तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-80)-ओशो

पूर्णता एवं शून्यता का एक ही अर्थ है-

प्रवचन-अस्सीवां 

प्रश्नसार:

1-यदि भीतर शून्य है तो इसे आत्मा क्यों कहते है?

2-बुद्ध पुरूष निर्णय कैसे लेता है?

3-संत लोग शांत जगहों पर क्यों रहते है?

4-आप कैसे जानते है कि चेतना शाश्वत है?

5-मेरे बुद्धत्व से संसार में क्या फर्क पड़ेगा?     Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-80)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-78)-ओशो

अंत: प्रज्ञा से जीना-

प्रवचन-अट्ठहत्रवां 

प्रश्नसार:

1-कुछ विधिया बहुत विकसित लोगों के लिए लगती है।

2-अंतविंवेक को कैसे पहचानें?

3-क्या अंत:प्रज्ञा से जीने वाला व्यक्ति बौद्धिक रूप से कमजोर होगा?

 पहला प्रश्न :

इन एक सौ बारह विधियों में से कुछ विधियां ऐसे लगती हैं जैसे विधियां परिणाम हो, जैसे कि जागतिक चेतना बन जाओ’ या ‘यही एक हो रहो’ आदि। ऐसा लगता है जैसे इन विधियों को उपलब्ध होने के लिए भी हमें विधियों की जरूरत है। क्या ये विधियां बहुत विकसित लोगों के लिए थीं जो कि इंगित मात्र से ही ब्रह्मांडींय बन सकते थे? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-78)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-77)-ओशो

चेतना का विस्तार-तंत्र-सूत्र-5

प्रवचन-छियत्रवां 

सारसूत्र:

106-हर मनुष्य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्मचिंता को त्यागकर प्रत्येक प्राणी हो जाओ।

107-यह चेतना ही प्रत्येक प्राणी के यप में है, अन्य कुछ भी नहीं है।

108-यह चेतना ही प्रत्येक प्राणी की मार्गदर्शक सत्ता है, यही हो रहो।

अस्तित्व स्वयं में अखंड है। मनुष्य की समस्या मनुष्य की स्व-चेतना के कारण पैदा होती है। चेतना सबको यह भाव देती है कि वे पृथक हैं। और यह भाव, कि तुम अस्तित्व से भिन्न हो, सब समस्याओं का निर्माण करता है। मूलत: यह भाव झूठा है, और जो कुछ भी झूठ पर आधारित होगा वह संताप पैदा करेगा, समस्याएं, उलझनें निर्मित करेगा। और तुम चाहे जो भी करो, यदि वह इस झूठी पृथकता पर आधारित है तो गलत ही होगा। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-77)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-76)-ओशो

काम-उर्जा ही जीवन-ऊर्जा है

प्रवचन-छियत्रवां 

प्रश्नसार:

1-तंत्र की विधियां काम से ज्यादा संबंधित नहीं लगती है।

2-ज्ञान ओर अज्ञान आपस में किस प्रकार संबंधित है?  

3-कृष्ण मूर्ति विधियों के विरोध में क्यों है ?

4-व्यवस्था के हानि-लाभ क्या है?

पहला प्रश्न :

हमने सदा यहीसुना है कि तंत्र मूल रूप से काम-ऊर्जा तथा काम-केंद्र की विधियों से संबंधित है, लेकिन आप कहते हैं कि तंत्र में सब समाहित । यदि पहले दृष्टिकोण में कोई सच्चाई है तो विज्ञान भैरव तंत्र में अधिकांश विधियां अतांत्रिक मालूम होती हैं।
क्या यह सच है ? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-76)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-75)-ओशो

विपरीत ध्रुवों में लय की खोज

प्रवचन-पिच्हत्रवां 

सारसूत्र:

102-अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्मा की कल्पना करो, जब तक कि संपूर्ण अस्तित्व आत्मवान न हो जाए।

103-अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही, जानों।

104-हे शक्ति, प्रत्येक आभार सीमित है, सर्वशक्तिमान में विलीन हो रहा है।

104-सत्य में रूप अविभक्त हैं। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानों।

महाकवि वाल्ट व्हिटमैन ने कहा है, ‘मैं अपना ही विरोध करता हूं क्योंकि मैं विशाल हूं। मैं अपना ही विरोध करता हूं क्योंकि में सब विरोधों को समाहित करता हूं, क्योंकि मैं सब कुछ हूं।’  शिव के संबंध में, तंत्र के संबंध में भी यही कहा जा सकता है। तंत्र है विरोधों के बीच, विरोधाभासों के बीच लय की खोज। विरोधाभासी, विरोधी दृष्टिकोण तंत्र में एक हो जाते हैं। इसे गहराई से समझना पड़ेगा, तभी तुम समझ पाओगे कि इसमें इतनी विरोधाभासी, इतनी भिन्न विधियां क्यों हैं। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-75)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-74)-ओशो

संवेदनशीलता ओर आसक्ति-

प्रवचन-चौहत्ररवां 

प्रश्नसार:

1-संवेदनशील होते हुए भी विरक्त कैसे हुआ जाए?

2-आप अपने ही शरीर को ठीक क्या नहीं कर सकते?

3-स्वयं श्रम करें या आप पर सब छोड़ दें?

4-क्या सच में जीसस को पता नहीं था कि पृथ्वी गोल है?    Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-74)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-73)-ओशो

रूपांतरण का भय-

प्रवचन-तिहत्ररवां 

सारसूत्र:

100-वस्तुओं ओर विषयों का गुणधर्म ज्ञानी व अज्ञानी के लिए समान ही होता है।

ज्ञानी की महानता यह है कि वि आत्मगत भाव में बना रहता है, वस्तुओं में नहीं।

101-सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी मानो।

बहुत लोग ध्यान में उत्सुक दिखाई पड़ते हैं लेकिन वह उत्सुकता बहुत गहरी नहीं हो सकती, क्योंकि इतने थोड़े से लोग ही उससे रूपांतरित हो पाते हैं। यदि रस बहुत गहरा हो तो वह अपने आप में ही एक आग बन जाता है। वह तुम्हें रूपांतरित कर देता है। बस उस गहन रस के कारण ही तुम बदलने लगते हो। प्राणों का एक नया केंद्र जगता है। तो इतने लोग उत्सुक दिखाई पड़ते हैं लेकिन कुछ भी नया उनमें जगता नहीं, कोई नया केंद्र जन्म नहीं लेता, किसी क्रिस्टलाइजेशन की उपलब्धि नहीं होती। वे वैसे के वैसे ही बने रहते हैं। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-73)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-72)-ओशो

असुरक्षा में जीना बुद्धत्व का मार्ग है-

प्रश्नसार-

1-कृपया बुद्ध के प्रेम को समझाएं।

2-क्या प्रेम गहरा होकर विवाह नहीं बन सकता?

3-क्या व्यक्ति असुरक्षा में जीते हुए निशिंचत रह सकता है?

4-अतिक्रमण की क्या अवश्यकता है?

पहला प्रश्न :

 आपने कहा कि प्रेम केवल मृत्यु के साथ ही संभव है। फिर क्या आप कृपया बुद्ध पुरुष के प्रेम के विषय में समझाएंगे?

व्यक्ति के लिए तो प्रेम सदा घृणा का ही अंग होता है सदा घृणा के साथ ही आता है। अज्ञानी मन के लिए तो प्रेम और घृणा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अज्ञानी मन के लिए प्रेम कभी शुद्ध नहीं होता। और यही प्रेम का विषाद है क्योंकि वह घृणा जो है, विष बन जाती है। तुम किसी से प्रेम करते हो और उसी से घृणा भी करते हो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-72)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-71)-ओशो

परिधि का विस्मरण-

प्रवचन-इक्हत्रवां

सूत्र:  

98-किसी सरल मुद्रा में दोनों कांखों के मध्य-क्षेत्र (वक्षस्थल)

में धीरे-धीरे शांति व्याप्त होने दो।

99-स्वयं को सभी दिशाओं में परिव्याप्त होता हुआ

महसुस करो-सुदूर-समीप।

जीवन बाहर से एक झंझावात है-एक अनवरत द्वंद्व, एक उपद्रव, एक संघर्ष। लेकिन ऐसा केवल सतह पर है। जैसे सागर के ऊपर उन्मत्त और सतत संघर्षरत लहरें होती हैं। लेकिन यही सारा जीवन नहीं है। गहरे में एक केंद्र भी है-मौन, शांत, न कोई द्वंद्व, न कोई संघर्ष। केंद्र में जीवन एक मौन और शांत प्रवाह है जैसे कोई सरिता बिना संघर्ष, बिना कलह, बिना शोरगुल के बस बह रही हो। उस अंतस केंद्र की ही खोज है। तुम सतह के साथ, बाह्य के साथ तादाल्म बना सकते हो। फिर संताप और विषाद घिर आते हैं। यही है जो सबके साथ हुआ है; हमने सतह के साथ और उस पर चलने वाले कलह के साथ तादात्म्य बना लिया है। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-71)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-70)-ओशो

तपश्चर्या: अकेलेपन से गुजरने का साहस

प्रवचन-70-ओशो

 प्रश्नसार:

1—अकेलापन बहुत काटता है। क्या करे?

2—एकांत ओर पूर्णता में सामंजस्य कैसे बिठाएं

3—संबंधों को बढाएं या घटाएं?

4—यौन का आकर्षण क्या गर्भ में वापस लौटने का आकर्षण है?

5—आपका ‘हम’ से क्या तात्पर्य है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-70)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-69)-ओशो

एकांत दर्पण बन जाता है

प्रवचन-69-(ओशो)

सारसूत्र:

1-किसी ऐसे स्थान पर वास करो जो अंतहीन रूप से विस्तीर्ण हो, वृक्षों, पहाडियों, प्राणियों से रहित हो। तब मन के भारों का अंत हो जाता है।

2-अंतरिक्ष को अपने ही आनंद-शरिर मानों।

अकेला पैदा होता है और अकेला ही मरता है लेकिन इन दोनों बिंदुओं के बीच वह समाज में, दूसरों के साथ रहता है। एकांत उसका मूल सत्य है; समाज केवल एक संयोग है। और जब तक मनुष्य अकेला न जी सके, जब तक अपने एकांत को उसकी पूरी गहराई से न जान ले, तब तक वह स्वयं से परिचित नहीं हो सकता। समाज में जो कुछ भी होता है वह बाहरी है, वह तुम नहीं हो, वह दूसरों के साथ तुम्हारे संबंध हैं। तुम तो अज्ञात ही रह जाते हो, बाहर से तुम प्रकट नहीं हो सकते। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-69)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-68)-ओशो

लक्ष्य की धारणा ही बंधन है-

प्रवचन-68-(ओशो)

 प्रश्नसार:

1-क्या कल्पना भी कामना नहीं है?

2-कल आपने कहा कि मन सत्य है, लेकिन फिर सभी गुरु मन को बाधा क्यों कहते है?

3—केंद्र के रूपांतरण पर इतना जोर क्यों है?

4-स्त्री ओर पुरूष के लिए अलग-अलग विधियां क्यों है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-68)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-67)-ओशो

मन और पदार्थ के पार

प्रवचन-67-(ओशो) 

सूत्र:

94-अपने शरीर अस्थियों, मांस ओर रक्त को

ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो।

95-अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्हारे स्तनों

में प्रवेश करके सूक्ष्म रूप धारण कर रहे है।

सदियों से विश्वभर के दार्शनिकों में यह विवाद रहा है कि क्या है वह मूल तत्व जिससे यह जगत निर्मित हुआ है?

ऐसे सिद्धांत हैं दर्शन की ऐसी व्यवस्थाएं हैं जो कहती हैं कि पदार्थ मूल सत्य है और मन बस उसका ही विकास है, पदार्थ मूल है और मन उसी का परिणाम मात्र है, मन भी पदार्थ ही है बस जरा सूक्ष्म रूप में है। भारत में चार्वाक ने, ग्रीस में इपिकुरस ने यह धारणा दी। और आज भी मार्क्सवादी तथा दूसरे भौतिकवादी पदार्थ की भाषा में ही बात करते हैं। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-67)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-66)-ओशो

अंतस का आकाश ओर रहस्य

प्रवचन-66-(ओशो)

प्रश्नसार:

1-आप किसे रहस्य कहते है?

2-मैं अपने को सामान्य अनुभव करता हूं, लेकिन कोई रूपांतरण नहीं देखता।

3-क्या अच्छे ओर बुरे जैसा कुछ होता है?

4-क्या कल्पना का उपयोग असीम के अनुभव के लिए किया जा सकता है?

 

पहला प्रश्न : कम रात आपने कहा जब मन में कोई विचार नहीं रहते तो मन शून्य आकाश बन
जाता है और सब रहस्यों के द्वार खुल जाते हैं। मैं इस आंतरिक आकाश को स्पष्ट और गहरे से अनुभव करता हूं, पर इसमें कुछ ऐसा विशेष नहीं है जिसे मैं रहस्य कह सकूं। क्या आप बताएंगे कि रहस्य आप कि। कहते हैं और उसे कैसे अनुभव किया जाता है?
Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-66)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-65)-ओशो

विज्ञान भैरव तंत्र-भाग-05-(ओशो)

प्रवचन-65-(ओशो)

जीवन एक रहस्य है।

सूत्र: 

92-चित को ऐसी अव्याख्य सूक्ष्मता में अपने ह्रदय के ऊपर, नीचे ओर भीतर देखा।

 93-अपने वर्तमान रूप का कोई भी अंग असीमित रूप से विस्तृत जानो।

जीवन कोई समस्या नहीं वरन एक रहस्य है। विज्ञान के लिए जीवन एक समस्या है, लेकिन धर्म के लिए यह एक रहस्य है। समस्या का समाधान हो सकता है, रहस्य का नहीं-उसे जीया जा सकता है, सुलझाया नहीं जा सकता। धर्म कोई समाधान नहीं देता, कोई उत्तर नहीं देता। विज्ञान के पास उत्तर हैं, धर्म के पास कोई उत्तर नहीं हैं।

यह मौलिक भेद है और इससे पहले कि तुम धर्म को समझने का कोई भी प्रयास करो, धार्मिक मन और वैज्ञानिक मन के दृष्टिकोण के बीच इस मौलिक भेद को गहराई से समझ लेना जरूरी है। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-65)-ओशो”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें