महावीर या महाविनास-(प्रवचन-11)

अहिंसा-दर्शन–(प्रवचन-ग्याहरवां)

प्रिय चिदात्मन्,

मैं आपकी आंखों में झांकता हूं। एक पीड़ा, एक घना दुख, एक गहरा संताप, एंग्विश वहां मुझे दिखाई देते हैं। जीवन के प्रकाश और उत्फुल्लता को नहीं, वहां मैं जीवन-विरोधी अंधेरे और निराशा को घिरता हुआ अनुभव करता हूं। व्यक्तित्व के संगीत का नहीं, स्वरों की एक विषाद भरी अराजकता का वहां दर्शन होता है। सब सौंदर्य, सब लययुक्तता, सब अनुपात खंडित हो गए हैं। हम अपने को व्यक्ति, इंडिविजुअल कहें, शायद यह भी ठीक नहीं है। व्यक्ति होने के लिए एक केंद्र चाहिए, एक सुनिश्चित संगठन, क्रिस्टलाइजेशन चाहिए, वह नहीं है। उस व्यक्तित्व संगठन और केंद्रितता, इंडिविजुएशन के अभाव में हम केवल अराजकता, एनार्की में हैं। Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-11)”

महावीर या महाविनास-(प्रवचन-10)

अहिंसा: आचरण नहीं, अनुभव है–(प्रवचन-दसवां)

  अहिंसा एक अनुभव है, सिद्धांत नहीं। और अनुभव के रास्ते बहुत भिन्न हैं, सिद्धांत को समझने के रास्ते बहुत भिन्न हैं..अक्सर विपरीत। सिद्धांत को समझना हो तो शास्त्र में चले जाएं, शब्द की यात्रा करें, तर्क का प्रयोग करें। अनुभव में गुजरना हो तो शब्द से, तर्क से, शास्त्र से क्या प्रयोजन है? सिद्धांत को शब्द के बिना नहीं जाना जा सकता और अनुभूति शब्द से कभी नहीं पाई गई। अनुभूति पाई जाती है निःशब्द में और सिद्धांत है शब्द में। दोनों के बीच विरोध है। जैसे ही अहिंसा सिद्धांत बन गई वैसे ही मर गई। फिर अहिंसा के अनुभव का क्या रास्ता हो सकता है? Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-10)”

महावीर या महाविनास-(प्रवचन-09)

सत्य का अनुसंधान—(प्रवचन-नौवां)

मेरे प्रिय आत्मन्,

भगवान महावीर की पुण्य-स्मृति में थोड़े से शब्द आपसे कहूंगा तो मुझे आनंद होगा। सोचता था, क्या आपसे इस संबंध में कहूं! महावीर के संबंध में इतना कहा जाता है, इतना आप जानते होंगे, इतना लिखा गया है, इतना पढ़ा जाता है। लेकिन फिर भी कुछ दुर्भाग्य की बात है, जो ऐसे व्यक्ति पैदा होते हैं जिन्हें हमें जानना चाहिए, उन्हें हम करीब-करीब जानने से वंचित रह जाते हैं। उनसे हम परिचित नहीं हो पाते। और उनके अंतस्तल को भी हम नहीं देख पाते। पूजा करना एक बात है। आदर देना एक बात है। श्रद्धा से स्मरण करना एक बात है। लेकिन ज्ञान से, समझ से, विवेक से जान लेना, पहचान लेना बड़ी दूसरी बात है। महावीर की पूजा का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य है महावीर को समझने का। Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-09)”

महावीर या महाविनास-(प्रवचन-08)

जीवन-चर्या के तीन सूत्र—(प्रवचन-आठवां)  

एक घटना से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। एक संन्यासी किसी अजनबी देश से गुजरता था। वह देश अग्निपूजकों का देश था। संन्यासी जब देश के भीतर प्रविष्ट हुआ तो पहले ही उसे जो गांव मिले–वह देख कर दंग रह गया–उन गांवों में रात अंधेरा था। उन गांवों में घरों में चूल्हे नहीं जलते थे। उन गांवों के लोग आग जलाना भी नहीं जानते थे। वह तो चकित रह गया। उसने सुना था, वह अग्निपूजकों का देश है। वहां अग्नि को लोग पूजते जरूर थे, लेकिन अग्नि को जलाना नहीं जानते थे। Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-08)”

