कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-12)

कोंपलें फिर फूट आई शाख पर—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक: 15 अगस्त, 1986, सुमिला, जुहू, बंबई

प्रश्‍नसार—

      1—इस देश में ध्‍यान को गौरी शंकर की ऊँचाई मिली। शिव, पतंजलि,महावीर, बुद्ध, गोरख जैसी अप्रतिम प्रतिभाएं साकार हुई। फिर भी किस कारण से ध्‍यान को प्रति आकर्षण कम होता गया?

      2—उस दिन आपने कहा कि मैं अराजकवादी हूं, अनार्किस्‍ट हूं। इसे स्‍पष्‍ट करने की कृपा करे। Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-12)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-11)

प्रेम का जादू सिर चढ़कर बोले—( प्रवचन—ग्यारहवां)

दिनांक: 9 अगस्त, 1986,  7.00 संध्या, सुमिला, जुहू, बंबई

प्रश्‍नसार:

1— भगवान, हमें जो आपमें दिखाई पड़ता है, वह दूसरों को दिखाई नहीं पड़ता। ऐसा क्यों है भगवान? क्या जन्मों-जन्मों में ऐसा कुछ अर्जन करना होता है?

2—आपसे मैं मोहब्‍बत करती हूं। मेरी भौतिक देह ही सिर्फ पुरूष की है, बाकी तो मैं ह्रदय से मन आपकी प्रेमिका हूं। मेरे संन्‍यासी मित्र मुझ पर दबाव डालते है कि मैं लडकी से शादी कर लूं। मैं उसे कैसे समझाऊं की एक स्‍त्री दूसरी स्‍त्री से कैसे शादी कर सकती है?

3—अभिमान ओर स्‍वाभिमान में क्‍या भिन्‍नता है?

4—सन् 1971 में पहली बार आपको देखा ओर आपका प्रवचन सुना था, तब से आपके प्रेम में हूं, दुर्भाग्‍यवश मेरे परिवार ओर रिश्‍तेदारो में एक भी व्‍यक्‍ति आपमें रूचि नही रखता।……क्‍या यह विरोध समाप्‍त होगा? या कि यह मेरे पूरे जीवन जारी रहेगा? Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-11)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-10)

वर्तमान संस्कृति का कैंसर: महत्वाकांक्षा—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक : 8 अगस्त, 1986, 7. 00 संध्या, सुमिला, जुहू, बंबई।

प्रश्‍नसार:

1— भगवान, आज सारी दुनिया में आतंकवाद (टेरेरिज्म) छाया हुआ है। मनुष्य की इस रुग्णता और विक्षिप्तता का मूल स्रोत क्या है? यह कैसे निर्मित हुआ? इसका निदान और इसकी चिकित्सा क्या है? क्या आशा की जा सकती है, कि कभी मनुष्यता आतंकवाद से मुक्त हो सकेगी?

2—मेरा मार्ग क्‍या है? बताने की अनुकंपा करें।

3—क्‍या इस यात्रा का कोई अंत नहीं है?

4—बुद्ध को तो उनके महापरिनिर्वाण के बाद भारत ने विदा किया ओरविश्‍व ने अपनाया। आपकोदुनया भर से निष्‍कासित किया गया, जब कि विश्‍व शिक्षित हो चुका है। यह सब से बड़े दुख की बात है।………

5—आपने विश्‍व भर में इतने संन्‍यासियों को असीम प्रेम किया है उसका कोई ऋण चुका सकता नहीं।फिर भी कितने ऐसे संन्‍यासी है जो आपकी कृपा के बहुत नजदीक थे, तब भी वह ही अब जुदास की तरह आपसे वर्तव कर रहे है। जुदास की यह परंपरा क्‍या कभी बंद न होगी? ओर उनका क्‍या राज है? Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-10)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-09)

ध्यान तंत्र के बिना लोकतंत्र असंभव—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक : 7 अगस्त, 1986, 7.00 संध्या,  सुमिला, जुहू, बंबई

प्रश्‍नसार—

1—भगवान, विचार अभिव्यक्ति और वाणी-स्वतंत्रता लोकतंत्र का मूल आधार है। आपकी बातों से कोई सहमत हो या अपना विरोध प्रकट करे, इसके लिए वह स्वतंत्र है। लोग विरोध तो करते हैं, लेकिन व्यक्ति को अपना काम करने की स्वतंत्रता नहीं देना चाहते। ऐसा क्यों?

