ताओ उपनिषद-प्रवचन-064

मार्ग है बोधपूर्वक निसर्ग के अनुकूल जीना—(प्रवचन—चौंसठवां)

प्रश्न-सार

1–मृतकों को भोजनादि देने का क्या अर्थ है?

2–कैसे जानें कि प्रकृति के हम अनुकूल हैं?

3–प्रकृति के अनुकूल चलें तो समाज का क्या होगा?

4–निसर्ग के अनुकूल होने से पशु जैसे तो नहीं हो जाएंगे?

5–हठी कुपुत्र को सुधारने के लिए क्या करें? Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-064”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-063

विजयोत्सव ऐसे मना जैसे कि वह अंत्येष्टि हो—(प्रवचन—तैरष्‍ठवां)

अध्याय 31 : खंड 2

अनिष्ट के शस्त्रास्त्र

विजय में भी कोई सौंदर्य नहीं है।

और जो इसमें सौंदर्य देखता है,

वह वही है, जो रक्तपात में रस लेता है।

और जिसे हत्या में रस है,

वह संसार पर शासन करने की

अपनी महत्वाकांक्षा में सफल नहीं होगा।

(शुभ लक्षण की चीजें वामपक्ष को चाहती हैं,

अशुभ लक्षण की चीजें दक्षिणपक्ष को।

उप-सेनापति वामपक्ष में खड़ा होता है,

और सेनापति दक्षिणपक्ष में। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-063”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-062

युद्ध अनिवार्य हो तो शांत प्रतिरोध ही नीति है—(प्रवचन—बासठवां)

अध्याय 31 : खंड 1

अनिष्ट के शस्त्रास्त्र

सैनिक, सबसे बढ़ कर, अनिष्ट के औजार होते हैं,

और लोग उनसे घृणा करते हैं।

इसलिए, ताओ से युक्त धार्मिक पुरुष उनसे बचता है।

सज्जन असैनिक जीवन में वामपक्ष अर्थात

शुभ के लक्षण की ओर झुकता है;

लेकिन युद्ध के मौकों पर वह दक्षिणपक्ष अर्थात

अशुभ के लक्षण की ओर मुड़ जाता है।

सैनिक अनिष्ट के शस्त्र-अस्त्र होते हैं,

वे सज्जनों के लिए शस्त्र नहीं हो सकते।

जब सैनिकों का उपयोग अनिवार्य हो जाए,

तब शांत प्रतिरोध ही सर्वश्रेष्ठ नीति है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-062”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-061

खेदपूर्ण आवश्यकता से अधिक हिंसा का निषेध–(प्रवचन–इकसठवां)

अध्याय 30

बल-प्रयोग से बचें!

जो ताओ के अनुसार राजा को मंत्रणा देता है,

वह शस्त्र-बल से विजय का विरोध करेगा।

क्योंकि ऐसी विजय विजयी के लिए

भी बहुत दुष्परिणाम लाती है।

जहां सेनाएं होती हैं, वहां कांटों

की झाड़ियां लग जाती हैं।

और जब सेनाएं खड़ी की जाती हैं,

उसके अगले वर्ष में ही अकाल

की कालिमा छा जाती है।

इसलिए एक अच्छा सेनापति अपना Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-061”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-060

प्रकृति व स्वभाव के साथ अहस्तक्षेप—(प्रवचन—साठवां)

अध्याय 29

हस्तक्षेप से सावधान

वैसे लोग भी हैं, जो संसार को जीत लेंगे;

और उसे अपने मन के अनुरूप बनाना चाहेंगे।

लेकिन मैं देखता हूं कि वे सफल नहीं होंगे।

संसार परमात्मा का गढ़ा हुआ पात्र है,

इसे फिर से मानवीय हस्तक्षेप के

द्वारा नहीं गढ़ा जा सकता।

जो ऐसा करता है, वह उसे बिगाड़ देता है।

और जो उसे पकड़ना चाहता है,

वह उसे खो देता है।

क्योंकि: कुछ चीजें आगे जाती हैं,

कुछ चीजें पीछे-पीछे चलती हैं।

एक ही क्रिया से विपरीत परिणाम आते हैं, Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-060”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-059

