असंभव क्रांति-(प्रवचन-10)

प्रवचन-दसवां-(बस एक कदम)

असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 21-10-67 रात्रि   

(अति-प्राचिन प्रवचन)

शिविर की इस अंतिम रात्रि में थोड़े से प्रश्नों पर और हम विचार कर सकेंगे। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जो मेरे शब्दों को, विचारों को ठीक से न सुन पाने, न समझ पाने की वजह से पैदा हो गए हैं। एक शब्द भी यहां से वहां कर लें तो बहुत अंतर पैदा हो जाता है।

उन प्रश्नों के तो उत्तर मैं नहीं दे पाऊंगा। निवेदन करूंगा कि जो मैंने कहा है, उसे फिर एक बार सोचें। उसे समझने की कोशिश करें। जरा सा भेद आप कर लेते हैं, कुछ अपनी तरफ से जोड़ लेते हैं या कुछ मैंने जो कहा उसे छोड़ देते हैं, तो बहुत सी भ्रांतियां, दूसरे अर्थ पैदा हो जाते हैं। और जरा से फर्क से बहुत बड़ा फर्क पैदा हो जाता है।

एक राजधानी में उस देश के धर्मगुरुओं की एक सभा हो रही थी। सैकड़ों धर्मगुरु देश के कोने-कोने से इकट्ठे हुए थे। उस नगर ने उनके स्वागत का सब इंतजाम किया। सभा का जब उदघाटन होने को था तो मंच पर से परदा उठाया गया।

पांच छोटे-छोटे बच्चों के गले में हैलो, इसके पांच अक्षर–एच, ई, एल, एल, ओ–ये पांच बच्चों के गलों में एक-एक अक्षर लटकाकर एक के बाद एक बच्चा बाहर आया स्वागत के लिए।

चार बच्चे आकर खड़े हो गए। पांचवां छोटा बच्चा हैरान हुआ, वह भूल गया, कहां खड़ा होना है। वह पीछे न खड़ा होकर आगे पंक्ति में खड़ा हो गया। हैलो की जगह ओ हेल बन गया। वह, स्वागत की जगह वहां नरक! उतने से एक अक्षर के यहां से वहां होने पर…कहां स्वागत का स्वर्ग था, कहां नरक उपस्थित हो गया!

एक नास्तिक ने अपने घर पर लिख छोड़ा था, गाड इज़ नो ह्वेअर। एक छोटा सा बच्चा पड़ोस का उसे पढ़ रहा था, नया-नया पढ़ने वाला था। उसने पढ़ा गाड इज़ नाउ हिअर! वह नास्तिक सुनकर हैरान हो गया। उसने लिखा था गाड इज़ नो ह्वेअर, ईश्वर कहीं भी नहीं है। और बच्चे ने पढ़ा, गाड इज़ नाउ हिअर, ईश्वर यहीं है–यहीं और अभी!

दो पुरोहित अपनी शिक्षा के लिए एक आश्रम में भर्ती हुए थे। उन दोनों को ही सिगरेट पीने की आदत थी। एक घंटे के लिए उन्हें आश्रम के बगीचे में घूमने का समय मिलता था। उसी समय वे पी सकते थे। लेकिन वह समय भी ईश्वर-चिंतन करने के लिए मिलता था। तो उन्होंने सोचा गुरु से पूछ लेना उचित है। वे दोनों अपने गुरु के पास पूछने गए।

पहला व्यक्ति जब लौटा पूछकर तो उसने देखा कि दूसरा तो उससे पहले ही बगीचे में वापस लौट आया है और एक दरख्त के नीचे बैठकर आराम से सिगरेट पी रहा है! उसे बड़ी हैरानी हुई। उसे तो गुरु ने इनकार कर दिया था। क्या उसके साथी को उन्होंने स्वीकार कर दिया? यह कैसे संभव है कि मुझे मना किया और मेरे साथी को हां भरी।

उसने क्रोध में आकर अपने मित्र को पूछा, तुम सिगरेट पी रहे हो। मुझे तो मना कर दिया है गुरु ने। उस साथी ने कहा, तुमने पूछा क्या था? उस व्यक्ति ने कहा, सीधी सी बात थी। मैंने पूछा था, क्या मैं ईश्वर-चिंतन करते समय सिगरेट पी सकता हूं। उन्होंने एकदम कहा, नहीं, बिलकुल नहीं। तुमने क्या पूछा था? वह दूसरा मित्र हंसा। उसने कहा, मैंने पूछा था, क्या मैं सिगरेट पीते वक्त ईश्वर-चिंतन कर सकता हूं? उन्होंने कहा, हां, बिलकुल।

ये दोनों बातें एक ही अर्थ रखती हैं, लेकिन एक ही परिणाम नहीं निकला। दोनों से बिलकुल दूसरा परिणाम निकला। ईश्वर-चिंतन करते समय कौन आज्ञा देगा कि सिगरेट पीओ। लेकिन सिगरेट पीते वक्त अगर ईश्वर-चिंतन करते हो तो अच्छा ही है, इसमें बुरा क्या है। वैसे बात दोनों एक ही हैं। लेकिन इतने ही फर्क से जमीन-आसमान का फर्क पैदा हो जाता है।

तो उन सारे प्रश्नों को तो मैं छोड़ दूंगा, जिनमें अपने शब्दों को, भावों को विचारों को समझने की कोशिश नहीं की है–हेर-फेर कर ली है, बदली कर दी है, अपने मन से कुछ जोड़ लिया या कुछ घटा दिया है। उन सब पर विचार करने का तो समय नहीं है। इतना ही निवेदन करूंगा उन सबके संबंध में कि जो मैंने कहा है, उसे फिर गौर से सोचें, उसका फिर से निरीक्षण करें, समझें। तो जो मुझसे पूछा है, उसके उत्तर आपको अपने से ही मिल जाएंगे।

कुछ और प्रश्न है।

एक मित्र ने पूछा है कितने समय में हम ध्यान को उपलब्ध हो सकेंगे।

कोई सामान्य उत्तर नहीं हो सकता है। क्योंकि ध्यान को कितने समय में उपलब्ध हो सकेंगे, यह मुझ पर नहीं, आप पर निर्भर है। और इसके लिए कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि सभी लोग एक ही समय में उपलब्ध हो सकें। आपकी तीव्रता, आपकी प्यास, आपकी लगन, आपकी अभीप्सा, इस सब पर निर्भर करेगा। एक क्षण में भी उपलब्ध हो सकते हैं, और पूरे जीवन में भी न हों। एक क्षण में भी, तीव्र प्यास का एक क्षण भी, इंटेंसिटी का एक क्षण भी जीवन को बदल सकता है। और नहीं तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे–कोई तीव्रता नहीं है, कोई सीरियसनेस, कोई गंभीरता नहीं है कि उसे हम प्यास की तरह पकड़ें।

एक आदमी प्यासा है तो उसकी पानी की खोज और बात है। और एक आदमी प्यासा नहीं है, उसकी पानी की खोज बिलकुल दूसरी बात है। प्यास तो खोज लेगी पानी को। और जितनी तीव्र होगी, उतनी तीव्रता से खोज लेगी।

एक पहाड़ी रास्ते पर एक यात्री जाता था। एक बूढ़े आदमी को बैठा हुआ देखा उसने और कहा, गांव कितनी दूर है और मैं कितने समय में पहुंच जाऊंगा? वह बूढ़ा ऐसे बैठा रहा, जैसे उसने न सुना हो या बहरा हो। वह यात्री हैरान हुआ। उस बूढ़े ने कुछ भी न कहा। यात्री आगे बढ़ गया, कोई बीस कदम गया होगा, वह बूढ़ा चिल्लाया–सुनो, एक घंटा लगेगा। उस आदमी ने कहा, यात्री ने कि अजीब हो, मैंने जब पूछा था, तुम चुप रहे। उसने कहा, मैं पहले पता तो लगा लूं कि तुम चलते कितनी रफ्तार से हो। तो जब बीस कदम मैंने देख लिए कि कैसे चलते हो, तो फिर मैं समझ गया कि एक घंटा तुम्हें पहुंचने में लग जाएगा। तो मैं क्या उत्तर देता पहले, उस बूढ़े ने कहा, जब मुझे पता ही नहीं कि तुम किस रफ्तार से चलते हो। तुम्हारी रफ्तार पर निर्भर है गांव पर पहुंचना–कितनी देर में पहुंचोगे, इसलिए मैं चुप रह गया।

आपकी रफ्तार पर निर्भर है। आप कैसी तीव्रता से, कितनी गंभीरता से, कितनी सिनसेरिटि से, कितनी ईमानदारी से जीवन को बदलने की आकांक्षा से अभिप्रेरित हुए हैं, इस पर निर्भर है। एक क्षण में भी यह हो सकता है। एक जन्म में भी न हो। समय का कोई भी सवाल नहीं है। समय का रत्तीभर भी सवाल नहीं है। क्योंकि ध्यान में समय के द्वारा हम नहीं जाते हैं। ध्यान में हम जाते हैं अपनी प्यास और तीव्रता के द्वारा।

भीतर कोई टाइम नहीं है, भीतर कोई समय नहीं है। सब समय बाहर है। तो अगर बाहर यात्रा करनी हो, तब तो समय निश्चित लगता है। लेकिन भीतर यात्रा करनी हो, प्यास अगर परिपूर्ण हो, तो समय लगता ही नहीं। बिना समय के एक पल में, एक पल में भी नहीं–भीतर पहुंचा जा सकता है। लेकिन वह निर्भर करेगा–मुझ पर नहीं, आप पर।

और यह जरूर कहूंगा, हमारी गंभीरता, हमारी प्यास अत्यल्प है। अगर अत्यल्प न होती, अगर बहुत कम न होती, तो हम शब्दों और शास्त्रों से तृप्त न हो जाते।

एक आदमी को प्यास लगी है, क्या हम पानी के संबंध में लिखी हुई उसे कोई किताब दें, वह तृप्त हो जाएगा? उस किताब को रोज पढ़ता रहेगा? किताब फेंक देगा। वह कहेगा, किताब का मैं क्या करूंगा। मुझे प्यास लगी है, मुझे पानी चाहिए। पानी के ऊपर लिखा हुआ शास्त्र नहीं।

लेकिन मैं तो देखता हूं परमात्मा के ऊपर लिखे शास्त्रों को लिए लोग बैठे हैं! वे कोई भी नहीं कहते कि हमें किताब नहीं चाहिए, हमें परमात्मा चाहिए! हमें प्यास लगी है, यह वे कोई भी नहीं कहते। रखे बैठे रहें वे शास्त्र को। उनके भीतर प्यास नहीं है, इसलिए वे शास्त्र को पकड़े बैठे हुए हैं। जिसके भीतर प्यास हो, वह शास्त्र से कभी तृप्त हुआ है? वह किताब से, शब्द से कभी तृप्त हुआ है? वह नहीं हो सकता तृप्त।

मैं तो अधिक लोगों को किताबों से तृप्त हुआ देखता हूं। इसलिए लगता है कि कोई प्यास नहीं है। नहीं तो वे परमात्मा को खोजते-खोजते सत्य को, शब्दों को तो नहीं पकड़कर बैठ जाते। हम सब शब्दों को पकड़कर बैठे हुए हैं। यह प्यास की न्यूनता का सबूत, प्रमाण है। शब्दों को पकड़कर बैठे रहिए तो कभी नहीं पहुंच सकेंगे। खोजिए अपनी प्यास को–भीतर कोई प्यास है? सच में कोई भीतर आकांक्षा सरकती है–जीवन को जानने की कोई जिज्ञासा?

और अगर है तो फिर दूसरी बात ध्यान में रखना पड़ेगी। इस जिज्ञासा को बोथला मत कर लीजिए। जिज्ञासा को हम बोथला कर लेते हैं। भीतर जिज्ञासा है जानने की और हम मान लेते हैं दूसरों की बातों को तो जिज्ञासा बोथली हो जाती है, कुंठित हो जाती है। भीतर है जानने की जिज्ञासा? क्या है? और हम मान लेते हैं–आत्मा है, परमात्मा है! मान लेते हैं चुपचाप! इस मान लेने के कारण, इस विश्वास के कारण, ऐसी बिलीह्वस के कारण फिर जिज्ञासा कुंठित हो जाती है, रुक जाती है। फिर जिज्ञासा आगे गहरी नहीं हो पाती है।

विश्वास जिज्ञासा को रोक लेते हैं, ठहरा लेते हैं, फिर जिज्ञासा गहरी नहीं हो पाती। अगर जिज्ञासा को गहरा करना है तो विश्वासों को मत पकड़ना, थोथे ज्ञान को मत पकड़ना; सुने-सुनाए ज्ञान को, पढ़े-पढ़ाए ज्ञान को मत पकड़ लेना–वह सब जिज्ञासा को मार डालेगा। क्यों? क्योंकि बिना जाने हमें यह भ्रम पैदा हो जाएगा कि हम जानते हैं। हम सबको यह भ्रम है कि हम जानते हैं–ईश्वर है! हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं–मोक्ष है! हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं–पुनर्जन्म है! हम सबको यह भ्रम है हम जानते हैं कर्म है, आत्मा है, फलां है, ढिकां है! हम सब कुछ जानते हुए मालूम पड़ते हैं!

यह जानते हुए मालूम पड़ना घातक है। यह आपकी प्यास की हत्या कर देगा। और फिर आपके भीतर वह ज्वलंत प्यास नहीं रह जाएगी, जो पहुंचा सकती है। इस सबको छोड़ देने के लिए इसीलिए मैंने इधर तीन दिनों में आपसे कहा। जानें ठीक से कि मैं अज्ञानी हूं नहीं जानता हूं।

जो व्यक्ति इस बात को ठीक से जानता है कि मैं नहीं जानता हूं, उसकी प्यास अदम्य हो उठती है। क्योंकि अज्ञान से कोई भी तृप्त नहीं हो सकता है। ज्ञान से तृप्त हो सकता है। तथाकथित ज्ञान से तृप्त हो सकता है। लेकिन अज्ञान से कोई कैसे तृप्त हो सकता है? अज्ञान तो धक्के देता है। अज्ञान तो एक अतृप्ति पैदा करता है, एक डिसकंटेंट कि बदलो, इस अज्ञान को बदलो।

लेकिन हम अज्ञान को छिपा लेते हैं शब्दों के ज्ञान में। फिर अज्ञान की ताकत टूट जाती है, वह हमें धक्के नहीं दे पाता। और तब हम एक मीडियाकर, एक बिलकुल ही कुनकुने आदमी जिसके जीवन में कोई उत्तप्त, कोई पेशन, जिसके जीवन में कोई जीवंत-बल, कोई जीवंत-ऊर्जा नहीं है–ऐसे आदमी हो जाते हैं–बुझे-बुझे। जिसकी ज्योति जलती नहीं।

हम सब बुझे-बुझे आदमी हैं। इसलिए देर लगती है पहुंचने में। जलता हुआ आदमी होना चाहिए। पूरा जीवन एक ज्वलंत, एक जीवंत, एक लिविंग शक्ति, एक ताकत होनी चाहिए। और हम सब हो सकते हैं। लेकिन अपने ही हाथों हम नहीं हैं।

मुझ पर नहीं निर्भर है, आप पर निर्भर है। चाहें तो इसी क्षण–अभी और यहीं, बात पूरी हो सकती है। एक क्षण में भी बातें हुई हैं।

एक साधु था। उसके आश्रम में बहुत लोग थे। एक युवक आया था आश्रम में। वह अत्यंत विवादी था, आरग्यूमेंटेटिव था, हर किसी से विवाद करता। बहुत तर्कनिष्ठ भी था। जो बात कहता, उसमें तर्क का बल भी होता। लेकिन चौबीस घंटे विवाद, विवाद।

एक संन्यासी यात्रा करते हुए उस आश्रम में ठहरा। उस संन्यासी के साथ भी उस युवक का विवाद हो गया। और घंटे, दो घंटे में उसने संन्यासी की चिंदियां-चिंदियां अलग कर दीं। संन्यासी पराजित, दुखी वापस लौटा।

उस युवक के गुरु, उस बूढ़े साधु ने, जो उस आश्रम में था, उसने उस युवक को कहा, मेरे बेटे, तुम कब तक व्यर्थ ही बोलते रहोगे? तुम कब तक अपने जीवन को व्यर्थ की बातों में गंवाते रहोगे? कब तक?

पता है आपको–उस युवक ने उत्तर दिया? नहीं, उसने फिर उत्तर देना भी व्यर्थ समझा। उस दिन के बाद सारा जीवन मौन में बीत गया। इसका उत्तर भी नहीं दिया। क्योंकि उसकी भी क्या जरूरत थी। बात खतम हो गई। उसे यह बात दिखाई पड़ गई, यह व्यर्थता। इस सारे विवाद की, तर्क की–इस जाल की व्यर्थता दिखाई पड़ गई। बात खतम हो गई। उसने फिर यह नहीं कहा, कब तक? कल, परसों, अगले वर्ष; एक वर्ष बाद, दो वर्ष बाद। नहीं, बात दिख गई और समाप्त हो गई।

जब कोई बात दिखाई पड़ती है, उसी वक्त समाप्त हो जाती है। दिखाई ही नहीं पड़ती, इसलिए सवाल उठता है कि कब, कितने दिनों में, कैसे? देखने की कोशिश करें। जो चीज दिखाई पड़ जाएगी–दिखाई पड़ने से ही एक परिवर्तन तत्क्षण हो जाता है।

फिर उसके गुरु को कई लोगों ने कहा, यह आदमी तो बड़ा पागल मालूम होता है? कल तक इतना विवाद करता था। इसे क्या हो गया? उसके गुरु ने कहा, मैं खुद हैरान हो गया इसे देखकर, चकित हो गया। मुझे यह कल्पना नहीं थी। मैंने पूछा था, कब तक? उसने इसका भी फिर उत्तर नहीं दिया। बात फिजूल हो गई। दिख गई तो फिजूल हो गई।

एक बहुत बड़ा वैयाकरण था। बहुत बड़ा व्याकरण का विद्वान था। उसका पिता दिन-रात, राम-राम, राम-राम जपा करता था हर समय। विद्वान की उम्र साठ वर्ष हो गई, पिता की कोई अस्सी के करीब होगी। उसके पिता ने एक दिन उसको बुलाकर कहा कि बेटे अब तुम भी बूढ़े हो गए। अब राम के स्मरण का समय आ गया। मैंने तुम्हें कभी मंदिर जाते नहीं देखा! मैंने कभी तुम्हें धर्म की बात करते नहीं देखा! मैंने कभी तुम्हारी इस तरफ, परमात्मा की तरफ उत्सुकता नहीं देखी! अब कब तक? बूढ़े हो गए हो तुम भी, साठ वर्ष पार हो गए तुम्हारे भी। कब तक?

उस बेटे ने कहा, मैं भी आपको देखता हूं वर्षों से राम-राम जपते, मंदिर जाते–रोज वही करते। जो कल भी किया था, आज भी आप करते हैं। लेकिन कल जब उस करने से कुछ उपलब्ध नहीं हुआ, तो आज कैसे उपलब्ध हो जाएगा? तीस वर्षों से मैं भी देखता हूं। तीस वर्षों में रोज मंदिर जाते देखा, ग्रंथ पढ़ते देखा, राम-राम जपते देखा। अगर तीस वर्षों में कुछ नहीं हुआ वही करते हुए, तो आज उसके करने से और क्या हो जाएगा?

उस युवक ने कहा, किसी दिन मैं मंदिर जाऊंगा। लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, वह मेरा मंदिर जाना अंतिम होगा। दो कारणों से। या तो मंदिर से मैं लौटूंगा ही नहीं। और या लौट आया तो फिर मंदिर नहीं जाऊंगा। वह अंतिम और प्रथम मंदिर मेरा जाना होगा।

बाप नब्बे बर्ष का हो गया। लड़का सत्तर वर्ष पार कर गया। सत्तरवीं वर्षगांठ थी उसकी। उस दिन सुबह ही उसने अपने पिता के पैर छुए और कहा, मैं मंदिर जाता हूं। सारे गांव के लोग इकट्ठे हो गए, यह खबर सुनकर कि वह आदमी जो कभी मंदिर के पास नहीं फटका, आज मंदिर जा रहा है। सारा गांव इकट्ठा हो गया।

वह व्यक्ति मंदिर गया। लेकिन वह जाना अंतिम था। मंदिर में वह आंख बंद करके खड़ा हुआ, और श्वास समाप्त हो गई। उसका पिता रोने लगा। उसके पिता ने कहा, बहुत बार मैं मंदिर गया लेकिन आज तक मैं मंदिर नहीं पहुंच पाया। और यह मेरा लड़का आज मंदिर गया और पहुंच भी गया।

प्राण अगर पूरी प्यास से–प्राण अगर पूरी प्यास से, प्राण का कण-कण अगर पूरी प्यास से भरकर एक क्षण भी ठहर जाए, तो परमात्मा से मिलन सुनिश्चित है, सत्य से मिलन सुनिश्चित है। लेकिन बिना प्यास के हम भटकते रहते हैं, भटकते रहते हैं। और पूछते रहते हैं, कैसे होगा, कब होगा, क्या होगा! कभी नहीं होगा, ऐसे कभी नहीं होगा। होने के लिए चाहिए एक त्वरा, एक पेशन–इसी क्षण हो सकता है।

उचित है कि इस अंतिम दिन इसको हम ठीक से समझ लें। तो खोज लें अपने भीतर कि कोई प्यास है। न हो प्यास तो फिजूल क्यों इन सब बातों में समय को गंवाना। न हो प्यास तो ठीक है। जिस बात की प्यास हो, उसी तरफ जाएं। ईमानदार तो होएं अपनी प्यास में कम से कम। कम से कम एक ईमानदारी तो होनी चाहिए। जो मेरी प्यास नहीं है, उस तरफ नहीं जाऊंगा। जिस तरफ मेरी प्यास है, उसी तरफ जाऊंगा। चाहे दुनिया कुछ भी कहे।

अगर इतनी ईमानदारी हो तो एक दिन सारी प्यास व्यर्थ हो जाती है, सिर्फ परमात्मा की प्यास ही फिर शेष रह जाती है। और तब एक बल के साथ, एक त्वरा के साथ, एक गति के साथ सारा जीवन परमात्मा के सागर की तरफ दौड़ने लगता है। जैसे नदियां सागर की तरफ दौड़तीं, पहाड़ों को छलांगती, मैदानों को पार करतीं, पत्थरों को तोड़तीं–किसी दूर अनंत सागर की यात्रा करती रहती हैं, वैसे ही…।

लेकिन अगर हम जीवनभर ऐसी प्यासों के पीछे भी दौड़ते रहें, जिनकी हमें कोई प्यास ही नहीं है तो हमारा मन अगर बोथला हो जाए, कुंठित हो जाए, अगर सारी गति अवरुद्ध हो जाए तो आश्चर्य नहीं है। तो मनुष्य को खोजना चाहिए–मेरी खोज क्या है, मेरी सर्च क्या है, क्या खोजना चाहता हूं?

लेकिन हम दूसरों की बातों से खोज में लग जाते हैं, इसलिए कठिनाई है। हम दूसरों की बातों से खोज में लग जाते हैं! इसलिए कठिनाई है। कुछ लोग ईश्वर की बातें करते हैं, आत्मा की बातें करते हैं, हमारे लोभ को पकड़ जाती हैं वे बातें। हम सोचते हैं, यह भी मिल जाए तो अच्छा है। यह भी हमारे मिलने के जो बहुत से आइटम हैं हमारी लिस्ट में, जो-जो चीजें हमें पानी हैं–फर्नीचर अच्छा, कार, मकान–इनमें इस ईश्वर को भी सम्मिलित कर लेते हैं। यह भी, इसी, इन्हीं कमोडिटीज में, इन्हीं चीजों में एक चीज है; यह भी मिल जाए तो अच्छा ही है।

ईश्वर हमारे सामानों की फेहरिस्त में एक सामान नहीं है। हमारी सामग्री की चाह में एक सामग्री नहीं है। और इस भांति जो सत्य को चाहता होगा, उसे सत्य कभी मिलने वाला नहीं है।

ईश्वर या सत्य बात ही और है। वह हमारे समग्र प्राणों की समग्र प्यास है–पूरी, इकट्ठी, टोटल, उससे कम नहीं। और वह तभी पैदा होती है, जब जीवन की सब चीजों को हम गौर से देख-देखकर, सब तरफ पाते हैं कि कहीं कोई तृप्ति नहीं है, सब जगह असंतोष है। सब जगह जब डिसकंटेंट मिलता है, जब सब जगह हमारा यह भ्रम टूट जाता है कि कहीं भी नहीं कुछ संतोष मिलता, कहीं कोई शांति नहीं मिलती, कहीं कोई आनंद नहीं मिलता…जब सब तरफ हम जांच लेते हैं, दौड़ लेते हैं, खोज लेते हैं…!

मैं कहता हूं, खोज लेना चाहिए। क्योंकि बिना खोजे सबको–हमारी कच्ची खोज, कच्ची प्यास होगी। खोज लेना चाहिए ठीक से जीवन में कहां मिल सकता है आनंद, कहां मिल सकती है शांति, कहां मिल सकता है संतोष। और जब कहीं न मिले, जब सब मोर्चे पराजित हो जाएं, कोई मोर्चा न रह जाए और जब हम खड़े हो जाएं कि नहीं कहीं मिलता है, कहीं भी नहीं, नो ह्वेअर, जब दिखाई पड़े कहीं भी नहीं, उसी क्षण सारी यात्रा एक नए बिंदु पर दौड़ने लगेगी, जो स्वयं का है, जो स्वयं के भीतर है। उस तरफ एक दौड़ शुरू होगी।

लेकिन हमारी दौड़ और तरह की है। हम एक ऐसे मकान में बैठे हुए हैं कि कोई उपदेशक आकर हमको समझाता है कि मकान में आग लगी हुई है। हम उससे पूछते हैं, वह तो ठीक है, लगी होगी, लेकिन हम कब तक निकल पाएंगे इस मकान से। साफ है मतलब। उपदेशक कहता है आग लगी है, इसलिए हमने मान लिया आग लगी है, अब हम पूछ रहे हैं कि कब तक निकल पाएंगे।

हमको आग दिखाई पड़ जाए तो हम यह पूछेंगे कि कब तक निकल पाएंगे? उपदेशक पीछे रह जाएगा, हम पहले निकल जाएंगे। उसको एक धक्का देंगे कि रास्ता छोड़ो, मुझे बाहर जाने दो, तुम भला फिर समझाना किसी को। अब यहां समझने की फुर्सत नहीं है मुझे। हम उसे धक्का देंगे और बाहर निकल जाएंगे।

लेकिन हमें तो आग दिखाई नहीं पड़ती। लोग समझाते हैं कि आग लगी हुई है। जीवन में दुख है, पीड़ा है–लोग समझाते हैं। हमारी समझ में तो कुछ आता नहीं। इसलिए हमारी समझ में कुछ और ही आता है और ये समझाने वाले कुछ और समझाते हैं। एक झूठी प्यास पैदा हो जाती है। उस झूठी प्यास के कारण सवाल उठता है कब तक?

अपनी प्यास को खोजना चाहिए–क्या वह सच्ची है? और न हो सच्ची तो उस प्यास को दो कौड़ी का समझकर फेंक देना चाहिए। चाहे वह ईश्वर की ही प्यास क्यों न हो। झूठी प्यास का कोई मूल्य है? झूठी प्यास का कोई मूल्य नहीं है। फिर जो हमारी प्यास हो, उसी को ठीक से खोजना चाहिए। और जब उस सारी खोज में नहीं मिलेगा कुछ, तब वह खोज पैदा होगी, जो उसकी है–परमात्मा की, सत्य की।

जब सब तरफ से मन हारा, थका–कहीं भी नहीं पाता, तब उठना चाहता है, तब भीतर जाना चाहता है। लेकिन हमें बचपन से ही झूठी प्यासें सिखा दी जाती हैं, उससे सारी मुश्किल हो जाती है। अपनी झूठी प्यास को छोड़ दें। सच्ची प्यास की तलाश करें। और वह तभी होगी सच्ची प्यास की खोज, जब आप, जो भी आपकी प्यास है…। चाहे सारी दुनिया कहती हो कि वह गलत है, कहने दें दुनिया को। यह जिंदगी आपको मिली है और एक बार। इसको आप किसी के कहने पर मत जीएं। हो सकता है, वे सारे लोग गलत कहते हों। कोई महात्मा कहता हो, कोई ज्ञानी कहता हो। मत जीएं उसकी बात को मानकर। हो सकता है वह गलत कहता हो। हो सकता है, वह कुछ भी न जानता हो।

अपनी प्यास का सहारा पकड़ें और खोजें। और पूरे जागरूक होकर खोजते रहें। जागरूकता भीतर रहे और हर प्यास को खोज लें, चाहे वह कोई प्यास हो। तो आप पाएंगे कि जागरूकता बता देगी कि प्यास व्यर्थ है, यह रास्ता कहीं भी नहीं जाता है। और जब कोई रास्ता कहीं जाता हुआ न दिखाई पड़े, तब वह रास्ता उपलब्ध हो जाता है, जो प्रभु तक जाता है। उसके पहले नहीं।

प्यास को एक सजगता, ईमानदारी, एक त्वरा, एक गति, एक स्पष्टता देना जरूरी है। इस संबंध में थोड़ा खोजें-बीनें। अपनी प्यास को देखें, कहीं ये झूठी बातें तो नहीं हैं कि मैं ईश्वर को चाहता हूं। सच में चाहते हैं? तो इसी क्षण हो सकती है बात। लेकिन पूछें अपने से, चाहता हूं? आप खुद को ही डांवाडोल पाएंगे भीतर, चाहता भी हूं या नहीं।

रवींद्रनाथ ने एक अदभुत गीत लिखा है। लिखा है कि मैं ईश्वर को खोजता था बहुत-बहुत जन्मों से। अनेक बार दूर किसी पथ पर उसकी झलक दिखाई पड़ी, मैं भागा, भागा, लेकिन तब तक वह निकल गया और दूर। मेरी सीमा थी, उस असीम की, सत्य की कोई सीमा नहीं। जन्म-जन्म भटकता रहा, कभी कोई झलक मिलती थी किसी तारे के पास। भागता जब मैं उस तारे के पास पहुंचता, तब वह फिर कहीं और निकल गया था।

आखिर बहुत थका, बहुत परेशान, बहुत प्यासा, एक दिन मैं उसके द्वार पर पहुंच गया। मैं उसकी सीढ़ियां चढ़ गया। परमात्मा के भवन की सीढ़ियां मैंने पार कर लीं। मैं उसके द्वार पर खड़ा हो गया। मैंने सांकल हाथ में ले ली। बजाने को ही था, तभी मुझे खयाल आया, अगर वह कहीं मिल ही गया तो फिर क्या होगा? फिर मैं क्या करूंगा? अब तक तो एक बहाना था चलाने का कि ईश्वर को खोजता हूं। फिर तो यह बहाना भी नहीं रह जाएगा। द्वार पर खड़े होकर घबड़ाया मन कि द्वार खटकाऊं या न खटकाऊं। क्योंकि खटकाने के बाद उससे मिलना निश्चित है। यह उसका भवन आ गया। और वह मिल जाएगा फिर? मैं उससे मिलना भी चाहता हूं? या कि केवल एक बहाना था अपने को चलाए रखने का। अपने समय को काटने का एक बहाना था। अपने को व्यर्थ न मानने की, सार्थक बनाने की एक कल्पना थी। चाहता हूं मैं उसे?

और तब मन बहुत घबड़ाया और उसने कहा कि नहीं, दरवाजा मत खटखटाओ। अगर कहीं वह मिल गया तो फिर बड़ी मुश्किल है। फिर क्या करोगे? फिर सब करना गया। फिर सब खोज गई, फिर सब दौड़ गई। फिर सारा जीवन गया।

तब मैं डर गया और मैंने सांकल आहिस्ता से छोड़ी कि कहीं वह सुन ही न ले। और मैंने जूते पैर से बाहर निकाल लिए कि सीढ़ियां उतरते वक्त आवाज न हो जाए–कहीं वह आ ही न जाए। और मैं भागा उसके द्वार से। जब मैं बहुत दूर निकल आया, तब मैं ठहरा, तब मैंने संतोष की सांस ली और तब से मैं फिर उसका मकान खोज रहा हूं। क्योंकि खोजने में जिंदगी चलाने का एक बहाना है। मुझे भलीभांति पता है कि उसका मकान कहां है? उसको बचकर निकल जाता हूं। खोज जारी रखता हूं। जो भी मिलता है, उससे पूछता हूं, ईश्वर कहां है? ऐसे जिंदगी मजे में कट रही है। एक ही डर लगता है, कहीं किसी दिन उससे मिलना न हो जाए। मकान उसका मुझे पता है।

बड़ी अजीब सी बात है। लेकिन हम सबके साथ ऐसा ही है। हम सबको पता है कि उसका मकान कहां है। हम सबको मालूम है कि थोड़ा खटकाएं और द्वार खुल जाएंगे। लेकिन कोई तैयार है? किसी का मन राजी है?

समझ लें आप उसके द्वार पर खड़े हो गए हैं जाकर और खटकाने की बात है। जैसा क्राइस्ट ने कहा, नॉक, एंड द डोर शेल बी थ्रोन ओपन अन टू यू, खटखटाओ और द्वार खुल जाएंगे। द्वार पर ही आप खड़े हैं, खटखटाने की बात है। होता है मन कि खोल लें द्वार? या कि मन डरता है? या कि मन कहता है चलो, वापस लौट चलें? खोज बड़ी अच्छी थी, मिल जाने पर बड़ी मुश्किल होगी, फिर क्या करेंगे?

मैं निश्चित आपसे कहता हूं आप भी द्वार से वापस लौट आएंगे। या कौन जाने लौट आए हों। रोज लौट आते हों। परमात्मा का मकान बहुत दूर तो नहीं हो सकता। है तो कहीं बिलकुल निकट, पास–सब तरफ। उसका द्वार कहीं किसी आकाश में, किसी सितारे के पास तो नहीं हो सकता। है तो हर जगह। उसके रास्ते कहीं बहुत दुर्गम तो नहीं हो सकते। सब रास्ते उसी के हैं। जहां से भी हम चलें, उसी तक पहुंचेंगे, उसके अतिरिक्त कुछ है नहीं।

लेकिन फिर भी हम खोज रहे हैं। तो जरूर कुछ मामला है, जरूर कुछ बात है। यह भी एक बहाना है, यह भी एक मनोरंजन है। कभी फिल्म देख लेते हैं, कभी सत्संग कर लेते हैं। कभी नाच-गान देख लेते हैं, कभी भजन-कीर्तन सुन लेते हैं। कभी ताश खेल लेते हैं, कभी गीता पढ़ लेते हैं। इनमें फर्क थोड़े ही है। ये सब एक जैसे हैं। ये सब जिंदगी को भरने के उपाय हैं। एक मनोरंजन है। जिंदगी फिजूल है, मीनिंगलेस है, उसमें कोई अर्थ नहीं है। सब तरफ से हम अर्थ पैदा करने की कोशिश करते हैं। इसमें ईश्वर को भी ठकठका लेते हैं कि शायद इससे भी कुछ अर्थ पैदा हो। शायद कुछ रस आ जाए, कुछ मजा आ जाए, कोई थ्रिल पैदा हो जाए, कोई एक्साइटमेंट मिल जाए इससे भी। शायद इससे भी एक नया अनुभव मिल जाए। ऐसी खोज चल रही है। यह खोज कोई बहुत गहरी, कोई प्यास की खोज नहीं है। इस सबको सोचना, देखना, जानना चाहिए तो शायद गहरी खोज पैदा हो जाए।

अभी मैं जाऊं आपके पास और एकदम से कहूं, चलो चलते हो मिला दें ईश्वर से। तो आप कहोगे, कल सुबह तो मुझे घर वापस जाना है। और टिकट तो रिजर्व करा ली है। टिकट भी रिजर्व न कराई होती तो शायद आपकी बात पर हम विचार भी करते। फिर कभी, आगे कभी, फिर कभी मिलिए, फिर देखेंगे, फिर सोचेंगे। ऐसा ही मन है। और ऐसा मन कहां जाएगा, कहां पाएगा, क्या करेगा? नहीं, ऐसे मन से कुछ भी नहीं हो सकता है। इस पूरे मन को ही फेंक देना है। एक बिलकुल नया मन चाहिए। उसकी ही हम इधर तीन दिनों में बात करते थे।

लेकिन बार-बार वही बात फिर पूछने हम चले आते हैं। तो लगता है ऐसा…एक मित्र अभी आए कि क्रोध के लिए क्या करें? मैंने उनसे कहा, सुबह मौजूद थे, कल मौजूद थे? वे मौजूद हैं। सुना होगा, समझा होगा, लेकिन फिर पूछते हैं, क्रोध के लिए क्या करें! करना चाहते हैं या नहीं करना चाहते हैं? या कि महज बहाना है कि क्या करें, क्या न करें। तो वही तो कह रहा हूं कि क्या करें। फिर बार-बार पूछते हैं, क्या करें।

शायद ऐसा लगता है कि इस भ्रम में कि हमें पता नहीं है क्या करें, इसलिए हम कुछ नहीं करते हैं–चलता चला जाता है। ठीक-ठीक पता है सब बात का। करना चाहते हैं तो अभी कर सकते हैं। क्या कठिनाई है? कब तक पूछते रहेंगे? कब तक पूछते रहेंगे कि क्या करें, क्या करें, क्या करें? नहीं, यह न पूछें। समझें और करना शुरू कर दें। कुछ एक-आध कदम तो चलें।

एक रात एक गांव के पास एक युवक अपनी लालटेन लिए हुए बैठा था। कोई चार बजे होंगे रात के। पास ही दस मील दूर एक पहाड़ी थी, उसे देखने जा रहा था। लेकिन सुबह चलेगा तो धूप हो जाएगी, कठिनाई होगी। इसलिए तीन बजे रात उठकर चला था। फिर लालटेन लेकर गांव के बाहर पहुंचा तो अमावस की रात, घना अंधकार…तो वह लालटेन रखकर बैठ गया। उसने सोचा कि लालटेन है छोटी सी, फीट-दो फीट तक रोशनी जाती है, दस मील का रास्ता कैसे पार होगा? दस मील तक प्रकाश होता तो चले भी जाते। कुछ दो फीट तक प्रकाश पड़ता है। और दस मील का लंबा रास्ता। हे भगवान, यह नहीं हो सकता। उसने दस मील में दो फीट का भाग दिया होगा, तो समझ में आ गया कि यह तो बहुत कठिन बात है। गणित उसे मालूम था। दो फीट की रोशनी है, दस मील का रास्ता है–अंधेरे से भरा हुआ–काम होगा कैसे?

वह वहां बैठ गया, सूरज निकल आए तो जाऊं। ऐसे तो काम नहीं चल सकता। पीछे से एक बूढ़ा आदमी भी उसी पहाड़ की तरफ जाता था। उसने पूछा कि बेटे, तुम बैठे क्यों हो? उसने कहा कि मैं इसलिए बैठा हूं कि सूरज निकल आए तो जाऊं। क्योंकि रास्ता है दस मील लंबा और मेरे पास छोटी सी लालटेन है और दो फीट रोशनी पड़ती है। कैसे होगा यह? यह पार कैसे पड़ेगी बात?

उस बूढ़े ने कहा, बड़ा पागल है तू। दो फीट रोशनी बहुत है। एक दफे में एक आदमी एक कदम से ज्यादा चलता ही नहीं। एक कदम चल, तब तक रोशनी दो फीट आगे हो जाएगी। फिर एक कदम चल, तब तक रोशनी फिर दो फीट आगे हो जाएगी। तुझे हमेशा दो फीट आगे रोशनी उपलब्ध रहेगी, तू चल तो। दस मील क्या, दस हजार मील छोटी लालटेन से पार हो सकते हैं। लेकिन तू भी अजीब गणित लगाने बैठा है कि दो फीट रोशनी जाती है तो दस मील के लिए कितनी रोशनी चाहिए! इतनी बड़ी लालटेन नहीं बन सकती, बहुत मुश्किल है, फिर तू कभी नहीं जा सकेगा।

तो मैं निवेदन करूंगा, छोटी सी रोशनी जो भी दिखाई पड़ती हो, उसमें चलना शुरू कर दें। रोशनी काफी है, थोड़ी से थोड़ी भी काफी है, क्योंकि एक कदम से ज्यादा कभी कोई चल सकता है? एक कदम चलिएगा, रोशनी और एक कदम आगे हो जाएगी। लेकिन चलना हमें नहीं है। हम हिसाब लगाने में बहुत कुशल हैं, हम बैठकर हिसाब लगाते हैं।

मैंने आपको कहा, निरीक्षण करिए क्रोध का। आप फिर पूछते हैं, क्रोध के लिए क्या करें? निरीक्षण करिए। नहीं आज एकदम से हो सकेगा निरीक्षण। दो फीट ही सही, दस मील न सही, थोड़ा सा ही सही, लेकिन करें तो। कुछ चीजें हैं, जो केवल करके ही जानी जा सकती हैं, जिन्हें जानने का और कोई उपाय नहीं है।

एक आदमी तैरना सीखना चाहता हो, वह कहे कि पहले हमें तैरना सिखा दें, फिर हम पानी में उतरेंगे। तो बड़ी मुश्किल है। क्योंकि वह कहेगा कि जब तक मैं तैरना न सीखूं, तब तक पानी में उतरूं कैसे? और जब तक कोई पानी में न उतरे तब तक तैरना सीखे कैसे? फिर बात खतम हो गई, वह किनारे पर रह जाएगा वह आदमी, क्योंकि उसने एक शर्त लगाई है कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं, तब तक मैं पानी में नहीं उतर सकता! और पानी में उतरना जरूरी है तैरना सीखने के लिए भी।

तो आप पूछते हैं कि क्या करें? पूरी, हमें सारी साधना स्पष्ट हो जानी चाहिए। वह स्पष्ट होगी आपके चलने से। एक कदम भर स्पष्ट हो जाए तो काफी है। फिर आप चलिए। फिर आप उतरिए पानी में। तो फिर आप सीखेंगे चलने से, गति करने से। नहीं तो जीवनभर कभी नहीं सीखेंगे।

इधर तीन दिनों में जो थोड़ी सी बातें हुई हैं, इसमें से कुछ भी–एक कणभर आपको दिखाई पड़ता हो कि करने जैसा है तो करिए। और उस कणभर को करने में आप पाएंगे कि और आगे का रास्ता आलोकित हो गया। उतना और चलिए और आप पाएंगे और बड़ा रास्ता आलोकित हो गया। जितना चलिए, उतना ही रास्ता प्रकाशित होता चला जाएगा।

लेकिन आप शुरू से लेकर आखिरी तक पूरी पंचवर्षीय योजना अभी जान लेना चाहते हों तो उसके लिए गवर्मेंट आफ इंडिया से संबंध स्थापित करना चाहिए। वहां इस तरह की बड़ी कारीगरियां निरंतर चलती रहती हैं! वे बड़ी लंबी योजनाएं बनाते हैं। एक कदम चलने का जिन्हें तमीज नहीं, वे सारे लोग हजारों कदमों की योजनाएं बनाते हैं। तो वे हजारों कदम तो कभी उठते नहीं, वह एक कदम भी जो उठ सकता था, वह भी नहीं उठ पाता है। एक कदम काफी है।

गांधी जी एक भजन गाया करते थे–वन स्टेप इज़ इनफ फार मी–उसमें एक पंक्ति है, एक कदम काफी है। सच है यह बात। एक कदम काफी है। लेकिन एक कदम जो नहीं चलता और हजारों कदमों का विचार करता रहता है, वह खो देता है, जीवन से वंचित रह जाता है।

एक और मित्र ने पूछा है कि मैं ईश्वर के दर्शन कैसे कर सकता हूं?

तो मैं आपसे निवेदन करूंगा, “आप’, अर्थात “मैं’, यह कभी भी ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता है। “मैं’ की कोई भाषा ईश्वर तक ले जाने वाली नहीं है। जिस दिन “मैं’ न रह जाएगा, उस दिन तो कुछ हो सकता है। लेकिन जब तक “मैं’ हूं, कि मुझे करना है ईश्वर के दर्शन–तो यह “मैं’ ही तो बाधा है।

विक्टोरिया, महारानी विक्टोरिया अपने पति से एक दिन लड़ पड़ी थी। उसका पति अल्बर्ट कुछ भी नहीं बोला, चुपचाप जाकर अपने कमरे में बंद होकर द्वार उसने लगा लिया। विक्टोरिया क्रोध में थी, वह भागी हुई पीछे गई। उसने जाकर द्वार पर जोर से धक्के मारे और कहा, दरवाजा खोलो। अल्बर्ट ने पीछे से पूछा, कौन है? उसने कहा, क्वीन आफ इंग्लैंड, मैं हूं इंग्लैंड की महारानी। फिर पीछे से दरवाजा नहीं खुला। फिर वह दरवाजा ठोंकती रही, फिर पीछे से कोई उत्तर भी नहीं आया, कोई आवाज भी नहीं।

घड़ी भर बीत जाने के बाद उसने धीरे से कहा, अल्बर्ट, दरवाजा खोलो, मैं हूं तुम्हारी पत्नी। वह दरवाजा खुल गया। अल्बर्ट, मुस्कुराता हुआ सामने खड़ा था।

परमात्मा के द्वार पर हम जाते हैं–“मैं हूं इंग्लैंड की महारानी’, दरवाजा खोलो। वह दरवाजा नहीं खुलने वाला है। यह “मैं’ जो है, इगो, इसके लिए कोई दरवाजा नहीं खुलता। दरवाजा खुलने के लिए ह्यूमिलिटि चाहिए, विनम्रता चाहिए। और विनम्रता वहीं होती है, जहां “मैं’ नहीं होता है। और कोई विनम्रता नहीं होती।

अहंकार को लेकर कोई कभी ईश्वर तक नहीं पहुंचा है, न पहुंच सकता है। खो देना पड़ेगा स्वयं को तो। छोड़ देना पड़ेगा स्वयं के इस भाव को कि मैं हूं। इसे हम बड़े जोर से पकड़े हुए हैं कि “मैं हूं’। एक सख्त दीवाल बन गई हमारे चारों तरफ, जिसमें कोई किरणें प्रकाश नहीं करतीं, नहीं प्रवेश कर पाती हैं। छोड़ देना होगा इस “मैं’ को। तो मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं–यह भाषा ही गलत है।

और दूसरी बात। ईश्वर के दर्शन की बात भी गलत है। ईश्वर का दर्शन कोई आदमी का दर्शन थोड़े ही है कि आप गए और सामने खड़े हो गए और आपने दर्शन कर लिया! ईश्वर कोई व्यक्ति तो नहीं है। कोई रूप-रंग, कोई रेखा तो नहीं है। ईश्वर के दर्शन का मतलब: किसी व्यक्ति का कोई दर्शन थोड़े ही मिल जाने वाला है! ईश्वर के दर्शन का मतलब है: वह जो जीवंत चेतना है, सर्वव्यापी, वह जो ऊर्जा है, वह जो शक्ति है जीवन की, वह जो सृजन का मूल-स्रोत है, वह जो सब तरफ व्याप्त अस्तित्व है, वह जो एक्जिसटेंस है–वही सब, उस सबका इकट्ठापन, उसकी टोटेलिटी, उसकी होलनेस, यह अस्तित्व की समग्रता और पूर्णता ही, ईश्वर है।

तो जिस दिन मेरे अहंकार की बूंद इस विराट अस्तित्व के सागर में खोने को राजी हो जाती है, उसी दिन मैं उसे उपलब्ध हो जाता हूं, मैं उसे जान लेता हूं। बूंद खो जाए तो सागर के साथ एक हो जाती है। लेकिन बूंद कहे कि मैं सागर को जानना चाहती हूं, फिर बहुत कठिनाई है। बूंद कहे कि मैं मिटने को राजी हूं, तो जिस जगह वह मिट जाएगी, उसी जगह वह सागर को उपलब्ध हो जाती है–वहीं मिल जाएगी सागर से। अहंकार की बूंद लिए रास्ता तय नहीं हो सकता है।

इसलिए यह मत पूछें कि मैं ईश्वर के दर्शन को उपलब्ध हो सकता हूं? नहीं, न तो “मैं’ ईश्वर के दर्शन को उपलब्ध हो सकता है, और न ईश्वर का दर्शन किसी व्यक्ति का दर्शन है।

एक मित्र ने पूछा है कि ध्यान में बैठता हूं, तो बस अंधकार ही अंधकार दिखाई पड़ता है। कोई प्रकाश दिखाई नहीं पड़ता।

प्रकाश दिखाई पड़ने की जरूरत क्या है? अंधकार दिखाई पड़ता है, यही एक बीमारी है। धीरे-धीरे यह भी दिखाई नहीं पड़ेगा। जब कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा–कुछ भी; जब कुछ भी अनुभव में नहीं उतरेगा–कुछ भी; रह जाएंगे केवल जागरूक; रह जाएगा केवल ज्ञान, बोध मात्र; रह जाएगी केवल कांशसनेस और सामने कोई भी आब्जेक्ट नहीं, कोई भी विषय नहीं, कोई भी अनुभव नहीं, उसी क्षण जो जान लिया जाता है, वह समग्रता का अनुभव है। उसे हम प्रेम की भाषा में परमात्मा कहते हैं।

परमात्मा शब्द सिर्फ हमारी प्रेम की भाषा है। अन्यथा सत्य ही कहना उचित है। उस दिन हम जान पाते हैं, सत्य क्या है। लेकिन सत्य को जब हम प्रेम की तरफ से देखते हैं, जब हम सत्य को प्रेम से देखते हैं तब सत्य बड़ा दूर मालूम पड़ता है, बड़ा गणित का सिद्धांत मालूम पड़ता है, मैथमेटिकल मालूम पड़ता है। उससे कोई संबंध पैदा होता नहीं मालूम पड़ता, तब हम कहते हैं, परमात्मा। और तब एक संबंध बनता हुआ मालूम पड़ता है। एक प्रेम का नाता और एक सेतु बनता हुआ मालूम पड़ता है।

एक मित्र ने पूछा है कि मैं आखिरी में कहता हूं कि आप सबके भीतर परमात्मा के लिए प्रणाम करता हूं। या कभी कहता हूं कि परमात्मा करे…तो मेरा मतलब क्या है?

मेरा मतलब किसी ऐसे परमात्मा से नहीं, जो ऊपर बैठा है और सब चला रहा है। मेरा मतलब सबके भीतर बैठी हुई, सोई हुई चेतना से है। उस चेतना को ही बुलाता हूं। कोई दूर किसी परमात्मा को नहीं। वह जो आपके भीतर है और कण-कण में, पत्ते में, पत्थर में, सब में है।

और हमारे शब्द और हमारी भाषा सब असमर्थ है ऐसे तो उसके बाबत कुछ कहने में। लेकिन फिर कुछ इशारे अत्यंत जरूरी हैं। तो कोई नाम हम दे दें, परमात्मा कहें, सत्य कहें या कुछ भी कहें, कुछ भी कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, ब्रह्म कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे सब शब्द एक से असमर्थ हैं, उसे सूचित करने में। लेकिन शब्द के बिना कोई सूचना भी कठिन है।

तो इसीलिए निःशब्द में जाने का हम प्रयोग करते हैं, शब्द को छोड़ने का, ताकि वहां शायद उसका स्पर्श, उसका संस्पर्श हो सके।

एक अंतिम बात फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।

अंतिम बात यह मुझे कहनी है, वह भी एक मित्र ने पूछा है कि हम कैसे हो जाएं कि वह प्रगट हो सके?

एक छोटी सी कहानी अंत में कह देनी है। उसके साथ ही बात पूरी हो जाएगी।

एक पंडित था। बहुत शास्त्र उसने पढ़े थे। बहुत शास्त्रों का ज्ञाता था। उसने एक तोता भी पाल रखा था। पंडित शास्त्र पढ़ता था, तोता भी दिन-रात सुनते-सुनते काफी शास्त्र सीख गया था। क्योंकि शास्त्र सीखने में तोते जैसी बुद्धि आदमी में हो, तभी आदमी भी सीख पाता है। सो तोता खुद ही था। पंडित के घर और पंडित भी इकट्ठे होते थे। शास्त्रों की चर्चा चलती थी। तोता भी काफी निष्णात हो गया। तोतों में भी खबर हो गई थी कि वह तोता पंडित हो गया है।

फिर गांव में एक बहुत बड़े साधु का, एक महात्मा का आना हुआ। नदी के बाहर वह साधु आकर ठहरा था। पंडित के घर में भी चर्चा आई। वे सब मित्र, उनके सत्संग करने वाले सारे लोग, उस साधु के पास जाने को तैयार हुए कुछ जिज्ञासा करने। जब वे घर से निकलने लगे तो उस तोते ने कहा, मेरी भी एक प्रार्थना है, महात्मा से पूछना, मेरी आत्मा भी मुक्त होना चाहती है, मैं क्या करूं? मैं कैसा हो जाऊं कि मेरी आत्मा मुक्त हो जाए?

सो उन पंडितों ने कहा, उन मित्रों ने कहा कि ठीक है, हम जरूर तुम्हारी जिज्ञासा भी पूछ लेंगे। वे नदी पर पहुंचे, तब वह महात्मा नग्न नदी पर स्नान करता था। वह स्नान करता जा रहा था। घाट पर ही वे खड़े हो गए और उन्होंने कहा, हमारे पास एक तोता है, वह बड़ा पंडित हो गया है।

उस महात्मा ने कहा, इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं है। सब तोते पंडित हो सकते हैं, क्योंकि सभी पंडित तोते होते हैं। हो गया होगा। फिर क्या?

उन मित्रों ने कहा, उसने एक जिज्ञासा की है कि मैं कैसा हो जाऊं, मैं क्या करूं कि मेरी आत्मा मुक्त हो सके?

यह पूछना ही था कि वह महात्मा जो नहा रहा था, उसकी आंख बंद हो गईं, जैसे वह बेहोश हो गया हो, उसके हाथ-पैर शिथिल हो गए। धार थी तेज, नदी उसे बहा ले गई। वे तो खड़े रह गए चकित। उत्तर तो दे ही नहीं पाया वह, और यह क्या हुआ! उसे चक्कर आ गया, गश्त आ गया, मूर्च्छा हो गई, क्या हो गया? नदी की तेज धार थी–कहां नदी उसे ले गई, कुछ पता नहीं।

वे बड़े दुखी घर वापस लौटे। कई दफा मन में भी हुआ इस तोते ने भी खूब प्रश्न पुछवाया। कोई अपशगुन तो नहीं हो गया। घर से चलते वक्त मुहूर्त ठीक था या नहीं? यह प्रश्न कैसा था, प्रश्न कुछ गड़बड़ तो नहीं था? हो क्या गया महात्मा को?

वे सब दुखी घर लौटे। तोते ने उनसे आते ही पूछा, मेरी बात पूछी थी? उन्होंने कहा, पूछा था। और बड़ा अजीब हुआ। उत्तर देने के पहले ही महात्मा का तो देहांत हो गया। वे तो एकदम बेहोश हुए, मृत हो गए, नदी उन्हें बहा ले गई। उत्तर नहीं दे पाए वह।

इतना कहना था कि देखा कि तोते की आंख बंद हो गईं, वह फड़फड़ाया और पिंजड़े में गिरकर मर गया। तब तो निश्चित हो गया, इस प्रश्न में ही कोई खराबी है। दो हत्याएं हो गईं व्यर्थ ही। तोता मर गया था, द्वार खोलना पड़ा तोते के पिंजड़े का।

द्वार खुलते ही वे और हैरान हो गए। तोता उड़ा और जाकर सामने के वृक्ष पर बैठ गया। और तोता वहां बैठकर हंसा और उसने कहा कि उत्तर तो उन्होंने दिया, लेकिन तुम समझ नहीं सके। उन्होंने कहा, ऐसे हो जाओ, मृतवत, जैसे हो ही नहीं। मैं समझ गया उनकी बात। और मैं मुक्त भी हो गया–तुम्हारे पिंजड़े के बाहर हो गया। अब तुम भी ऐसा ही करो, तो तुम्हारी आत्मा भी मुक्त हो सकती है।

तो अंत में मैं यही कहना चाहूंगा: ऐसे जीएं जैसे हैं ही नहीं। हवाओं की तरह, पत्तों की तरह, पानी की तरह, बादलों की तरह। जैसे हमारा कोई होना नहीं है। जैसे मैं नहीं हूं। जितनी गहराई में ऐसा जीवन प्रगट होगा, उतनी ही गहराई में मुक्ति निकट आ जाती है।

इन तीन दिनों में इस तरह ही जी सकें। उसी के लिए मैंने सारी बातें कहीं हैं। इस तरह जीएं, जैसे नहीं हैं। बस, साधना का इससे ज्यादा गहरा कोई और सूत्र नहीं है।

अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे और फिर विदा होंगे। यह अंतिम रात्रि है, इसलिए बहुत शांति से ध्यान में जाने का प्रयोग करें। इसलिए बहुत शांति से ध्यान में जाने का प्रयोग करें।

सब लोग थोड़े दूर चले जाएं।…अपनी-अपनी जगह रुक जाएं, जो जहां हैं। कोई किसी तरह की बातचीत नहीं करेगा। जो लोग खड़े हैं या बैठे हैं, वे सबका ध्यान रखेंगे–थोड़ी भी गड़बड़ न हो।

शांति से लेट जाएं।…सारे शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। वैसे ही जैसा अभी मैंने कहा, जैसे आप हों ही नहीं। बिलकुल ढीला छोड़ दें। जैसे कोई जीवन भी नहीं है। बिलकुल शिथिल छोड़ दें।…

शरीर शिथिल हो रहा है, छोड़ दें। आंख आहिस्ता से बंद कर लें।…शरीर शिथिल हो रहा है, अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है…शरीर शिथिल हो रहा है…शरीर शिथिल हो रहा है…शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है। छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है।

श्वास शांत हो रही है…श्वास शांत हो रही है…श्वास शांत हो रही है। श्वास भी बिलकुल ढीली छोड़ दें।…अब बिलकुल शांत और मौन चारों तरफ जो भी आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, उन्हें सुनें। रात्रि की आवाजें आ रही हैं, जंगल का सन्नाटा बोल रहा है, उसे मौन, जागे हुए सुनते रहें।…सुनें।…शांति से सुनें। भीतर जागे रहें और सुनते रहें।…सुनते-सुनते ही मन शांत होता जाएगा।…सुनते-सुनते मन एकदम नीरव, एकदम शांत हो जाएगा।…सुनें।

…सुनें, रात्रि के सन्नाटे को सुनें। सुनते-सुनते ही मन शांत और मौन होता जाएगा।

मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है…मन शांत हो रहा है।

मन शांत होता जा रहा है…मन शांत हो रहा है।

मन शांत हो गया है…मन शांत हो गया है…मन बिलकुल शांत हो गया है।

मन शांत हो गया है…मन एकदम शांत हो गया है। मन शांत हो गया है। मन शांत हो गया है।

मन बिलकुल शांत और शून्य हो गया है। शून्य, बिलकुल शून्य हो गया है।

अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें।…धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लें। फिर बहुत आहिस्ता से आंख खोलें। जैसी शांति भीतर है, वैसी ही बाहर भी है।…धीरे-धीरे आंख खोलें और बाहर देखें।…फिर धीरे-धीरे उठ आएं।…शांति से मौन चुपचाप उठकर बैठते जाएं।…धीरे, आहिस्ता अपनी-अपनी जगह चुपचाप बैठ जाएं।

दुख पहुंचाने वाली बात आपको मैंने कही हो, किसी को भी–स्वप्न में भी दुख पहुंचाने का मेरा मन नहीं है। लेकिन मजबूरी है? कुछ बातें दुख पहुंचाने वाली हो सकती हैं।

अंत में, किसी को दुख पहुंच गया हो, उससे मैं क्षमा मांगता हूं–सभी से। और विदाई के इन क्षणों में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

समाप्‍त

आज इतना ही।

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक २१-१०-६७, रात्रि

असंभव क्रांति-(प्रवचन-09)

प्रवचन-नौवां-(काम का रूपांतरण)

असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 20-10-67 दोपहर

(अति-प्राचीन प्रवचन)

सुबह मैंने उर्वशी की कथा कही। उससे दोपहर उन्हें अत्यंत कामोत्तेजक स्वप्न आया। तो उन्होंने चाहा है कि मैं ऐसी बातें न कहूं जिनसे कामवासना भड़क उठे। मैं तो सिर्फ सत्य जानने का रास्ता बताऊं।

मेरी कथा से उनकी कामवासना जाग्रत हुई है, या कि कामवासना उनमें दबी हुई पड़ी थी, मेरी कथा उसे बाहर निकाल लाई है।

एक कुएं में हम बाल्टी डालते हैं, बाल्टी में पानी भरकर बाहर आ जाता है, क्योंकि कुएं में पानी है। अगर कुआं खाली हो तो बाल्टी हम कितनी ही डालें, और कितनी ही बड़ी, और कितनी ही अच्छी, कुएं से पानी नहीं आ सकेगा। बाल्टी पानी केवल बाहर लाती है, होता कुएं में पानी है। लेकिन अगर हम बाल्टी को दोष दें कि इसकी वजह से ही यह पानी आ गया तो गलती हो जाएगी। बाल्टी केवल खबर ले आती है कि भीतर पानी है। और हम न भी बाल्टी डालें तो पानी विलीन नहीं हो जाता, वह मौजूद है।

उर्वशी की कहानी से अगर मन में वासना उठी, स्वप्न आया तो उसका अर्थ है, दबी हुई वासना मन में है। वह न हो तो उर्वशी की कथा तो दूर, उर्वशी भी खुद आ जाए तो उसे नहीं उठा सकेगी। और अगर उर्वशी की कथा से इतना डर है तो फिर उर्वशी के आने पर क्या होगा? और उर्वशी की कोई कमी तो नहीं है। सब तरफ उर्वशी मौजूद है। फिर क्या करेंगे? ऐसा भयभीत होकर कहां जीएंगे, कैसे जीएंगे?

यह तो अच्छा हुआ कि मैंने कथा कही और आपको स्वप्न आया, यह और भी अच्छा हुआ। इसे थोड़ा निरीक्षण करें, इसे थोड़ा आब्जर्व करें, इस स्वप्न की घटना का थोड़ा विश्लेषण करें, थोड़ी एनालिसिस करें तो शायद बड़ा कीमत का हो सकेगा यह स्वप्न। नहीं कहता कथा तो यह स्वप्न न आता और आप विश्लेषण से भी बच जाते।

यह स्वप्न किस बात की सूचना है? यह उसी बात की सूचना है जो मैं निरंतर कह रहा हूं। यह इस बात की सूचना है कि सप्रेस्ड माइंड, दमित मन एक ज्वालामुखी है, जिसके ऊपर हम बैठे हैं और नीचे आग उबल रही है। जरा सा बहाना और आग ऊपर आ जाएगी।

स्वप्न में वही हमारे चित्त में ऊपर आ जाता है, जो जाग्रत में हम दबाए रहते हैं। स्वप्न में वही हमारे चित्त में चित्र बन जाता है, जिसे हमने जाग्रत में हमने भीतर दबाया। तो स्वप्न बड़े मित्र हैं। वे यह खबर देते हैं आपको कि आप अपने जाग्रत जीवन में कितना दमन कर रहे हैं, किस भांति का दमन कर रहे हैं, और किस चीज का दमन कर रहे हैं। जिस चीज का दमन होगा, वही चीज स्वप्नों में रूप ले लेती है।

स्वप्नों का अध्ययन, अपने स्वप्नों का अध्ययन और विश्लेषण साधक के लिए बहुमूल्य है। क्योंकि उसके स्वप्न खबर देते हैं कि उसका जीवन किन-किन चीजों का दमन कर रहा है। और दमन से मुक्त होना है। जिस दिन दमन से मुक्त हो जाएंगे, उसी दिन स्वप्न से भी मुक्त हो जाएंगे। जिस दिन चित्त में कोई दमन नहीं होगा, उस दिन चित्त में कोई स्वप्न नहीं होगा।

स्वप्न और ड्रीम्स बाई-प्रोडक्ट हैं सप्रेशन की, दमन की। तो जो आदमी जिस चीज का दमन करेगा उसी का स्वप्न देखना शुरू कर देगा। अगर सेक्स का दमन किया है तो सेक्स के स्वप्न होंगे। अगर दिन में उपवास किया है और भूख का दमन किया है, रात में भोजन करने के स्वप्न होंगे। जिस बात का दमन किया है, वही स्वप्न में मौजूद हो जाएगी। स्वप्न दमन की छाया है।

इसलिए स्वप्न को बहुत गौर से देखते रहें कि स्वप्न क्या है? वह आपके चित्त के संबंध में खबर दे रहा है। जो आदमी अपने स्वप्नों को ठीक से समझे वह खुद को ठीक से समझने में समर्थ हो जाता है।

स्वप्न बहुत सूचक हैं। और स्वप्नों को समझना, पूरे गौर से उसकी खोज करनी, अत्यंत महत्वपूर्ण है। जो हमारे भीतर दबा है वह बाहर निकलने की कोशिश करता है। जब हम जागे होते हैं, तब हम उसे दबाए रखते हैं। जब हम सो जाते हैं, दबाने वाला पहरेदार सो गया, अब वह जो भीतर से दिनभर कोशिश कर रहा था बाहर आने की, वह बाहर आएगा।

इस बाहर आने के उसने और भी बहुत से रास्ते खोज लिए हैं। रास्तों पर, सड़कों पर फिल्मों के नग्न और अश्लील पोस्टर लगे हैं, अश्लील और नग्न चित्र हैं, किताबें हैं, फिल्में हैं, ये क्यों हैं? हमने इन-इन चीजों का चित्त में दमन किया है, इन-इन चीजों को लगाकर हमारे मन को आकर्षित किया जा सकता है। ये-ये चीजें हमारे मन में जो दबा है, छिपा है उसे आकर्षित करती हैं, रस पैदा होता है, उस रस का शोषण किया जा सकता है। सारी दुनिया में दमित आदमी का शोषण हो रहा है।

एक गंदी और अश्लील फिल्म बनती है तो आप दोष देते होंगे फिल्म बनाने वालों को। दोषी है हमारा मन, जो गंदी और अश्लील फिल्म देखने की पूरी चेष्टा कर रहा है। सड़क पर देखने की हम में हिम्मत नहीं है, वही बात तो हम जाकर एक सिनेमागृह में चुपचाप बैठकर देख लेते हैं। एकांत में एक किताब में गंदे चित्र देख लेते हैं। अश्लील पोस्टर देख लेते हैं।

हम देखना चाहते हैं, क्योंकि हमने इस चाह को दबाया है, छिपाया है।

और सारे जगत में जितना दमन सेक्स के संबंध में हुआ और किसी चीज के संबंध में नहीं हुआ है। इसलिए सेक्स आदमी की बहुत बुनियादी समस्या है। ईश्वर से भी ज्यादा महत्वपूर्ण समस्या सेक्स है। क्योंकि आदमी के लिए ईश्वर तो एक शब्द है कोरा, सेक्स और वासना एक वास्तविकता, एक रिअलिटी है, जिसके आसपास उसका जीवन घूम रहा है। और अगर हम उसको दबाते चले जाते हैं, जैसी हमारी शिक्षाएं सिखाती हैं दबाओ, दबाओ, दबाओ; धीरे-धीरे हम इतने भाव दबा लेते हैं भीतर कि हमारा सारा जीवन उन्हें दबाने में और व्यवस्थित करने में व्यतीत हो जाता है। फिर स्वप्न आएंगे, कमजोर क्षणों में अभिव्यक्ति होगी उनकी तो हम और घबड़ाएंगे। फिर आदमी सोचता है कि कुछ ऐसा उपाय करें कि सोऊं ही न, नींद ही कम लूं, क्योंकि नींद लूंगा तो सपने आएंगे।

सारी दुनिया में तथाकथित साधक कम सोने की कोशिश करते हैं, उसका कोई और कारण नहीं है, स्वप्न का डर है। नींद आई कि स्वप्न आए। और स्वप्न वही आए जिनसे दिनभर लड़ाई की है। तो भय होता है मन में, घबड़ाहट होती है कि वे न आएं तो नींद ही कम लो।

यह कोई उपाय हुआ? उपाय तो यह होना था कि स्वप्न आते हैं सूचना की तरह, उस सूचना को हम समझें और उस सूचना का कुछ हल करें, कोई समाधान खोजें। समाधान खोजने का तो उपाय नहीं करते, समस्या को दबाने का उपाय करते हैं।

समाधान क्या है? समाधान यह है चित्त का दमन न करें। कोई भी चीज चित्त में दबाई न जाए, जबर्दस्ती न की जाए। निरीक्षण किया जाए। जो मैंने सुबह आपसे कहा, चित्त की सभी वृत्तियों का निरीक्षण करें, खोजें। खोजने पर आप पाएंगे कि भय निर्मूल सिद्ध होता है। कोई भय नहीं है। खोजें, जो भी वृत्ति मन में है खोजें। और वृत्तियों के प्रति दुर्भाव न लें।

सेक्स के प्रति हमने बहुत दुर्भाव इकट्ठा कर लिया है। यह सबसे ज्यादा खतरनाक बात जो मनुष्य की संस्कृति में हो गई है, वह है सेक्स के प्रति दुर्भाव, शत्रुता का भाव। और आप कल्पना नहीं कर सकते कि इस एक केंद्रीय बात ने सारे जीवन को विषाक्त किया हुआ है, जहर से भर दिया है।

सेक्स में क्या बुरा है। सेक्स तो जीवन का जन्म है। सेक्स तो सृजन है, क्रिएटिविटी का उसूल, नियम है। उसी काम से तो सारा जीवन विकसित होता है। पशु, पक्षी, पौधे, मनुष्य जीवन का जो केंद्रीय तत्व है, जिससे सारे जीवन की ऊर्जा जन्मती है और विकसित होती है, उसके आप शत्रु बनकर रह सकेंगे! और उसके शत्रु बनने में सिर्फ अपने को तोड़ सकते हैं और कुछ भी नहीं।

परमात्मा अगर जीवन में कहीं भी काम कर रहा है तो सबसे ज्यादा सेक्स में। परमात्मा का सृजन अगर कहीं भी सर्वाधिक सक्रिय है तो मनुष्य के सेक्स में, प्रकृति के सेक्स में। वही तो सूत्र है जिससे जीवन बनता और विकसित होता है। तो जीवन के इस उदगम के प्रति अगर हमारे मन में दुर्भाव है तो हमारे मन में जीवन के प्रति ही दुर्भाव है। और जब यह दुर्भाव होगा तो इसके दुष्परिणाम होने शुरू होंगे।

पहली बात तो तथ्यों को देखना और स्वीकार करना चाहिए। सेक्स की निंदा करने वाली परंपराएं मनुष्य की शत्रु हैं। सेक्स के प्रति भी सम्मान और रिवरेंस का भाव होना चाहिए। सेक्स के प्रति तो इसलिए सम्मान का भाव होना ही चाहिए कि वह जीवन का केंद्र है; जीवन का उत्स, जीवन का स्रोत। हम मां-बाप के प्रति तो सम्मान का भाव रखते हैं, वह सम्मान का भाव तब तक झूठा रहेगा जब तक सेक्स के प्रति भी हमारे मन में सम्मान का भाव न हो। मां-बाप के प्रति और सम्मान का क्या कारण है? वे जन्म देने वाले सूत्र हैं, यही न। तो जन्म देने वाले सूत्र वे क्यों हैं और कैसे हैं, किस कारण हैं?

हमारा सब मां-बाप के प्रति आदर का भाव झूठा है और झूठा रहेगा। झूठा रहेगा इसलिए कि सेक्स के प्रति तो हमारा दुर्भाव है; ये दोनों बातें कंट्राडिक्ट्री हैं, ये दोनों बातें विरोधी हैं। मां-बाप के प्रति सच्चा आदर और प्रेम तभी हो सकता है जब सेक्स के प्रति भी आदर हो, निंदा और शत्रुता नहीं। पत्नी पति को आदर कैसे दे सकती है जब सेक्स के प्रति निंदा का भाव है। हम कहते हैं पति को परमात्मा समझो। समझे कैसे इस पति को परमात्मा। पति पत्नी को कैसे आदर दे सकता है? जानता है भलीभांति यही नरक का द्वार है। यही उसे सेक्स के जीवन में ले जाने वाली है। यही उपकरण है पाप का। तो इस पाप के उपकरण को कैसे आदर दे? पत्नी पति को कैसे आदर दे, बच्चे मां-बाप को कैसे आदर दें, मां-बाप बच्चों को कैसे आदर दें, यह सेक्स की बाई-प्रोडक्ट हैं। यह तो उसकी ही उत्पत्ति हैं। ये उसी से तो आते हैं, इनके प्रति आदर कैसे हो सकता है?

जीवन हमारा अनादर से भर गया है। जीवन हमारा घृणा, क्रोध से भर गया है, क्योंकि सेक्स के प्रति हमारी कोई रिवरेंस की धारणा नहीं है, आदर का भाव नहीं है। और जब तक यह आदर का भाव पैदा नहीं होगा, मनुष्य के जीवन में शांति बहुत कठिन है, बहुत असंभव है।

क्यों न हम आदर के भाव से भरें। क्यों शत्रुता का भाव लें। जीवन का जो सीधा तथ्य है और सबसे महत्वपूर्ण और सबसे केंद्रीय। अगर अभी यहां मंगल ग्रह से कोई यात्री उतर आए तो सबसे पहली चीज आप क्या देखेंगे, कि वह स्त्री है या पुरुष। अभी एक यात्री मंगल ग्रह से यहां उतर आए, गिर पड़े तो हम सबसे पहली चीज कौन सी नोटिस करेंगे। पहली चीज कौन सी हमारे खयाल में आएगी–स्त्री है या पुरुष। क्यों, यही तथ्य सबसे पहले खयाल में आने का कोई कारण? यही बात सबसे पहले सोचे जाने का कोई कारण? जरूर कारण है।

मनुष्य के सारे व्यक्तित्व का जो विकास है, वह सेक्स के केंद्र पर है। केंद्र तो सेक्स है। इस केंद्र को झुठलाने से काम नहीं चलेगा। और इस केंद्र को जितना हम झुठलाएंगे उतना यह तीव्रता से अपने को प्रगट करने की कोशिश करेगा। फिर दमन शुरू होगा, फिर हम पीड़ा में पड़ेंगे।

जीवन के तथ्यों की स्वीकृति की क्षमता और पात्रता हम में होनी चाहिए।

मेरी दृष्टि में सेक्स, काम केंद्र है जीवन का, सृजन का। हमारे मन में बहुत आदर भाव जरूरी है। और जितना आदर भाव होगा, उतना ही आप पाएंगे कि आप सेक्सुअलिटी से मुक्त होते चले जाते हैं। जितना आदर का भाव होगा, उतना ही आप पाएंगे कामुकता आपके चित्त से विलीन होती चली जाती है। जितना घृणा का भाव होगा, उतना दमन होगा। दमन से कामुकता पैदा होती है, घेरती है, चक्कर काटती है। जितना आदर का भाव होगा, सम्मान का भाव होगा, उतनी ही विलीन होती चली जाएगी। उतनी दूर होती चली जाएगी।

चित्त को बदलने की कीमिया, चित्त को बदलने का विज्ञान बहुत और है। जो हम समझे बैठे हुए हैं हजारों साल से वह नहीं है। और हमने सारी मनुष्य जाति को रोगाक्रांत कर दिया है। सारी मनुष्य जाति को इतने गलत रास्तों पर भेज दिया है कुछ थोड़े से लोगों ने, जिसका कोई हिसाब नहीं है। और आज चूंकि हम हजारों साल से उस घेरे में चल रहे हैं, आज हमें ऐसा लगता है कि वही रास्ता सही है जिस पर हम चलते रहे हैं। वह सही नहीं है।

बच्चों के मन में सेक्स के प्रति बचपन से ही हम घृणा पैदा करते हैं, घबड़ाहट पैदा करते हैं, डर और भय पैदा करते हैं। जैसे सेक्स जीवन का हिस्सा न हो। बच्चे को पता ही नहीं चलता। सोचना शुरू करता है, विचारना शुरू करता है तो हम सब भांति की दीवालें खड़ी करते हैं कि उसको पता न चल जाए। लेकिन जो जीवन का तथ्य है उससे हम बचा सकेंगे! वह तो पता चलेगा, आपके कोई उपाय उसे नहीं रोक सकेंगे। और जब आप रोकेंगे तो वह रुग्ण रूप से उत्सुक हो जाएगा, उसमें आप्सेशन पैदा हो जाएगा। क्योंकि उसके मन में रस पैदा होगा कि क्यों रोका जा रहा हूं मैं, क्यों इस संबंध में कुछ नहीं कहा जाता, क्यों इस संबंध को छुपाया जाता है, बात क्या है? कोई जरूर बहुत गुरु-गंभीर मामला है कोई, कोई छुपाने की बात है, कोई सीक्रेट है।

तो वह चारों तरफ से यह खोजने की कोशिश करेगा, सीक्रेट क्या है इसका। चारों तरफ वह खोज करेगा, खोज करेगा और गलत रास्तों से गलत बातें इकट्ठी करेगा। और डरेगा भी, भयभीत भी होगा, घबड़ाएगा भी कि किसी को पता न चल जाए कि मैं यह जानने लगा हूं जो कि नहीं जानना चाहिए था। और यह रुग्ण चित्त में बच्चे का चित्त बड़ा होकर बीस वर्ष तक आएगा। सेक्स के प्रति उसके मन में घाव पैदा कर दिया आपने। अब जीवनभर इस घाव के इर्द-गिर्द वह घूमेगा इससे छुटकारा नहीं पा सकता है।

अगर बच्चे को हम बचपन से ही सेक्स के सारे तथ्य स्पष्ट बताना शुरू करें, बताने चाहिए, और सेक्स के प्रति एक आदर का भाव पैदा करें, क्योंकि वही जीवन का जन्म देने वाला केंद्र और सूत्र है, तो बच्चे के मन में यह घाव कभी पैदा नहीं होगा। उसे कभी भय होने का कारण नहीं होगा। वह कभी डरेगा नहीं। वह जीवन की इस केंद्रीय शक्ति से कभी आंख नहीं छिपाएगा। उसके मन में घाव पैदा नहीं होगा, चोट पैदा नहीं होगी। उसका मन स्वस्थ रह सकेगा।

हम सबका मन अस्वस्थ हो गया है। फिर यह अस्वास्थ्य जीवनभर चक्कर काटता है क्योंकि बच्चे के मन में जो केंद्र बन जाते हैं, उनको पोंछना और मिटाना बहुत कठिन हो जाता है। एक अच्छी दुनिया तभी बनेगी जब वह सेक्स को परमात्मा की अनूठी बात स्वीकार करके आदर देना शुरू करेगी, नहीं तो अच्छी दुनिया नहीं बन सकती।

जितना-जितना आदर, जैसे कोई मंदिर में प्रवेश करता है, सेक्स की भावना में प्रवेश करना मंदिर में प्रवेश जैसा होना चाहिए। और आप शायद खयाल भी नहीं कर सकते, कल्पना भी नहीं कर सकते कि सेक्स के प्रति निंदा के कारण पति और पत्नी दो शत्रु हैं, मित्र नहीं। मित्र हो नहीं सकते, क्योंकि मित्रता का सेतु घृणा और कंडेमनेशन लिए हुए है। जिससे वे जुड़े हैं; वह चीज ही, जोड़ने वाली चीज ही गलत और बुरी भाव लिए हुए है तो वह जोड़ने वाली चीज मित्रता कैसे बन सकती है? और इस शत्रुता में से बच्चे पैदा होते हैं, वे बच्चे बहुत शुभ, बहुत सुंदर और श्रेष्ठ नहीं हो सकते। इसी तनाव, कांफलिक्ट, इस शत्रुता में से बच्चे आते हैं। इन दोनों का मन भयभीत, घबड़ाया हुआ, पाप से ग्रसित, पाप से दबा हुआ, डरा हुआ, और फिर इससे बच्चे आते हैं! इन दोनों के इस चित्त की अनिवार्य छाप उस आने वाले बच्चे में छूट जाती है।

जिस दिन पति और पत्नी एक-दूसरे से एक पवित्रतम संबंध अनुभव करेंगे, होलीएस्ट कि ये सेक्स के क्षण, ये काम के संबंध के क्षण पवित्रतम क्षण हैं, प्रार्थना के क्षण हैं। जिस दिन उनका यह मिलन एक प्रेयर, एक प्रार्थना बन जाएगा, उस दिन जो बच्चे पैदा होंगे वे बहुत दूसरा संस्कार, बहुत दूसरे बीज की तरह जगत में आएंगे। तब हम एक दूसरी प्रजा के जन्मदाता हो सकते हैं।

फिर ये बच्चे पैदाइश से ही रोग चित्त में लेकर पैदा होते हैं। और उस रोग को फिर समाज और बढ़ाता है, और बढ़ाता है। फिर उस रोग का शोषण करने वाले लोग हैं, वे शोषण करते हैं। और एक चक्कर शुरू होता है जिस पर एक छोटा सा आदमी पिस जाता है बुरी तरह से।

ये सारी गंदी फिल्में, ये सारे गंदे चित्र, यह सारा गंदा वातावरण आपकी सेक्स के संबंध में यह भ्रांत धारणा कि प्रतिक्रिया है, उसका फल है। यह उससे पैदा हुआ है। और जो कौम जितनी ज्यादा सेक्स के प्रति भयभीत और घबड़ाई हुई है, उस कौम का चित्त उतना ही ज्यादा सेक्सुअलिटी से भरा हुआ है।

लेकिन हम तथ्यों को देखना नहीं चाहते, हमने हिम्मत खो दी है। हम सोचना नहीं चाहते, हम विचार नहीं करना चाहते। हम आंख बंद करके जैसा चल रहा है चलते रहना चाहते हैं। ऐसे नहीं हो सकता है। इस संबंध में हमारी पूरी धारणा परिवर्तित होनी चाहिए।

सेक्स के संबंध में किसी तरह की निंदा का कोई कारण नहीं है। और जब निंदा करते हैं और भयभीत होते हैं, घबड़ाते हैं तब भीतर से धक्के आते हैं, चोटें आती हैं, लहरें आती हैं उनमें हम बहते हैं तो पश्चात्ताप होता है। सब मुश्किल हो जाता है। आनंद असंभव हो जाता है। नहीं बहते हैं, रुकते हैं तो पीड़ा हो जाती है। जाते हैं, बहते हैं तो पीड़ा हो जाती है। सब तरफ, दोनों तरफ कुएं-खाई खड़े हो जाते हैं। इस तरफ गिरते हैं तो तकलीफ, उस तरफ गिरते हैं तो तकलीफ।

फिर आदमी क्या करे? तो फिर आदमी आवागमन से छुटकारे का उपाय सोचने लगता है कि किसी तरह से संसार से ही छुटकारा हो जाए। यह संसार बड़ा गड़बड़ है।

यह गड़बड़ हमने किया हुआ है। यह संसार गड़बड़ नहीं है। यह संसार बहुत अदभुत रस, बहुत अदभुत आनंद को देने में समर्थ है। लेकिन हमने सब रस विकृत कर लिया, हम पागल हो गए हैं। और इस पागल के केंद्र पर, हमारे पागलपन के सारे केंद्र पर कामवासना बैठी हुई है।

जितने लोग पागल होते हैं उनके अध्ययन से जाहिर होता है कि उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग सेक्स की ही रोग के कारण पागल होते हैं। और हम भी जो डांवाडोल होते हैं जीवन में, वह भी सेक्स है। इससे हम यह नतीजे लेने लगते हैं, और नतीजे बिलकुल गलत होते हैं, हम अजीब नतीजे लेने के आदी हो गए हैं। हमें क्या नतीजा लेना चाहिए यह बड़ी मुश्किल हो गई है। देखते हैं कि सारे लोग सेक्स के कारण परेशान हैं तो हम सोचते हैं सेक्स को हटाओ, खतम करो जीवन से।

परेशान इसलिए हैं कि आप हटाने की कोशिश कर रहे हैं तीन हजार साल से, उससे परेशान हैं। और परेशानी देखकर आप यह नतीजा लेते हैं कि हटाओ इसको, बिलकुल खतम करो, इसकी परेशानी बंद होनी चाहिए। हम सिखाते हैं कि बच्चों को स्कूल में गीता पढ़ाओ, कुरान पढ़ाओ। नहीं साहब, बच्चों को स्कूल में सेक्स के बाबत सब कुछ पढ़ाओ। गीता-कुरान की कोई जरूरत नहीं है। ये बच्चे स्कूल से स्वस्थ होकर बाहर आएं। इनका मन साफ, अनसप्रेस्ड हो; ये दमन से मुक्त हों। ये स्वस्थ हो सकें, ये संतुलित हो सकें। लेकिन हम नतीजे उलटे लेते हैं।

एक गांव में, एक व्यक्ति शराबबंदी के लिए लोगों को समझा रहा था। वह समझा रहा था कि शराब बहुत बुरी चीज है। वह समझा रहा था कि शराब के कारण जीवन नष्ट हो जाता है। वह समझा रहा था और समझाने के लिए उसने एक प्रश्न पूछा, उसने कहा, तुम्हें पता है गांव में किस आदमी की स्त्री सबसे अच्छे कपड़े पहनती है? शराब घर के मािलक की। कौन सी स्त्री सबसे अच्छे जेवर पहनती है? शराब घर के मालिक की। क्योंकि तुम्हारा….और कौन उसके पैसे चुकाता है? तुम। सार धन वहां इकट्ठा होता है।

सभा विसर्जित हो गई। एक आदमी उसके पास आया, उस उपदेशक के और उसने कहा कि मैं आपसे बिलकुल सहमत हूं और मेरा मन आपने बिलकुल बिल दिया। उपदेशक बहुत प्रसन्न हुआ, उसने उसे गले लगाया और कहा कि चलो, एक आदमी भी बदले तो ठीक। क्या तुमने तय कर लिया शराब छोड़ने का। उसने कहा कि नहीं, मैंने शराबखाना खोलने का विचार पक्का कर लिया। मैं और मेरी पत्नी दोनों सहमत हो गए आपकी बात से कि बिलकुल ठीक है। शराबखाना खोलने का मैंने निश्चय कर लिया।

बड़े अजीब नतीजे हैं। हमारा मन बड़े अजीब नतीजे लेता रहता है। जिनकी कल्पना भी नहीं होती समझाने वालों को, जिनकी कल्पना भी नहीं होती शिक्षा देने वालों को, वह हम नतीजे लेते रहते हैं।

फ्रायड एक दिन अपने बच्चे और अपनी पत्नी के साथ एक बगीचे में, वियना में, घूमने गया था। सांझ जब लौटने लगा, अंधेरा हो गया, बच्चा नदारद था। उसकी पत्नी ने कहा कि बच्चा न मालूम कहां गया, अब अंधेरे में हम कहां खोजेंगे? इतना बड़ा पार्क है। फ्रायड ने कहा, तुमने कहीं उसे जाने को मना तो नहीं किया था? अगर किया हो तो सबसे पहले वहीं देख लें। अगर उसमें थोड़ी भी बुद्धि है तो वह वहां मिलेगा। उसकी पत्नी तो हैरान हुई। उसने कहा, मैंने कहा था कि फव्वारे पर, फाउंटेन पर मत जाना। फ्रायड ने कहा, फिर वहीं चलो। सौ में निन्यानबे मौके तो यह हैं कि वहां हो। और अगर वहां न हो तो हमको चिंतित होना पड़ेगा। क्योंकि लड़का फिर बुद्धिमान नहीं है।

फिर वहां गए। बच्चा पैर लटकाए वहां फव्वारे पर बैठा हुआ था। उसकी पत्नी ने, फ्रायड की पत्नी ने कहा, हैरानी की बात है, तुमने कैसे खोज निकाला कि यह बच्चा वहां होगा। उसने कहा, अब तक यही भूल दुनिया में चल रही है। हम अब तक नहीं खोज निकाल पाए कि जिस चीज का निषेध किया जाता है, इनकार किया जाता है, उसमें आकर्षण पैदा हो जाता है। इस बच्चे को कहा गया, फव्वारे पर मत जाना। सारा बगीचा व्यर्थ हो गया, फव्वारा ही सार्थक हो गया। इसके चित्त में फव्वारे ने केंद्र की जगह ले ली। अब इस बगीचे में जानने और पहचानने और जाने जैसी चीज फव्वारा हो गया। अब बाकी सब बेकार है। बाकी जहां जाया जा सकता है वहां कभी भी जाया जा सकता है। इस फव्वारे पर जाना एकदम जरूरी है। इसे चूक जाना ठीक नहीं है।

आदमी ने सेक्स के बाबत जितना निषेध और विरोध किया है, उतना ही आदमी का चित्त सेक्स के फव्वारे पर ही पैर लटकाए हुए बैठा है। सामान्य नियम है: निषेध आकर्षण पैदा करता है। निषेध विकृति पैदा करता है। स्वीकृति आकर्षण को समाप्त कर देती है। स्वीकार करने का साहस होना चाहिए। तथ्यों को वैज्ञानिक दृष्टि होनी चाहिए देखने की। और जब हम किसी तथ्य को सीधा स्वीकार करते हैं तो एक बड़ा बल, एक बड़ी ताकत पैदा होती है। और फिर एक रोग हमारे भीतर जो पैदा होता है निषेध से, वह बंद हो जाएगा।

यहां इस नगर में हम आए हुए हैं, शायद नगर के, इस गांव के लोगों को पता भी नहीं होगा। अगर आप गांव में दो-चार जगह पोस्टर लगा देते और लिख देते कि फलां-फलां जगह मीटिंग हो रही है, वहां कोई भी नहीं आ सकता है। वहां आना मना है। तो यह मैदान खाली नहीं रह सकता था। फिर इस गांव में शायद ही कोई एकाध बुद्धिमान आदमी होता जो न आ जाता। मामला क्या है? वहां जाना जरूरी हो जाता।

एक दरवाजे पर लिखकर टांग दें, भीतर झांकना मना है। फिर कोई इतना हिम्मत का आदमी वहां से नहीं निकल सकता, जो बिना झांके निकल जाए। और अगर निकल जाए तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। फिर चौबीस घंटे चित्त इसका यही होगा कि उस द्वार पर कैसे चलें, कैसे झांके। फिर रात सपने देखेगा कि द्वार खोल लिया, झांक आए। फिर सपनों के लिए कहेगा कि गड़बड़ हो गयी, मुश्किल में पड़ गया हूं मैं। लेकिन चित्त को निषेध करना, चित्त को आमंत्रित करना है।

ये बातें उलटी दिखाई पड़ती हैं, लेकिन सीधी और साफ हैं। हमने जिन चीजों का निषेध किया, हमने उनमें आकर्षण पैदा कर दिया है। जिन चीजों को हमने छिपाया, उन्हें हमने उघाड़कर देखने की हवा पैदा कर दी है। और अब हम बेचैन और घबड़ाए हुए हैं।

इस बेचैनी का इस तरह कोई हल नहीं हो सकता, जैसा हम सोचते रहे। इस बेचैनी की जड़ पकड़ लेनी है। और जड़ है–दमन। जड़ है–जीवन के तथ्यों का विरोध और निषेध; स्वीकार नहीं।

तो मैं आपको कहना चाहूंगा इस संबंध में: सेक्स के विरोध में मत खड़े रहें, उसे स्वीकार करें। जाने कि वह है। फिर खोजें, फिर निरीक्षण करें, फिर उस वृत्ति को पकड़ें प्रेम से और उतर जाएं गहरे में।

सेक्स की वृत्ति गहरी से गहरी वृत्ति है, क्योंकि उससे ही हम पैदा होते हैं। वह गहरी से गहरी वृत्ति है जो मनुष्य के भीतर है। उसका निषेध नहीं किया जा सकता। उसमें उतरें और गहरे से गहरे जाएं। जितने गहरे आप उतरते चले जाएंगे, उतने ही आप एक मुक्ति अनुभव करेंगे कि आप मुक्त होने शुरू हो गए। और जिस दिन आप बिलकुल जड़ों में पहुंच जाएंगे अपनी चेतना के, जहां से सेक्स का पौधा उत्पन्न होता है, वहां आप एकदम हैरान हो जाएंगे कि यह कोई उलझन की बात न थी। यह तो इतनी सरल थी, इतनी सीधी और साफ थी, इसे बदल देना बहुत आसान था। और जिस दिन वह बदलाहट होगी, उस दिन आपके सारे व्यक्तित्व में प्रेम भरपूर भर जाएगा।

प्रेम सेक्स का ट्रांसफार्मेशन है और कुछ भी नहीं। जो आदमी सेक्सुअल है, वह आदमी लविंग नहीं हो सकता। जो आदमी कामवासना से भरा है, उसमें प्रेम नहीं हो सकता है।

प्रेम सेक्स की ही शक्ति का रूपांतरण है। जब चित्त सब भांति सेक्स से मुक्त हो जाता है, सेक्स को जानकर, परिचय से, ज्ञान से, तब सेक्स की शक्ति का क्या होगा? वह शक्ति है। वह रूपांतरित हो जाती है, वह प्रेम बन जाती है। और यह प्रेम फिर नए ढंग का सृजन शुरू कर देता है, नया क्रिएशन शुरू कर देता है। प्रेम बहुत क्रिएटिव है। फिर प्रेम का एक-एक शब्द अदभुत रूप से सृजन करने में लग जाता है।

टालस्टाय एक दिन सुबह एक गांव की सड़क से निकला। एक भिखारी ने हाथ फैलाया। टालस्टाय ने अपने जेब तलाशे लेकिन जेब खाली थे। वह सुबह घूमने निकला था और पैसे नहीं थे। उसने उस भिखारी को कहा, मित्र! क्षमा करो, पैसे मेरे पास नहीं हैं, तुम जरूर दुख मानोगे। लेकिन मैं मजबूरी में पड़ गया हूं। पैसे मेरे पास नहीं हैं। उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, मित्र! क्षमा करो, पैसे मेरे पास नहीं हैं। उस भिखारी ने कहा, कोई बात नहीं। तुमने मित्र कहा, मुझे बहुत कुछ मिल गया। यू काल्ड मी ब्रदर, तुमने मुझे बंधु कहा! और बहुत लोगों ने मुझे अब तक पैसे दिए थे लेकिन तुमने जो दिया है, वह किसी ने भी नहीं दिया था। मैं बहुत अनुगृहीत हूं।

एक शब्द प्रेम का–मित्र, उस भिखारी के हृदय में क्या निर्मित कर गया, क्या बना गया। टालस्टाय सोचने लगा। उस भिखारी का चेहरा बदल गया, वह दूसरा आदमी मालूम पड़ा। यह पहला मौका था कि किसी ने उससे कहा था, मित्र। भिखारी को कौन मित्र कहता है? इस प्रेम के एक शब्द ने उसके भीतर एक क्रांति कर दी, वह दूसरा आदमी है। उसकी हैसियत बदल गयी, उसकी गरिमा बदल गयी, उसका व्यक्तित्व बदल गया। वह दूसरी जगह खड़ा हो गया। वह पद-दलित एक भिखारी नहीं है, वह भी एक मनुष्य है। उसके भीतर एक नया क्रिएशन शुरू हो गया। प्रेम के एक छोटे से शब्द ने!

प्रेम का जीवन ही क्रिएटिव जीवन है। प्रेम का जीवन ही सृजनात्मक जीवन है। प्रेम का हाथ जहां भी छू देता है, वहां क्रांति हो जाती है, वहां मिट्टी सोना हो जाती है। प्रेम का हाथ जहां स्पर्श देता है, वहां अमृत की वर्षा शुरू हो जाती है।

लेकिन यह प्रेम आता कहां से है? कहां से यह पैदा होता है? कहां यह जन्म पाता है? मेरी दृष्टि में जैसे एक बीज होता है, बीज के ऊपर एक खोल होती है, सेल होती है, उसके ऊपर ढांके रखती है। भीतर बीज छिपा होता है, ऊपर सेल होती है, खोल होती है। खोल बीज की दुश्मन नहीं है, मित्र है। अगर खोल न हो तो बीज कभी का मर जाएगा, उसकी रक्षा न हो सकेगी। लेकिन हम जमीन में डालते हैं बीज को, खोल तो टूटकर नष्ट हो जाती है, बीज अंकुर बन जाता है। बीज बाहर निकल आता है।

तो खोल रक्षा करती थी बीज का लेकिन अगर खोल रक्षा ही करती चली जाए और जब बीज को फूटने का मौका आए तब इनकार कर दे कि मैं टूटने को राजी नहीं हूं, मैं तो तुम्हारी रक्षक हूं। मैं नष्ट होने को राजी नहीं हूं। तो जो रक्षक था वही भक्षक हो जाएगा। फिर खोल बीज का प्राण ले लेगी, फिर बीज में अंकुर नहीं पैदा हो सकेगा। खोल रक्षा करती है एक सीमा तक, और एक सीमा के बाद फिर टूट जाती है ताकि बीज में अंकुर हो सके।

मनुष्य के भीतर जो भी हमें वृत्तियां दिखाई पड़ती हैं वे खोल हैं, उनके भीतर बीज छिपे हुए हैं बहुत अदभुत। सेक्स खोल है। और अगर ठीक से उसे हम समझें तो एक दिन खोल तो विलीन हो जाती है और प्रेम का अंकुर प्रगट हो जाता है। क्रोध खोल है। अगर हम क्रोध को ठीक से समझें तो क्रोध तो विलीन हो जाता है, दया-क्षमा जन्म ले लेती है। लेकिन बड़ी अंडरस्टेंडिंग की, बड़ी समझ की जरूरत है।

एक आदमी एक घर में बहुत सा गोबर और खाद लाकर ढेर इकट्ठा कर ले तो बदबू फैलनी शुरू हो जाएगी। गांव के लोगों का उस रास्ते से निकलना मुश्किल हो जाएगा। उस आदमी का भी घर में रहना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन वही आदमी उस खाद को अपनी जमीन पर फैला दे घर के आगे और बीज डाल दे फूलों के, थोड़े दिनों में गांव के लोग उस रास्ते पर आने को आतुर हो जाएंगे। वहां फूल खिल गए हैं, उनमें सुगंध व्याप्त हो गई है।

वह सुगंध कहां से आती है? वह सुगंध उस खाद की दुर्गंध का ही रूपांतरण है, वह उसका ही ट्रांसफार्मेशन है। वही खाद जो दुर्गंध दे रही थी, फूलों से पार होकर सुंगध बन गई है। लेकिन खाद इकट्ठी कर लें तो प्राण जीना मुश्किल हो जाएंगे। और खाद को बगिया में डाल लें, खाद को ही, तो फूल खिल जाएंगे वहां। वहां जीवन स्वर्ग हो जाएगा।

हमारे चित्त में भी अभी हम खाद को इकट्ठा किए हुए बैठे हैं इसलिए हम परेशान हैं। उस खाद को हमने चित्त की बगिया में सहयोगी नहीं बनाया है, और हमने बीज नहीं बोए हैं जो सुगंध ला सकें। इसलिए हम परेशान हैं–सेक्स से परेशान हैं, क्रोध से परेशान हैं,र् ईष्या से परेशान हैं–हर चीज से परेशान ही परेशान हैं। और इन सबसे लड़ रहे हैं और इस लड़ने में हम पूरे जीवन को दो कौड़ी का कर लेंगे। आखिर में हम पाएंगे हम एक हारे हुए सर्वहारा। जा रहे हैं जमीन से, कुछ भी लेकर नहीं। क्योंकि हम खाद को ही इकट्ठा करने और खाद से ही लड़ने में लगे रहे हैं, हमने बगिया तो बनाई ही नहीं।

बगिया बन सकती है मनुष्य के जीवन की। लेकिन जो तथ्य हैं उन सबको देखना, जानना, पहचानना और उनके रूपांतरण की कीमिया, केमिस्ट्री खोजनी है।

तो सेक्स से घबड़ाए न। क्या आपको पता है आज तक कोई भी नपुंसक, कोई भी इंपोटेंड जगत में कुछ भी पैदा कर सका है? कुछ भी। बच्चे तो नहीं लेकिन और कुछ–कविता, गीत, संगीत–कुछ पैदा कर सका है? कुछ क्रिएट कर सका है? नहीं, उसके पास सेक्स की ऊर्जा नहीं है, सेक्स की एनर्जी नहीं है। वही एनर्जी सब कुछ पैदा करती है–बच्चे भी, गीत भी, कविता भी, चित्र भी, मूर्ति भी, शास्त्र भी–जो कुछ पैदा होता है उसी ऊर्जा से पैदा होता है। जो कुछ भी पैदा होता है सेक्स के अतिरिक्त किसी चीज से पैदा नहीं होता।

एक महान पुस्तक पैदा होती है, एक महान गीत पैदा होता है, एक महान मूर्तिकार एक अदभुत मूर्ति बनाता है पत्थर में फोड़कर, ये सब भी सेक्स का ही उत्पादन हैं। और इसलिए आप एक दूसरी बात देखकर हैरान हो जाएंगे–जो आदमी सुंदर मूर्तियां पैदा कर पाता है, जो आदमी सुंदर गीत लिख पाता है, जो आदमी कुछ पैदा कर पाता है, एक वैज्ञानिक एक आविष्कार, एक नई चीज निर्मित कर पाता है–तो आप हैरान हो जाएंगे, ऐसे आदमी की जिंदगी में सेक्स का प्रॉब्लम होता ही नहीं। क्योंकि उसकी सारी सेक्स की ऊर्जा नए सृजन को खोज लेती है। उसकी जिंदगी में यह बात आती ही नहीं, उसे खयाल में भी नहीं आती।

लेकिन जिस आदमी की जिंदगी में और किसी तरह का कोई सृजन नहीं है, उसके लिए भी परमात्मा ने एक सृजन का काम छोड़ा हुआ है, कम से कम बच्चे पैदा करे। वह सृजन का इतना आनंद तो ले कम से कम। उसने कुछ पैदा किया, उसने कुछ बनाया। वह जमीन को ऐसे ही नहीं छोड़ जा रहा है। कुछ पीछे छोड़ जा रहा है, यह तृप्ति और यह संतुष्टि उसे मिले।

लेकिन सृजन के बहुत तल हैं, बहुत ग्रेड्स हैं। सृजन के बहुत रूप हैं, बहुत ऊंचाइयां है। सृजन की बहुत गहराइयां हैं। लेकिन वे सब गहराइयां, सब ऊंचाइयां सेक्स की ऊर्जा से ही जन्म पाती हैं, वही उनका केंद्र है। उसके प्रति विरोध से नहीं–उसके प्रति समझ, प्रेम, आनंद और सम्मान से आदमी नीचे से ऊपर की तरफ विकसित होता चला जाता है–तब वह बच्चे ही पैदा नहीं करता, कुछ और भी पैदा करता है। तब वह पार्थिव ही पैदा नहीं करता, कुछ अपार्थिव को भी जमीन पर उतार लाता है। तब उसकी चेष्टाएं कुछ अलौकिक, कुछ अपार्थिव जीवन, कुछ अपार्थिव शक्तियों को भी जमीन पर आमंत्रित कर लेती हैं, वह एक सृष्टा बन जाता है।

इसलिए इसे सोचें, इसे खोजें। हजारों साल ने जो कहा है, वही जरूरी रूप से सही न मान लें। वह सही नहीं है। उस पर पुनर्विचार, उस पर री-कंसीडरेशन होना आवश्यक है। कम से कम सेक्स के बाबत तो हमारी सारी दृष्टि नई हो जानी चाहिए। वही हमारा महारोग हमें पीड़ित किए हुए है, उससे हमारा छुटकारा अत्यंत आवश्यक है।

एक और छोटा सा प्रश्न और फिर हम उठेंगे

एक बहन ने पूछा है, नारियां आध्यात्मिक जीवन में उत्सुक होती हैं, तो पुरुष बाधा बनते हैं। नारियां क्या करें?

पहली तो बात यह: आध्यात्मिक जीवन ऐसा जीवन है जिसमें कोई भी बाधा नहीं बन सकता है। कोई बाधा नहीं बन सकता है। सांसारिक जीवन में कोई बाधा बन सकता है।

मुझे एक रास्ते से जाना है और आप रास्ते पर दीवाल खड़ी कर दें, बंदूक लिए खड़े हो जाएं, उधर से मैं नहीं जा सकूंगा। मुझे एक काम करना है, आप मेरे हाथ-पैर बांध दें और जंजीरें कस दें तो मैं नहीं कर सकूंगा। सांसारिक जीवन में दूसरे लोग बाधा बन सकते हैं। क्यों? क्योंकि सांसारिक जीवन में दूसरे लोग सहयोगी भी बन सकते हैं। जहां सहयोग मिल सकता है, वहां बाधा भी मिल सकती है।

आध्यात्मिक जीवन में सहयोग भी कोई नहीं दे सकता, बाधा भी कोई नहीं दे सकता। सहयोग ही नहीं दे सकता तो बाधा कैसे देगा? जहां किसी के कोआपरेशन का ही कोई मूल्य नहीं है, सहयोग का ही कोई मूल्य और अर्थ नहीं है, वहां उसके नान-कोआपरेशन का क्या मतलब है। उसके असहयोग का क्या मतलब है।

नहीं, लेकिन अब तक जिसको हम आध्यात्मिक जीवन समझते रहे हैं उसमें पति बाधा बन सकते हैं, पत्नियां बाधा बन सकती हैं। कोई भी बाधा बन सकता है।

अब आपको मंदिर जाना है, हो सकता है पति कहे मंदिर जाना मुझे पसंद नहीं है। असल में मंदिर जाना आध्यात्मिक जीवन ही नहीं है, संसार की ही एक घटना है। इसमें पति बाधा बन सकता है। अब आपको पूजा करनी है, घर में भजन-कीर्तन करने हैं, पति कह सकता है कि मुझे यह पसंद नहीं है, मेरा दिमाग खराब होता है।

अभी एक मामला मेरे पास आया है। एक महिला ने मुझसे आकर कहा, कुछ दिन हुए कि आप कृपा करके मेरे पति को समझाएं उनके धर्म से हम परेशान हो गए हैं, घर पागल हुआ जा रहा है। क्या हुआ? दो बजे रात से उठ आते हैं और इतने जोर से जपुजी का पाठ करते हैं, इतने जोर से कि बच्चे सो नहीं पाते, हम नहीं सो पाते, मोहल्ले के लोग शिकायत करने लगे हैं कि यह क्या हो रहा है। मैंने उनके पति को बुलाया। वे आए। वे बड़ी खुशी से आए। क्योंकि वे सोचते होंगे कि मैं तो उनके आध्यात्मिक जीवन में साथ दूंगा, सहयोग दूंगा। पत्नी को यह कहूंगा कि तू गलत है, किसी के धार्मिक जीवन में बाधा बननी चाहिए?

वे बोले कि मैं सुबह उठता हूं तो यह उठने नहीं देती है। मैंने कहा, सुबह यानी कितने बजे। उन्होंने कहा, दो बजे। मैंने कहा, दो बजे सुबह होता है? लेकिन वे बोले कि यह तो ऋषि-मुनियों ने बहुत तारीफ की है कि जितने जल्दी उठो उतना अच्छा। और मैं कोई बुरा काम तो करता नहीं, जपुजी का पाठ करता हूं। जिसके भी कान में पड़ जाए उसका भी हित है। मैंने कहा, ऐसा धार्मिक जीवन अगर आपका है तो इसमें आपकी पत्नी और बच्चों को बाधा बनना पड़ेगा। यह तो धार्मिक जीवन न हुआ। यह तो एक पागल का जीवन हुआ, इसका धर्म से क्या वास्ता।

अगर ऐसा कोई जीवन जीना चाहे तो बेचारे पति चिंतित भी हो सकते हैं, पत्नी भी चिंतित हो सकती है कि यह क्या हो रहा है? और पति-पत्नी हजारों साल से चिंतित हैं धार्मिक आदमी से, बहुत घबड़ाए हुए रहते हैं। हालांकि जाते हैं, कोई धार्मिक आदमी आता है उसके पैर भी छूते हैं, नमस्कार भी करते हैं लेकिन डरता है। पति डरता है कहीं पत्नी धार्मिक न हो जाए, पत्नी डरती है कहीं पति धार्मिक न हो जाए।

मेरे पास न मालूम कितने पत्र आते हैं। पत्नियां लिखती हैं कि हमारे पति जरा बहुत ही धर्म में उत्सुक हो गए हैं, इससे घबड़ाहट हो गई है, कोई रास्ता बताइए। क्योंकि धर्म के नाम पर जीवन का जो विरोध चलता रहा है और धर्म के नाम पर जो-जो एब्सर्डिटीस, बेवकूफियां चलती रही हैं, कोई भी समझदार आदमी चिंतातुर हो जाता है कि यह क्या हो रहा है? कुछ भी गड़बड़ हो सकती है। और सब तरह की गड़बड़ को मौका मिल गया है, सब तरह की गड़बड़ की जा सकती है।

एक आदमी सड़क पर नंगा खड़ा हो सकता है कि मैं धार्मिक हो गया। इसकी इस स्टुपिडिटी के लिए, इसकी इस मूढ़ता के लिए घर के मां-बाप, बच्चे, पत्नी चिंतित हो जाएं तो कोई हैरानी की बात तो नहीं। यही आदमी अगर हमें धर्म का खयाल न होता तो हम इसकी चिकित्सा की व्यवस्था करते। फौरन इसको ले जाते अस्पताल, मानसिक चिकित्सक के पास कि इसको कुछ गड़बड़ हो गई है, यह आदमी नंगा खड़ा हो गया है। लेकिन यह हम कह ही नहीं पाते। क्योंकि हम जानते हैं कि इसको…यह तो परम संन्यासी हो गया है, साधु हो गया है।

चिंताएं हैं। लेकिन ये चिंताएं आध्यात्मिक जीवन के कारण नहीं हैं। जिसको हम आध्यात्मिक जीवन समझे हैं, वह आध्यात्मिक जीवन ही नहीं है। उसमें बाधा दी जा सकती है।

लेकिन मैं जिसे आध्यात्मिक जीवन कहता हूं उसमें कोई कैसे बाधा दे सकता है? कैसे कोई बाधा दे सकता है? आप अपने चित्त को शांत करें। कोई पति, कोई पत्नी कैसे बाधा दे सकता है? बल्कि प्रसन्न होगा कोई भी, क्योंकि शांत आदमी के साथ जीना एक आनंद है। अशांत आदमी के साथ जीना तो आनंद नहीं है।

अगर पत्नी अशांत है तो पति के जीवन में एक उपद्रव निरंतर चलता रहेगा, पति अशांत है तो पत्नी के जीवन में उपद्रव चलता रहेगा। लेकिन अगर पत्नी शांत होना चाहती है तो पति क्यों बाधा देगा? कभी किसी पति ने पत्नी के स्वस्थ होने में बाधा दी है, बीमार रखना चाहा है। क्यूं चाहेगा? क्योंकि पत्नी की बीमारी पति को भी तो बीमार करती है, बीमार बना देती है। क्योंकि घर में एक आदमी बीमार है तो कोई आदमी स्वस्थ नहीं रह सकता। सारे घर की हवा रुग्ण हो जाती है। घर में एक आदमी अशांत है तो सारे घर की हवा में अशांति के कीटाणु फेंकता है।

तो अगर कोई शांत होने लगे तो पति बाधा देगा! लेकिन पति को डर है। पुरानी तरह की शांति बड़ी खतरनाक थी, वह दूसरी तरह की अशांति थी। अगर पत्नी शांत होने लगे तो उसको लगेगा कि संबंध टूटे, पुराने ढंग की जो शांति जो हम समझते रहे कि शांति है। अगर वह माला-माला जपने लगे तो पति समझ गया, अब मुश्किल हो गयी। अब यह मेरे साथ सिनेमा देखने नहीं जा सकेगी। अब मेरे और इसके प्रेम के नाते गड़बड़ होंगे, क्योंकि यह माला बीच में खड़ी हो जाएगी। तो पति घबड़ा जाएगा कि यह उपद्रव हो रहा है। यह मैं पत्नी को खो रहा हूं।

लेकिन अगर पत्नी शांत होने लगे, जिसे मैं शांति कहता हूं, तो पति तो हैरान होगा, जिस प्रेम को उसकी पत्नी ने उसे कभी नहीं दिया था वह इस शांति के बाद पैदा होना शुरू होता है। जिस प्रेम को उसने कभी इससे नहीं पाया था, वह उसे उपलब्ध होना शुरू होगा। क्योंकि जो आदमी अशांत है वह हमेशा प्रेम मांगता है, प्रेम कभी देता नहीं। अशांत आदमी का लक्षण है प्रेम मांगता है, देता कभी नहीं। अशांत आदमी दे कैसे दे सकता है। उसके पास है ही नहीं देने को कुछ सिवाय अशांति के। वह मांगता है। अशांति से घबड़ाया है। वह कहता है, मुझे प्रेम दो। और जो आदमी प्रेम मांगता है उसे प्रेम कभी भी नहीं मिलता है, क्योंकि प्रेम मांगने से मिल ही नहीं सकता। वह सिकुड़ जाता है। बहुत डेलीकेट है, बहुत नाजुक है। जब आप मांगने लगते हैं तो वह डर जाता है।

प्रेम हमेशा तभी मिलता है, जब बिना मांगा, अन-मांगा। मांगकर कभी नहीं मिलता, प्रेम की कोई भिक्षा नहीं मिलती। तो जितना कम मिलता है उतनी उसकी डिमांड और मांग बढ़ती है, मुझे प्रेम दो। लेकिन जो व्यक्ति शांत होता है, अगर पत्नी शांत है या पति शांत है तो वह प्रेम देना शुरू कर देगा। मांगेगा नहीं, देगा। और जब प्रेम दिया जाता है तो अपने आप उत्तर में हजार गुना होकर वापस लौटता है। प्रेम जब दिया जाता है तो प्रेम लाता है।

तो अगर एक पत्नी शांत हो रही है, ध्यान में प्रवेश कर रही है तो उसके जीवन में तो गहराई बढ़ेगी ही, रस बढ़ेगा, आनंद बढ़ेगा, प्रेम बढ़ेगा। उसके जीवन की सारी चीजें एक अनूठे रूप से आनंद-मग्नता को उपलब्ध होने लगेंगी। पति इससे दुखी होगा! कोई कारण तो नहीं है इसमें पति के दुखी होने का। पत्नी इससे दुखी होगी! कोई कारण तो नहीं है इसमें पत्नी के दुखी होने का। कोई भी कारण नहीं है।

तो जिसको मैं आध्यात्मिक जीवन कह रहा हूं, अगर वह जगत में आता है तो हर घर एक सुखी घर होगा। अभी जिसको हम आध्यात्मिक जीवन कहते हैं तो उसने हजारों घर बरबाद किए हैं, लाखों घर बरबाद किए हैं। करोड़ों लोगों को इतने कष्ट में डाला है जिसका कोई हिसाब नहीं है। लेकिन हम न मालूम कैसे लोग हैं चुपचाप देख रहे हैं।

दुनिया में क्रिमिनल्स ने, अपराधियों ने इतना नुकसान नहीं किया जितना तथाकथित धार्मिक लोगों ने किया है। कितने घर बरबाद किए हैं, कितने परिवार? कितनी पत्नियों को रोते छोड़ दिया, कितने बच्चों को? कितने मां को, कितने बाप को? अगर उसकी सारी, किसी भी दिन किसी आदमी ने सारे आंकड़े इकट्ठे किए तो हम घबड़ा जाएंगे। अपराधियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। अपराधी बहुत कम है इस मात्रा में।

लेकिन चूंकि हम इस सबको कहते हैं–यह त्याग है, वैराग्य है, अनासक्ति है। हमने अच्छे-अच्छे शब्द इस अपराध को दे दिए हैं। इस क्रिमिनल एक्ट को हमने बहुत अच्छे-अच्छे, ऊंचे-ऊंचे शब्द दे दिए हैं। उन शब्दों के पीछे सब छिप जाता है। रोती हुई पत्नियां छिप जाती हैं, रोते हुए बच्चे छिप जाते हैं, बरबाद घर छिप जाते हैं, सब छिप जाता है। बूढ़े मां-बाप छिप जाते हैं, उनका रोना सब छिप जाता है। क्योंकि हम इस आदमी को सिर पर उठा लेते हैं, जुलूस निकालते हैं, जोर से बाजा बजाते हैं कि संन्यास हो गया, दीक्षा हो गयी। गांवभर में शोरगुल मचा देते हैं। उस शोरगुल में वह घर जो रोता हुआ पीछे छूट गया है, वह अंधेरे कोने में खड़ा रह जाता है। उसको रोने की भी हिम्मत नहीं होती कि रोएं तो कैसे रोएं? इतना गांव तो खुशी मना रहा है। वह भी उस खुशी में उदास मन, आंसू लिए सम्मिलित हो जाता है।

हजारों घर बरबाद हुए हैं धर्म के नाम पर। और ऐसे धर्म के लिए अगर पति चिंतित हो जाए तो बिलकुल ठीक है। पत्नी चिंतित हो जाए, बिलकुल ठीक है। लेकिन उस धर्म की मैं बात नहीं कर रहा हूं। वह धर्म ही नहीं है।

एक ऐसा धर्म चाहिए जो जीवन को, घर को खुशी से भर दे। जो सामान्य जीवन को, सामान्य घरों को, सामान्य दांपत्य को, परिवार को आनंद से भर दे। दुख और उदास से भरने वाला जीवन नहीं। वैसा धर्म नहीं, वैसा अध्यात्म नहीं। वह अध्यात्म है ही नहीं।

मेरी दृष्टि में तो किसी को भी दुख देने में जिसे रस आता है वह आदमी दुष्ट है। चाहे वह किसी रूप से दुख देने की व्यवस्था करता हो।

व्यवस्था कई तरह की हो सकती है। एक समाज-सम्मत व्यवस्था हो सकती है दुख देने की, एक समाज-असम्मत व्यवस्था हो सकती है। एक आदमी अपनी पत्नी को, बच्चों को छोड़कर वेश्याघर में चला जाता है, तो यह समाज-असम्मत व्यवस्था है पत्नी को दुख देने की। इसका हम सब विरोध करेंगे कि यह गलत बात है, यह बुरी बात है। तुम क्यों दुख दे रहे हो पत्नी को।

लेकिन एक आदमी संन्यासी हो जाता है, यह समाज-सम्मत व्यवस्था है दुख देने की। इसमें हम उसका आदर करेंगे कि तुम बहुत ही अच्छा कर रहे हो और यह सब असार संसार है तुम छोड़ रहे हो। यह आदमी वही है, यह जरा होशियार है। इसने टार्चर का वह रास्ता खोजा जिसमें आप इनकार नहीं कर सकते। और इसके चित्त में सताने की कोई भावना काम कर रही है। अन्यथा, यहां अगर यह परमात्मा को नहीं खोज सकता है तो और कहां खोजेगा? और फिर हम देखते हैं कि पत्नी छोड़कर जाता है, बच्चे छोड़कर जाता है; कल शिष्य और शिष्याएं इकट्ठी कर लेता है, कोई परिवार से बाहर होता नहीं। फिर नया परिवार बना लेता है। फिर वही-वही गोरखधंधा खड़ा कर लेता है तो यह इसको समझ भी नहीं पाता, उसको आश्रम कहता है, इसको घर कहता था। वही सब गोरखधंधा है, वही सब। सब वही उपद्रव चलता है। यहां एक माताजी थीं, वहां आश्रम में एक माताजी बना लेता है। ये माताजी हैं इनके पैर पड़ो। तो घर में ही माताजी के पैर पड़े जा सकते थे। लेकिन घर की माताजी असार हो गईं, ये माताजी बहुत कीमत की हैं। ये आश्रम वाली माताजी हैं।

वहां भी वही घेरा था, वहां बच्चों की चिंता करनी पड़ती थी, यहां शिष्यों की चिंता करता है। वहां भी झगड़े थे, बच्चों के हल करने पड़ते थे; यहां हल करता है शिष्यों के। बदल क्या जाता है? बदल कुछ भी नहीं जाता।

लेकिन यह अध्यात्म, यह पुराना अध्यात्म बिलकुल थोथा है। इस थोथे अध्यात्म ने जीवन को बहुत दुख पहुंचाए। प्रार्थना करनी चाहिए परमात्मा से कि किसी दिन इस थोथे अध्यात्म से छुटकारा हो जाए, ताकि सही अध्यात्म का जन्म हो सके। और उसके लिए किसी का कोई विरोध नहीं हो सकता। हर एक उसका स्वागत करेगा, क्योंकि वह तो आनंद को लाने वाला गीत है। वह तो आनंद को लाने वाला संगीत है। वह तो आनंद को लाने वाला नृत्य है। वह तो जीवन को खुशी और मुस्कुराहटों से भर देगा, आंसुओं से नहीं।

और प्रश्न रह गए हैं वह मैं रात बात करूंगा। दोपहर की यह बैठक समाप्त हुई।

आज इतना ही।

साधना-शिविर माथेरान,

दिनांक २१-१०-६७, दोपहर

असंभव क्रांति-(प्रवचन-08)

प्रवचन-आठवां-(सृजन का सूत्र)

असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 21-10-67 सुबह  

(अति-प्राचीन प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्,

मनुष्य एक तिमंजिला मकान है। उसकी एक मंजिल तो भूमि के ऊपर है, बाकी दो मंजिल जमीन के नीचे। उसकी पहली मंजिल में, जो भूमि के ऊपर है, थोड़ा प्रकाश है। उसकी दूसरी मंजिल में, जो जमीन के नीचे दबी है और भी कम प्रकाश है। और उसकी तीसरी मंजिल में जो बिलकुल भूगर्भ में छिपी है, पूर्ण अंधकार है, वहां कोई प्रकाश नहीं है। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-08)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-07)

प्रवचन-सातवां-(सत्य का संगीत)

असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 20-10-67 रात्री  

 (अति-प्राचीन प्रवचन)

एक मित्र ने पूछा है कि मैं शास्त्रों को जला डालने के लिए कहता हूं। और मेरी बातों से कहीं थोड़े कम समझ लोग भ्रांत होकर भटक न जाएं?

लोग भटकेंगे या नहीं, लेकिन जिन्होंने प्रश्न पूछा है, वे मेरी बात सुनकर जरूर भटक गए हैं। मैंने कब कहा कि शास्त्रों को जला डालें। मैंने सिर्फ अपनी किताबों को–अगर वे किसी दिन शास्त्र बन जाएं तो जला डालने को कहा है। मेरी किताबें हैं, उनको जला डालने के लिए मैं कह सकता हूं। लेकिन दूसरों की किताबें जला डालने को मैं क्यों कहूंगा। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-07)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छटवां-(मौन का स्वर)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 20-10-67 रात्रि   

(अति-प्राचीीन प्रवचन)

एक मित्र ने आज सुबह सलाह दी है कि मैं सभी प्रश्नों के उत्तर न दूं। उन्होंने कहा है कि बहुत से प्रश्न तो फिजूल होते हैं, उनको आप छोड़ दें।

मुझे उनकी बात सुनकर एक घटना स्मरण हो आई।

एक धर्मगुरु पहली बार ही चर्च में भाषण देने गया था। उसे डर था कि लोग कहीं कोई प्रश्न न पूछें। तो अपने एक मित्र को उसने दो प्रश्न सिखा रखे थे। इसके पहले कि लोग पूछें, तुम मुझसे यह प्रश्न पूछ लेना, उत्तर मेरे तैयार हैं। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-06)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-05)

प्रवचन-पांचवां-(क्रांति का क्षण)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 20-10-67 सुबह

(अति-प्राचिन प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्,

एक बहुत पुरानी कथा है। किसी पहाड़ की दुर्गम चोटियों में बसा हुआ एक छोटा सा गांव था। उस गांव का कोई संबंध, वृहत्तर मनुष्य जाति से नहीं था। उस गांव के लोगों को प्रकाश कैसे पैदा होता है, इसकी कोई खबर न थी।

लेकिन अंधकार दुखपूर्ण है, अंधकार भयपूर्ण है, अंधकार अप्रीतिकर है, इसका उस गांव के लोगों को भी बोध होता था। उस गांव के लोगों ने अंधकार को दूर करने की बहुत चेष्टा की। इतनी चेष्टा की कि वे अंधकार को दूर करने के प्रयास में करीब-करीब समाप्त ही हो गए। वे रात को टोकरियों में भरकर अंधकार को घाटियों में फेंक आते। लेकिन पाते कि टोकरियां भरकर फेंक भी आए हैं, फिर भी अंधकार अपनी ही जगह बना रहता है। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-05)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा-(ध्यान की आँख)

साधना-शिविर माथेरान,   दिनांक 19-10-67 रात्रि

(अति-प्राचिन प्रवचन)

एक मित्र ने पूछा है, कि क्या मैं संन्यास के पक्ष में नहीं हूं?

मैं संन्यास के तो पक्ष में हूं, लेकिन संन्यासियों के पक्ष में नहीं हूं। संन्यास बड़ी और बात है और संन्यासी हो जाना बड़ी और। संन्यासी होकर शायद हम संन्यास का धोखा देना चाहते हैं और कुछ भी नहीं। संन्यास तो अंतःकरण की बात है, अंतस की। और संन्यासी हो जाना बिलकुल बाह्य अभिनय है। और बाह्य अभिनेताओं के कारण इस देश में संन्यास को, धर्म को जितनी हानि उठानी पड़ी है, उसका हिसाब लगाना भी कठिन है। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-04)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा-(जीवन का आविर्भाव)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 19-10-67 रात्रि

(अति-प्राचीीन प्रवचन)

सुबह हमने चित्त की स्वतंत्रता के संबंध में थोड़ी सी बातें कीं।

एक मित्र ने पूछा है कि चित्त स्वतंत्र होगा, तो स्वच्छंद तो नहीं हो जाएगा?

हमें स्वतंत्रता का कोई भी पता नहीं है। हम केवल चित्त की दो ही स्थितियां जानते हैं। एक तो परतंत्रता की, और एक स्वच्छंदता की। या तो हम गुलाम होना जानते हैं, और या फिर उच्छृंखल होना जानते हैं। स्वतंत्रता का हमें कोई अनुभव नहीं है। स्वतंत्रता, स्वच्छंदता से उतनी ही भिन्न बात है, जितनी परतंत्रता से। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-03)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-02)

प्रवचन-दूसरा-(आत्मा के फूल)    असंभव क्रांति-(ओशो)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 19-10-1967 रात्रि

(अति-प्राचिन प्रवचन)

ज्ञान की कोई भिक्षा संभव नहीं हो सकती। ज्ञान भीख नहीं है। धन तो कोई भीख में मांग भी ले, क्योंकि धन बाहर है। लेकिन ज्ञान? ज्ञान स्थूल नहीं है, बाहर नहीं है, उसके कोई सिक्के नहीं हैं, उसे किसी से मांगा नहीं जा सकता। उसे तो जानना ही होता है। लेकिन आलस्य हमारा, प्रमाद हमारा, श्रम न करने की हमारी इच्छा, हमें इस बासे उधार ज्ञान को, जो कि ज्ञान नहीं है, इकट्ठा कर लेने के लिए तैयार कर देती है। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-02)”

असंभव क्रांति-(प्रवचन-01)

प्रवचन-पहला-(सत्य का द्वार)

साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 18-10-1967 रात्रि

(अति-प्राचिन प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्,

एक सम्राट एक दिन सुबह अपने बगीचे में निकला। निकलते ही उसके पैर में कांटा गड़ गया। बहुत पीड़ा उसे हुई। और उसने सारे साम्राज्य में जितने भी विचारशील लोग थे, उन्हें राजधानी आमंत्रित किया। और उन लोगों से कहा, ऐसी कोई आयोजना करो कि मेरे पैर में कांटा न गड़ पाए।

वे विचारशील लोग हजारों की संख्या में महीनों तक विचार करते रहे और अंततः उन्होंने यह निर्णय किया कि सारी पृथ्वी को चमड़े से ढांक दिया जाए, ताकि सम्राट के पैर में कांटा न गड़े। यह खबर पूरे राज्य में फैल गई। Continue reading “असंभव क्रांति-(प्रवचन-01)”

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