सहज योग-(प्रवचन-20)

हे कमल, पंक से उठो, उठो—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक 10 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—आपकी हत्या की धमकियां दी जा रही हैं । यह मुझसे न सुना जाता है और न सहा जाता है।

2—मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की कसम

ऐ मेरे ख्वाब की ताबीर मेरी जाने-गज़ल

जिन्दगी मेरी तुझे याद किये जाती है। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-20)”

सहज योग-(प्रवचन-19)

प्रेम प्रार्थना है—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक 9 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1–कुछ लोग आपके आश्रम की तुलना जोन्सटाउन से करते हैं। जिस भांति गुयाना के जंगल में सामूहिक आत्मघात हुआ, वैसा ही कुछ क्या यहां होने की संभावना है?

2—क्या आप समझाने की कृपा करेंगे कि आपकी शिक्षा और प्रयोगों में और संप्रदाय में क्या अंतर है? Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-19)”

सहज योग-(प्रवचन-18)

हो गया हृदय का मौन मुखर—(प्रवचन—अट्ठहरवां)

दिनांक 8 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—यह विश्वास ही नहीं आता कि ऋषि-मुनियों के इस देश में और आप जैसे मनीषी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया जा रहा है!

2—इस बार कुछ अजीब-सी परिस्थिति में आपके पास पहुंचा। यहां पहुंचने पर घर से तार मिला: जल्दी आओ। परंतु आपकी निकटता के अत्यंत प्रसादपूर्ण, शीतल आनंद को छोड़ पाना इतना सरल नहीं था। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-18)”

सहज योग-(प्रवचन-17)

भाई, आज बजी शहनाई—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक 7 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—”नयी दिल्ली’ नामक अंग्रेजी पत्रिका में आश्रम में चलने वाली समूह-मनोचिकित्सा संबंधी कई चित्र प्रकाशित हुए हैं, जिसके संबंध में, मेरे दिल्ली प्रवास के समय, वहां के संपादक मुझसे पूछते थे कि आप इस संबंध में क्या कहते हैं?

2—भारतीयों को सामूहिक मनोचिकित्सा में क्यों नहीं सम्मिलित किया जाता है? Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-17)”

सहज योग-(प्रवचन-16)

भोग में योग, योग में भोग—(प्रवचन—सोलहवां)

दिनांक 6 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र :

जिम विस भक्खइ विसहि पलुत्ता।

तिम भव भुज्जइ भवहि ण जुत्ता।।7।।

परम आणन्द भेउ जो जाणइ ।

खणहि सोवि सहज बुजाइ ।। 8।।

गुण दोस रहिअ एहु परमत्थ ।

सह संवेअण केवि णस्थ ।।9।।

चित्ताचित्त विवज्जहु ण णित्त ।

सहज सरूएं करहु रे थित्त ।। 10।। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-16)”

सहज योग-(प्रवचन-15)

प्रेम–समर्पण—स्वतंत्रता—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक 5 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—आपने कहा कि तुझसे पहले भी मैं ऐसे दो जोड़े बना चुका हूं, तेरा तीसरा जोड़ा है। पर मेरी तो कोई पात्रता भी नहीं, फिर आपने मुझे कैसे चुना?

2—आप कहते हैं कि जीवन को उसके सभी आयामों में जीयो। इससे आपका क्या प्रयोजन है?

3—पाखंड का इतना बल और आकर्षण क्या है? Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-15)”

सहज योग-(प्रवचन-14)

धरती बरसे अंबर भीजे—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 4 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—मैं वर्षों तक एक विरागी संन्यासी रहा हूं, लेकिन आपने मुझे प्रभु-राग में डुबो दिया है। अब आगे क्या आदेश है?

2—हजारों वर्ष धरती तपश्चर्या करके गर्भ धारण करती है तो कहीं एक बुद्ध का अवतरण होता है। और इस देश में अनंत बुद्ध हो गये। फिर भी जब आप जैसे बुद्धपुरुष वर्तमान हैं, तो भी इस देश के लोगों को, तथाकथित धर्मगुरुओं को तथा शासन में पहुंचे हुए लोगों को आपकी बात समझ में क्यों नहीं आती?

3—आप प्रभु की परम अनुभूति के लिये कभी-कभी शराब जैसा प्रतीक क्यों प्रयोग करते हैं? क्या कोई अच्छा प्रतीक नहीं मिल सकता है? Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-14)”

सहज योग-(प्रवचन-13)

प्रार्थना अर्थात संवेदना—(प्रवचन—तैरहवां)

दिनांक 2 दिसंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—सिद्ध सरहपा और तिलोपा यह तो बता गए कि क्रियाकांड और अनुष्ठान धर्म नहीं है। कृपया बताएं कि उनके अनुसार धर्म क्या है? उनका संदेश क्या है?

2—मैं नाच रहा हूं यहां। मैं अपने पर चकित हूं। पूछता हूं कि यह क्या हो गया है मुझे?

3—जीवन में दुख-ही-दुख क्यों है? परमात्मा ने यह कैसा जीवन रचा है? Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-13)”

सहज योग-(प्रवचन-12)

प्रेम: कितना मधुर, कितना मंदिर—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 2 दिसंबर ,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—मैंने मांगा कुछ, और मिला कुछ और। मांगी मन की मृत्यु–मिली मन की मगनता। मेरे मन में ज्ञानऱ्योग का महत्व ज्यादा है, परंतु अब प्रेम-भक्ति के भाव भी सघन हो रहे हैं। मन और शरीर जैसे रस के सरोवर में डूब गये हों! यह सब क्या है?

2—जहां सिद्ध सरहपा और तिलोपा के नाम सुदूर तिब्बत, चीन और जापान में उजागर नाम हैं, वहां अपने ही जन्म के देश में वे उजागर न हुए–इसका क्या कारण हो सकता है? Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-12)”

सहज योग-(प्रवचन-11)

खोलो गृह के द्वार—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 1 दिसंबर ,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र :

वढ़ अणं लोअअ गोअर तत्त पंडित लोअ अगम्म।

जो गुरुपाअ पसण तंहि कि चित्त अगम्म।।1।।

सहजें चित्त विसोहहु चंग।

इह जम्महि सिद्धि मोक्ख भंग।।2।। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-11)”

सहज योग-(प्रवचन-10)

तरी खोल गाता चल माझी—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 30 नवंबर,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—आपने इस प्रवचनमाला को शीर्षक दिया है–सहजऱ्योग। क्या सहज और योग परस्पर-विरोधी नहीं लगते?

2—भक्त प्रभु-विरह  में कभी हंसता है कभी रोता है, यह विरोधाभास कैसा?

3—जाति-बिरादरी वालों ने मुझे छोड़ दिया है। यहां तक कि पंचायत बिठायी और चार व्यक्तियों ने मिलकर मुझे पीटा भी। संन्यास, बाल, दाढ़ी और गैरिक वस्त्र का त्याग करो–ऐसा कहकर मुझे पीटा गया–तथाकथित ब्राह्मणों और पंडितों द्वारा। ऐसा क्यों हुआ? अपने ही पराये क्यों हो गए? Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-10)”

सहज योग-(प्रवचन-09)

फागुन पाहुन बन आया घर—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 29 नवंबर,1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—तालमुद का वचन है: “जो तुझे आदिष्ट है उससे परे भी, उससे ऊपर भी तू पवित्र आचरण कर।’ कृपा करके इस वचन का आशय हमें कहिए।

2—कोरा कागज था ये मन मेरा, लिख लिया नाम जिस पे तेरा! चैन गंवाया मैंने, निंदिया गंवाई; सारी-सारी रात जागूं, दूं मैं दुहाई!

3—बस एक ही प्रार्थना है कि आपके पास जो आग है, उसमें पूरी-पूरी जल जाऊं और खो जाऊं। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-09)”

सहज योग-(प्रवचन-08)

जीवन का शीर्षक: प्रेम—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 नवंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—आपका असहाय बालक रोता है।

आज अंतरीये करूं हूं आह्वान, नथी पूजा आयोजन

केवल आ मम तन-मन, तव दर्शन दान।

2—मनुष्य या तो काम-भोग की अति में चला जाता है या फिर

उसके विपरीत काम-दमन की कुंठा में। इस विषय में सहजऱ्योग की क्या दृष्टि है? Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-08)”

सहज योग-(प्रवचन-07)

जीवन के मूल प्रश्न—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 नवंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार :

1—परमात्मा कहां है, खोजें तो कहां खोजें?

2—विरह का, प्रभु-विरह का कष्ट नहीं सहा जाता है।

3—हम भारतीय क्यों दार्शनिक प्रश्न ही पूछते हैं, जबकि पश्चिमी संन्यासी अपने जीवन से संबंधित प्रश्न पूछते हैं?

4—श्री रामकृष्ण ने जीव के चार प्रकार कहे हैं–बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्य। इसे समझाने की कृपा करें। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-07)”

सहज योग-(प्रवचन-06)

सहजयोग का आधार: साक्षी—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 नवंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सारसूत्र :

आई ण अंत ण मज्झ णउ णउ भव णउ णि ब्वाण।

एहु सो परम महासुह णउ परणउ अप्पाण।।7।।

घोरान्धारें चंदमणि जिम उज्जोअ करेइ।

परम महासुह एक्कु खणे दुरि आसेस हरेइ।।8।।

जब्बे मण अत्थमण जाइ तणु तुट्टइ बंधण।

तब्बे समरस सहजे वज्जइ णउ सुछ ण बम्हण।।9।। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-06)”

सहज योग-(प्रवचन-05)

जगत–एक रूपक—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 नवंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार :

1—परमात्मा की परिभाषा क्या है?

2—जीसस, सुकरात और मंसूर जैसे साक्षात प्रेमावतारों के शरीर को जिस घृणापूर्ण ढंग से सूली, जहर और कत्ल दी गयी–उससे क्या यह सिद्ध नहीं होता कि अस्तित्व बिलकुल तटस्थ है?

3—क्या जीवन सच ही बस एक नाटक है? बात जंचती भी है और जंचती भी नहीं। ऐसा क्यों?

4—प्रार्थना-शास्त्र का सार समझाइये। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-05)”

सहज योग-(प्रवचन-04)

सहज-योग और क्षण-बोध—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 24 नवंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार :

1—सिद्ध सरहपा का सहज-योग और झेन का क्षण-बोध क्या अन्य हैं या अनन्य? और क्या सहज-योग समर्पण का ही दूसरा नाम नहीं है?

2—उस दिन भारत के संदर्भ में आपने कहा कि इस देश की बुनियादी समस्या उसके अंधविश्वास हैं और यह कि यह देश समय से डेढ़ हज़ार वर्ष पीछे है। क्या बताने की कृपा करेंगे कि विश्वास और अंधविश्वास की परख क्या है? और क्या आज के विश्वास कल के अंधविश्वास नहीं हो जायेंगे? क्या यह भी बताने की अनुकंपा करेंगे कि कोई व्यक्ति या जनसमूह समसामयिक होने के लिए, आधुनिक रहने के लिए क्या करे? Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-04)”

सहज योग-(प्रवचन-03)

देह गेह ईश्वर का—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 23 नवंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार :

 1—अब इस देह में ज्यादा रहने का मन नहीं होता। इससे विदा लेने का मन है। लेकिन आपके लिए जी पीछे खींचता है। मैं बता नहीं सकती कुछ भी। मुझे कुछ भी लिखने को नहीं आता है। क्या कहूं?

2—आप राजनीति पर वक्तव्य देते हैं तो फिर आपको राजनीतिज्ञ क्यों न माना जाए? Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-03)”

सहज योग-(प्रवचन-02)

ओंकार: मूल और गंतव्य—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 22 नवंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार :

1—आपने कहा धर्म साधना है, क्रिया-कांड नहीं। लेकिन जिन्हें सरहपा क्रिया-कांड कहेंगे, उनमें से अनेक, जैसे भजन-कीर्तन, अपने आश्रम में और अन्यत्र भी साधना के अंग बने हैं। कृपापूर्वक समझाएं।

2—क्या उपासना का कोई भी मूल्य नहीं है? और यदि मूल्य है तो फिर विरोध क्यों?

3—सत्य ही कहता हूं, सत्य ही सुनता हूं। इस सत्यपन की आदत से सभी रिश्तेदार व मित्र साथ छोड़ गए हैं। सांसारिक होने के कारण अकेलापन बहुत परेशान करता है। काम ईमानदारी से करने और ईमानदारी से ही जीवन व्यतीत करने में शांति तो मिल रही है, लेकिन बच्चों के लिए ईमानदारी से पैसा कमाने में रात-दिन काम करता रहता हूं और साधना नहीं कर पाता। कृपया मार्ग दिखाएं। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-02)”

सहज योग-(प्रवचन-01)

जागो, मन जागरण की बेला—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 21 नवंबर, 1978;

श्री रजनीश आश्रम, पूना।

सूत्र :

मन्तः मंते स्सन्ति ण होइ।

पड़िल भित्ति कि उट्ठिअ होइ।।1।।

तरुफल दरिसणे णउ अगघाइ।

वेज्ज देक्खि किं रोग पसाइ।।2।।

जाव ण अप्पा जाणिज्जइ ताव ण सिस्स करेइ।

अंधं अंध कढ़ाव तिम वेण वि कूव पड़ेइ।।3।।

बह्मणेहि म जाणन्त भेउ। एवइ पढ़िअउ एच्चउ वेउ।।

मट्टी पाणी कुस लइ पढ़न्त। घरहि वइसी अग्गि हुणन्त।। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-01)”

सहज योग-(सरहपा-तिलोपा)-ओशो

सहज योग—(सरहपा—तिलोपा)-ओशो

(सरहपा—तिलोमा वाणी पर आधारित ओशो के बीस अमृत प्रवचन: प्रथम दस प्रवचन सरहपा वाणी पर है, क्रमश: एक प्रवचन सूत्र पर और चार प्रवचन प्रश्‍नोतर; दूसरे दस प्रवचनतिलोपा वाणी पर, क्रमश: एक प्रवचन सूत्र पर और चार प्रवचन प्रश्‍नोत्‍तर। प्रवचन स्‍थल: श्री रजनीश आश्रम पूना। दिनांक 21 नवंबर से 10 दिसंबर 1978 तक।)

हज योग कहता है: मनुष्‍य अभी जहां है वहींसे परमात्‍मा से जुड़ा है। जरा पहचानने की बात है; जरा गैल पकड़ लेने की बात है। रास्‍ता है; एक अदृष्‍य सेतु हमें जोड़े हुए है। हम सुख जो जानते है, तो फिर महासूख हमसे बहुत दूर नहीं है। विजातीय नहीं है। हम सुख जानते है। तो महासूख भी जान सकते है। हमने बूंद जानी है तो सागर को भी जान सकते है। क्‍योंकि सागर बूंदों का ही जोड़ है। ऐसे ही महासुख सुखों का ही जोड़ है। और क्‍या है? सुख होगी बूंद, महासूख होगा सागर। Continue reading “सहज योग-(सरहपा-तिलोपा)-ओशो”

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