संस्कृति से गुजर कर निसर्ग में वापसी—(प्रवचन—उन्‍नष्‍ठवां )

अध्याय 28 : खंड 2

स्त्रैण में वास

जो सम्मान और गौरव से परिचित है,

लेकिन अज्ञात की तरह रहता है,

वह संसार के लिए घाटी बन जाता है।

और संसार की घाटी होकर,

उसको वह सनातन शक्ति प्राप्त हो जाती है,

जो स्वयं में पर्याप्त है।

और वह पुनः अनगढ़ लकड़ी की

नैसर्गिक समग्रता में वापस लौट जाता है।

इस अनगढ़ लकड़ी को खंडित करें या तराशें, Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-059”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-058

सनातन शक्ति, जो कभी भूल नहीं करती—(प्रवचन—अट्ठावनवां) 

अध्याय 28 : खंड 1

स्त्रैण में वास

जो पुरुष को तो जानता है,

लेकिन स्त्रैण में वास करता है,

वह संसार के लिए घाटी बन जाता है।

और संसार की घाटी होकर,

वह उस मूल स्वरूप में स्थित रहता है,

जो अखंड है।

और वह पुनः शिशुवत

निर्दोषता को उपलब्ध हो जाता है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-058”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-057

श्रद्धा, संस्कार, पुनर्जन्म, कीर्तन व भगवत्ता—(प्रवचन—सत्‍तावनवां)

प्रश्न-सार

1-श्रद्धा अंधविश्वास कैसे न बने?

2-कोई गरीब क्यों, कोई अमीर क्यों?

3-पुनर्जन्म का हिसाब कहां रहता है?

4-प्रवचन के बाद कीर्तन क्यों?

5-आप शिष्य किसके हैं?

6-आप अपने को भगवान क्यों कहते हैं?

7-बहुत से सवाल हैं।

एक मित्र ने पूछा है, श्रद्धा अंधविश्वास न बने, इसके लिए क्या करें? Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-057”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-056

शिष्य होना बड़ी बात है—(प्रवचन—छप्‍पनवां) 

अध्याय 27 : खंड 2

प्रकाशोपलब्धि

इसलिए सज्जन दुर्जन का गुरु है;

और दुर्जन सज्जन के लिए सबक है।

जो न अपने गुरु को मूल्य देता है,

और न जिसे अपना सबक पसंद है,

वह वही है जो दूर भटक गया है,

यद्यपि वह विद्वान हो सकता है।

यही सूक्ष्म व गुह्य रहस्य है।

जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उपयोगी न हो–वह चाहे अच्छा हो या बुरा। अच्छा और बुरा हमारी परिभाषाओं के कारण है। लेकिन अस्तित्व में उसकी अपनी अपरिहार्य जगह है। इसलिए जो जानते हैं, वे बुरे का भी उपयोग कर लेते हैं। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-056”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-055

प्रकाश का चुराना ज्ञानोपलब्धि है–(प्रवचन–पचपनवां)

अध्याय 27 : खंड 1

प्रकाशोपलब्धि

एक कुशल धावक पदचिह्न नहीं छोड़ता है।

एक बढ़िया वक्तव्य प्रतिवाद के लिए दोषरहित होता है।

एक कुशल गणक को गणित्र की जरूरत नहीं होती।

ठीक से बंद हुए द्वार में

और किसी प्रकार का बोल्ट लगाना अनावश्यक है,

फिर भी उसे खोला नहीं जा सकता।

ठीक से बंधी गांठ के लिए रस्सी की कोई जरूरत नहीं है,

फिर भी उसे अनबंधा नहीं किया जा सकता।

संत लोगों का कल्याण करने में सक्षम हैं;

इसी कारण उनके लिए कोई परित्यक्त नहीं है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-055”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-054

अद्वैत की अनूठी दृष्टि लाओत्से की—(प्रवचन—चौवनवां) 

अध्याय 26

गुरुता और लघुता

जो हलका है, उसका आधार ठोस है, गंभीर है;

और निश्चल चलायमान का स्वामी है।

इसलिए संत दिन भर यात्रा करता है,

लेकिन जीवन-ऊर्जा के स्रोत से जुड़ा रहता है।

सम्मान व गौरव के बीच भी

वह विश्रामपूर्ण व अविचल जीता है।

एक महान देश का सम्राट कैसे अपने राज्य में

अपने शरीर को उछालता फिर सकता है?

हलके छिछोरेपन में केंद्र खो जाता है, Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-054”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-053

स्वभाव की उपलब्धि अयात्रा में है—(प्रवचन—तैरेपनवां)

अध्याय 25 : खंड 2

चार शाश्वत आदर्श

इसलिए: ताओ महान है,

स्वर्ग महान है,

पृथ्वी महान है,

सम्राट भी महान है।

ब्रह्मांड के ये चार महान हैं,

और सम्राट उनमें से एक है।

मनुष्य अपने को पृथ्वी के अनुरूप बनाता है;

पृथ्वी अपने को स्वर्ग के अनुरूप बनाती है;

स्वर्ग अपने को ताओ के अनुरूप बनाता है;

और ताओ अपने को स्वभाव के अनुरूप बनाता है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-053”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-052

वर्तुलाकार अस्तित्व में यात्रा प्रतियात्रा भी है—(प्रवचन—बावनवां)

अध्याय 25 : खंड 1

चार शाश्वत आदर्श

स्वर्ग और पृथ्वी के अस्तित्व में आने के पूर्व

सब कुछ कोहरे से भरा था:

मौन, पृथक,

एकाकी खड़ा और अपरिवर्तित,

नित्य व निरंतर घूमता हुआ,

सभी चीजों की जननी बनने योग्य!

मैं उसका नाम नहीं जानता हूं,

और उसे ताओ कह कर पुकारता हूं।

यदि मुझे नाम देना ही पड़े तो मैं उसे महान कहूंगा। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-052”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-051

सदगुण के तलछट और फोड़े—(प्रवचन—इक्‍यावनवां)

अध्याय 24

सदगुण के तलछट और फोड़े

जो अपने पंजों के बल खड़ा होता है,

वह दृढ़ता से खड़ा नहीं होता;

जो अपने कदमों को तानता है,

वह ठीक से नहीं चलता;

जो अपने को दिखाता फिरता है,

वह वस्तुतः दीप्तिवान नहीं है;

जो स्वयं अपना औचित्य बताता है,

वह विख्यात नहीं है;

जो अपनी डींग हांकता है,

वह श्रेय से वंचित रह जाता है;

जो घमंड करता है,

वह लोगों का अग्रणी नहीं होता। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-051”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-050

न नया, न पुराना; सत्य सनातन है—(प्रवचन–पचासवां)

प्रश्न-सार

1–ताओ की परिभाषा क्या है?

2–आप तो इतना बोलते हैं!

3– अस्तित्व में स्वतंत्रता का स्थान क्या है?

4– प्रकृति सदा प्रसन्न है तो मेरी प्रसन्नता में फर्क क्यों?

5– शैली और शब्द के अलावा अंतर क्या है?

 बहुत से प्रश्न हैं।

एक मित्र ने पूछा है, ताओ की परिभाषा क्या है? Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-050”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-049

ताओ है परम स्वतंत्रता—(प्रवचन—उन्‍नचासवां) 

अध्याय 23

ताओ से एकात्मता

निसर्ग है स्वल्पभाषी।

यही कारण है कि तूफान

सुबह भर भी नहीं चल पाता;

और आंधी-पानी पूरे दिन जारी नहीं रहता है।

वे कहां से आते हैं? निसर्ग से।

जब निसर्ग का स्वर भी दीर्घजीवी नहीं,

तो मनुष्य के स्वर का क्या पूछना?

इसलिए ऐसा कहा जाता है:

ताओ का जो करता है अनुगमन,

वह ताओ के साथ एकात्म हो जाता है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-049”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-048

समर्पण है सार ताओ का—(प्रवचन—अड़तालीस)

अध्याय 22 : खंड 2

संघर्ष की व्यर्थता

वे अपने को प्रकट नहीं करते,

और इसलिए ही वे दीप्त बने रहते हैं।

वे अपना औचित्य सिद्ध नहीं करते,

इसलिए दूर-दिगंत उनकी ख्याति जाती है।

वे अपनी श्रेष्ठता का दावा नहीं करते,

इसलिए लोग उन्हें श्रेय देते हैं।

वे अभिमानी नहीं हैं,

और इसीलिए लोगों के बीच अग्रणी बने रहते हैं। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-048”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-047

ताओ है झुकने, खाली होने व मिटने की कला—(प्रवचन—सैंतालीसवां)

अध्याय 22 : खंड 1

संघर्ष की व्यर्थता

झुकना है सुरक्षा।

और झुकना ही है

सीधा होने का मार्ग।

खाली होना है भरे जाना।

और टूटना, टुकड़े-टुकड़े हो

जाना ही है पुनरुज्जीवन।

अभाव है संपदा।

संपत्ति है विपत्ति और विभ्रम।

इसलिए संत उस एक का

ही आलिंगन करते हैं;

और बन जाते हैं संसार का आदर्श। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-047”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-046

क्षुद्र आचरण नीति है, परम आचरण धर्म—(प्रवचन—छियालीसवां)

अध्याय 21

ताओ का प्राकटय

परम आचार के जो सूत्र हैं, वे केवल ताओ से ही उदभूत होते हैं।

और जिस तत्व को हम कहते हैं ताओ, वह है पकड़ के बाहर और दुर्ग्राह्य।

दुर्ग्राह्य और पकड़ के बाहर, तथापि उसमें ही सब रूप छिपे हैं।

दुर्ग्राह्य और पकड़ के बाहर, तथापि उसमें ही समस्त विषय निहित हैं।

अंधेरा और धुंधला, फिर भी छिपी है जीवन-ऊर्जा उसी में।

जीवन-ऊर्जा है बहुत सत्य, इसके प्रमाण भी उसमें ही प्रच्छन्न हैं।

प्राचीन काल से आज तक

इसकी नाम-रूपात्मक अभिव्यक्तियों का अंत नहीं आया, Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-046”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-045

संत की वक्रोक्तियां: संत की विलक्षणताएं—(प्रवचन—पैंतालीस)

अध्याय 20 : खंड 2

संसार और मैं

दुनियावी लोग काफी संपन्न हैं,

इतने कि दूसरों को भी दे सकें,

परंतु एक अकेला मैं मानो इस परिधि के बाहर हूं,

मानो मेरा हृदय किसी मूर्ख के हृदय जैसा हो,

व्यवस्था-शून्य और कोहरे से भरा हुआ!

जो गंवार हैं, वे विज्ञ और तेजोमय दिखते हैं;

मैं ही केवल मंद और भ्रांत हूं।

जो गंवार हैं, वे चालाक और आश्वस्त हैं;

अकेला मैं उदास, अवनमित। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-045”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-044

ताओ उपनिषद—(भाग-3)   ओशो

ओशो द्वारा लाओत्‍से के ‘ताओ तेह किंग’ पर दिए गए 127 प्रवचनों में से 21 (44 से 64) (चव्‍वालीस से चौंसठ) अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।

लाओत्‍से कहता है कि ताओ मंजिल नहीं है। इसलिए उसने नाम दिया है ताओ। ताओ का अर्थ है वे, मार्ग। ताओ कोई मंजिल नहीं है जहां पहुंचना है। मार्ग ही ताओ है। मार्ग ही परमात्‍मा है। प्रतिपल मंजिल है। और प्रतिपल का उपयोग जो साधन की तरह करेगा वह उपयोगितावादी है, और जो प्रतिपल का उपयोग साध्‍य की तरह करता है वह उत्‍सवादी है।

लाओत्‍से का मार्ग बिलकुल प्राकृतिक है। लाओत्‍से कहता है, निसर्ग के साथ एक हो जाओ, तोड़ो ही मत अपने को। इसलिए लाओत्‍से के मार्ग की शुरू से ही शांति आनी शुरू हो जाएगी। और शुरू से ही तथाता घटने लगेगी। और शुरू से ही मौन आने लगेगा, क्‍योंकि संघर्ष शुरू से छूट जाता है।  ओशो

धार्मिक व्यक्ति अजनबी व्यक्ति है—(प्रवचन—चवालीसवां)

अध्याय 20 : खंड 1

संसार और मैं

Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-044”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें