स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन

नया भारत

 

मेरे प्रिय आत्मन्!

अतीत के इतिहास में क्रांतियां होती थीं और समाप्त हो जाती थीं। लेकिन आज हम सतत क्रांति में जी रहे हैं। अब क्रांति कभी समाप्त नहीं होगी। पहले क्रांति एक घटना थी, अब क्रांति जीवन है। पहले क्रांति शुरू होती थी और समाप्त होती थी। अब क्रांति शुरू हो गई है और समाप्त नहीं होगी। अब आने वाले भविष्य में मनुष्य को सतत क्रांति और परिवर्तन में ही रहना होगा। यह एक इतना बड़ा नया तथ्य है, जिसे स्वीकार करने में समय लगना स्वाभाविक है।

यदि हम सौ वर्ष पहले की दुनिया को देखें, तो कोई दस हजार वर्षों के लंबे इतिहास में आदमी एक जैसा था, जैसा था वैसा ही था। समाज के नियम वही थे, जीवन के मूल्य वही थे, नीति और धर्म का आधार वही था। दस हजार वर्षों में मनुष्य की जिंदगी के आधारों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इस सदी में आकर सारे आधार हिल गए हैं और सारी भूमि हिल गई है। जैसे एक ज्वालामुखी फूट पड़ा हो मनुष्य के नीचे और सब परिवर्तित होने के लिए तैयार हो गया हो। अब ऐसा नहीं है कि यह परिवर्तन हम समाप्त कर देंगे। यह परिवर्तन जारी रहेगा और रोज ज्यादा होता चला जाएगा। Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-11)”

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन

भारत के निर्णायक क्षण

 

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

 

एक तो आजादी के पहले भारत में कोई राजनीतिक दल नहीं था। आजादी की लड़ाई थी और सभी उसमें सम्मिलित हुए थे–सभी विचारों के लोग। आजादी के बाद उस संस्था का विघटन जरूरी था, जो आजादी के पहले लड़ाई लड़ रही थी, क्योंकि वह ‘एक विचार’ की संस्था न थी। आजादी के पूरे होते ही उसका काम भी पूरा हो गया था। लेकिन उस संस्था के लोगों को यह अप्रीतिकर लगा बिखर जाना, क्योंकि आजादी की जो लड़ाई लड़ी थी उसका फल भी भोगने का मजा आजादी के बाद आया। तो जबरदस्ती कांग्रेस को बचाने की और सत्ता पर हावी करने की चेष्टा की गयी। ठीक तो यह था कि कांग्रेस को बिखर जाना चाहिए था। उसके होने का अब कोई अर्थ न था, आजादी के बाद। उसका लक्ष्य पूरा हो गया था। उसका काम भी पूरा हो चुका था। Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-10)”

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

नये भारत की दिशा

 

प्रश्नः यदि अच्छे लोगों के हाथों में राजनीति आ जाए तो क्या परिवर्तन हो सकता है?

 

वे मित्र पूछ रहे हैं कि मैंने अच्छे-बुरे आदमी की बात की। वे पूछते हैं कि अगर अच्छे आदमी के हाथ में राजनीति आ जाए, तो क्या परिवर्तन हो सकते हैं?

अभूतपूर्व परिवर्तन हो सकते हैं। क्यों? कुछ थोड़ी सी बातें हम खयाल में ले लें। बुरा आदमी बुरा सिर्फ इसलिए है कि अपने स्वार्थ के अतिरिक्त वह कुछ भी नहीं सोचता। अच्छा आदमी इसलिए अच्छा है कि अपने स्वार्थ से दूसरे के स्वार्थ को प्राथमिकता देता है, प्रिफ्रेंस देता है। अच्छा आदमी इसलिए अच्छा है, कि वह अपने लिए ही नहीं जीता है, सब के लिए जीता है। तो बड़ा फर्क पड़ेगा। अभी ‘राजनीति’ व्यक्तियों के निहित ‘स्वार्थ’ बन गई है, तब राजनीति समाज का स्वार्थ बन सकती है–एक बात। Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-09)”

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन

भारत किस ओर

मेरे प्रिय आत्मन्!

