ओंकार: मूल और गंतव्य—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक 22 नवंबर, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्न सार :
1—आपने कहा धर्म साधना है, क्रिया-कांड नहीं। लेकिन जिन्हें सरहपा क्रिया-कांड कहेंगे, उनमें से अनेक, जैसे भजन-कीर्तन, अपने आश्रम में और अन्यत्र भी साधना के अंग बने हैं। कृपापूर्वक समझाएं।
2—क्या उपासना का कोई भी मूल्य नहीं है? और यदि मूल्य है तो फिर विरोध क्यों?
3—सत्य ही कहता हूं, सत्य ही सुनता हूं। इस सत्यपन की आदत से सभी रिश्तेदार व मित्र साथ छोड़ गए हैं। सांसारिक होने के कारण अकेलापन बहुत परेशान करता है। काम ईमानदारी से करने और ईमानदारी से ही जीवन व्यतीत करने में शांति तो मिल रही है, लेकिन बच्चों के लिए ईमानदारी से पैसा कमाने में रात-दिन काम करता रहता हूं और साधना नहीं कर पाता। कृपया मार्ग दिखाएं। Continue reading “सहज योग-(प्रवचन-02)”
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