भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-10)

एक क्षण पर्याप्त है—(प्रवचन—दसवां)

प्रश्न-सार :

1—प्राणायाम का अर्थ है: ऐसी विधि जिससे प्राणों का विस्तार हो, और प्रत्याहार है: मूल स्रोत की ओर वापस लौटना। पहले विस्तार, फिर वापसी–ऐसा क्यों?

2—स्वप्नावस्था में भी अकाम आ जाए, इसकी कीमिया पर कुछ उपदेश दें।

3—क्या पुण्य, धर्म, भगवान की कामना भी दुख में ही ले जाएगी?

4—प्रत्याहार–गंगा का गंगोत्री में और वृक्ष का बीज में  लौट जाना–क्या संभव है? Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-10)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-09)

दुख का दर्पण—(प्रवचन—नौवां)

सूत्र :

कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वाऽऽत्मानं भावय कोऽहम्।

आत्मज्ञानविहीना मूढ़ाः ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः।।

गेयं गीतानामसहस्रं ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।

नेयं सज्जनसंगे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम्।।

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।

यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुग्चति पापाचरणम्।। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-09)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-08)

संसार–एक पाठशाला—(प्रवचन—आठवां)

प्रश्न-सार

।–कृपया शंकर की संन्यास की घटना पर कुछ प्रकाश डालें।

2—मेरी प्रार्थना है कि आप मेरे घर पधारें, लेकिन इसी वेश में, क्योंकि मैं महामूढ़ हूं।

3—साधना के द्वारा ग्रंथि-विसर्जन के लिए हम क्या करें?

4—क्या संभव है कि आदमी का चित्त एक नवजात शिशु के चित्त की भांति हो जाए? Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-08)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-07)

परम-गीत की एक कड़ी—(प्रवचन—सातवां)

सूत्र :

भगवद्गीता किंचिदधीता गंगाजल लवकणिका पीता।

सकृदपि येन मुरारिसमर्चा क्रियते तस्य यमेन न चर्चा।।

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।

इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे।।

रथ्याकर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-07)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-06)

तर्क का सम्यक प्रयोग—(प्रवचन—छठवां)

प्रश्न-सार

1-  आपने बहुत बार कहा है कि तर्क और विवाद से कभी भी संवाद संभव नहीं होता; लेकिन शंकर ने विवाद और शास्त्रार्थ में सैकड़ों मनीषियों को पराजित किया। कृपया समझाएं कि शंकर का यह कैसा शास्त्रार्थ था?

2—जो कि मंजिल के करीब पहुंच चुका है, क्यों कर उसका पतन की खाई में गिरना संभव हो पाता है?

3—तथाकथित संन्यासी धर्म के नाम पर दुकानदारी करते हैं। और आपने अपने संन्यासियों को अपनी-अपनी दुकानें चालू रखने को कहा है। यह विरोधाभास है। कृपया इसे स्पष्ट करें। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-06)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-05)

आशा का बंधन—(प्रवचन—पांचवां)

सूत्र :

जटिलो मुण्डी लुग्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः।

पश्यन्नपि च न पश्यति मूढ़ो ह्युदरनिमित्तं बहुकृतवेषः।।

अंगं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।

वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुग्चत्याशापिण्डम्।।

अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।

करतलभिक्षस्तरुतलवासः तदपि न मुग्चत्याशापाशः।।

कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-05)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-04)

कदम कदम पर मंजिल—(प्रवचन—चौथा)

प्रश्न-सार

1—कहा जाता है कि शंकर हिंदू वेदांती थे और आपने कहा कि शंकर छिपे हुए बौद्ध हैं; इसे कृपया स्पष्ट करें।

2—शंकर और आप भजन करने को कहने के पहले हमें हर बार मूढ़ कह कर क्यों संबोधित करते हैं?

3—रेचन में केवल क्रोध,र् ईष्या, दुख आदि के नकारात्मक भाव ही बाहर आते हैं। क्यों?

4—कृपया डूबने तथा होश और बेहोशी की सीमा-रेखाओं को स्पष्ट करें।

5—क्या प्रार्थना की जगह भजन भी धन्यवाद ज्ञापन मात्र है? Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-04)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-03)

सत्संग से निस्संगता—(प्रवचन—तीसरा)

सूत्र :

का ते कांता कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः।

कस्य त्वं कः कुत आयातस्तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः।।

सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम्।

निर्मोहत्वे निश्चल चित्तं निश्चलचित्ते जीवनमुक्तिः।।

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।

क्षीणे वित्ते कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः।।

मा कुरु धनजनयौवनगर्वं हरति निमेषात्कालः सर्वम्। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-03)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-02)

क्षणभंगुर का आकर्षण—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्न-सार

1—क्या ज्ञान और भजन में, ज्ञान और भक्ति में  कोई  अंतर्संबंध है?

2—क्या सांसारिक सुखों की क्षणभंगुरता ही आकर्षण का कारण नहीं है?

3—क्या स्व को विसर्जित कर देने पर समूचा अस्तित्व रक्षा करता है?

4—क्या बिना योग्यता के भी रिक्त सिंहासन पर भगवान विराजेंगे? Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-02)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-01)

सदा गोविन्द को भजो—(प्रवचन—पहला)

सूत्र:

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।

संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृग्करणे।।

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्।

यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम्।।

नारीस्तनभरनाभीदेशं दृष्ट्वा मा गा मोहावेशम्।

एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचिन्तय वारं वारम्।। Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(प्रवचन-01)”

भज गोविंदम मूढ़मते-(आदि शंक्राचार्य)-ओशो

भज गोविंदम मूढ़मते—(आदि शंक्राचार्य)

(दिनांक 11-11-1975 से 20-11-1975 तक ओशो आश्रम पूना में बोले गये श्री आदि शंकराचार्य के सूत्रो पर ओशो जी दस अमृत प्रवचन।) 

स मधुर गीत का पहला पद शंकर ने तब लिखा, जब वे एक गांव से गुजरते थे, और उन्होंने एक बूढ़े आदमी को व्याकरण के सूत्र रटते देखा। उन्हें बड़ी दया आई, मरते वक्त व्याकरण के सूत्र रट रहा है यह आदमी! पूरा जीवन भी गंवा दिया, अब आखिरी क्षण भी गंवा रहा है! पूरे जीवन तो परमात्मा को स्मरण नहीं किया, अब भी व्याकरण में उलझा है! व्याकरण के सूत्र रटने से क्या होगा? Continue reading “भज गोविंदम मूढ़मते-(आदि शंक्राचार्य)-ओशो”

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