अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-021

जाग्रत चित्त है द्वार–स्व-सत्ता का

मेरे प्रिय,

प्रेम।

तुम्हारे पत्र पाकर आनंदित हूं।

धर्म का जन्म से कोई भी संबंध नहीं है।

और, जो ऐसा संबंध बनाते हैं, वे धर्म को हड्डी-मांस-मज्जा से ज्यादा मूल्यवान नहीं मानते हैं।

धर्म शरीर की बात ही नहीं है।

धर्म है–आत्मा का स्वभाव।

और, आत्मा का न जन्म है, न मृत्यु है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-021”

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