता है। वैसे बिना अधर्म के धन इकट्ठा ही नहीं होता है। धन मूलतः चोरी है। धन शोषित रक्त ही है। लेकिन धर्म की गंगा में सब पाप धुल जाते हैं। धर्म की गंगा वहीं बहने लगती है, जहां धन के भगीरथ इशारा करते हैं। इस भांति धर्म ही अधर्म का आधार बन जाता है। लेकिन धर्म अधर्म का आधार कैसे बन सकता है? निश्चय ही ऐसा धर्म, धर्म नहीं है। धन से जो खरीदा जा सके, वह धर्म नहीं है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-31)”

मिट्टी के दीये-(कथा-30)

बोधकथा-तीसवी

मैं पहाडों में था। कुछ मित्र साथ थे। एक दिन हम एक ऐसी घाटी में गए, जहां पहाडियां बहुत स्पष्ट प्रतिध्वनि करती थीं। एक मित्र ने कुत्ते की आवाज की तो पहाड में कुत्ते बोलने लगे और फिर किसी ने कोयल की आवाज की तो घाटी कुहू-कुहू से गूंजने लगी। मैंने कहाः ‘‘संसार भी ऐसा ही है। उसकी ओर हम जो फेंकते हैं, वही हम पर वापस लौट आता है। फूल फूल ले आते हैं और कांटे कांटे। प्रेमपूर्ण हृदय के लिए सारा जगत प्रेम की वर्षा करने लगता है और घृणा से भरे व्यक्ति के लिए सब ओर पीडादायी लपटें जलने लगती हैं।’’ Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-30)”

मिट्टी के दीये-(कथा-29)

बोधकथा-उन्नतिसवी

मैं सोकर उठा ही था कि खबर मिली कि पडोस में किसी की हत्या कर दी गई है। सभी उस चर्चा में व्यस्त हैं। वातावरण में सनसनी है और लोगों की सदा फीकी बनी रहनेवाली आंखों में भी चमक है। न तो किसी को दुख है, न सहानुभूति, बस एक रुग्ण और गर्हित रस ही दिखाई पडता है। मृत्यु और हत्या भी क्या सुख देती है? विनाश भी क्या सुख लाता है? लाता ही होगा, नहीं तो युद्धों में जन-मन का इतना उत्साह नहीं हो सकता था।

जीवन-ऊर्जा जब सृजन की राह पर गतिशील नहीं हो पाती है, तो वही अनायास ही विध्वंस में संलग्न हो जाती है। फिर उसकी अभिव्यक्ति के लिए विनाश ही विकल्प है। जो स्वयं को सृजनात्मक नहीं बनाता है, वह न चाहे तो भी उसकी जीवन-दिशा विनाशोन्मुख हो जाती है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-29)”

मिट्टी के दीये-(कथा-28)

बोधकथा-अट्ठाईसवी

एक युवक आए थे। वे संन्यासी होने की तैयारी में हैं। सब भांति तैयार होकर जल्दी ही वे संन्यास लेंगे। बहुत प्रसन्न थे, क्योंकि तैयारी करीब-करीब पूरी ही हो रही है। उनकी बातें सुनीं तो मैं हंसने लगा और उनसे कहाः ‘‘संसार की तैयारियां मैंने सुनी थीं। यह संन्यास की तैयारी क्या बला है? क्या संन्यास के लिए भी कोई तैयारी और आयोजना करनी है? और ऐसा सुनियोजित संन्यास भी क्या संन्यास होगा? क्या वह भी संसारी मन का ही विस्तार नहीं है? क्या संसार और संन्यास एक ही मन के आयाम नहीं हैं? संसारी मन संन्यासी नहीं हो सकता है। संसार से संन्यास की ओर संपरिवर्तन, चित्त की आमूल क्रांति के बिना नहीं हो सकता। यह आमूल क्रांति ही संन्यास है। संन्यास न तो वेष-परिवर्तन है, न नाम-परिवर्तन, न गृह-परिवर्तन। वह तो है दृष्टि-परिवर्तन। वह तो है स्वयं के चित्त का समग्र परिवर्तन। उस क्रांति के लिए विचार की वे सरणियां काम नहीं देती हैं, जो संसार में सफल हैं। संसार का गणित उस क्रांति के लिए न केवल व्यर्थ है, अपितु विघ्न भी है। स्वप्न की नियमावलियां जैसे जागरण में नहीं चलती हैं, वैसे ही संसार के सत्य संन्यास में सत्य नहीं रह जाते हैं। संन्यास संसार के स्वप्न से जागरण ही तो है।’’ Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-28)”

मिट्टी के दीये-(कथा-27)

बोधकथा-सत्ताईसवी

एक करोडपति के घर में ठहरा था। उनके पास क्या था, जो नहीं था? किंतु उनकी आंखें बहुत निर्धन थीं। उन्हें देख कर बडी दया आती थी। सुबह से सांझ तक वे धन बटोरते थे। सिक्कों के गिनने, सम्हालने और सुरक्षा करने में ही उनका जीवन बीता था। पर धनी वे नहीं थे। शायद रख वाले ही थे। दिन भर कमाते थे, रात्रि भर रख वाली करते थे। इसीलिए सो भी नहीं पाते थे! धन का कौन रख वाला कभी सो पाया है? निद्रा, स्वप्नशून्य निद्रा केवल उनकी ही संपत्ति बनती है, जो सब भांति की संपत्तियों की विक्षिप्तता से मुक्त हो जाते हैं–धन की, यश की, या धर्म की। जिसकी कोई भी दौड है, उसके दिवस-रात्रि सभी अशांत हो जाते हैं। अशांति, दौड रहे चित्त की छाया है। जहां चित्त ठहरता है, वहीं शांति है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-27)”

मिट्टी के दीये-(कथा-26)

बोधकथा-छब्बीसवी

मैं स्वयं को ब्रह्म में लीन करना चाहता हूं। अहंकार ही दुख है। मैं इस अहंकार को परमात्मा में समर्पित करना चाहता हूं। मैं क्या करूं? ’’ एक भक्त ने अत्यंत व्याकुलता से मुझ से पूछा था। उन्हें मैं जानता हूं। वर्षों से वे भगवान के मंदिर में ही बैठे रहते हैं। भगवान के चरणों में घंटों सिर रखे रोते रहते हैं। उनकी अभीप्सा तो तीव्र है, लेकिन दिशा भ्रांत है। क्योंकि जो व्यक्ति ‘मैं’ को स्वीकार कर लेता है, वह उस स्वीकृति के कारण ही ‘मैं’ बन जाता है। फिर इस ‘मैं’ से पीडा आती है तो वह इससे छूटना चाहता है और भगवान की शरण में समर्पित होना चाहता है, लेकिन इस खोज और समर्पण का केंद्र बिंदु भी वह ‘मैं’ ही होता है। क्योंकि, जो समर्पण करना चाहता है, वह कौन है? जो दुख से, पीडा से, छूटना चाहता है, वह कौन है? क्या वह ‘मैं’ ही नहीं है? परमात्मा के लिए, परमानंद के लिए, मोक्ष के लिए यह आतुरता-व्याकुलता किसकी है? वह कौन है जो संसार में दौडाता है और फिर मुक्ति के लिए भी उत्तप्त करता है? क्या वह ‘मैं’ ही नहीं है? Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-26)”

मिट्टी के दीये-(कथा-25)

बोधकथा-पच्चीसवीं

मैं एक सभा में गया था। अछूतों की सभा थी। अछूत की कल्पना ही मेरे हृदय को आंसुओं से भर देती है। वहां पहुंच कर भी मैं बहुत दुखी और उदास था। मनुष्य ने मनुष्य के साथ यह क्या किया है? मनुष्य-मनुष्य के बीच अलंघ्य दीवारें खडी करने वाले लोग भी धार्मिक समझे जाते हैं! धर्म का इससे अधिक पतन और क्या हो सकता है? यदि यही धर्म है तो फिर अधर्म क्या है? ऐसा प्रतीत होता है कि अधर्म के अड्डों ने धर्म की पताकाएं चुरा ली हैं और शैतान के शास्त्र परमात्मा के शास्त्र बने हुए हैं। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-25)”

मिट्टी के दीये-(कथा-24)

बोधकथा-चौबिसवी

मैं एक दिन राह के किनारे बैठा था। वृक्षों की घनी छाया में बैठा-बैठा राह चलते लोगों को देखता रहा। उन्हें देख कर बहुत से विचार मेरे मन में आए। वे कहीं भागे चले जा रहे थे। बच्चे, जवान, बूढे, स्त्री, पुरुष–सभी भागे जाते थे। उनकी आंखें कुछ खोजती प्रतीत होती थीं और उनके पैर किसी बडी यात्रा में संलग्न थे। लेकिन वे कहां भागे जा रहे थे? क्या था उनका गंतव्य? और क्या अंत में वे पावेंगे कि कहीं पहुंचे?

यही विचार तुम्हें देख कर भी मेरे मन में उठता है। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-24)”

मिट्टी के दीये-(कथा-23)

बोधकथा-तैइसवी

मैं एक दिन एक वन में था। वर्षा के दिन थे और वृक्षों से आनंद फूटा पडता था। जो साथ थे उनसे मैंने कहाः ‘‘देखते हो वृक्ष, कितने आनंदित हैं! क्यों? क्योंकि जो जो है, वह वही हो गया है। बीज हो कुछ, और वृक्ष कुछ और होना चाहे तो फिर वन में इतना आनंद न रहे। वृक्षों को आदर्शों का कुछ पता नहीं, इसीलिए उनकी प्रकृति ने जो चाहा है, वे वही हो गए हैं। और धन्यता वहीं है, जहां स्वरूप और स्वभाव के अनुकूल विकास है। मनुष्य पीडा में है, क्योंकि मनुष्य स्वयं के ही विरोध में है। वह अपनी जडों से ही लडता है और वह जो है, सदा उससे अन्य होने के संघर्ष में लगा रहता है। इस प्रकार वह स्वयं को तो खोता ही है, उस स्वर्ग को भी खो देता है जो सबका स्वरूपसिद्ध अधिकार है।’’ Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-23)”

मिट्टी के दीये-(कथा-22)

बोधकथा-बाईस्वी

धर्म के प्रति उपेक्षा क्यों है? और यह उपेक्षा रोज ही बढ़ती क्यों जाती है?

एक कथा मैंने सुनी हैः एक गांव था। बहुत भोले-भाले उसके निवासी थे। जो जैसा कहता, वैसी ही बात वे मान लेते थे। उनके गांव के बाहर भगवान की एक मूर्ति थी। एक महात्मा वहां आए। उन्होंने उन सबको एकत्र किया और कहाः ‘‘अनर्थ! अनर्थ! राम-राम! मूर्खो, तुम छाया में रहते हो और भगवान धूप में? भगवान के सिर पर छाया करो। देखते नहीं, भगवान कितने क्रुद्ध हो रहे हैं? ’’ गांव के लोग बहुत गरीब थे। किसी भांति अपने छप्परों को छोटा कर उन्होंने भगवान के लिए एक छप्पर बनाया। छप्पर डलवा कर महात्मा दूसरे गांव चले गए। उन्हें कोई एक ही गांव तो था नहीं। बहुत गांव थे। बहुत भगवान थे। और सबके लिए छप्पर डलवाने की जिम्मेदारी उन्हीं के ऊपर थी। फिर थोडे दिनों के बाद उस गांव में एक दूसरे महात्मा आए। भगवान के ऊपर छप्पर देखते ही दुखी हो गए। गांव वालों को इकट्ठा किया और उन पर बहुत नाराज हुए। बोले, ‘‘सीताराम, सीताराम, अनर्थ हो गया। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-22)”

मिट्टी के दीये-(कथा-21)

बोधकथा-इक्कीसवां

मित्रो! मैं क्या सिखाता हूं। एक छोटा सा राज मैं सिखाता हूं। संसार में सम्राट बनने का राज मैं सिखाता हूं।

और इस छोटे से राज से बडा राज और क्या हो सकता है?

लेकिन, शायद तुम कहो कि संसार में सभी सम्राट कैसे हो सकते हैं? मैं कहता हूंः ‘‘हो सकते हैं। एक ऐसा साम्राज्य भी है, जहां सभी सम्राट हो सकते हैं।’’

लेकिन, जिस संसार को हम जानते हैं, वहां तो सभी गुलाम हैं। वहां तो वे भी गुलाम हैं, जो स्वयं को सम्राट समझने के भम्र में हैं। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-21)”

मिट्टी के दीये-(कथा-20)

बोधकथा-बीसवी

कैसा आश्चर्य है कि मनुष्य जन्म को तो स्वीकार करता है, किंतु मृत्यु को नहीं, जबकि जन्म और मृत्यु एक ही घटना के दो छोर हैं। जन्म में ही मृत्यु छिपी है। क्या जन्म मृत्यु का ही प्रारंभ नहीं है? फिर मृत्यु की अस्वीकृति से भय पैदा होता है। भय से पलायन। भयभीत और भागा हुआ चित्त मृत्यु को समझने में असमर्थ हो जाता है। किंतु कोई कितना ही भागे मृत्यु से तो भागना असंभव है। वह तो जन्म में ही उपस्थित हो गई है। मृत्यु से भागा नहीं जा सकता, वरन सब भांति भाग कर अंत में पाया जाता है कि मृत्यु में ही पहुंचना हो गया है।

एक पुरानी कथा है। विष्णु शिव से मिलने कैलाश आए थे। उनके वाहन हैं गरुड। वे विष्णु को उतार कर द्वार पर बाहर ही रुके थे, तभी उनकी दृष्टि तोरण पर बैठे भय से कांपते एक कपोत पर पडी। उन्होंने उससे भय का कारण पूछा। वह कपोत रोने लगा और बोलाः ‘‘अभी-अभी यमराज भीतर गए हैं। वे मुझे देख ठिठके, विस्मयपूर्वक निहारा और फिर मुस्कुरा कर गदा हिलाते हुए आगे बढ गए। Continue reading “मिट्टी के दीये-(कथा-20)”

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