महावीर या महाविनास-(प्रवचन-07)

अंतस-जीवन की एक झलक–(प्रवचन–सातवां)

मेरे प्रिय आत्मन्,

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात को शुरू करना चाहूंगा।

एक फकीर, एक संन्यासी प्रभु की खोज में पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा था। वह किसी मार्गदर्शक की तलाश में था..कोई उसकी प्रेरणा बन सके, कोई उसे जीवन के रास्ते की दिशा बता सके। और आखिर उसे एक वृद्ध संन्यासी मिल गया राह पर ही, और वह उस वृद्ध संन्यासी के साथ सहयात्री हो गया। Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-07)”

महावीर या महाविनास-(प्रवचन-06)

 असुत्ता मुनि–(प्रवचन-छठवां)

हम सब प्यासे हैं आनंद के लिए, शांति के लिए। और सच तो यह है कि जीवन भर जो हम दौड़ते हैं धन के, पद के, प्रतिष्ठा के पीछे, उस दौड़ में भी भाव यही रहता है कि शायद शांति, शायद संतृप्ति मिल जाए। वासनाओं में भी जो हम दौड़ते हैं, उस दौड़ में भी यही पीछे आकांक्षा होती है कि शायद जीवन की संतृप्ति उसमें मिल जाए, शायद जीवन आनंद को उपलब्ध हो जाए, शायद भीतर एक सौंदर्य और शांति और आनंद के लोक का उदघाटन हो जाए।

लेकिन एक ही निरंतर इच्छा में दौड़ने के बाद भी वह गंतव्य दूर रहता है, निरंतर वासनाओं के पीछे चल कर भी वह परम संतृप्ति उपलब्ध नहीं होती है! Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-06)”

महावीर या महाविनास-(प्रवचन-05)

व्यक्ति है परमात्मा—(प्रवचन-पांचवां)

महावीर के जन्म-उत्सव पर थोड़ी सी बातें आपसे कहूं, इससे मुझे आनंद होगा। आनंद इसलिए होगा कि आज मनुष्य को मनुष्य के ही हाथों से बचाने के लिए सिवाय महावीर के और कोई रास्ता नहीं है। मनुष्य को मनुष्य के ही हाथों से बचाने के लिए महावीर के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है।

ऐसा कभी कल्पना में भी संभव नहीं था कि मनुष्य खुद के विनाश के लिए इतना उत्सुक हो जाएगा। इतनी तीव्र आकांक्षा और प्यास उसे पैदा होगी कि वह अपने को समाप्त कर ले, इसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-05)”

महावीर या महाविनास-(प्रवचन-04)

स्वरूप में प्रतिष्ठाप्रवचन-चौथा) 

दिनांक 13-04-1965 से 14-04-1967 बम्बई, चौपाटी।

मेरे प्रिय आत्मन्,

मैं देश के कोने-कोने में गया हूं। हजारों आंखों, लाखों आंखों में देखने का मौका मिला है। जैसे मनुष्य को देखता हूं..ऊपर हंसने की, आनंद की, सुख की एक झलक दिखाई पड़ती है, पर पीछे घना दुख, बहुत दुख दिखाई पड़ता है। और इस दुख का परिणाम यह हुआ है, इस दुख का फलित यह हुआ है कि सारी पृथ्वी धीरे-धीरे दुख से भर गई है। यदि एक भी व्यक्ति दुखी है, परिणाम में अपने बाहर दुख को फेंकता है। व्यक्ति का दुख ही फैल कर सारे जगत का दुख हो जाता है। एक व्यक्ति के भीतर से जो दुख का धुआं उठता है, वह सारी समष्टि को दुख और पीड़ा से भर देता है। Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-04)”

महावीर या महाविनास-(प्रवचन-03)

आत्म-दर्शन की साधनाप्रवचन-तीसरा

मेरे प्रिय आत्मन् ,

भगवान महावीर के इस स्मृति दिवस पर थोड़ी सी बातें उनके जीवन के संबंध में कहूं, उससे मुझे आनंद होगा।

भगवान महावीर, जैसा हम उन्हें समझते हैं और जानते हैं, जो चित्र हमारी आंखों में और हमारे हृदय में उनका बन गया है, जिस भांति हम उनकी पूजा करते और आराधना करते हैं, जिस भांति हमने उन्हें भगवान के पद पर प्रतिष्ठित कर लिया है, उस चित्र में मुझे थोड़ी भूल दिखाई पड़ती है और महावीर के प्रति थोड़ा अन्याय दिखाई पड़ता है। Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-03)”

महावीर या महाविनास-(प्रवचन-02)

अंतर्दृष्टि की पतवार-(दूसरा-प्रवचन)

अगर हम खाली आकाश को भी थोड़ी देर तक बैठ कर देखते रहें, तो खाली आकाश आपको खाली कर देगा। अगर आप फूलों के पास बैठ कर फूलों को थोड़ी देर देखते रहें, तो थोड़ी देर में फूलों की गंध और फूलों की बास आपके भीतर भर जाएगी। और अगर आप सूरज को थोड़ी देर तक बैठ कर देखते रहें, तो आप पाएंगे, सूरज का प्रकाश आपके भीतर भी प्रविष्ट हो गया है। और अगर आप सागर की लहरों के पास बैठ कर उन्हें बहुत देर तक अनुभव करते रहें, तो आप पाएंगे, सागर आपके भीतर लहरें लेने लगा है। Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-02)”

महावीर या महाविनास-(प्रवचन-01)

मानव गरिमा के उदघोषक-पहला प्रवचन

इस पुण्य स्मरण-दिवस पर मैं दुखी भी हूं और आनंदित भी हूं। दुखी इसलिए हूं कि महावीर का हम स्मरण करते हैं, लेकिन महावीर से हमें कोई प्रेम नहीं है। दुखी इसलिए हूं कि धर्म-मंदिरों में हम प्रवेश करते हैं, लेकिन धर्म-मंदिरों पर हमारी कोई श्रद्धा नहीं है। दुखी इसलिए हूं कि हम सत्य की चर्चा करते हैं, लेकिन सत्य पर हमारी कोई निष्ठा नहीं है। और ऐसे लोग जो झूठे ही मंदिर में प्रवेश करते हों, और ऐसे लोग जो झूठा ही भगवान का स्मरण करते हों, उन लोगों से बुरे लोग हैं, जो भगवान का स्मरण नहीं करते और मंदिरों में प्रवेश नहीं करते। क्योंकि वे लोग जो स्पष्टतया धर्म के विरोध में खड़े हैं, कम से कम नैतिक रूप से ईमानदार हैं–उनकी बजाय, जो धर्म के पक्ष में तो नहीं हैं, लेकिन पक्ष में खड़े हुए दिखाई पड़ते हैं। Continue reading “महावीर या महाविनास-(प्रवचन-01)”

महावीर या महाविनास-(ओशो)

महावीर या महाविनास-ओशो

(भगवान महावीर पर बोले ओशे के अमृत प्रवचनों संकलन)

दिनांक 13-04-1965 से 14-04-1967 बम्बई, चौपाटी।

महावीर की क्रांति इसी बात में है कि वे कहते हैं कोई हाथ ऐसा नहीं है जो तुम्हें आगे बढ़ाए। और किसी काल्पनिक हाथ की प्रतीक्षा में जीवन को व्यय मत कर देना। कोई सहारा नहीं है सिवाय उसके, जो तुम्हारे भीतर है और तुम हो। कोई और सुरक्षा नहीं है, कोई और हाथ नहीं है जो तुम्हें उठा लेगा, सिवाय उस शक्ति के जो तुम्हारे भीतर है, अगर तुम उसे उठा लो। महावीर ने समस्त सहारे तोड़ दिए। Continue reading “महावीर या महाविनास-(ओशो)”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें