जीवन दर्शन-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(जीवन में प्रेम का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।

एक राजमहल के द्वार पर बहुत भीड़ लगी हुई थी। सुबह से भीड़ का इकट्ठा होना शुरू हुआ था, अब दोपहर आ गई थी। और लोग बढ़ते ही गए थे। जो भी आकर खड़ा हो गया था, वह वापस नहीं लौटा था। सारे नगर में उत्सुकता थी, कुतूहल था कि राजमहल के द्वार पर क्या हो रहा है? वहां एक बड़ी अघटनीय घटना घट गई थी। सुबह ही सुबह एक भिखारी ने अपना भिक्षा पात्र राजा के सामने फैलाया था। भिखारी तो बहुत होते हैं, लेकिन भिखारी का कोई चुनाव नहीं होता, कोई शर्त नहीं होती। उस भिखारी की शर्त भी थी। Continue reading “जीवन दर्शन-(प्रवचन-07)”

जीवन दर्शन-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(जीवन में स्वयं के प्रश्नों का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा हैः आपके कथनानुसार सब धर्मशास्त्र, धार्मिक पुस्तकें व्यर्थ हैं, जिनमें बुद्ध, महावीर वगैरह के विचार व्यक्त होते हैं। तो आपके विचारों की अभिव्यक्ति जिन पुस्तकों से है उन्हें भी व्यर्थ क्यों न माना जाए? मानव अपने अनुभवों से ही क्यों न आगे बढ़े, आपको सुनने की भी क्या आवश्यकता है?

बहुत ही ठीक प्रश्न है। जरूरी है उस संबंध में पूछना और जानना। लेकिन किसी गलतफहमी पर खड़ा हुआ है। मैंने कब कहा कि किताबें व्यर्थ हैं? मैंने कहाः शास्त्र व्यर्थ हैं। किताब और शास्त्र में फर्क है। शास्त्र हम उस किताब को कहते हैं जिस पर विचार नहीं करते और श्रद्धा करते हैं। श्रद्धा और विश्वास अंधे हैं। और विश्वास के अंधेपन के कारण किताबें शास्त्र बन जाती हैं, आप्तवचन बन जाती हैं, आॅथेरिटी बन जाती हैं। फिर उन पर चिंतन नहीं किया जाता, फिर उन्हें केवल स्वीकार किया जाता है। फिर उन पर विचार नहीं किया जाता, उन पर विवेक नहीं किया जाता, अंधानुकरण किया जाता है। Continue reading “जीवन दर्शन-(प्रवचन-06)”

जीवन दर्शन-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(जीवन में अहंकार का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।

एक वृद्ध लेकिन कुंआरी महिला ने अकेलेपन से घबड़ा कर, एकाकीपन से ऊब कर एक तोते को खरीद लिया था। तोता बहुत बातूनी था। बहुत चतुर और बुद्धिमान था। उसे शास्त्रों के संुदर-संुदर श्लोक याद थे, सुभाषित कंठस्थ थे। भजन वह तोता कह पाता था। वह वृद्धा उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उसके अकेलेपन में एक साथी मिल गया। लेकिन थोड़े दिनों ही बाद उस तोते में एक खराबी भी दिखाई पड़ी। जब घर में कोई भी न होता था और उसकी मालकिन अकेली होती, तब तो वह भजन और कीर्तन करता, सुभाषित बोलता, सुमधुर वाणी और शब्दों का प्रयोग करता। लेकिन जब घर में कोई मेहमान आ जाते, तो वह तोता एकदम बदल जाता था। Continue reading “जीवन दर्शन-(प्रवचन-05)”

जीवन दर्शन-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा-(जीवन में शुभ का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से प्रश्न मेरे सामने हैं। सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सभी के उत्तर तो आज संभव नहीं हो पाएंगे। कुछ शेष रह जाएंगे, जिनकी कल सुबह मैं आपसे बात करूंगा।

सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि परमात्मा की अनुभूति, उसका प्रसाद, उसका आनंद किन्हीं-किन्हीं क्षणों में अचानक मिल जाता है और फिर-फिर खो जाता है। फिर बहुत प्रयास करने पर भी वह झलक दिखाई नहीं पड़ती, तो हम क्या करें?

मनुष्य के जीवन में निश्चित ही कभी-कभी अनायास ही कोई आनंद का स्रोत खुल जाता है, कोई अंतर्नाद सुनाई पड़ने लगता है, कोई स्वर-संगीत प्राणों को घेर लेता है। सभी के जीवन में ऐसे कुछ क्षण स्मृति में होंगे। फिर हमारा मन करता है उस अनुभूति को और पाने के लिए और तब, तब जैसे उस अनुभूति के द्वार बंद हो जाते हैं। इसमें दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। Continue reading “जीवन दर्शन-(प्रवचन-04)”

जीवन दर्शन-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(जीवन में असुरक्षा का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी घटना से मैं आज की चर्चा शुरू करना चाहूंगा।

अभी सुबह ही थी और गांव के बच्चे स्कूल पहुंचे ही थे कि अनायास ही उस स्कूल के निरीक्षण को एक इंस्पेक्टर का आगमन हो गया। वह स्कूल की पहली कक्षा में गया और उसने जाकर कहाः इस कक्षा में जो तीन विद्यार्थी सर्वाधिक कुशल, बुद्धिमान हों उनमें से एक-एक क्रमशः मेरे पास आए और जो प्रश्न मैं दूं, बोर्ड पर उसे हल करे। एक विद्यार्थी चुपचाप उठ कर आगे आया, उसे जो प्रश्न दिया गया उसने बोर्ड पर हल किया और अपनी जगह जाकर वापस बैठ गया। फिर दूसरा विद्यार्थी उठ कर आया, उसे भी जो प्रश्न दिया गया उसने हल किया और चुपचाप अपनी जगह जाकर बैठ गया। लेकिन तीसरे विद्यार्थी के आने में थोड़ी देर लगी। और जब तीसरा विद्यार्थी आया भी तो वह बहुत झिझकते हुए आया, बोर्ड पर आकर खड़ा हो गया। उसे सवाल दिया गया, लेकिन तभी इंस्पेक्टर को खयाल आया कि यह तो पहला ही विद्यार्थी है जो फिर से आ गया है। Continue reading “जीवन दर्शन-(प्रवचन-03)”

जीवन दर्शन-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(बीज में वृक्ष का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

बहुत से प्रश्न कल की चर्चा के संबंध में इधर मेरे पास आए हैं। सबसे पहले एक मित्र ने पूछा हैः जीवन में सत्य को पाने की क्या जरूरत है? जीवन इतना छोटा है कि उसमें सत्य को पाने का श्रम क्यों उठाया जाए? बस पिक्चर देख कर और संगीत सुन कर जब बहुत ही आनंद उपलब्ध होता है, तो ऐसे ही जीवन को बिता देने में क्या भूल है?

महत्वपूर्ण प्रश्न है। अनेक लोगों के मन में यह विचार उठता है कि सत्य को पाने की जरूरत क्या है? और यह प्रश्न इसीलिए उठता है कि उन्हें इस बात का पता नहीं है कि सत्य और आनंद दो बातें नहीं हैं। सत्य उपलब्ध हो तो ही जीवन में आनंद उपलब्ध होता है। परमात्मा उपलब्ध हो तो ही जीवन में आनंद उपलब्ध होता है। आनंद, परमात्मा या सत्य एक ही बात को कहने के अलग-अलग तरीके हैं। तो इसको इस भांति न सोचें कि सत्य की क्या जरूरत है? इस भांति सोचें कि आनंद की क्या जरूरत है? Continue reading “जीवन दर्शन-(प्रवचन-02)”

जीवन दर्शन-(प्रवचन-01)

जीवन दर्शन-(विविध)

पहला-प्रवचन

जीवन में स्वयं के तथ्यों का साक्षात्कार

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी चर्चा को शुरू करना चाहूंगा।

जैसे आप आज यहां इकट्ठे हैं, ऐसे ही एक चर्च में एक रात बहुत से लोग इकट्ठे थे। एक साधु उस रात सत्य के ऊपर उन लोगों से बात करने को था। सत्य के संबंध में एक अजनबी साधु उस रात उन लोगों से बोलने को था। साधु आया, उसकी प्रतीक्षा में बहुत देर से लोग बैठे थे। लेकिन इसके पहले कि वह बोलना शुरू करता उसने एक प्रश्न, एक छोटा सा प्रश्न वहां बैठे हुए लोगों से पूछा। Continue reading “जीवन दर्शन-(प्रवचन-01)”

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