जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–07)

सातवां-प्रवचन-(जीवन ही है प्रभु)

मेरे प्रिय आत्मन्!

‘जीवन ही है प्रभु’ इस संबंध में और बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है: बुराई को मिटाने के लिए, अशुभ को मिटाने के लिए, पाप को मिटाने के लिए विधायक मार्ग क्या है? पाजिटिव रास्ता क्या है? क्या ध्यान और आत्मलीनता में जाने से बुराई मिट सकेगी? ध्यान और आत्मलीनता तो एक तरह का पलायन, एस्केप है, जिंदगी से भागना है। ऐसा कोई मार्ग, विधायक, सृजनात्मक, जो भागना न सिखाता हो, जीना सिखाता हो, उस संबंध में कुछ कहें?

पहली तो बात यह है कि ध्यान पलायन नहीं है और आत्मलीनता पलायन नहीं है। बल्कि जो आत्मा से बच कर और सब तरफ भाग रहे हैं, वे पलायन में हैं। जो मेरे निकटतम है उसे जानने से बचने की कोशिश एस्केप है। हम अपने से ही बचने के लिए भाग रहे हैं। Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–07)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–06)

छठवां-प्रवचन-(ध्यान अविरोध है

मेरे प्रिय आत्मन्!

ध्यान की आधारशिला अक्रिया है, क्रिया नहीं है। लेकिन शब्द ‘ध्यान’ से लगता है कि कोई क्रिया करनी होगी। ध्यान से लगता है कुछ करना होगा। जब कि जब तक हम कुछ करते हैं, तब तक ध्यान में न हो सकेंगे। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं तब जो होता है, वही ध्यान है। ध्यान हमारा न करना है। लेकिन मनुष्य-जाति को एक बड़ा गहरा भ्रम है कि हम कुछ करेंगे तो ही होगा। हम कुछ न करेंगे तो कुछ न होगा।

बीज को कुछ करना नहीं पड़ता टूटने के लिए, और बीज को कुछ करना नहीं पड़ता अंकुर बनने के लिए, और बीज को कुछ करना नहीं पड़ता फूल बन जाने के लिए; होता है। हम भी बच्चे से जवान हो जाते हैं, कुछ करना नहीं पड़ता है। जन्म होता है, जीवन होता है, मृत्यु होती है, हमारे करने से नहीं; होता है। जीवन में बहुत कुछ है जो हो रहा है अपने से। और अगर हम कुछ करेंगे तो बाधा पड़ेगी होने में..गति नहीं आएगी। Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–06)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–05)

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)–ओशो

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 12 दिसंबर, 1969; रात्रि.

प्रवचन-पांचवां  

मेरे प्रिय आत्मन् ,

जीवन ही है प्रभु, इस संबंध में और बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।

एक मित्र ने पूछा है–बुराई को मिटाने के लिए, अशुभ को मिटाने के लिए, पाप को मिटाने के लिए विधायक मार्ग क्या है? पाजिटिव रास्ता क्या है? क्या ध्यान और आत्मलीनता में जाने से बुराई मिट सकेगी?

ध्यान और आत्मलीनता तो एक तरह का पलायन, एस्केप है, जिंदगी से भागना है। ऐसा कोई मार्ग, विधायक, सृजनात्मक, जो भागना न सिखाता हो, जीना सिखाता हो, उस संबंध में कुछ कहें? Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–05)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–04)

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)–ओशो

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 11 दिसंबर, 1969; रात्रि.

प्रवचन-चौथा

मेरे प्रिय आत्मन् ,

‘जीवन ही है प्रभु’ इस संबंध में एक मित्र ने पूछा है, कैसे दिखाई पड़े फिर हमें कि जीवन ही प्रभु है। क्योंकि हमें तो चारों ओर दोष ही दिखायी पड़ते हैं। सबमें दोष दिखायी पड़ते हैं। ‘क्यों दिखाई पड़ते हैं सबमें दोष?’ इस संबंध में उन्होंने पूछा है।

प्रभु की खोज में एक सूत्र यह भी है, इसलिए इसे समझ लेना जरूरी है। निश्चित ही दोष दिखायी पड़ते हैं दूसरों में। कारण क्या है? कारण है सिर्फ एक–अपने अहंकार की तृप्ति। दूसरे में दोष दिखायी पड़ता है। दूसरे में दोष की खोज चलती है। उसका राज छोटा-सा है। Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–04)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–03)

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)–ओशो

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 10 दिसंबर, 1969; रात्रि.

प्रवचन-तीसरा

मेरे प्रिय आत्मन् ,

एक मित्र ने पूछा है कि यदि ध्यान से जीवन में शांति हो जाती है, तो फिर ध्यान सारे देश में फैल क्यों नहीं जाता है?

पहली बात तो यह कि बहुत कम लोग हैं पृथ्वी पर जो शांत होना चाहते हैं। शांत होना बहुत कठिन है। असल में शांति की आकांक्षा को उत्पन्न करना ही बहुत कठिन है। और कठिनाई शांति में नहीं है। कठिनाई इस बात में है कि जब तक कोई आदमी ठीक से अशांत न हो जाये तब तक शांति की आकांक्षा पैदा नहीं होती। पूरी तरह अशांत हुए बिना कोई शांत होने की यात्रा पर नहीं निकलता है। और हम पूरी तरह अशांत नहीं हैं। यदि हम पूरी तरह अशांत हो जायें तो हमें शांत होना ही पड़े। लेकिन हम इतने अधूरे जीते हैं कि शांति तो बहुत दूर, अशांति भी पूरी नहीं हो पाती। Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–03)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–02)

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)–ओशो

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 10 दिसंबर, 1969; प्रात्य.

प्रवचन-दूसरा

ध्यान के संबंध में थोड़ी सी बातें समझ लेनी जरूरी हैं। क्योंकि बहुत गहरे में तो समझ का ही नाम ध्यान है।

ध्यान का अर्थ है–समर्पण। ध्यान का अर्थ है–अपने को पूरी तरह छोड़ देना परमात्मा के हाथों में। ध्यान कोई क्रिया नहीं है, जो आपको करनी है। ध्यान का अर्थ है–कुछ भी नहीं करना है और छोड़ देना है उसके हाथों में, जो कि सचमुच ही हमें सम्हाले हुए हैं। Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–02)”

जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–01)

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)–ओशो

साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक 09 दिसंबर, 1969; रात्रि.

प्रवचन-पहला-(प्रभु की खोज)

मेरे प्रिय आत्मन् ,

जीवन के गणित के बहुत अदभुत सूत्र हैं। पहली अत्यंत रहस्य की बात तो यह है कि जो निकट है वह दिखायी नहीं पड़ता, जो और भी निकट है, उसका पता भी नहीं चलता। और मैं जो स्वयं हूं उसका तो स्मरण भी नहीं आता। जो दूर है वह दिखायी पड़ता है। जो और दूर है और साफ दिखायी पड़ता है। जो बहुत दूर है वह निमंत्रण भी देता है, बुलाता भी है, पुकारता भी है। Continue reading “जीवन ही है प्रभु-(प्रवचन–01)”

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