प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-10)

वह गाता है, नाचता है और आंसू बहाता है—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 30 जून सन्1976;  श्री ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न : प्यारे ओशो! बाउलों को किसने जन्म दिया? उनकी शुरुआत कब कैसे हुई?

कृपया स्पष्ट करने की अनुकम्पा करें।

बाउल जैसे लोगों को किसी ने जन्म नहीं दिया। बाउलों जैसे धर्म, धर्म से अधिक घटनाएं हैं। गुलाबों को किसने उत्पन्न किया? उन गीतों को किसने रचा, जो पक्षी हर सुबह गुनगुनाते हैं? नहीं, हमें ऐसे प्रश्न कभी पूछने ही नहीं चाहिए। ऐसा यहां हमेशा ही होता है। Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-10)”

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-09)

दो वृक्षों के जोड़े से उत्‍पन्‍न हुआ फल—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 29 जून; सन् 1976  श्री ओशो आश्रम पूना।

बाउलगीत:

जो व्यक्ति प्रेम के अनुभव से अनजाना है

उसके साथ सम्बंध जोड़कर तुम कैसे किसी निष्कर्ष परपहुंच सकते हो?

उल्लू सूर्य की किरणों से अंधा बना

बैठा हुआ आकाश को एकटक देखता रहता है।

नुष्य एक अनवरत खोज है, एक शाश्वत तलाश है, और निरंतर बना रहने वाला एक प्रश्न है। यह खोज है उस ऊर्जा के लिए जो पूरे अस्तित्व को संभाले हुए है चाहे तुम उसे परमात्मा कहो, सत्य कहो, अथवा चाहे जिस नाम से पुकारो। कौन एक साथ इस अनंत अस्तित्व को धारण किए हुए है? इस सभी का केंद्र और इसका सबसे महत्त्वपूर्ण भाग कौन है? Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-09)”

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-08)

तुम स्‍वयं धुलकर तरल हो जाओ—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 जून सन् 1976;  श्री ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

पहला प्रश्न : प्यारे ओशो! बाउल अपनी देह में जीते हुए ही उत्सव आनंद मनाते हैं। इस सम्बंध में क्या आप कुछ और अधिक बता सकते हैं?

अमेरिकन भी अपने शरीर को सुस्वाद्व और सुंदर भोजन से, राल्फिंग और मालिश आदि से स्वस्थ रखकर जीवन का आनंद लेते हैं लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचती कि यह बाउलों जैसा ही है। क्या आप इस पर हमें कुछ बोध देने की कृपा करेगे? Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-08)”

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-07)

उसके चरणों में भावों के पुष्प अर्पित हैं—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 जून 1976;  श्री ओशो आश्रम पूना।

बाऊलगीत:

जब तक तुम पृथ्वी पर हो

तुम पृथ्वी अर्थात् अपनी माटी की देह के प्रति स्वयं ही वचनबद्ध हो।

ओ मेरे हृदय!

यदि तू उस अप्राप्य पुरुष को प्राप्त करना चाहता है—

तो उसके चरणों में

अपने भावों के पुष्पों को अर्पित कर दे; Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-07)”

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-06)

नृत्‍य करने योग्‍य बनो—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 जून 1976;  श्री ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :  प्यारे ओशो! कल आपने कहा था कि अंतर्यात्री के पास केवल दिशा होती है? और लक्ष्य नहीं। इन दोनों के मध्य क्या अंतर है? क्या आप इसे स्पष्ट करने की कृपा करेने?

ह उत्तर बहुत सूक्ष्म है, लेकिन यह वैसा ही अंतर है। जैसे वहां मन और हृदय के मध्य होता है, जैसा तर्क और प्रेम के मध्य होता है या यह कहना अधिक उचित होगा, जैसे वहां गद्य और कविता के मध्य होता है। Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-06)”

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-05)

मेरी त्वचा और अरिथयां स्वर्णमय हो गईं—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 25 जून 1976;  श्री ओशो आश्रम, पूना।

बउलगीत:

आओ! मेरे पास आओ

यदि तुम किसी अलग तरह के नूतन और स्वाभाविक मनुष्य से भेंट

करना चाहते हो

तो मेरे पास आओ।

उसने उस झोली के लिए

जो भिखारी अपने कंधे पर लटकाये रहते हैं

अपनी सारी सांसारिक सम्पत्ति को व्यर्थ जान कर छोड़ दिया है। Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-05)”

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-04)

तुम्हारी आत्मा में गलता शून्‍य का संगीत—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 24 जून 1976श्री ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

प्रथम प्रश्न :

प्यारे ओशो! अंतर्यात्रा प्रारंभ कैसे की जाए? सेक्स के अतिक्रमण करने का ठीक— ठीक क्या अर्थ है?

यात्रा का प्रारंभ तो पहले ही से हो चुका है, तुम्हें वह शुरू नहीं करना है। प्रत्येक व्यक्ति पहले से यात्रा में ही है। हमने अपने आपको यात्रा पथ के मध्य में ही पाया है। इसकी न तो कोई शुरुआत है और न कोई अंत। यह जीवन ही एक यात्रा है। जो पहली बात समझ लेने जैसी है वह यह है कि इसे प्रारंभ नहीं करना है, यह हमेशा से ही चली जा रही है। तुम यात्रा ही कर रहे हो। इसे केवल पहचानना है। Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-04)”

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-03)

लाखों मीलों का अंतराल—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 23 जून 1976श्री ओशो आश्रम पूना।

बाउलगीत:

न कुछ भी हुआ है

और न कुछ भी होगा।

जो जहां है, वह वहां है।

मैं अपने स्वप्न में राजा बन गया

और मेरी प्रजा ने सम्पूर्ण पृथ्वी पर अधिकार जमा लिया।

मैं सिंहासन पर बैठकर शेर की तरह शासन करने लगा।

एक सुखी जीवन जीने लगा। Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-03)”

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-02)

चाँद की बांहों में—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 22 जून 1976;  श्री ओशो आश्रम पूना।

प्रश्‍नसार:

प्रथम प्रश्न :  प्यारे ओशो? आपके निकट बने रहने की मेरी हमेशा तीव्र कामना रहती थी लेकिन अब आपको देखते हुए मैं क्यों आश्चर्य और भय से भर जाती हूं।

सा होना ही चाहिए। उस व्यक्ति को बरसते आशीर्वाद का अनुभव करना चाहिए क्योंकि आदरयुक्त भय ही केवल वह गुण है, जो मनुष्य को धार्मिक बना सकता है। केवल वही द्वार है। श्रद्धायुक्त भय, आश्चर्य के द्वारा ही तुम अपने चारों ओर दिव्यता का अनुभव करते हो। जिन आंखों में आदरयुक्त भय और आश्चर्य भरा हो वे परमात्मा को इंकार नहीं कर सकतीं, यह असम्भव है और वे लोग जो श्रद्धा, भय और आश्चर्य में डूबना भूल चुके हैं, Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-02)”

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-01)

मधु—माखी उसे भली भांति जानती है—(प्रवचन—एक)

दिनांक 21 जून 1976; श्री ओशो आश्रम, पूना।

बाऊलगीत—

प्रेम की गंध और स्वाद

और प्रेमी के हृदय की भाषा को

केवल गुणग्राही रसिक शिरोमणि ही

समझ सकता है

दूसरों को तो उसका कोई संकेत तक नहीं मिलता

नीबू का स्वाद तो

फल के केंद्र में होता है!

और विशेषज्ञ भी उस तक पहुंचने का Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-1)–(प्रवचन-01)”

प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-01)-ओशो

प्रेम योग—(बाउल गीत)  (The Beloved-Vol-1)

ओशो

बाउलों को बावरा कहा जाता है, क्योंकि वे लोग पागल जैसे होते हैं। बाउल शब्द संस्कृत के मूल शब्द ‘वतुल’ से आता है, जिसका अर्थ है—पागल। बाउल लोगों का कोई धर्म नहीं होता। न वह हिंदू होते हैं, न मुसलमान, न ईसाई और न बौद्ध ही, वे केवल साधारण मनुष्य होते हैं। वे समग्रता से विद्रोही हैं। वे किसी के होकर नहीं रहते। वे केवल स्वयं के ही होकर स्वयं के छंद से जीते हैं।

बाउल गाते हैं—

न कुछ भी हुआ है और न कुछ भी होगा,

जो वहां है, वह वहां ही रहेगा। Continue reading “प्रेम योग–(दि बिलिव्ड-01)-ओशो”

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