पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-80)

जाना कहां है—(प्रवचन—बीसवां)

दिनांक 20 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍न–सार:

1–मैं स्वयं को खोया—खोया महसूस करता हूं। पुराने जीवन में वापस लौटने के लिए कोई मार्ग नहीं बचा है और आगे भी कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ रहा है।

2–पतंजलि ने यह सब क्यों लिखा और आपने योग—सूत्र पर बोलना क्यों चुना, जबकि दोनों में से कोई भी हमें साधना की मूलभूत कुंजियां देने को तैयार नहीं हैं?

3–कई वर्षों से मैं साक्षी— भाव में जी रहा हूं। पर वह मुझे रोग जैसा क्यों लगता है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-80)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-79)

बंधन के कारण की शिथिलता—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक 19 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  

योग—सत्र:

बंधकारणशैथिल्‍यात्‍प्रचारसंवेदनाच्‍च चित्‍तस्‍य परिशरीरावेश:।। 39।।

बंधन के कारण का शिथिल पड़ना और संवेदन—ऊर्जा भरी प्रवाहिनियों को जानना

मन को पर—शरीर में प्रवेश करने देता है।

उदानजयाज्‍जलपड्ककण्‍टकादिष्‍वसड्ग उत्‍क्रांतिश्‍च।। 40।।

उदना—उर्जा प्रवाहिनी को सिद्ध करने से, योगी पृथ्‍वी से ऊपर उठ पाता है। और किसी

आधार, किसी संपर्क के बिना पानी, कीचड़, कांटों को पार कर लेता है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-79)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-78)

जागरूकता की कोई विधि नहीं है—(प्रवचन—अट्ठारहवां)

दिनांक 18 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  

प्रश्‍न—सार:

1—कृपया समझाएं कि मन और शरीर के साथ तादात्म्य कैसे न बने?

 2—मेरी स्वयं के साथ और आपके साथ एकात्मकता बनते ही मन

अहंकार की यात्रा पर निकल पड़ता है। कि मेरा कितना अच्‍छा विकास हो रहा है।

कृपया आप मुझे सहारा देंगे?

3—झेन संत जो कि प्रत्‍येक सुबह एक ध्‍यान की भांति हंसते है—

क्‍या आपको नहीं लगता है कि वे अपने हंसने को कुछ ज्‍यादा ही

गंभीरता से लेते है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-78)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-77)

परमात्‍मा की भेंट ही अंतिम भेंट—(प्रवचन—सतहरवां)

दिनांक 17 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  

योग—सूत्र:

सत्‍वपुरूषयोरत्‍यन्‍तासंकीर्णयों: प्रत्‍यायविशेषो भोग:

परार्थत्‍वात् स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम्।। 36।।

पुरुष, सद चेतना और सत्व, सदबुद्धि के बीच अंतर कर पाने की अयोग्यता के परिणामस्वरूप अनुभव के भोग का उदभव होता है. यद्यपि ये तत्व नितांत भिन्न हैं। स्वार्थ पर संयम संपन्‍न करने से अन्‍य ज्ञान से भिन्न पुरूष ज्ञान उपलब्‍ध होता है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-77)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-76)

धन्‍यवाद की कोई आवश्‍यकता नहीं—(प्रवचन—सौहलवां)

दिनांक 16 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  

प्रश्‍न—सार:

  1. क्या आप भी कभी किसी दुविधा में पड़े हैं?
  1. बुद्धि, अंतर्बोध और प्रतिभा के प्रासंगिक महत्व को समझाएं।
  1. इस शइक्त को,क्ष्मैं’j’. समझाएं—’योगियों और सार्धुंक्ती बुरी संगत में।’

      4 अहंकार सभी परिस्‍थितियों में पोषित होता मालूम पड़ता है। तो ऐसे में क्या करें?

  1. हम अपने मन को कैसे गिरा सकते है, जबकि आप प्रवचनों में दिलचस्‍प बातें सुनाकर मन में खलबली मचाते रहते हैं!

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-76)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-75)

अंतर—ब्रह्मांड के साक्षी हो जाओ—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक 15 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  

योग—सूत्र:

मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम।। 33।।

सिर के शीर्ष भाग के नीचे की ज्योति पर संयम केंद्रित करने से समस्‍त सिद्धों के अस्तित्व से जुड्ने की क्षमता मिल जाती है।

प्रातिभाद्वा सर्वम्।। 34।।

प्रतिभा के द्वारा समस्‍त वस्‍तुओं का बोध मिल जाता है।

ह्रदये चित्‍तसंवित्।। 35।।

ह्रदय पर संयम संपन्‍न करने से मन की प्रकृति, उसके स्‍वभाव के प्रति जागरूकता आ बनती है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-75)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-74)

अहंकार अटकाने को खूँटा नहीं—(प्रवचन—चौदहवां)

दिनांक 14 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  

प्रश्‍न–सार:

1—क्या संबुद्ध होना और साथ ही संबोधि के प्रति चैतन्‍य होना संभव है? क्या संबुद्ध का विचार स्वय में अहंकार उत्पन्न नहीं कर देता है?

2—मैं अक्‍सर दो मन में रहता हूं—सूर्य और चंद्र मन में। कृपया कुछ कहें।

3—आप कहते है कि बुद्ध पुरूष कभी स्‍वप्‍न नहीं देखते। फिर च्वांगत्‍सु ने कैसे स्‍वप्‍न देखा कि वह तितली है?

4—स्व—निर्भर होने के लिए पतंजलि की विधि या आपकी विधि क्या है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-74)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-73)

अंतर—ब्रह्मांड के साक्षीहो जाओ—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक 13 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  

योग—सूत्र:

चंद्रे ताराव्‍यूहज्ञानम् ।। 28।।

चंद्र पर संयम संपन्न करने से तारों—नक्षत्रों की समेग्र व्‍यवस्‍था का ज्ञान प्राप्त होता है।

धुवे तद्गतिज्ञानम्।। 29।।

ध्रुव—नक्षत्र पर संयम संपन्न करने से तारों—नक्षत्रों की गतिमयता का ज्ञान प्राप्त होता है।

नाभिचक्रै कायव्‍यूहज्ञानम् ।। 30।।

नाभि चक्र पर संयम संपन्‍न करने से शरीर की संपूर्ण संरचना का ज्ञान प्राप्त होता है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-73)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-72)

मैं एक पूर्ण झूठ हूं—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक 12 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  

प्रश्‍न—सार:

1—आपके शिष्य अचानक संबोधि को उपलब्ध होंगे, या चरण दर चरण विकास के द्वारा संबुद्ध होंगे?

 2—क्या अज्ञान के कारण किए कर्मों के लिए भी व्यक्ति उत्‍तरदायी होता है?

3—रामकृष्ण ने भोजन का उपयोग शरीर में रहने के लिए खूंटी की भांति किया। आप शरीर में बने रहने के लिए किस खूंटी का उपयोग करते हैं? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-72)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-71)

मृत्‍यु और कर्म का रहस्‍य—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक 11 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना।  

योग—सूत्र:

सोपक्रमं निरूपक्रमं च कर्म तत्‍संयमादपरान्‍तज्ञानमरिष्‍टेभयो वा।। 23।।

सक्रिय व निष्किय या लक्षणात्मक व विलक्षणात्‍मक—इन दो प्रकार के कर्मों पर संयम पा लेने के बाद मृत्यु की ठीक—ठीक घड़ी की भविष्‍य सूचना पायी जा सकती है।

मैत्र्यादिषु बलानि।। 24।।

मैत्री पर संयम संपन्‍न करने से या किसी अन्य सहज गुण पर संयम करने से उस गुणवत्‍ता विशेष में बड़ी सक्षमता आ मिलती है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-71)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-70)

खतरे में जीओ—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 10 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍न—सार:  

1—मेरी अधिक बैचेनी अपने महा— अहंकार को लेकर है,

जो इस झूठे अहंकार पर इतने वर्षों तक निगाह रखता रहा है।

2–भगवान, मैं चाहता हूं कि आप एक—एक ही बार में सदा—सदा के लिए मिटा दें।

3–जब मैं निर्णय लेने का प्रयत्‍न करता हूं तो चिंतित हो जाता हूं,

कि मैं कहीं गलत चुनाव न कर लूं। यह कैसा पागलपन है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-70)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-69)

अनूठा अस्‍तित्‍व में—(प्रवचन—नौंवा)

दिनांक 9 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र :

प्रत्ययस्य परिचित्‍तज्ञानम्।। 19।।

जो प्रतिछवि दूसरों के मन को घेरे रहती है, उसे संयम द्वारा जाना जा सकता है।

न च तत्सालम्बनं तस्याविषयीभूतत्वात्।। 20।।

लेकिन संयम द्वारा आया बोध उन मानसिक तथ्यों का ज्ञान नहीं करवा सकता जो कि दूसरे के मन की छवि—प्रतिछवि को आधार देते है, क्‍योंकि वह बात संयम की विषय—वस्‍तु नहीं होती है। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-69)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-68)

नहीं और हां के गहनतम तल—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 8 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:

1—क्‍या सार्त्र में झेन—चेतना है?

