प्रतिरोध न करें-(प्रवचन-आठवां)
आठवां प्रवचन; दिनांक २७ सितंबर, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
पहला प्रश्न: भगवान,
अनुकंपा करें और गहराई से समझाएं: “प्रतिरोध न करें।‘
मैं एक व्यापारी हूं और विश्व का समाजसेवी सदस्य हूं। अगर आप मुझे कोई युक्ति दें तो मैं बहुत अनुगृहीत होऊंगा।
मैंने आपकी “बुक ऑफ दि सीक्रेट्स‘ के पांचवे भाग को एक शब्द पढ़ा है: स्वीकार-भाव।
वह दूर नहीं है। वह तो हमारे प्राणों से भी निकट है। वह तो हमारे चैतन्य का केंद्र है। आंसुओं की धुंध में लेकिन न पहचाने गये! पर आंखें हमारी बहुत तरह की धुंधों से घिरी हैं। आंसुओं की धुंध तो है ही, क्योंकि जीवन हमारा विषाद है। और जीवन विषाद ही होगा। उसे जाने बिना कैसा आनंद? उसे पहचाने बिना कैसा प्रकाश? उसके अभाव में अंधकार है। Continue reading “ज्यूं मछली बिन नीर-(प्रवचन-08)”