कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(प्रार्थना क्या है

उदयपुर; 5 जनू, 1969; दोपहर

एक मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि खोज छोड़ देनी है। और अगर खोज हम छोड़ दें, तो फिर तो विज्ञान का जन्म नहीं हो सकेगा?

मैंने जो कहा है, खोज छोड़ देनी है, वह कहा है उस सत्य को पाने के लिए, जो हमारे भीतर है, उसकी खोज करनी व्यर्थ है, बाधा है। लेकिन हमारे बाहर भी सत्य है। और हमसे बाहर जो सत्य है, उसे तो बिना खोज के कभी नहीं पाया जा सकता। इसलिए दुनिया में दो दिशाएं हैंः एक जो हमसे बाहर जाती है। हमसे बाहर जानेवाला जो जगत है, अगर उसके सत्य की खोज करनी हो, जो विज्ञान करता है, तो खोज करनी ही पड़ेगी। खोज के बिना बाहर के जगत का कोई सत्य उपलब्ध नहीं हो सकता। Continue reading “कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-05)”

कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(दर्शनज्ञानचरित्र)

प्रश्नः ज्ञान, दर्शन और चरित्र ये रत्नत्रयी रूप मुक्ति-पथ के प्राप्ति का उपाय तीर्थंकरों ने बताया है, क्या आप इससे सहमत हैं? ध्यान इन तीनों रत्नों से युक्त होना आवश्यक है?

तीर्र्थंकरों ने क्या बतलाया है, यह कहना कठिन है। तीर्थंकरों के संबंध में हम सब क्या बतलाते रहते हैं, यही समझना आसान है। तीर्र्थंकरों ने क्या कहा है, यह बिना तीर्र्थंकर हुए नहीं समझा जा सकता है। असल में, जिस चेतना के तल पर जो बात कही जाती है, उसी तल पर समझी जा सकती है। और जब नीचे की चेतना के तल पर समझी जा सकती है, और जब नीचे की चेतना के तल पर उस बात को समझने की कोशिश होती है, तो सब विकृत हो जाता है। Continue reading “कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-04)”

कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(अनुभूति और अभिव्यक्ति)

बंबई; 15 नवंबर, 1969

जीवन में सभी कुछ बुद्धि के तल पर नहीं समझा जा सकता है, और ऐसा मैं मानता भी नहीं हूं कि सभी कुछ समझे जाने की कोशिश भी उचित है।

बुद्धि बहुत कुछ समझ सकती है। सीमाएं हैं बुद्धि की, और एक जगह आ जाती है, जहां आगे नहीं समझ पाती है। जहां सीमाएं आ जाती हैं वहां दो उपाय हैं, या तो हम वापस लौट जाएं, और या हम बुद्धि को छोड़ कर बुद्धि के ऊपर उठें।

निश्चित ही कम्युनिकेशन का जहां तक सवाल है, वह वहीं तक संभव है, जहां तक बुद्धि की बात है। उसके आगे बुद्धिगत, इंटेलेक्चुअल कम्युनिकेशन संभव नहीं है। Continue reading “कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-03)”

कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन–(धर्म और क्रांति)

मेरे खयाल में, एक तो व्यक्ति के तल पर शांति की चेष्टा की जानी चाहिए। एक-एक व्यक्ति को अत्यंत शांत होने की जरूरत है। तो व्यक्ति के लिए शांति और समाज के लिए क्रांति, यह मेरी दृष्टि है। और समाज में आमूल रूपांतरण होना चाहिए। तो ये दो ही बातें मेरे खयाल में हैं।

प्रत्येक व्यक्ति को अधिकतम शांत और आनंदित होने का क्या रास्ता हो सकता हैवह खबर पहुंचानी है। और समाज रूपांतरित होविशेषकर भारतीय समाज, क्योंकि भारत का समाज करीब-करीब मरा हुआ समाज है। औैर बहुत पहले हम मर चुके हैं, यानी उस मरे हुए होने को भी हमें बहुत समय हो गया। वह घटना भी नयी नहीं है, बहुत पुरानी हो गई। यह जो हम गुणगान करते रहते हैं, जैसे इकबाल ने कहा कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। तो मेरी समझ यह है कि हस्ती हमारी इसीलिए नहीं मिटती कि हस्ती बहुत पहले मिट चुकी है। अब मिटने को बची भी नहीं है। Continue reading “कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-02)”

कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-01)

पहला-प्रवचन

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं)

थोड़ा सा फर्क है। हां, शब्द की बहुत गहराई में जाएं, बिलकुल प्राचीन से प्राचीन तो वही मतलब है। वही मतलब है। लेकिन बुद्ध होने में और बुद्धिमान होने में बड़ा फर्क है। बुद्ध से हम मतलब लेते हैंः प्रबुद्ध होने का, एनलाइटन होने का, जागे हुए होने का। बुद्धि से मतलब लेते हैंः सोच-विचार का। और मजा है कि इन दोनों बातों में बड़ा विरोध है।

जितना जागा हुआ आदमी होगा, उतना कम सोच-विचार करता है। जितना कम जागा हुआ आदमी होगा, उतना ज्यादा सोच-विचार करता है। असल में सोच-विचार सब्स्टीट्यूट है जागे होने का। Continue reading “कहा कहूं उस देस की-(प्रवचन-01)”

कहा कहूं उस देस की-(ओशो)

कहा कहूं उस देस की -(प्रश्नोंत्तर)

ओशो द्वारा दिए गए पांच अमृत प्रवचनों का संकलन

भूमिका

भगवान श्री रजनीश अब केवल ‘ओशो’ नाम से जाने जाते हैं। ओशो के अनुसार उनका नाम विलियम जेम्स के शब्द ‘ओशनिक’ से लिया गया है, जिसका अभिप्राय है सागर में विलीन हो जाना।

‘ओशनिक’ से अनुभूति की व्याख्या तो होती है, लेकिन, वे कहते हैं कि अनुभोक्ता के संबंध में क्या? उसके लिए हम ‘ओशो’ शब्द का प्रयोग करते हैं। बाद में उन्हें पता चला कि ऐतिहासिक रूप से सुदूर पूर्व में भी ‘ओशो’ शब्द प्रयुक्त होता रहा है, जिसका अभिप्राय हैः भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति,जिसपर आकाश फूलों की वर्षा करता हैसुबह जैसे जरा से फासले पर खड़ी है और सब उस सुबह से मिलना चाहते हैं। लेकिन ठहरिए, सुबह से मिलने से पहले थोड़े-से अंधेरे से गुजरना जरूरी होता है। ऐसे ही अंधेरे जैसे हैं मेरे ये दो शब्द…दो लम्हे… Continue reading “कहा कहूं उस देस की-(ओशो)”

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