2–हरमन हेस के सिद्धार्थ ने बुद्ध से कहा : मुझे अपने ही ढंग से चलते जाना है—या मर जाना है। इस पर आप कुछ कहेंगे?

3—अगर कहीं कोई व्‍यक्‍ति रूप परमात्‍मा नहीं है, तो आप हर सुबह मेरे मनोविचारों का उत्‍तर क्‍यों देते है?

4—उस करीब—करीब योगी ह्रदय के विषय में आपके उत्‍तर न मुझे निम्‍नलिखित संवाद की याद दिला दी है:

पत्‍नी: प्रिय, जब से हमारा विवाह हुआ तुम मुझे ज्‍यादा प्‍यार करते हो या कम?

पति: ज्‍यादा या कम। Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-68)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-67)

उदासीन ब्रह्मांड में—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 7 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र:

कमान्यत्वं परिणामन्‍यत्‍वे हेतु:।। 15।।

आधारभूत प्रक्रिया में छिपी अनेकरूपता द्वारा रूपांतरण में

कई रूपांतरण घटित होते हैं।

परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम्।। 16।।

निराध, समाधि, एकाग्रता—इन तीन प्रकार के रूपांतरणों में

संयम उपलब्‍ध करने से—अतीत और भविष्य का ज्ञान उपलब्‍ध, होता है।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-67)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-66)

तुम यहां से वहां नहीं पहुंच सकते—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 6 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:

1—मैं हमेशा एक ही जैसे प्रश्‍न बार—बार क्यों पूछती हूं?

2–मुझे आपके प्रवचनों में आज तक एक भी विरोधाभास नहीं मिला। क्या मुझमें कुछ गलत है?

 3—तुम यहां से वहां नहीं पहुंच सकते।

4—क्‍या स्वच्छ होने की प्रक्रिया मन की झलकी को नए रूप देगी?

5–मेरा शरीर रोगी है, मेरा मन भोगी है, और मेरा ह्रदय करीब—करीब योगी है। क्‍या मेरे इस जन्‍म में संबुद्ध होने की कोई संभावना है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-66)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-65)

अस्‍तित्‍व के शून्‍यों का एकात्रीकरण—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 5 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सत्र:

सर्वार्थतैकाग्रतयो: क्षयोदयौ चित्‍तस्‍य समाधिपारिणाम:।। ।।।।

समाधि परिणाम वह आंतरिक रूपांतरण है, जहां चित को तोड्ने वाली अशांत वृत्तियों का क्रमिक ठहराव आ जाता है और साथ ही साथ एकाग्रता उदित होती है।

 शांन्‍तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणाम:।। 12।।

एकाग्रता परिणाम वह एकाग्र रूपांतरण है, चित्त की ऐसी अवस्‍था है,

जहां चित का विचार—विषय जो कि शांत हो रहा होता है,

वह अगले ही क्षण ठीक वैसे ही विचार विषय द्वारा प्रतिस्‍थापित हो जाता है।

एतेन भूतेन्‍दियेषु धर्मलक्षणावस्‍थापरिणामा व्‍याख्‍याता:।। 13।।

जो कुछ अंतिम चार सूत्रों में कहा गया है, उसके द्वारा मूल—तत्‍वों और इंद्रियों की

विशिष्‍टताओं, उनके गुण—धर्म और उनकी अवस्‍थाओं के

रूपांतरणों की व्‍याख्‍या भी हो जाती है।

शान्‍तोदिताव्‍यपदेश्‍यधर्मानुपाती धर्मो।। 14।।

चाहे वे सुप्‍त हों या सक्रिय हों या अव्‍यक्‍त हों।

सारे गुण—धर्म आधार तत्‍व में अंतर्निष्‍ठ होते है।

रूस के एक महान उपन्यासकार लिओ टाल्सटाय के बारे में कहा जाता है कि एक दिन जब वह जंगल में घूम रहे थे तो अचानक उन्होंने देखा कि एक चट्टान पर एक गिरगिट धूप में मजे से बैठा है। टाल्सटाय उस गिरगिट से कहने लगे, ‘तुम्हारा हृदय धड़क रहा है, चारों ओर धूप खिली हुई है, तुम प्रसन्न हो।’ और क्षणभर के बाद ही वे बोले, ‘लेकिन मैं प्रसन्न नहीं हूं।’ गिरगिट क्यों प्रसन्न है और मनुष्य प्रसन्न क्यों नहीं है? संपूर्ण सृष्टि में चारों ओर उत्सव चल रहा है, लेकिन मनुष्य आनंदित क्यों नहीं है? मनुष्य के अतिरिक्त पेडू—पौधे, जीव —जंतु, हर कोई क्यों ‘स्‍वयं के साथ और संपूर्ण अस्तित्व के साथ बहुत ही सुंदर ढंग से जुड़ा हुआ है? मनुष्य ही केवल अपवाद क्‍यों है? मनुष्य को क्या हो गया है? कौन सा दुर्भाग्य उस पर टूट पड़ा है? जितने गहरे से खोज की शुरूआत होता है, उसी समझ से ही मार्ग की शुरुआत होती है, उसी समझ के माध्‍यम से तुम मनुष्य के रोग का हिस्सा नहीं रह जाते। तुम उसका अतिक्रमण करने लगते हो।

गिरगिट वर्तमान में जीता है। गिरगिट को न तो अतीत का कुछ पता है, न ही भविष्य का कुछ पता है। गिरगिट तो बस अभी और यहीं धूप का आनंद ले रहा है। वर्तमान का क्षण ही गिरगिट के लिए सब कुछ है, लेकिन मनुष्य के लिए वर्तमान का क्षण पर्याप्त नहीं है —और यहीं से रोग का प्रारंभ होता है, क्योंकि जब भी होता है, बस एक क्षण ही होता है। दो क्षण एक साथ कभी नहीं होते हैं। और जहां कहीं भी तुम होओगे, हमेशा वर्तमान में ही होओगे। अतीत अब है नहीं, और भविष्य अभी आया नहीं है। और हम भविष्य के लिए जो कि अभी आया नहीं ‘है, और अतीत जो कि कभी का बीत चुका है। सब कुछ खोए चले जाते हैं।

जैसे गिरगिट चट्टान पर धूप सेंक रहा है, उस क्षण धूप का आनंद ले रहा है, ठीक उसी तरह ध्यानी होता है। वह भी अतीत और भविष्य दोनों को छोड्कर वर्तमान क्षण में जीता है।

अतीत और भविष्य को छोड़ देने का क्या अर्थ है?

इसका अर्थ है विचार को गिरा देना, क्योंकि सभी विचार या तो अतीत उन्मुख होते हैं या भविष्य उन्‍मुख होते हैं। कोई भी विचार वर्तमान से संबंधित नहीं होता है। विचार के साथ वर्तमान —काल नहीं जुड़ा होता है —या तो विचार मृत होता है या अभी उसका जन्म ही नहीं हुआ है। विचार कभी भी यथार्थ का हिस्सा नहीं होता—विचार या तो स्मृति का हिस्सा होता है या कल्पना का। विचार कभी सत्य नहीं होता है। और जो सत्य है, वह विचार नहीं होता है। सत्य एक अनुभव है। सत्य एक अस्तित्वगत अनुभव है।

तुम नृत्य कर सकते हो, धूप का आनंद ले सकते हो, गाना गा सकते हो, किसी को प्रेम कर सकते हो, लेकिन केवल विचार के माध्यम से यह सब कुछ यथार्थ में संभव नहीं है—क्योंकि विचार हमेशा किसी के ‘आसपास’ होता है और वही सारे दुखों की जड़ है। उसी के चारों ओर तुम घूमते रहते हो —और उस तक नहीं पहुंच पाते हो जो कि हमेशा उपलब्ध ही था।

