सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-10)

सहज आसिकी नाहिं—(प्रश्नचर्चा)—ओशो

अंतर-आकाश के फूल—प्रवचन-दसवां

दिनांक 09 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्

      यस्मिन देवा अधि विश्वे निषेदुः।

यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति

      य इत् दद् विदुस्त इमे समासते।।

जिसमें सब देवता भलीभांति स्थित हैं उसी अविनाशी परम व्योम में सब वेदों का निवास है। जो उसे नहीं जानता वह वेदों से क्या निष्कर्ष निकालेगा? परंतु जो जानता है Continue reading “सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-10)”

सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-09)

जिसको पीना हो आ जाए—प्रवचन—नौवां

दिनांक 07 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

आपको लोग गलत क्यों समझते हैं? क्या सत्य को सदा ही गलत समझा गया है? मैं डरता हूं कि शायद जनमानस आपकी आमूल क्रांति को पचा नहीं सकेगा। आप क्या करने की सोच रहे हैं?

 अभयानंद,

यह देख कर कि तुम्हारे भीतर बहुत भय है, मैंने तुम्हें नाम दिया–अभयानंद। अचेतन तुम्हारा भय की पर्तों से भरा हुआ है। तुम अपने ही भय को प्रक्षेपित कर रहे हो। और तब बजाए आनंदित होने के तुम मेरे पास बैठ कर भी चिंतित हो जाओगे। ये सारी चिंताएं तुम्हें पकड़ लेंगी कि आपको लोग गलत क्यों समझते हैं! क्या फिक्र? तुमने समझा, उतना बहुत। तुम्हारे भीतर का दीया जला, उतना तुम्हारे मार्ग की रोशनी के लिए काफी है। Continue reading “सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-09)”

सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-08)

स्वाध्याय ही ध्यान है—प्रवचन-आठवां

दिनांक 08 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि।

यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः।।

देहाभिमान के गलने और परमात्मा के जानने के बाद जहां-जहां मन जाता है वहां-वहां उसे समाधि अनुभव होती है।

भगवान, इस सूत्र को समझाने की कृपा करें।

 चिदानंद, Continue reading “सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-08)”

सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-07)

मैं तुम्हारा कल्याण-मित्र हूं-प्रवचन-सातवां

दिनांक 07 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

यह कैसी आजादी है जहां हर आदमी दुखी है और सुख के कोई आसार भी नजर नहीं आते?

 नारायण प्रसाद,

आजादी से सुख होगा ही, ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है; उलटा भी हो सकता है, दुख भी बढ़ सकता है। और वही हुआ है। आदमी गलत है तो आजादी भी गलत आदमी को मिलेगी। जैसे पागलखाने में पागल बंद हों और हम उन्हें आजाद कर दें, तो क्या तुम सोचते हो स्वर्ग निर्मित हो जाएगा? आजादी तो आ जाएगी, जंजीरें तो टूट जाएंगी, दरवाजे तो खुल जाएंगे, लेकिन पागल तो फिर भी पागल ही होंगे। बंद थे तो पागलपन की सीमा थी; स्वतंत्र हो गए तो पागलपन को पूरी स्वच्छंदता मिल गई। Continue reading “सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-07)”

सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-06)

है इसका कोई उत्तर—प्रवचन-छट्ठवां

दिनांक 06 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

न जातु कामात् न भयात् न लोभात्

      धर्म  त्यजेत  जीवितस्यापि  हेतोः।

धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये

      जीवो नित्यो हेतुर अस्य त्वनित्यः।।

अपनी किसी इच्छा की तृप्ति के लिए, भय से, लोभ से या प्राणों की रक्षा के विचार से भी धर्म को न छोड़ना चाहिए। धर्म नित्य है और सुख-दुख थोड़े समय के हैं। आत्मा नित्य है, शरीर नश्वर है। Continue reading “सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-06)”

सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-05)

अब प्रेम के मंदिर हों—प्रवचन-पांचवां

दिनांक 05 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

प्रेम यदि मनुष्य का स्वभाव है, तो उसे सहज ही होना चाहिए। तब संत पलटू

क्यों कहते हैं कि सहज आसिकी नाहिं?

 प्रेमानंद,

प्रेम तो निश्चित ही स्वभाव है, स्वरूप है। हम उसे लेकर ही जन्मे हैं, हम उससे ही बने हैं। हमारा रोआं-रोआं, कण-कण, श्वास-श्वास, प्रेम के अतिरिक्त और किसी चीज से अनुप्राणित नहीं है। यह सारा अस्तित्व ही प्रेम का विस्तार है–या कहो परमात्मा का, क्योंकि प्रेम और परमात्मा एक ही सत्य के दो नाम हैं। Continue reading “सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-05)”

सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-04)

संन्यास यानी नया जन्म—प्रवचन-चौथा

दिनांक 04 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

गुरुरेव हरिः साक्षान्नान्य इत्यव्रबीच्छ्रुतिः।।

श्रुत्या यदुक्तं परमार्थमेतत्

      तत्संशयो नात्र ततः समस्तम्।

श्रुत्या विरोधे ने भवेत्प्रमाणं

      अवेदनर्थाय विना प्रमाणम्।। Continue reading “सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-04)”

सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-03)

आत्म-श्रद्धा की कीमिया—प्रवचन-तीसरा

दिनांक 03 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

वर्षों से आप जो समझा रहे हैं और जो कुछ भी मैं समझ सका, उसे ही दूसरों को समझाने में मैंने अब तक समय बिताया। लेकिन पीछे मुड़ कर देखता हूं तो पाता हूं कि असल में वह सब तो खुद को ही समझाना था। भगवान, अब यह समझ ही बोझिल हुई जा रही है। अब इस समझ को ढोना नहीं, खोना चाहता हूं। अब पीना चाहता हूं परमात्मा को। अब जीना चाहता हूं भगवत्ता को। अब शिष्य की तरह नहीं, भगवान अब तो भक्त को ही स्वीकार करें।

अजित सरस्वती, Continue reading “सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-03)”

सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-02)

सहज निर्मलता—प्रवचन-दूसरा

दिनांक 02 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

मुझे ज्ञान दें। आज भिक्षु बन कर आपकी शरण में हूं। क्या आप शरण आए को क्षमा नहीं करेंगे? आपकी शरण आकर ही मैं आज ज्ञान-दान मांग रही हूं। मेरी स्थिति उस कनक ऋषि की पुत्री की तरह है, जो निर्मल थी, जिसे कुछ भी पता न था; जैसा जिसने बताया, सिखाया, उसके हृदय पर लिख गया। क्या इसे मिटा नहीं सकते? आप कहते हैं, जिन्होंने बताया उन्हीं से पूछो। नहीं, मैं आज आपकी शरण हूं। आप ही तटस्थता की स्थिति का मार्ग-दर्शन कराएंगे। क्या निराश वापस जाऊं? नहीं, सिर्फ एक बार मुझे मार्ग-दर्शन कराएं। चाहे किसी भी धर्म की होऊं, आपके लिए तो सब समान हैं न?

 कृष्णा पंजाबी, Continue reading “सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-02)”

सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-01)

यह प्रेम का मयखाना है—प्रवचन-पहला

दिनांक 01 दिसम्बर सन् 1980 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,

संत पलटू ने सावधान किया है: सहज आसिकी नाहिं। समझाने की अनुकंपा करें कि यह आसिकी क्या है?

 योग मुक्ता,

आसिकी तो समझाई नहीं जा सकती; समझी जरूर जा सकती है।

प्रेम की कोई परिभाषा नहीं है। प्रेम स्वाद है। स्वाद की कोई परिभाषा करे तो कैसे करे? प्रेम अनुभव है। जीकर ही जाना जाता है। और यही खतरा है। इसलिए पलटू ने सावधान किया है। पहला कदम ही खतरनाक है; बिना जाने उतरना होता है। Continue reading “सहज आसिकी नाहिं-(प्रवचन-01)”

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