झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-21)

इक्कीसवां– प्रवचन

सतगुरु कृपा अगम भयो हो

सारसूत्र:

सब्द सनेह लगावल हो, पावल गुरु रीती।

पुलकि-पुलकि मन भावल हो, ढहली भ्रम-भीती।।

सतगुरु कृपा अगम भयो हो, हिरदय बिसराम।

अब हम सब बिसरावल हो, निस्चय मन राम।।

छूटल जग ब्योहरवा हो, छूटल सब ठांव।

फिरब चलब सब थाकल हो, एकौ नहिं गांव।।

यहि संसार बेइलवत हो, भूलो मत कोइ।

माया बास न लागे हो, फिर अंत न रोइ।। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-21)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-20)

बीसवां–प्रवचन

विधायक अकेलापन ध्यान है

प्रश्न-सार:

01-ओशो,

कल हमें जाना है। इतना कृपा करके बता दें कि क्या अपने प्रियतम के विरह में निकले आंसू ही उसका ध्यान हैं अथवा ध्यान कुछ और है? यदि ध्यान कुछ और है तो वह कौन सा ध्यान है?

02-ओशो,

संन्यास के बाद तो जैसे सभी कुछ बदल गया है। मैं बदल गई, दुनिया बदल गई। पक्षियों के स्वर संगीत में बदल गए हैं। फव्वारे में उठती-गिरती बूंदें नृत्य करती दिखाई देती हैं। सूफी ध्यान में बैठती हूं तो लगता है जैसे सभी कुछ मुझे प्रसन्न करने के लिए हो रहा है। अंदर एक अपूर्व आनंद का अनुभव होता है। लगता है बाह्य संगीत भी मेरे अंदर से ही निकल रहा है। जैसे देवी बनी मैं सब कुछ देख रही हूं। यह भी पागलपन की कोई नई दिशा है अथवा प्रकाश की ओर अग्रसर नन्हें कदम? प्रकाश डालें! Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-20)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-19)

उन्नीसवां–प्रवचन

सुरति संभारिकै नेह लगाइकै

सारसूत्र:

सरन संभारि धरि चरनतर रहो परि,

काल अरू जाल कोउ अवर नाहीं।।

प्रैम सों प्रीति करू, नाम को हृदय धरू,

जोर जम काल सब दूर जाहीं।।

सुरति संभारिकै नेह लगाइकै,

रहो अडोल कहुं डोल नाहीं।।

कहै गुलाल किरपा कियो सतगुरु,

परयो अथाह लियो पकरि बाहीं।। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-19)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-18)

अठारहवां प्रवचन

संन्यास प्रेम है परमात्मा का

प्रश्न-सार:

01-ओशो, मैं जो जी रहा हूं और जैसा जी रहा हूं, क्या यही जीवन है?

02-ओशो, मैं संन्यास से भयभीत क्यों हूं?

03-ओशो, मनुष्य के रूपांतरण के लिए क्या मनोविज्ञान पर्याप्त नहीं है? मनोविज्ञान के जन्म के पश्चात धर्म की क्या आवश्यकता है? Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-18)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-17)

सत्रहवां–प्रवचन

अपने प्रिय संग होरी खेलौं

सारसूत्र:

सतगुरु घर पर परलि धमारी, होरिया मैं खेलौंगी।।

जूथ जूथ सखियां सब निकरीं, परलि ग्यान कै मारी।।

अपने पिय संग होरी खेलौं, लोग देत सब गारी।।

अब खेलौं मन महामगन ह्वै, छूटलि लाज हमारी।।

सत्त सुकृत सौं होरी खेलौं, संतन की बलिहारी।।

कह गुलाल प्रिय होरी खेलौं, हम कुलवंती नारी। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-17)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-16)

सोलहवां–प्रवचन

तुम्हारा अंत परमात्मा का प्रारंभ है

प्रश्न-सार:

01-ओशो, यह खेल तो अनजाने में, हंसी-हंसी में शुरू हुआ। यह तो खबर न थी कि यह हमें ही ले डूबेगा। आगे अंधेरा, पीछे खाई। आगे कुछ दिखाई नहीं देता और पीछे जाना नामुमकिन लगता है। दिन तो निकल जाता है, यह अंधेरी रात क्यों आती है?

02-ओशो, आप कभी-कभी अति कठोर उत्तर क्यों देते हैं? जैसे कुंडलिनी के संबंध में दिया आपका उत्तर। वैसे आप कुछ भी कहें, कुंडलिनी जगानी तो मुझे भी है!

 

पहला प्रश्नः ओशो, यह खेल तो अनजाने में, हंसी-हंसी में शुरू हुआ। यह तो खबर न थी कि यह हमें ही ले डूबेगा। आगे अंधेरा, पीछे खाई। आगे कुछ दिखाई नहीं देता और पीछे जाना नामुमकिन लगता है। दिन तो निकल जाता है, यह अंधेरी रात क्यों आती है? Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-16)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-15)

पंद्रहवां –प्रवचन

बिगसत कमल भयो गुंजार

सारसूत्र:

मन मधुकर खेलत वसंत। बाजत अनहत गति अनंत।।

बिगसत कमल भयो गुंजार। जोति जगामग कर पसार।।

निरखि निरखि जिय भयो अनंद। बाझल मन तब परल फंद।।

लहरि लहरि बहै जोति धार। चरनकमल मन मिलो हमार।।

आवै न जाइ मरै नहिं जीव। पुलकि पुलकि रस अमिय पीव।।

अगम अगोचर अलख नाथ। देखत नैनन भयो सनाथ।।

कह गुलाल मोरी पुजलि आस। जम जीत्यो भयो जोति-बास।। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-15)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-14)

चौहदवां– प्रवचन

रहस्य में डूबो

प्रश्न-सार

01-ओशो,

नगर हो रहा निर्जन

पलटती सुध निज पर,

पथ बनता पगडंडी

लौ कंपती, थिरती,

अनजाना फिर भी कुछ

परिचित सा लगता गुंजन।

पत्तों से झरते शब्द, विचार,

तर्कजाल..

जो रहा कभी मन का वैभव,

प्रतिपल है मिटता तार-तार।

मधु भरता Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-14)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-13)

तैरहवां–प्रवचन

इस्क करहु हरिनाम कर्म सब खोइया

सारसूत्र:

निरमल हरि को नाम ताहि नहीं मानहीं।

भरमत फिरैं सब ठांव कपट मन ठानहीं।।

सूझत नाहीं अंध ढूढत जग सानहीं।

कह गुलाल नर मूढ़ सांच नहिं जानहीं।।

 

माया मोह के साथ सदा नर सोइया।

आखिर खाक निदान सत्त नहिं जोइया।।

बिना नाम नहिं मुक्ति अंध सब खोइया।

कह गुलाल सत, लोग गाफिल सब सोइया।। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-13)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-12)

बारहवां प्रवचन

मैं तो यहां एक प्रेम का मंदिर बना रहा हूं

प्रश्न-सार

01-ओशो, आपके पास आकर मुझे जो आनंद मिला, वह मुझे आज से पहले कभी न मिला था। परंतु मैं इतनी कृतघ्न हूं कि बार-बार आपको छोड़ कर चले जाने का कुविचार मन में उठता है। फिर भी न जाने ऐसी कैसी अनदेखी डोर है जो मुझे बांधे हुए है। क्या मैं माफी के काबिल हूं?

02-ओशो, धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है, उससे हानि किसकी हुई है? Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-12)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां प्रवचन

भक्ति है मंदिर परमात्मा का

सारसूत्र:

दीनानाथ अनाथ यह, कछु पार न पावै।

बरनों कवनी जुक्ति से, कछु उक्ति न आवै।।

यह मन चंचल चोर है, निसुबासर धावै।

काम क्रोध में मिलि रह्यो, ईहैं मन भावै।।

करुनामय किरपा करहु, चरनन चित लावै।

सतसंगति सुख पायकै, निसुबासर गावै।।

अब की बार यह अंध पर, कछु दाया कीजै। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-11)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-10)

दसवां -प्रवचन

सार-असार की कसौटी ध्यान है

प्रश्नसार-

01-ओशो, संन्यास की पुरानी धारणा और आपके संन्यास में मौलिक भेद क्या है?

02-मैं संन्यास लेने से डरता हूं। ऐसे ही बहुत सी मुसीबतें हैं, ओशो, अब संन्यास की मुसीबत लेने से जी डरे तो आश्चर्य नहीं। मार्गदर्शन दें! Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-10)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-09)

नौवां -प्रवचन

अंखियां प्रभु-दरसन नित लूटी

सारसूत्र:

जौपे कोई प्रेम को गाहक होई।

त्याग करै जो मन की कामना, सीस-दान दै सोई।।

और अमल की दर जो छोड़ै, आपु अपन गति जोई।

हरदम हाजिर प्रेम-पियाला, पुलिक-पुलिक रस लेई।।

जीव पीव महं पीव जीव महं, बानी बोलत सोई।

सोई सभन महं हम सबहन महं, बूझत बिरला कोई।।

वाकी गती कहा कोई जानै, जो जिय सांचा होई।

कह गुलाल वे नाम समाने, मत भूले नर लोई।। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-09)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-08)

आठवां -प्रवचन

गगन मंडल में रास रचो रे

प्रश्न-सार:

01-ओशो,

क्या संसार में निराशा ही निराशा हाथ लगती है? क्या आशा रखना बिल्कुल ही व्यर्थ है?

02-ओशो,

मैं जब से यहां आया हूं तब से बस आपकी ही याद हृदय में समाई रहती है। शेष सब असार प्रतीत होता है। अब मैं क्या करूं?

03-ओशो,

मैं आपको समझ क्यों नहीं पाता हूं?

04-ओशो,

ऐसा लगता है कि हाथी जा चुका और मैं पूंछ को नाहक ही पकड़े हूं। सद्गुरु कृपा करो ताकि यह अंधकार जाए अब! Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-08)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन

पिय संग जुरलि सनेह सुभगी

सारसूत्र:

लागलि नेह हमारी पिया मोर।।

चुनि चुनि कलियां सेज बिछावौं, करौं मैं मंगलाचार।

एकौ घरी पिया नहिं अइलै, होइला मोहिं धिरकार।।

आठौ जाम रैनदिन जोहौं, नेक न हृदय बिसार।

तीन लोक कै साहब अपने, फरलहिं मोर लिलार।।

सत्तसरूप सदा ही निरखौं, संतन प्रान-अधार।

कहै गुलाल पावौं भरिपूरन, मौजै मौज हमार।। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-07)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-06)

छठवां–प्रवचन

मेरा संन्यास जीवन के साथ अनंत प्रेम है

प्रश्न-सार:

01-ओशो, संन्यास कैसे लूं? सदा सोचता हूं और रुक जाता हूं। यह रुकावट क्या है?

02-ओशो, तरु मा जब सूत्र गाती हैं तो मुझे ऐसा लगता है कि मेरी शादी की तैयारियां हो रही हैं। लेकिन आज जब गा रही थीं तो ख्याल आया कि संन्यास तो सगाई ही है।

03.ओशो, कल से पड़ोस में ही लाउडस्पीकर लगा कर कोई प्रवचन में बाधा डालने की कोशिश कर रहा है। उसका उपद्रव आज भी जारी है। क्या इसे रोका नहीं जा सकता है? Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-06)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रचचन

मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूं

सारसुत्र:

करु मन सहज नाम ब्यौपार, छोड़ि सकल ब्यौहार।।

निसुबासर दिन रैन ढहतु है, नेक न धरत करार।

धंधा धोख रहत लपटानो, भ्रमत फिरत संसार।।

माता पिता सुत बंधू नारी, कुल कुटुंब परिवार।

माया-फांसि बांधि मत डूबहु, छिन में होहु संघार।।

हरि की भक्ति करी नहिं कबहीं, संत बचन आगार।

 

करि हंकार मद गर्व भुलानो, जन्म गयो जरि छार।।

अनुभव घर कै सुधियो न जानत, कासों कहूं गंवार।

कहै गुलाल सबै नर गाफिल, कौन उतारै पार।। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-05)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

मोक्ष पुरस्कार है संसार को ठीक-ठीक जी लेने का

प्रश्न-सार

01-ओशो,

परमात्मा क्या है, कौन है, कहां है?

02-ओशो,

यह कैसी दुर्दशा है कि भारत में जहां दूध-दही की नदियां बहती थीं, वहां अब शुद्ध दूध भी क्यों उपलब्ध नहीं होता?

 

पहला प्रश्नः ओशो, परमात्मा क्या है, कौन है, कहां है?

 

विमला! परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं। इसलिए न तो कहा जा सकता है कि कौन है और न कहा जा सकता है कि कहां है। परमात्मा तो एक अनुभव है। जैसे प्रेम एक अनुभव है। कोई पूछे: प्रेम कौन है, प्रेम कहां है? तो प्रश्न निरर्थक होगा। उसका कोई सार्थक उत्तर नहीं हो सकता। लेकिन परमात्मा के संबंध में हम सदियों से ऐसे प्रश्न पूछते रहे हैं। क्योंकि पंडित-पुरोहित यही समझाते रहे हैं कि परमात्मा व्यक्ति है। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-04)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-03)

तीसरा –प्रवचन

कोउ नहिं कइल मोरे मन कै बुझरिया

सारसूत्र:

कोउ नहिं कइल मोरे मन कै बुझरिया।

घरि घरि पल पल छिन छिन डोलत-डालत साफ अंगरिया।।

सुर नर मुनि डहकत सब कारन, अपनी अपनी बेरिया।।

सबै नचावत कोउ नहिं पावत, मारत मुंह मुंह मरिया।।

अब की बेर सुनो नर मूढ़ो, बहुरि न ल्यो अवतरिया।।

कह गुलाल सतगुरु बलिहारी, भवसिंधु अगम गम तरिया।। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-03)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-02)

दूसरा–प्रवचन

तुम वही हो

प्रश्न-सार

01॰ ओशो! अब तक की यात्रा कठिन रही, लेकिन आपके इशारे से और सहारे से उससे गुजर चुका। लेकिन आगे की यात्रा सिर्प कठिन ही नहीं बल्कि असंभव लगती है। क्या मैं समय के पूर्व असंभव की अपेक्षा कर रहा हूं? क्या प्रतीक्षा साधना से भी कठिन साधना है? ओशो, यह कैसी बेचैनी है? !

 

02॰ ओशो,

जीवन से जो दुख मैंने पाया न होता

शरण में तुम्हारी मैं आया न होता।

दीया बन गयीं मेरी नाकामियां ही

जिन्हें पाकर कुछ भी तो पाया न होता। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-02)”

झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-01)

झरत दसहुं दिस मोती-गुलाल वाणी

(यह प्रवचन माला गुलाल के वचनों पर दिनांक 21-01-1980 से 10-02-1980 पूना आश्रम, में 21 प्रवचनों पर बोले ओशो के अमृत प्रवचनों का संकलन है)

पहला प्रवचन

राम मोर पुंजिया मोर धना

सारसूत्र:

राम मोर पुंजिया मोर धना, निसबासर लागल रहु रे मना।।

आठ पहर तहं सुरति निहारी, जस बालक पालै महतारी।।

धन सुत लछमी रह्यो लोभाय, गर्भमूल सब चल्यो गंवाय।।

बहुत जतन भेष रच्यो बनाय, बिन हरिभजन इंदोरन पाय।।

हिंदू तुरुक सब गयल बहाय, चैरासी में रहि लपटाय।।

कहै गुलाल सतगुरु बलिहारी, जाति-पांति अब छुटल हमारी।। Continue reading “झरत दसहुं दिस मोती-(प्रवचन-01)”

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