2—आपको ऐसा करना चाहिए और वैसा नहीं करना चहिए, यह ठीक है और वह गलत है, ऐसी चर्चा अक्‍सर हमआपके प्रेमी किया करते है। ऐसी चर्चाओं से ऐसा लगता है, जैसे हम आपसे ज्‍यादा जानते है ओर आपसे ज्‍यादा समझदार है।

3—तेरह वर्ष पहले आपने मुझे संन्‍यासी बना कर नया जीवन दिया। इस पूरे समय में आपने बहुत दिया।पूरा जीवन बदल गया। फिरभी प्‍यास बढ़ती जा रही है। आपके निकट रहने का भाव तीव्र होता जा रहा है। अब क्‍या करू? इस विरह में धैर्य रख सकूं, इसके लिए आप ही शक्‍ति देना। Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-09)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-07)

जीवित मंदिर मधुशाला है—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक : 5 अगस्त, 1976,

  1. 00 संध्या, सुमिला, जुहू, बंबई।

प्रश्‍नसार:

1—हाथ हटता ही नहीं दिल से, हम तुम्‍हें किस तरह सलाम करें?

2—बहुत सी मधुशालाएं देखीं, पीने वालों को नशो में धुत देखा। मगर आपकी मधुशाला का क्‍या कहना। न कभी देखी, न कभी सुनी। आपकी मधुशाला में पीने वालों को मस्‍त देखा।……….

3—प्रश्‍न उठते है और उनमें से बहुत से प्रश्‍नों के उत्‍तर भी आ जाते है। यह सब क्‍या है?

4—कल ही मैंने पहली बार आपका प्रवचन सुना। आपमें जो संगम मैंने देखा है, वैसा संगम शायद ही पृथ्‍वी पर कभी हो। मैंने ऐसा जाना कि शायद परमात्‍मा आपके द्वारा पहली बार हंस रहा है। Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-07)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-06)

परम ऐश्वर्य: साक्षीभाव—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक: 4 अगस्त, 1986, 7. 00 संध्या,  सुमिला, जुहू, बंबई।

प्रश्‍नसार:

1— भगवान, अध्ययन, चिंतन और श्रवण से बुद्धिगत समझ तो मिल जाती है, लेकिन मेरा जीवन तो अचेतन तलघरों से उठने वाले आवेगों और धक्कों से पीड़ित और संचालित होता रहता है। मैं असहाय हूं, अचेतन तलघरों तक मेरी पहुंच नहीं। कोई विधि, कोई जीवन—शैली, सूत्र और दिशा देने कि कृपा करें।

2—आपने ईश्‍वर तक पहुंचने के दो मार्ग—प्रेम ओर ध्‍यान बताए है। मेरी स्‍थिति ऐसी है कि प्रेम—भाव मेरे ह्रदय में उमड़ता नहीं। ऐसा नहीं है कि मैं किसी को प्रेम नहीं करना चाहती। वे मेरे व्‍यक्‍तित्‍व का प्रकार नहीं है। चुप रहना और शांत बैठना मुझे अच्‍छा लगाता है। इस लिए मैंने ध्‍यान का मार्ग चुन कर साक्षी की साधना शुरू की। अब कठिनाई यह है कि जैसे ही मैं सजग होकर देख रही हूं कि मैं विचारों को देख रही हूं, तो विचार रूक जाते है। और क्षणिक आनंद का अनुभव होता है। फिर विचारों का तांता शुरू हो जाता है………..

3—ह्रदयको सभी संतो ने अध्‍यात्‍म का द्वार कहा है और मन को विचार और बुद्धि का। ह्रदय और मन में क्‍या फर्क है? ह्रदय और आत्‍मा में क्‍या फर्क है? इस फर्क को कैसे स्‍पष्‍ट करें? कैस पहचानें? Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-06)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-05)

अपार्थिव तत्व की पहचान—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक: 3 अगस्त, 1986,

  1. 30 अपराहन, सुमिला, जुहू, बंबई

प्रश्‍नसार:

1—जब कोई मुझसे छल और दगावाजी करता है या जब कोई मुझे वस्‍तु की तरह उपयोग करता है, ऐसी स्‍थिति में मुझे क्‍या करना चाहिए?

2—विपस्‍सना की साधना में कैथार्सिस कब होती है? मैं विपस्‍सना का अभ्‍यास करता हूं। मेरा संगीता का कार्यक्षेत्र होश की दिशा में मेरे लिए किस प्रकार सहायक हो सकता है?

3—दिन में अधिक समय ध्‍यान में डूबी, खोई रहती हूं। शरीर क्षीण हुआ है। कुछ समय पहले दलाई लामा के डाक्‍टर ने मेरा हाथ पकड़ कर किा कि मुझे अधिक पार्थिव होने की जरूरत है। कृपया बातएं कि मुझे क्‍या करना है? Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-05)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-04)

अपने ज्ञान को ध्यान में बदलो—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 3 अगस्त, 1986,

  1. 30 प्रातः सुमिला, जुहू, बंबई

प्रश्‍नसार:

1—परसों ही आपने कहा कि अपने को जाने बिना अर्थी नहीं उठने देना। यह चुनौती तीर की तरह हृदय में चुभ गयी। हम कैसे शुरू करें?

2—रजनीशपुरम कम्‍यून से लौट कर मैं बहुत अकेली, खोई—खोई सी, कन्‍फ्युज्‍ड अनुभव कर रही हूं।

3—क्‍या यह संभव है कि कोई व्‍यक्‍ति आपकी चेतना—दशा को उपलब्‍ध करके शरीररिक रूप से पूर्ण स्‍वस्‍थ रह सके? या कि यह संभव नहीं है, ऐसा ताओ का नियम है? Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-04)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-03)

शून्‍य शिखर पर सुख की सेज—( प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 2 अगस्त, 1986,

  1. 30 अपराहन, सुमिला, जुहू, बंबई।

प्रश्‍नसार:

1—भगवान, वह कौन सी ऐसी अज्ञात शक्ति है, जो हमें आपकी तरफ खींच रही है?

2—बीस साल से आपके साथ रहते—रहते मेरा आमूल—परिवर्तन हो गया है। मैं जो पहले थी, वह अब नहीं हूं। शांति और सुख से भर गई हूं। आपकी अनुकंपा अपार है।

3—आज जीवंत फूल की महक, सुंदरता, निजीपन, फिर से जिंदगी खिल गई। प्‍लास्‍टिक के फूल कैसे भी हों, लेकिन सुवास नहीं।

4—अपने आपको कैसे समझूं? कुछ समझ नहीं आता और मृत्‍यु का ताक बहुत भय लगता है।

5—आपको महसूस कर दिल पर एक मीठी चुभन सी महसूस करती हूं। आप द्वारा प्रेम—वर्षा मुझे आप से बाहर कर देती है। Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-03)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-02)

आत्मिक विकास एकमात्र विकास  –(दूसरा प्रवचन:)

१ अगस्त, १९८६, ४. ०० अपराहन, सुमिला, जुहू, बंबई

प्रश्न: भगवान श्री, आपको समझने में आज की सरकारें और चर्च तो क्या बुद्धिजीवी भी जिस जड़ता का परिचय दे रहे हैं वह घबराने वाली है। ऐसा क्यों हुआ कि मनुष्य-जाति अपने श्रेष्ठतम फूल के साथ यह दुर्व्यवहार हुआ करे? क्या उसकी आत्मा मरी हुई है? आपके साथ पिछले दस महीनों से जो दुर्व्यवहार हुआ है, वह क्या एक किस्म का अंतर्राष्ट्रीय तल का एपारथाइड नहीं है जो साउथ अफ्रीका के एपारथाइड से भी बदतर है? क्या इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे?

मैं एक बात इन दस महीनों में गहराई से अनुभव किया हूं और वह है, हर आदमी के चेहरे पर चढ़ा हुआ झूठा चेहरा। मैं सोचता था कुछ लोग हैं जो नाटक मंडलियों में हैं, लेकिन जो देखा है तो प्रतीत हुआ कि हर आदमी एक झूठे चेहरे के भीतर छिपा है। ये महीने कीमती थे और आदमी को देखने के लिए जरूरी थे; यह समझने को भी कि जिस आदमी के लिए मैं जीवन भर लड़ता रहा हूं, वह आदमी लड़ने के योग्य नहीं है। एक सड़ी-गली लाश है, एक अस्थिपंजर है। मुखौटे सुंदर हैं, आत्माएं बड़ी कुरूप हैं। Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-02)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-01)

आत्‍मा की अग्‍नि—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 31 जुलाई, 1986 , अपराहन, सुमिला, जुहू, बंबई।

प्रश्‍नसार:

1— भगवान, आप कैसे हैं?

2—मुझे मार्ग दीजिए!

3—यह पूछना है, आपने अभी कहा कि हम नासमझ है। आप हमें ऐसा क्‍यों नहीं कहते कि तुम नासमझ हो?…..आप कहते है हम नासमझ है…..।

4—आप कहते है कि पूरब में ही धर्म फलित होता है।….

5—इस देश में बहुत से झूठे धर्म पैदा हो रहे है, जिनमें अधर्म फैल रहा है। ऐसे समय में हमारा क्‍या कर्तव्‍य है? कृपया मार्गदर्शन दे। Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रवचन-01)”

कोपलें फिर फूट आईं-(प्रश्‍न-चर्चा)-ओशो

कोपलें फिर फूट आईं—(प्रश्‍न—चर्चा)  ओशो

(ओशो द्वारा दिए गए बारह प्रवचनों का अप्रितम संकलन)

प्रवेश के पूर्व:

तुमने पूछा है: मैं कैसे अपने अचेतने, अपने अंधरे को प्रकाश से भर दूं?

एक छोटा सा काम करना पड़ेगा। बहुत छोटा सा काम।

चौबीस घंटे तुम दूसरे को देखने में लगे हो—दिन में भी और रात में भी। कम से कम कुछ समय दूसरे को भूलने में लगो। जिस दिन तुम दूसरे को बिलकुल भूल जाओगे, बुद्धि की उपयोगिता नष्‍टा हो जाएगी।

इसे ज्ञानियों ने ध्‍यान कहा है। ध्‍यान का अर्थ है: एक ऐसी अवस्‍था,जब जानने को कुछ भी नहीं बचा। सिर्फ जानने वाला ही बचा। उससे छुटकारे का कोई उपाय नहीं है। लाख भागो पहाड़ों पर और रेगिस्‍तानों में, चाँद—तारों पर,लेकिन तुम्‍हारा जानने वाला तुम्‍हारे साथ होगा। चूंकि वह तुम हो, वह तुम्‍हारी आस्‍तित्‍व है। रोज घडी भर, कभी भी सुबह या सांझ या दोपहर, इस अनूठे आयाम को देना शुरू कर दो। बस आँख बंद करे बैठ जाओ, ……. Continue reading “कोपलें फिर फूट आईं-(प्रश्‍न-चर्चा)-ओशो”

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