भारत किस ओर, यह सवाल भारत की जिंदगी में पहली बार उठा है। पांच हजार साल के इतिहास में यह सवाल कभी उठा नहीं था। क्योंकि भारत किसी ओर जाने की हालत में नहीं है। जहां है, वहीं ठहरने की हालत में खड़ा है। पिछला पूरा हमारा अतीत का इतिहास, ठहराव का है–खड़े होने का इतिहास, ठहर जाने का इतिहास, उसमें कोई गति नहीं है–मूवमेंट नहीं है। हम कभी भी किसी तरफ भी नहीं गए हैं। एविंग्टन ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि मनुष्य की भाषा में बहुत से शब्द झूठे हैं। उन झूठे शब्दों में एक शब्द उसने गिनाया है, अवेट ठहराव। मर गया एडिंग्टन। ओर मेरा मन होता है, किसी ने उसको कहा कि हो आओ भारत, और देखो! व्यर्थ ही एक असली शब्द देखोगे, भारत रूका है। एडिंग्टन ने इतिहास में कहा है, कि ठहरते हुए परिवर्तन के नियम हैं, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। लेकिन भारत ने इस नियम के विरुद्ध पंाच हजार वर्षों तक लड़ाई की है, और ठहरने की कोशिश की है। हम ठहर गए हैं। जैसे कोई पानी रुक जाए किसी नदी का। गति बंद हो जाए, सागर की यात्रा बंद हो जाए, तो सिर्फ सड़ता है…! Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-08)”

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

आज की राजनीति

 

मेरे प्रिय आत्मन्!

आज की राजनीति पर कुछ भी कहने के पहले दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो यह कि जो आज दिखाई पड़ता है, वह आज का ही नहीं होता, हजारों-हजारों वर्ष के बीते हुए कल, आज में सम्मिलित होते हैं। जो आज का है उसमें कल भी जुड़ा है, बीते सब कल जुड़े हैं। और आज की स्थिति को समझना हो तो कल की इस पूरी शंृखला को समझे बिना नहीं समझा जा सकता। मनुष्य की प्रत्येक आज की घड़ी पूरे अतीत से जुड़ी है–एक बात! और दूसरी बात–राजनीति कोई जीवन का ऐसा अलग हिंस्सा नहीं है, जो धर्म से भिन्न हो, साहित्य से भिन्न हो, कला से भिन्न हो। हमने जीवन को खंडों में तोड़ा है सिर्फ सुविधा के लिए। जीवन इकट्ठा है। तो राजनीति अकेली राजनीति ही नहीं है, उसमें जीवन के सब पहलू और सब धाराएं जुड़ी हैं। और जो आज का है, वह भी सिर्फ आज का नहीं है, सारे कल उसमें समाविष्ट हैं। यह प्राथमिक रूप से खयाल में हो तो मेरी बातें समझने में सुविधा पड़ेगी। Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-07)”

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

समाज परिवर्तन के चैराहे पर-2

 

मेरे प्रिय आत्मन्!

पिछली चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। संक्षिप्त में सभी प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश करूंगा।

एक मित्र ने पूछा है कि समाज के परिवर्तन में, और परिवर्तन के लिए युवक-वर्ग क्या कर सकता है?

 

पहली बात, जो युवक वर्ग को करनी है, और कर सकता है, वह है युवक होने की। इस देश में युवक मुश्किल से कोई कभी होता है। बच्चे होते हैं, बूढ़े होते हैं, युवक कोई भी नहीं होता है। और हमने ऐसी व्यवस्था की है कि बचपन से सीधा बुढ़ापा आ जाता है, युवा अवस्था नहीं आ पाती है। उसे हम टाल जाते हैं।

युवक होने का मतलब क्या है?

युवक होने का मतलब उम्र से नहीं है, और इसलिए कोई आदमी बूढ़ा होकर भी युवक हो सकता है। और कोई युवक होकर भी बूढ़ा हो सकता है। Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-06)”

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

समाज परिवर्तन के चैराहे पर-1

 

मेरे प्रिय आत्मन्!

समाज परिवर्तन के चैराहे पर, इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। आज सबसे पहले यह आपसे कहना चाहूंगा कि समाज बाद में बदलता है, पहले मनुष्य का मन बदल जाता है। और हमारा दुर्भाग्य है कि समाज तो परिवर्तन के करीब पहुंच रहा है, लेकिन हमारा मन बदलने को बिलकुल भी राजी नहीं है। समाज के बदलने का सूत्र ही यही है कि पहले मन बदल जाए, क्योंकि समाज को बदलेगा कौन?

चेतना बदलती है पहले, व्यवस्था बदलती है बाद में। लेकिन हमारी चेतना बदलने को बिलकुल भी तैयार नहीं है। और बड़ा आश्चर्य तो तब होता है कि वे लोग जो समाज को बदलने के लिए उत्सुक हैं, वे भी चेतना को बदलने के लिए उत्सुक नहीं हैं। शायद उन्हें पता ही नहीं है कि चेतना के बिना बदले समाज कैसे बदलेगा! और अगर चेतना के बिना बदले समाज बदल भी गया, तो वह बदलाहट वैसी ही होगी, जैसा आदमी न बदले और सिर्फ वस्त्र बदल जाएं, कपड़े बदल जाएं। वह बदलाहट बहुत ऊपरी होगी और हमारे भीतर प्राणों की धारा पुरानी ही बनी रहेगी। Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-05)”

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-04)

प्रचवन चौथा

धर्म और राजनीति

 

मेरे प्रिय आत्मन्!

धर्म जीवन को जीने की कला है, जीवन को जीने का विज्ञान है। हम जीवन को उसके पूरे अर्थों में कैसे जीएं, धर्म उसकी खोज-बीन है। धर्म यदि जीवन-कला की आत्मा है, तो राजनीति जीवन-कला का शरीर है। धर्म अगर प्रकाश है जीवन का, तो राजनीति पृथ्वी है। न आत्मा अकेली हो सकती है, न शरीर अकेला हो सकता है। शरीर न हो तो आत्मा अदृश्य हो जाती है और खो जाती है और आत्मा न हो तो शरीर सड़ जाता है, दुर्गंध देने लगता है। धर्म के बिना राजनीति सड़ा हुआ शरीर हो जाती है। लेकिन स्मरण रहे, राजनीति से विहीन धर्म भी अदृश्य हो जाता है और विलीन हो जाता है। इसलिए धर्म और राजनीति पर कुछ कहने के पहले उन दोनों के बीच के एक आंतरिक संबंध को समझ लेना जरूरी है।

जीवन में जो सक्रिय सत्ता है, जीवन को बदलने का जो सक्रिय आंदोलन है, जीवन को चलाने और निर्मित करने की जो व्यवस्था है, उस सबका नाम राजनीति है। राजनीति के भीतरी अर्थ भी हैं, शिक्षा भी है। राजनीति के भीतर हमारे पारिवारिक संबंध भी हैं। राजनीति के भीतर हमारे जीवन के सारे अंतर्संबंध हैं। Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-04)”

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

प्रगतिशील कौन?

 

मेरे प्रिय आत्मन्!

सुना है मैंने, एक बहुत विचारशील महिला गुरड्रिस स्टेन अपनी मरणशय्या पर पड़ी थी। आखिरी घड़ी उसने आंख खोली है और पास में बैठे अपने एक मित्र से पूछाः ‘आह! अलास, वाॅट इ.ज द आनसर?’ पूछा अपने पास बैठे मित्र से कि अलास, उत्तर क्या है? पास बैठा मित्र बहुत हैरान हो गया होगा। क्योंकि सवाल न पूछा गया हो तो उत्तर कोई भी नहीं हो सकता है। लेकिन मरते हुए व्यक्ति से यह भी कहना उचित नहीं था कि सवाल क्या है। कोई उत्तर न पाकर उस मरती हुई महिला ने वापस दुबारा पूछाः इन दैट केस, वाॅट इ.ज दि क्वेश्चन? अगर सवाल का पता नहीं है, तो उस हालत में जवाब का पता नहीं हो तो उस हालत में सवाल क्या है? लेकिन सवाल का भी कोई पता नहीं है इसलिए अच्छा हो कि इसके पहले मैं जवाब दूं, सवाल ठीक से आपकी समझ में आ जाए। हू इ.ज प्रोग्रेसिव? कौन है प्रगतिशील? Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-03)”

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

क्रांति के बीच सबसे बड़ी दीवाल

 

मेरे प्रिय आत्मन्!

भीतर देखता हूं तो एक अपूर्व आनंद है और बाहर देखता हूं तो दुख का एक सागर खड़ा है। अगर भीतर ही जीना चाहूं तो मुझे कोई भी दुख नहीं है, कोई पीड़ा नहीं है। और इस देश के भीतर जीने वाले लोग सदा ही बाहर से आंख बंद करके जीने वाले रहे हैं। निश्चित ही भीतर न कोई दुख है, न कोई पीड़ा है, न कोई अशांति है। एक ऐसी दुनिया भी है भीतर, जहां सरक जाने पर, बाहर के जगत की कोई भी तरंग नहीं पहुंचती। एक ऐसा लोक भी है भीतर जहां उठ जाने पर पृथ्वी का कोई पता नहीं रह जाता है। स्वयं के भीतर भी एक ऐसा बिंदु है, जहां समाज मिट जाता है, राष्ट्र मिट जाते हैंै, मनुष्यता मिट जाती हैं–सब जो बाहर हैं मिट जाता है। बहुत आनंदपूर्ण है वह जगत। सौभाग्यशाली हैं वे लोग जो वहां प्रविष्ट हो जाते हैं। उस लोक में प्रत्येक को प्रविष्ट होने की चेेष्टा करनी चाहिए यही निरंतर मैं कहता हूं। लेकिन वे लोग भी अभागे हैं जो वही रह जाते हैं और बाहर के दुख को बिलकुल भूल जाते हैं। Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-02)”

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-01)

स्वर्ण पाखी था जो कभी-(राष्ट्रीय-सामाजिक)-ओशो

पहला प्रवचन

क्रांति की वैज्ञानिक प्रक्रिया

प्रश्नः समाज में बहुत दिनों से जो असंतोष की भावना व्याप्त है और आज जो वातावरण उत्पन्न हो गया है उसको देखते हुए यह निश्चित धारणा बन रही है कि भारत में अब पूर्ण क्रांति की संभावना पैदा हो गई है। इस संबंध में आपका क्या कहना है?

कठिन सवाल है। भारत का यह जो पांच हजार साल का ढांचा है, वह क्रांति के बिलकुल विपरीत है। शायद दुनिया में कोई समाज इतना क्रांति विरोधी समाज नहीं है, जितना हमारा समाज है और इसलिए हमने कभी कोई क्रांति नहीं की। यह पांच हजार वर्ष के मनुष्य को अगर हम देखें, उसके माइंड, मन को देखे तो हमेशा मालूम पड़ता है कि पूर्ण क्रांति, फुलफ्लेज्ड रिवोल्यूशन हो जाएगी। लेकिन दूसरी तरफ से देखें कि पांच हजार वर्ष तक क्रांति नहीं हुई है, तो या तो ढांचा क्रांति विरोधी है या ढांचे के भीतर भारत की जो आत्माएं हैं, वे क्रांति के पक्ष में होती नहीं दिखाई पड़ती हैं। पांच हजार वर्ष की जो जकड़न है, उससे एक प्रतिक्रिया भी भीतर घनी होती चली गई है। उस प्रतिक्रिया का अगर उपयोग हो सके, तो शायद भारत अकेला मुल्क है जहां क्रांति, रिवोल्यूशन हो सके। और किसी मुल्क में क्रांति हुई भी नहीं। Continue reading “स्वर्ण पाखी था जो कभी-(प्रवचन-01)”

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