सभी ध्यान की प्रक्रियाओं का कुल सार इतना ही है कि गिरगिट की तरह, धूप में चट्टान पर विश्रांत होकर बैठ जाना, वर्तमान के क्षण में, अभी और यहीं में ठहर जाना। और समग्र अस्तित्व का हिस्सा बन जाना। कहीं कोई भविष्य की दौड़ नहीं, और न ही किसी अतीत की चिंता। उस अतीत का व्यर्थ ही बोझा ढोना जो कि है ही नहीं। जब अतीत का बोझ न हो, भविष्य की चिंता न हो, तो कोई कैसे दुखी रह सकता है? लिओ टाल्सटाय पर अगर अतीत का बोझ न हो और भविष्य की चिंता न हो, तो दुखी कैसे हो सकते हैं? तब दुख का अस्तित्व ही कहां रहता है? फिर दुख स्वयं को कहां छिपाकर रख सकेगा। जब न तो अतीत का बोझ रहता है और न ही भविष्य की चिंता, तब अकस्मात व्यक्ति एक विस्फोट के साथ अलग ही आयाम में चला जाता है वह समय के पार चला जाता है, और अनंत का हिस्सा बन जाता है।

जैसे ग्रामोफोन रिकार्ड पर सुई अटक जाती है, और वही—वही दोहराए चला जाता है, ऐसे ही हम भी ग्रामोफोन रिकार्ड की भांति स्वयं को दोहराते हुए जीए चले जाते हैं।

मैंने सुना है.

दो लड़कियां एक बगीचे में बातचीत कर रही थीं। उनमें से एक लड़की बहुत ही उदास और दुखी थी, दूसरी लड़की उसके दुख में सहानुभूति अनुभव कर रही थी। वह उस मिंक कोट में सजी गुड़िया सी लड़की को आलिंगन में लेते हुए बोली, ‘एंजलीन, तुम्हें क्या दुख है?’

एंजलीन कंधे उचकाकर बोली, ‘ओह, कोई खास बात तो नहीं है। लेकिन कोई पंद्रह दिन पहले मिस्टर शार्ट मर गए। तुम्हें उनकी याद है न? वे हमेशा मेरे साथ अच्छा व्यवहार करते थे। खैर, वे मर गए और मेरे लिए पचास हजार रुपया छोडूं गए। फिर अभी पिछले हफ्ते बेचारे वृद्ध मिस्टर पिल्किनहाउस को भी दौरा पड़ा और वे भी चल बसे, और मेरे लिए साठ हजार रुपया छोड़ गए। और इस हफ्ते —इस हफ्ते कुछ भी नहीं हुआ।’

यही है तकलीफ—हमेशा दूसरों से अपेक्षाएं रखना, और अधिक की मांग करते जाना। और इस मांग का कहीं कोई अंत नहीं है। और जो कुछ भी मिला है, मन उससे अधिक और अधिक की कल्पना करके हमेशा के लिए दुखी रह सकता है।

गरीब आदमी दुखी हों, यह बात समझ में आती है। लेकिन अमीर आदमी भी दुखी होते हैं। जिनके पास सब कुछ है, वे उतने ही दुखी रहते हैं, जितने कि वे जिनके पास कुछ भी नहीं है। रोगी आदमी दुखी हो, यह बात समझ में आती है। लेकिन स्वस्थ आदमी भी दुखी है। दुख की जड़ कहीं और ही है। धन से, स्वास्थ्य से या किसी अन्य वस्तु से दुख का कोई संबंध नहीं है। दुख तो आदमी के भीतर एक अंतर्धारा और अंतःप्रवाह की तरह बना ही रहता है।

अधिक, और अधिक की मल में ही दुख छिपा हुआ है, और मनुष्य का मन सदैव अधिक, और अधिक की माग किए चला जाता है। क्या कभी तुम ऐसी कल्पना कर सकते हो जहां और अधिक की मांग न हो? असंभव है। यहां तक कि स्वर्ग में भी और अधिक की मांग हो सकती है। कोई भी व्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति की कल्पना नहीं कर सकता है जहां कि और अधिक की मांग न हो, जहां और बेहतर सुख —सुविधा, धन—समृद्धि की मांग न हो। इससे इतना ही स्पष्ट होता है कि व्यक्ति कहीं भी रहे, दुखी ही रहेगा। स्वर्ग भी उसके लिए पर्याप्त न होगा, इसलिए स्वर्ग की भी प्रतीक्षा मत करना। अगर स्वर्ग मिल भी गया, तो वह भी पर्याप्त न होगा।’वह उतना ही दुखी रहेगा जितना कि पहले था, शायद उससे भी अधिक। क्योंकि यहां कम से कम आशा तो थी—कि कहीं कोई स्वर्ग है और एक न एक दिन स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा। अगर स्वर्ग में प्रवेश मिल जाए, तो वह आशा भी समाप्त हो जाती है।

तुम जैसे भी हो, नरक में ही रहोगे, क्योंकि स्वर्ग और नरक तो चीजों को देखने के ढंग हैं। वे कोई भौतिक स्थान नहीं हैं, वे तो देखने के दृष्टिकोण हैं कि किस भांति तुम चीजों को देखते हो।

एक गिरगिट भी स्वर्ग में हो सकता है और लिओ टाल्सटाय भी नरक में हो सकते हैं। लिओ टाल्सटाय जैसा आदमी भी! लिओ टाल्सटाय विश्व विख्यात व्यक्ति था, उससे ज्यादा प्रसिद्धि की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कुछ थोड़े से गिने —चुने लोगों में उसका नाम भी हमेशा इतिहास में गिना जाएगा। उसके लिखे उपन्यास हमेशा पढ़े जाते रहेंगे। वह बहुत ही प्रतिभाशाली आदमी था। लेकिन तुम उससे ज्यादा दुखी व्यक्ति की कल्पना नहीं कर सकते हो।

लिओ टाल्सटाय रूस के धनवान व्यक्तियों में से एक था। वह राज —परिवार से संबंधित था, वह राजकुमार था। एक सुंदर राज — परिवार की लड़की से उसका विवाह हुआ था। लेकिन तुम उससे ज्यादा दुखी आदमी की कल्पना नहीं कर सकते, जो हमेशा आत्महत्या के बारे में सोचा करता था। धीरे — धीरे उसे लगने लगा कि वह शायद इसलिए दुखी है, क्योंकि वह बहुत धनवान है, तो फिर उसने एक गरीब आदमी की तरह, एक किसान की तरह रहना प्रारंभ कर दिया; लेकिन फिर भी वह दुखी ही रहा।

उसकी तकलीफ क्या थी? वह एक कल्पनाशील व्यक्ति था—उपन्यासकार को ऐसा होना भी चाहिए। उसकी कल्पना शक्ति अदभुत थी, इसलिए उसे जो कुछ भी उपलब्ध होता था, वह हमेशा कम ही होता था। क्योंकि जो कुछ भी उसे उपलब्ध था, वह उससे अधिक की, उससे बेहतर की कल्पना कर सकता था। और यही बात उसकी पीड़ा, और उसके दुख का कारण बन गई।

स्मरण रहे, अगर जीवन से तुम्हें कुछ आशा और अपेक्षा है, तो तुम जीवन में कुछ भी प्राप्त न कर सकोगे। अगर अपेक्षा न हो, तो चीजें अपनी परिपूर्ण महिमा के साथ उपस्थित हैं। कोई अपेक्षा कोई मांग न हो, तो अस्तित्व के सभी चमत्कार तुम पर बरस जाते हैं। अस्तित्व का संपूर्ण जादू तुम्हारे सामने प्रकट हो जाता है। उस समय की प्रतीक्षा करो, जब कि कोई विचार न हो लेकिन यह तो असंभव मालूम होता है।

ऐसा नहीं है कि तुम्हारे जीवन में कभी निर्विचार के क्षण न आते हों। पतंजलि कहते हैं, वैसे क्षण आते हैं। वे सभी प्रज्ञावान पुरुष जिन्होंने मनुष्य के. अंतस्तल में प्रवेश किया है, वे जानते हैं कि मनुष्य के जीवन में निर्विचार के, अंतराल के क्षण आते हैं लेकिन वह उन्हें चूक —चूक जाता है, क्योंकि वे अंतराल के क्षण, वर्तमान में होते हैं। और व्यक्ति एक विचार से दूसरे विचार में छलांग लगाता चला जाता है, और उन दो विचारों के बीच में ही अंतराल का क्षण होता है। स्वर्ग बीच में है —और व्यक्ति है कि एक नरक से दूसरे नरक तक छलांग लगाता रहता है।

स्वर्ग बीच में है, लेकिन तुम उन दोनों के बीच में नहीं हो। तुम एक विचार से दूसरे विचार के बीच में छलांग भरते रहते हो। और प्रत्येक विचार तुम्हारे अहंकार को पोषित करता रहता है, तुम्हारे होने को पोषित करता रहता है, तुम्हें विशेष सिद्ध करता रहता है। तुम्हें एक निश्चित ढांचा, आकार, रूप दे देता है, और तुम्हारा उसी निश्चित ढांचे, रूप और आकार के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाता है। तुम दो विचारों के बीच के अंतराल को देखना ही नहीं चाहते, क्योंकि उस अंतराल में देखना अपने मौलिक चेहरे को देखना है, जिसका कहीं कोई तादात्म्य नहीं —है। उस अंतराल में देखना शाश्वत को देखना है, जहां कि तुम विलीन ही हो जाओगे।

दो विचारों के बीच के शून्य या अंतराल को देखने से तुम इतने भयभीत हो, कि तुमने ऐसी व्यवस्था कर ली — है कि तुम उन्हें देखो ही नहीं, कि तुम उन्हें भूल ही जाओ।

दो विचारों के बीच में अंतराल होता है, लेकिन तुम उसे देख नहीं पाते हो। एक विचार दिखाई पड़ता है, फिर दूसरा विचार दिखाई पड़ता है, फिर कोई और विचार. थोड़ा ध्यान देना। दो विचार कभी भी एक—दूसरे पर चढ़ते नहीं हैं। प्रत्येक विचार अपने में अलग होता है। तो फिर दो विचारों के बीच अंतराल होगा ही। दो विचारों के बीच अंतराल होता ही है, और वही अंतराल शून्य में जाने का द्वार है। उसी द्वार से निर्विचार में, अस्तित्व में फिर से प्रवेश संभव हो सकता है। उसी द्वार से तो तुम्हें गार्डन ऑफ ईदन के बाहर कर दिया गया है। उसी द्वार से फिर से स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा, जब तुम फिर से चट्टान पर धूप सेंकते हुए उस गिरगिट की भांति विश्रांत हो जाओगे।

मैंने सुना है:

एक बार एक परिवार गांव से शहर आया। छोटा बॉबी जब अपने मित्र से मिलने उसके घर जा रहा था तो मां ने बॉबी को यातायात के बारे में कुछ हिदायत देते हुए कहा, ‘जब तक सड़क से सभी कारें न गुजर जाएं, तब तक कभी सड़क पार मत करना।’ कोई एक घंटे बाद बॉबी रोता हुआ वापस आया। उसकी मां ने घबराकर पूछा, ‘बॉबी क्या हुआ?’ बॉबी बोला, ‘मैं अपने दोस्त के घर नहीं जा सका। मैं इंतजार करता रहा, लेकिन कोई कार गुजरी ही नहीं।’

उससे कहा गया था कि जब तक सड़क से सभी कारें न गुजर जाएं, तब तक वह सड़क पार न करे, प्रतीक्षा करे, लेकिन कोई कार गुजरी ही नहीं। सड़क खाली पड़ी थी, और वह कारों के निकलने की प्रतीक्षा कर रहा था।

यही तुम्हारे भीतर की स्थिति है। सड़क हमेशा खाली है, उपलब्ध है, लेकिन तुम हो कि कारें ही खोजते रहते हो। तुम स्वयं ही विचारों को पकड़े रहते हो, और फिर परेशान होते हो। तुम्हारे भीतर विचार ही विचार चलते रहते हैं। उनकी भीड़ रोज—रोज बढ़ती चली जाती है। वे भीतर ही भीतर प्रतिध्वनि होते रहते हैं, गूंजते रहते हैं; और तुम हो कि उनके ऊपर ध्यान दिए चले जाते हो। तुम्हारा पूरा का पूरा दृष्टिकोण ही गलत है।

दृष्टि को बदलों। अगर विचारों को देखोगे तो मन निर्मित होता चला जाएगा। अगर विचारों के बीच के अंतरालों को देखोंगे, तो अपने से ही ध्यान घटने लगेगा। दो विचारों के बीच के अंतरालों का जोड़ ही ध्यान है, और दो विचारों के जोड़ का नाम ही मन है। यह दो दृष्टियां हैं, और यही दो संभावनाएं हैं तुम्हारे अस्तित्व की या तो मन के द्वारा, विचारों के द्वारा जी सकते हो, या फिर ध्यान के द्वारा जी सकते हो, यही दो संभावनाएं हैं।

विचारों के बीच के अंतरालों को देखो। अंतराल तो मौजूद हैं ही, वे सहज और स्वाभाविक रूप से उपलब्ध हैं। ध्यान कोई ऐसी बात नहीं है जिसे किसी प्रयास के माध्यम से प्राप्त करना है। ध्यान तो मन की भांति पहले से ही मौजूद है। सच तो यह है ध्यान मन से भी अधिक मौजूद है, क्योंकि मन तो केवल लहरों की भांति सतह पर ही होता है, और ध्यान समुद्र की अथाह गहराई की तरह मौजूद है।

परमात्मा भी तुम्हें उतना ही खोज रहा है जितना कि तुम परमात्मा को खोज रहे हो। शायद तुम परमात्मा को होशपूर्वक नहीं खोज रहे हो। शायद तुम उसे अलग — अलग नामों में, रूपों में खोज रहे होओगे। शायद तुम परमात्मा को प्रसन्नता में, आनंद में खोज रहे होओगे। शायद तुम परमात्मा को संगीत में, नृत्य में खोज रहे होओगे। शायद तुम परमात्मा को प्रेम में खोज रहे होओगे। तुम परमात्मा को अलग— अलग ढंग, अलग — अलग रूपों में खोज रहे हो। नाम —रूप से कुछ भेद नहीं पड़ता है। लेकिन जाने — अनजाने उसकी खोज जारी है —तुम परमात्मा को खोज जरूर रहे हो। और एक बात खयाल रखना कि वह भी तुम्हें खोज रहा है। क्योंकि जब तक दोनों तरफ से ही खोज और तड़पन न हो, मिलन संभव नहीं है।

समग्र भी अंश को उतना ही खोज रहा है, जितना कि अंश समग्र को खोज रहा है। फूल सूर्य को उतना ही खोज रहा है, जितना सूर्य फूल को खोज रहा है। केवल गिरगिट ही धूप का आनंद नहीं ले रहा है, सूर्य भी, गिरगिट के आनंद में भाग ले रहा है। अस्तित्व में सभी कुछ एक—दूसरे से जुड़ा हुआ है। ऐसा ही होना भी चाहिए, अन्यथा पूरा अस्तित्व ही बिखर जाएगा। पूरा अस्तित्व एक है, उसमें एक ही हृदय धड़क रहा है, एक ही नृत्य हो रहा है। सभी कुछ एकं —दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है। अस्तित्व को इस भांति होना ही है; अन्यथा सभी कुछ अलग— अलग हो जाएगा और फिर अस्तित्व अस्तित्व न रह जाएगा—वह खो जाएगा।

तुम्हें यह बात मैं एक कथा के माध्यम से कहना चाहूंगा। जरा इस कथा पर ध्यान देना

इसे ऐसे समझो कि एक आदमी पर्वत पर चढ़ गया—क्योंकि वह घाटी में तो बहुत जी चुका था और घाटी में उसने बहुत से सपने देखे, विचारों की उड़ानें भरीं, बहुत सी कल्पनाएं संजोई, लेकिन हमेशा उसे केवल हताशा और निराशा ही हाथ लगी। घाटी में वह रहा अवश्य, लेकिन हमेशा उसे कुछ खाली —खाली, कुछ अधूरा—सा ही लगता रहा। अत: एक दिन उसने सोचा कि पर्वत के शिखर पर जरूर परमात्मा रहता होगा।

घाटी में तो वह रह चुका था। पर्वत का शिखर तो घाटी से बहुत दूर था; जब सूर्य की किरणों मैं वह पर्वत चमकता था, तो वह उसे बहुत ही आकर्षित करता था। दूर की चीजें हमेशा आकर्षित लगती हैं, वे हमेशा तुम्हें पुकारती रहती हैं, आमंत्रित करती रहती हैं। अपने निकट की वस्तु को देखना बहुत ही कठिन होता है। जो पास में है, उसमें रस होना बहुत मुश्किल होता है। और जो दूर है, उसमें कोई रस न हो, आकर्षण न हो, यह भी मुश्किल होता है। दूर की वस्तु में तो बहुत ही अदभुत आकर्षण रहता है, और इसीलिए पर्वत की चोटी निरंतर पुकारती हुई मालूम होती है।

और जब घाटी में कुछ खाली—खाली लगे, रिक्तता का अनुभव हो, तो निस्संदेह ऐसा सोचना तर्क संगत भी है कि जिसे हम खोज रहे हैं वह घाटी में तो नहीं है। वह जरूर पर्वत के शिखर पर ही होगा। मन के लिए यह एकदम सहज और स्वाभाविक है कि वह एक अति से दूसरी अति की ओर सरक जाए, वह तुरंत घाटी से शिखर तक पहुंच जाता है।

मनुष्य सोचता है कि परमात्मा कहीं दूर पर्वत के ऊपर मौजूद है। मनुष्य जहां नीचे घाटी में रहता है, वहा मनुष्य की इच्छाएं भी हैं, वासनाएं भी हैं, परेशानियां भी हैं, प्रेम भी है, घृणा भी है और युद्ध भी है, सारी की सारी समस्याएं वहां पर मौजूद हैं। घाटी में तो चिंताओं पर चिंताएं इकट्ठी होती चली जाती हैं, और इसी तरह चिंताओं के बोझ से दबे —दबे ही एक दिन मृत्यु की गोद में समा जाते हो।

घाटी आदमी को अपनी कब्र की तरह मालूम होने लगती है। मनुष्य उस कब में से निकलकर कहीं भाग जाना चाहता है। इसी कारण फिर मनुष्य मुक्ति की, मोक्ष की बात सोचने लगता है। वह सोचने लगता है कि जो घाटी अब उसके लिए एक कारागृह बन गई है उससे निकलना कैसे हो। मोह से, प्रेम से कैसे छुटकारा हो, महत्वाकांक्षा, हिंसा, युद्ध से कैसे छुटकारा हो, समाज के बाहर कैसे आया जाए, जो केवल चिंता, पीड़ा और तनाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं देता है, सच तो यह है समाज पीड़ा और तनाव की ओर जबर्दस्ती धकेलता है।

मनुष्य इससे बचकर भागने की कोशिश करने लगता है, लेकिन यह बचकर भाग निकलना तो पलायन है। सच तो यह है, शिखर पर तो जाना होता नहीं है, लेकिन घाटी से पलायन शुरू हो जाता है। ऐसा नहीं है कि शिखर पुकारता नहीं है। सच तो यह है, जिस घाटी में हम रहते हैं, वह ही हमें शिखर की ओर जाने के लिए प्रेरित करती है। घाटी कितना ही शिखर की ओर जाने के लिए प्रेरित करे, लेकिन फिर भी घाटी से मुक्त या स्वतंत्र होना संभव नहीं। क्योंकि जब तक व्यक्ति को अपने ही होश और जागरण से यह समझ में नहीं आता है कि घाटी में कठिनाइयां हैं, तब तक मुक्ति या स्वतंत्रता संभव नहीं है। जिस—घाटी में मनुष्य रहता है, वह घाटी तो सिर्फ ऐसा परिस्थिति का निर्माण कर देती है, जिससे कि तुम और अधिक वहां न रह सको। धीरे — धीरे जीवन बोझ होने लगता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक न एक घड़ी ऐसी अवश्य आती है जब जीवन बोझ होने लगता है, संसार व्यर्थ लगने लगता है। और जीवन के उसी बोझ और व्यर्थता से व्यक्ति बचकर भाग निकलना चाहता है।

वही घड़ी ऐसी होती है जब मनुष्य शिखर की ओर भागता है। फिर आगे की कथा कहती है, जो कि इस कथा का सबसे महत्वपूर्ण भाग है कि दूसरी ओर परमात्मा पर्वत से उतर रहा होता है। क्योंकि परमात्मा अपनी शुद्धता और अकेलेपन से थक जाता है।

मनुष्य भीड़ से, अशुद्धता से थक जाता है, परमात्मा अपने अकेलेपन से, अपनी शुद्धता से थक जाता है।

क्या कभी तुमने इस बात. पर ध्यान दिया है? अकेले रहकर खुश रहना, आनंदित रहना बहुत ही आसान है। किसी दूसरे के साथ रहकर खुश रहना, आनंदित रहना बहुत कठिन है। अकेला व्यक्ति आसानी से आनंदित रह सकता है, उसमें कोई विशेष बात नहीं। उसके लिए कोई मूल्य भी नहीं चुकाना पड़ता है। लेकिन दो व्यक्ति साथ रहें और फिर भी आनंदित रह सकें, यह थोड़ा कठिन होता है। जब दो व्यक्ति साथ रहते हैं, तब खुश रहना बहुत कठिन है। तब तो अप्रसन्न रहना, दुखी रहना अधिक आसान है—उसके लिए कुछ मूल्य भी नहीं चुकाना पड़ता है, वह तो बहुत ही सरल और आसान है। और जब तीन व्यक्ति एक साथ हों, तो आनंदित होना असंभव होता है —तब तो किसी भी कीमत पर, किसी भी मूल्य पर आनंद की कोई संभावना ही नहीं होती है।

आदमी भीड़ से थक गया है। यहां पर हिलने —डुलने की भी जगह नहीं बची है। पृथ्वी पर इतनी भीड़ हो गई है कि व्यक्ति की अपनी स्पेस ही खतम हो गई है। जहां देखो वहां भीड़ और चारों ओर आसपास हमेशा दर्शक ही दर्शक मौजूद रहते हैं —जैसे कि व्यक्ति किसी रंगमंच पर अभिनय कर रहा हो—और भीड़ की आंखें चारों तरफ से उस पर लगी रहती हैं। कहीं कोई स्वात स्थान ही नहीं बचा है। धीरे धीरे व्यक्ति बिलकुल थक जाता है, ऊब जाता है।

लेकिन परमात्मा भी अपने स्वात से, शांति से ऊब जाता है। परमात्मा अपनी परिशुद्धता और एकांत में है, लेकिन इतनी परिशुद्धता भी थका देने वाली, उबा देने वाली बन जाती है; जब वह हमेशा—हमेशा के लिए उसी तरह से स्थायी हो जाती है। परमात्मा घाटी की ओर उतरकर आ रहा है, उसकी आकांक्षा ससार में उतर आने की है। मनुष्य की आकांक्षा संसार से बाहर छलांग लगाने की है, और परमात्मा की आकांक्षा वापस संसार में आ जाने की है। मनुष्य की अभीप्सा परमात्मा हो जाने की है, और परमात्मा की अभीप्सा मनुष्य हो जाने की है।

संसार से बाहर जाना भी सत्य है और संसार में वापस लौटना भी सत्य है। मनुष्य हमेशा संसार से छूट जाने की कोशिश करता है, और परमात्मा हमेशा संसार में लौट आने की कोशिश करता है। अगर परमात्मा किसी न किसी रूप में संसार में वापस न आता, तो संसार की सृजनात्मकता बहुत पहले ही समाप्त हो जाती।

यह एक वर्तुल है। गंगा समुद्र में गिरती है और समुद्र बादलों के रूप में वापस उमड़ते —घुमड़ते हैं और वे बादल ही हिमालय पर पानी बनकर बरसते हैं —और फिर से गंगा में आकर मिल जाते हैं और इस तरह से गंगा निरंतर बहती जाती है। गंगा हमेशा आगे और आगे दौड़ी चली जाती है, और समुद्र हमेशा बादल बनकर लौटता रहता है।

ऐसे ही मनुष्य हमेशा परमात्मा को खोजता रहता है, परमात्मा हमेशा मनुष्य को खोजता रहता है यह एक संपूर्ण वर्तुल है।

अगर केवल मनुष्य ही परमात्मा की खोज कर रहा होता, तो परमात्मा मनुष्य के पास कभी नहीं आता, और यह संसार बहुत पहले ही समाप्त हो गया होता। संसार कभी का समाप्त हो गया होता, क्योंकि एक न एक दिन सभी मनुष्य परमात्मा तक पहुंच जाते, और परमात्मा किसी रूप में संसार की तरफ वापस नहीं आ रहा होता, फिर तो यह संसार समाप्त हो ही जाता।

लेकिन शिखर का अस्तित्व बिना घाटी के नहीं है। और परमात्मा का अस्तित्व बिना संसार के नहीं हो सकता है, और दिन का अस्तित्व बिना रात के नहीं हो सकता है, और मृत्यु के बिना जीवन की कल्पना करना असंभव है।

इस बात को समझना थोड़ा कठिन है कि परमात्मा हमेशा अलग — अलग रूपों में संसार में आता रहता है, और मनुष्य हमेशा परमात्मा में वापस लौट जाने का प्रयास करता है—इसीलिए मनुष्य संसार को छोड्कर, संसार को त्याग कर जगल की ओर भागता है, संन्यासी हो जाता है, और परमात्मा हमेशा उत्सव और आनंद के रूप में संसार में वापस लौटता रहता है।

मनुष्य का परमात्मा की तरफ लौटना, और परमात्मा का अनेक— अनेक रूपों में संसार में लौटना, दोनों ही सत्य हैं। अगर परमात्मा और संसार दोनों अलग — अलग हैं, तो पृथक रूप में दोनों अधूरे हैं, आशिक हैं; लेकिन परमात्मा और संसार दोनों साथ —साथ होकर एक सत्य बन जाते हैं, एक समग्र सत्य।

अगर धर्म केवल त्याग ही त्याग है, तो वह आधा है। धर्म तभी पूर्ण हो सकता है, जब वह सृजनात्मक भी हो। धर्म व्यक्ति को स्वयं में उतरना तो सिखाए ही, लेकिन धर्म को साथ ही यह भी सिखाना चाहिए कि वापस बाहर संसार में फिर से कैसे आना। क्योंकि इसी भीतर आने और जाने के बीच, कहीं घाटी और शिखर के बीच ही परमात्मा और मनुष्य का मिलन संभव होता है।

अगर तुम परमात्मा को चूकते हो. और पूरी संभावना इसी बात की है, क्योंकि अगर तुम पर्वत पर चढ़ रहे हो और परमात्मा पर्वत से उतर रहा है, तो तुम उसकी ओर देखोगे भी नहीं। हो सकता है परमात्मा को पर्वत से उतरता हुआ देखकर तुम्हारी आंखों में निंदा का भाव भी हो—कि यह कैसा परमात्मा है, जो फिर से घाटी की ओर जा रहा है? शायद तुम परमात्मा की ओर इस दृष्टि से भी देख सकते हो कि ‘इससे तो मैं ही ज्यादा पवित्र हूं।’

स्मरण रहे जब भी कभी परमात्मा से तुम्हारा मिलना होगा, तुम उसे संसार की ओर वापस लौटता हुआ पाओगे; और तुम संसार को त्यागकर जा रहे होओगे। इसीलिए तुम्हारे तथाकथित साधु —संत, कभी नहीं समझ पाते कि परमात्मा यानी क्या। तुम्हारे ये तथाकथित साधु —संत परमात्मा के बारे में बनी—बनाई मृत धारणा को ही ढोते चले जाते हैं, उन्हें मालूम ही नहीं है कि परमात्मा यानी क्या? क्योंकि वे तो अपनी बनी—बनाई मृत धारणाओं के कारण परमात्मा को हमेशा चूकते ही चले जाते हैं अगर कहीं मार्ग पर परमात्मा से तुम्हारा मिलना भी हो जाए, तो तुम उसे पहचान न सकोगे, क्योंकि तुम्हारी सड़ी—गली धारणाओं के कारण तो तुम्हें परमात्मा भी पापी मालूम होगा, कि परमात्मा और संसार को ओर वापस लौट रहा है!

लेकिन अगर ऐसे लोग पर्वत की चोटी पर पहुंच भी जाएं तो वे उसे खाली पाएंगे। संसार की घाटी भरी हुई है, लेकिन पर्वत की चोटी तो एकदम खाली है। ऐसे लोग वहां परमात्मा को नहीं पाएंगे, क्योंकि परमात्मा तो हमेशा किसी न किसी रूप में संसार में वापस लौट रहा होता है। अलग— अलग आकारों में अलग — अलग रूपों में हमेशा सृजन कर रहा होता है। उसका सृजन तो न समाप्त होने वाला सृजन है। उसका सृजन तो अनंत है। परमात्मा का स्वयं का कोई रूप या आकार नहीं है। उसके तो अनंत रूप और आकार हैं, और अनंत रूपों और आकारों में निरंतर उसके सृजन की प्रक्रिया चल रही है।

अगर मार्ग पर कभी तुम्हारा परमात्मा से मिलना हो जाए, और मार्ग पर तुम उसे पहचान सको, केवल तभी यह संभावना है कि तुम शिखर पर जाने का विचार छोड़ दो. शायद तुम बीच में से ही वापस लौट आओ। जो लोग भी संसार को त्यागकर साधना के लिए जंगल में गए थे, बुद्धत्व प्राप्ति के बाद वे वापस संसार में ही लौट आए। वे अपने बुद्धत्व की सुवास के साथ वापस संसार में ही लौट आए। उन्हें संसार में वापस आना ही पड़ा। जब उन्होंने जीवन के सार को पहचान लिया; उन्होंने जीवन की पूर्णता को, पवित्रता को पहचान लिया, तो उन्हें वापस संसार में लौट ही आना पड़ा। तब उन्होंने जाना कि बाह्य और अंतर अलग नहीं हैं, सृजनात्मकता एवं सृजन अलग नहीं हैं, पदार्थ और मन अलग नहीं हैं, लौकिक और अलौकिक अलग नहीं हैं —वे एक ही हैं। उनके लिए सभी द्वैत समाप्त हो गए। इसी दुई के मिट जाने को ही मैं अद्वैत कहता हूं —यही वेदांत का और योग का वास्तविक संदेश है।

संसार से थक जाना स्वाभाविक है। मुक्ति की खोज करना एकदम स्वाभाविक है, इसमें कुछ विशिष्टता नहीं है।

एक बार ऐसा हुआ:

मुल्ला नसरुद्दीन अपने विवाह की पच्चीसवीं वर्षगांठ मना रहा था उसने अपने सभी दोस्तों के लिए एक बड़ी पार्टी का आयोजन किया। उस पार्टी में उसने मुझे भी बुलाया। लेकिन पार्टी में मेजबान तो कहीं दिखायी ही नहीं दे रहा था। चारों ओर मैंने बहुत खोजा, आखिर में मैंने मुल्ला को लाइब्रेरी में ब्रांडी पीते हुए देखा और मुल्ला था कि आग की ओर देखे जा रहा था।

मैंने मुल्ला से कहा, ‘मुल्ला, तुम्हें तो अपने मेहमानों के साथ उत्सव मनाना चाहिए। तुम उदास क्यों हो? और तुम यहां क्या कर रहे हो?’

मुल्ला बोला, ‘बताऊं मैं उदास क्यों हूं? जब मेरे विवाह के पाच वर्ष हुए थे, तो मैंने सोचा अपनी पत्नी की हत्या कर दूं। मैंने अपने वकील को जाकर बताया कि मैं क्या करने जा रहा हूं। वकील ने कहा कि अगर मुल्ला तुमने ऐसा किया तो बीस साल के लिए जेल जाना पड़ेगा।’ मुल्ला मुझसे कहने लगा, ‘जरा सोचिए, कम से कम आज तो मैं स्वतंत्र हो गया होता।’

ऐसा स्वाभाविक है। यह संसार बहुत ही कष्ट और’ पीड़ाओं से भरा हुआ है। यहां सिर्फ चिंता और परेशानी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। संसार व्यक्ति के लिए सिर्फ कारागृह खड़े करता है, इसलिए मुक्ति की, स्वतंत्रता की खोज करना स्वाभाविक है—इसमें कोई विशेष बात नहीं है। विशिष्टता तो तब है, जब तुम शिखर से घाटी में पैरों में एक नए ही नृत्य की थिरकन लेकर वापस लौटते हो, तुम्हारे होंठों पर नया गान होता है, तुम्हारा पूरा अस्तित्व ही बदल गया होता है, तुम्हारा पूरा रूप ही नया होता है—जब इस अशुद्ध संसार में तुम शुद्धता की भाति बिना किसी भय के आते हो, क्योंकि अब तुम्हें अशुद्ध नहीं किया जा सकता।

जब संसार के कारागृह में अपनी स्वेच्छा से वापस लौट आते हो, जब मुक्त मनुष्य की भांति कारागृह में लौट आते हो, और कारागृह को स्वीकार कर लेते हो, अपनी ही .कारागृह की कोठरी में लौट आते हो, तो फिर कारागृह कारागृह नहीं रह जाता है, क्योंकि स्वतंत्रता को कारागृह में नहीं रखा जा सकता है। केवल गुलाम आदमी ही कारागृह में कैद रह सकता है। मुक्त आदमी किसी भी प्रकार की कैद में नहीं रह सकता है—संभव है वह कारागृह में रहता हो, लेकिन फिर भी मुक्त होता है। जब तक. तुम्हारी स्वतंत्रता इतनी शक्तिशाली नहीं हो जाती है, तब तक उसका कोई मूल्य नहीं है।

अब हम सूत्रों में प्रवेश करेंगे:

‘समाधि’ शब्द को अंग्रेजी में अनुवाद करना बहुत कठिन है। इसके समानांतर अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है। लेकिन ग्रीक भाषा में ऐसा शब्द है जो कि समाधि के समानांतर है. वह है ‘ऐटरेक्सिआ’। ग्रीक भाषा के इस शब्द का अर्थ है मौन, शांति, गहन आंतरिक संतोष।

यही ‘समाधि’ का भी अर्थ है इतने संतुष्ट हो जाना कि फिर कोई चीज अशांत न कर पाए, कि कोई भी बात शांति को भंग न कर पाए। अस्तित्व के साथ एक लयबद्धता, एक तालमेल हो जाए; अस्तित्व के साथ एक रूप हो जाए —कि अस्तित्व और तुम अलग— अलग न रह जाओ। फिर कोई समस्या ही नहीं रह जाती है। अब कोई दूसरा है ही नहीं जो कि शांति को भंग कर सके, फिर दूसरा जैसा कुछ बचता ही नहीं, एक ही रह जाता है। दूसरा तो विचारों के बिदा होने के साथ—साथ ही बिदा हो जाता है। जहां विचार होते हैं, वहीं दूसरा होता है। निर्विचार अवस्था ही समाधि है, ऐटरेक्सिआ है। निर्विचार अवस्था ही शांति है, मौन है।

जब निर्विचार अवस्था उपलब्ध हो जाती है, तो ऐसा नहीं है कि विचार की क्षमता नहीं रह जाती है। नहीं, ऐसा नहीं होता है। सोचने की, विचारने की शक्ति समाप्त हो जाएगी, ऐसा नहीं है। इसके विपरीत सच तो यह है जब शून्य में, निर्विचार में व्यक्ति जीता है, तो पहली बार विचारने की, मनन की क्षमता का आविर्भाव होता है।

इससे पहले तो व्यक्ति केवल सामाजिक वातावरण का, स्वयं के ही विचारों का शिकार होता है, जिनसे कि वह निरंतर घिरा होता है —एक विचार भी स्वयं का नहीं होता है। विचार तो हमेशा मौजूद रहते हैं, लेकिन विचार करने की क्षमता नहीं होती है। वे विचार मन में ऐसे ही बसेरा कर लेते हैं, जैसे शाम को पक्षी वृक्षों पर आकर बसेरा कर लेते हैं। वे विचार दूसरों के द्वारा दिए गए विचार हैं। वे विचार मौलिक नहीं हैं, सब उधार हैं।

तुम्हारा जो जीवन है, वह उधार का जीवन है। इसीलिए तुम उदास और दुखी रहते हो। इसीलिए तुम में जीवन जैसा कुछ दिखाई नहीं पड़ता है, तुम जीवन को ढोते हुए मालूम पड़ते हो, जहां कहीं कोई आनंद —उत्साह की तरंग नहीं है। इसीलिए तुम्हारे जीवन में कोई आनंद, कोई उत्सव नहीं है। उधार विचारों के नीचे सब कुछ दब गया है। तुम्हारा पूरा का पूरा अंतर्प्रवाह अवरुद्ध हो गया है। उधार विचारों के कारण जीवन की जीवंत धारा के साथ बह सकना संभव नहीं हो पाता है। लेकिन जब तुम समाधि के, ऐटरेक्सिआ के हिस्से हो जाते हो, तो भीतर गहन शांति और विराम छा जाता है, तब पहली बार सोचने —विचारने की क्षमता का जन्म हो पाता है —लेकिन अब जो विचार हैं वे तुम्हारे अपने हैं। अब जो जीवन होगा वह मौलिक और यथार्थ होगा। जो जीवंत होगा, जिसमें सुबह की भांति ताजगी होगी, उसमें सुबह की ठंडी हवा जैसी शीतलता और ताजगी होगी। और तब तुम जो भी करोगे उसमें सृजनात्मकता होगी।

‘समाधि’ में तुम सर्जक हो जाते हो, या कहो कि जो कुछ भी तुम करते हो उसमें सृजन ही होता है, क्योंकि समाधि में तुम परमात्मा के अंश हो जाते हो।

पास्कल का एक वचन है कि मनुष्य की बहुत सी मुसीबतों का कारण है कि वह चुपचाप शांति से अपने कमरे में नहीं बैठ सकता है।

और पास्कल के इस वचन में सचाई है। अगर व्यक्ति अपने में शांत होकर बैठ सके तो लगभग सभी मुसीबतें और सभी परेशानियां समाप्त हो जाएंगी। चित्त का भटकाव ही परेशानियों और मुसीबतों के जन्म का कारण है। और उन विचारों के साथ अनावश्यक रूप से जुड़ जाने से जो कि स्वयं के नहीं हैं, व्यक्ति स्वयं के लिए मुसीबतें और परेशानियां खड़ी कर लेता है। और विचारों को व्यक्ति इसलिए निर्मित करता है, क्योंकि वह शांत नहीं बैठ सकता है।

‘समाधि परिणाम वह आंतरिक रूपांतरण है, जहां चित्त को तोड्ने वाली अशांत वृत्तियों का क्रमिक ठहराव आ जाता है और साथ ही साथ एकाग्रता उदित होती है।’

पहले पतंजलि ने ‘निरोध परिणाम’ की बात कही, जिसमें दो विचारों के बीच के अंतराल को देखना है। अगर तुम विचारों को देखते ही जाओ, देखते ही चले जाओ, तो धीरे — धीरे विचारों में ठहराव आने लगता है, वे शांत होने लगते हैं।

जैसे किसी पहाडी नदी में से कोई बैलगाड़ी गुजरी हो तो उन बैलगाड़ी के पहियों के निकलने के कारण, जो नदी अभी तक एकदम स्वच्छ और शांत बह रही थी, उसका पानी गंदा और अस्वच्छ हो जाएगा। वही नदी जिसका जल अभी कुछ क्षण पहले एकदम स्वच्छ और साफ था अब गंदा हो गया, उसमें गंदगी घुल गयी। लेकिन फिर बैलगाड़ी वहां से जा चुकी, और नदी फिर पहले की तरह बहती ही चली जा रही है, तो धीरे — धीरे जैसे —जैसे समय निकलता है, गंदगी और धूल फिर से नीचे बैठ जाती है, नदी फिर से साफ—स्वच्छ हो जाती है।

ठीक ऐसे ही है जब दो विचारों के बीच के अंतरालों ‘पर ध्यान दो, तो विचारों की बैलगाड़ियां, विचारों की वह भीड़ जिसने कि जीवन को पूरी तरह अस्त —व्यस्त कर दिया था, धीरे — धीरे दूर होने लगता है और चैतन्य का प्रवाह थिर होने लगता है।

इसे ही पतंजलि ‘समाधि परिणाम’, आंतरिक रूपांतरण —कहते हैं।

‘जहां चित्त को तोड्ने वाली अशांत वृत्तियों का क्रमिक ठहराव आ जाता है और साथ ही साथ एकाग्रता उदित होती है।’

तब दो बातें होती हैं। एक ओर तो अशांत अवस्थाएं शांत हो जाती हैं और दूसरी ओर एकाग्रता का जन्म होने लगता है।

जब तुम्हारे मस्तिष्क में बहुत ज्यादा विचार भरे होते हैं, उस समय तुम एक नहीं होते हो, विभक्त होते हो। उस समय तुम एक चेतना नहीं होते, उस समय भीड़ की तरह होते हो, तुम्हारे भीतर विचारों की भीड़ ही भीड़ होती है। जब तुम्हारे भीतर विचारों की भीड़ चल रही हो, और तुम विचारों को देख रहे होते हो, तो तुम अपने ही भीतर अलग — अलग भागों में विभक्त हो जाते हो, उतने ही भागों में विभक्त हो जाते हो जितने कि मन में विचार चल रहे होते हैं। प्रत्येक विचार तुम्हारे अस्तित्व को विभक्त करता चला जाता है।

तुम बहु—चित्तवान हो जाते हो, एक —मन नहीं रह जाते हो। तब तुम एक नहीं रह जाते हो, तुम बंट जाते हो, क्योंकि प्रत्येक विचार में तुम्हारी ऊर्जा प्रवाहित होती है, जो कि तुम्हें विभक्त कर देती है —और वह विचारों की भीड़ सभी दिशाओं में चारों ओर दौड़ती रहती है। तुम करीब —करीब विक्षिप्तता की अवस्था में पहुंच जाते हो।

मैंने एक कथा सुनी है

एक वृद्ध स्कॉटिश गाइड एक नव —निर्वाचित पादरी को एक पथरीले इलाके में तीतर के शिकार के लिए लेकर गया। जब वह थका —मादा वापस आया तो आग के सामने अपनी कुर्सी खींचकर बैठ गया।

उसकी पत्नी ने कहा, ‘कस, तुम्हारे लिए गर्म —गर्म चाय लायी हूं। यह तो बताओ कि क्या यह नया पादरी अच्छा निशानेबाज है?’

उस वृद्ध आदमी ने पहले अपने पाइप का एक कश भरा, फिर जवाब दिया, ‘हां, वह अच्छा निशानेबाज है। लेकिन सच में यह भी कितना चमत्कार है कि जब वह गोली चलाता है, तो परमात्मा की कृपा पक्षियों की रक्षा करती है।’

तुम अपना लक्ष्य चूक रहे हो, क्योंकि तुम एकाग्र नहीं हो। मनुष्य की सारी पीड़ा और दुख का कारण ही यही है कि वह एक साथ बहुत सी दिशाओं में भाग रहा है —बिना किसी निर्णय के, बिना किसी लक्ष्य के वह भागा चला जा रहा है। वह जानता ही नहीं है कि कहां जा रहा है, क्यों जा रहा है, किसलिए जा रहा है। बस जा रहा है।

मैंने सुना है कि एक मनोविश्लेषक के द्वार पर दो राजनीतिज्ञों का मिलना हुआ। एक राजनीतिज्ञ बाहर आ रहा था, और दूसरा राजनीतिज्ञ जो कि भीतर जा रहा था, वह पूछने लगा, ‘ आप भीतर आ रहे हैं या बाहर जा रहे हैं?’ जो बाहर आ रहा था वह कहने लगा, ‘अरे, अगर मुझे यह मालूम होता कि मैं बाहर जा रहा हूं या भीतर आ रहा हूं, तो मैं यहां पर आता ही क्यों।’

कोई भी नहीं जानता है कि वह बाहर आ रहा है या भीतर जा रहा है। आखिर तुम जा कहां रहे हो? तुम किसे खोज रहे हो? तुम्हारा लक्ष्य हमेशा बदलता रहता है, इसलिए तुम चूकते चले जाते हो। लक्ष्य निरंतर बदलते रहते हैं। तुम हजारों लक्ष्यों से घिरे रहते हो, और उन हजारों लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए तुम्हारे उतने ही रूप हो जाते हैं, तुम एक भीड़ हो जाते हो —एक ऐसी भीड़ जो कि प्रत्येक लक्ष्य पर निशाना साधने की कोशिश कर रही होती है। और अंत में पाते हो कि हाथ खाली के खाली ही रह गए पूरा जीवन व्यर्थ ही चला गया।

‘समाधि परिणाम वह आंतरिक रूपांतरण है, जहां चित्त को तोड्ने वाली अशांत वृत्तियों का क्रमिक ठहराव आ जाता है और साथ ही साथ एकाग्रता उदित होती है।’

जब विचार मिट जाते हैं —विचार चित्त को विभक्त करते हैं —तब एकाग्रता उदित होती है। तब तुम एक हो जाते हो। तब चेतना का प्रवाह एक ही दिशा में होने लगता है, चेतना को दिशा मिल जाती है। चेतना के पास अब एक सुनिश्चित दिशा होती है। जिसके माध्यम से अब लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है, और पूर्णता की प्राप्ति हो सकती है।

‘एकाग्रता परिणाम वह एकाग्र रूपांतरण है, चित्त की ऐसी अवस्था है जहां चित्त का विचार—विषय जो कि शांत हो रहा होता है, वह अगले ही क्षण ठीक वैसे ही विचार —विषय द्वारा प्रतिस्थापित हो जाता है।’

साधारणतया जब एक विचार जा रहा होता है, और उसकी जगह दूसरा विचार आ रहा होता है तो उसका स्वरूप बिलकुल ही अलग होता है। उदासी जाती है, तो प्रसन्नता आ जाती है। प्रसन्नता

जाती है, तो निराशा आ जाती है। निराशा नहीं होगी तो क्रोध आने लगेगा। क्रोध नहीं होगा तो उदासी घेरने लगेगी। जब आसपास का वातावरण बदलता है, तो उस वातावरण के साथ—साथ तुम भी बदलते हो। हर क्षण तुम्हारी भाव—दशा अलग — अलग होती है। इसलिए, अगर तुम्हें यह पता न हो कि तुम कौन हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि—क्योंकि सुबह तुम क्रोध में आग —बबूला हो रहे थे दोपहर के भोजन के समय तुम खुश थे, थोड़ी देर बाद उदासी ने घेर लिया होता है, शाम को एकदम निराश हो गए होते हो। तुम जानते ही नहीं हो कि तुम कौन हो। तुम क्षण — क्षण इसलिए बदलते चले जाते हो, क्योंकि कोई सा भी भाव जो तुम्हारे पास से गुजरता है, कुछ पलों के लिए तुम उसके साथ एक हो जाते हो, तुम भूल ही जाते हो कि यह तुम्हारा वास्तविक रूप नहीं है।

एकाग्रता परिणाम चेतना की वह अवस्था है, जहां भावों का क्षण — क्षण में बदलना समाप्त हो जाता है। तुम एकाग्रचित्त हो जाते हो। केवल इतना ही नहीं, अगर तुम एक ही अवस्था में रहना चाहो, तो तुमने उस अवस्था में रहने की क्षमता अर्जित कर ली होती है। अगर प्रसन्न रहना चाहते हो तो फिर प्रसन्न रह सकते हो, और फिर तुम्हारी प्रसन्नता बढ़ती ही चली जाती है। अगर आनंदित रहना चाहते हो, तो आनंदित ही रह सकते हो। अगर उदास रहना चाहते हो, तो उदास रह सकते हो, फिर सब कुछ तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है। अब मालिक तुम ही होते हो। वरना बिना एकाग्रता के, बाहर तो सभी कुछ बदलता रहता है।

जब मैं तुम्हें देखता हूं तो तुम्हें देखकर मुझे भरोसा ही नहीं आता है कि आखिर तुम सब कुछ चला कैसे लेते हो। कभी —कभी प्रेमी मेरे पास आ जाते हैं और कहते हैं, ‘हम एक —दूसरे के गहरे प्रेम में हैं। हमें आशीर्वाद दें।’ और दूसरे ही दिन वे आकर कहते हैं, ‘हम आपस में हमेशा लड़ते —झगड़ते रहते हैं, इसलिए हम अलग हो गए हैं।’

इसमें सत्य क्या है? प्रेम या झगड़ा। तुम्हारे साथ तो कोई भी बात सत्य मालूम नहीं होती है। इस क्षण प्रेम में होते हो, तो अगले ही क्षण झगड़ा शुरू हो जाता है। क्षण में सब कुछ बदल जाता है कुछ भी स्थायी नहीं है। जो कुछ भी होता है, वह तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा नहीं होता है। सभी कुछ तुम्हारे सोचने —विचारने की प्रक्रिया का ही हिस्सा होता है —एक विचार के साथ तुम कुछ होते हो दूसरे विचार के साथ कुछ और हो जाते हो। प्रत्येक विचार तुम्हें अपने रग में रंगता चला जाता है। ऐसा हुआ एक लड़की की दृष्टि कमजोर थी और उसे चश्मा लगाना अच्छा नहीं लगता था। उसने विवाह करने की ठानी। आखिरकार उसका विवाह भी हो गया। और वह अपने पति के साथ हनीमून मनाने के लिए नियाग्रा —फाल्स गई। जब वह हनीमून मनाकर वापस लौटी तो उसको देखकर उसकी मां एकदम चीख पड़ी। जल्दी से दौड़कर उसने आंखों के डाक्टर को फोन किया।

‘डाक्टर,’ वह हांफते .हुए बोली, ‘बिलकुल अभी आपको यहां आना होगा। बहुत ही संकट की घड़ी है। मेरी बेटी को चश्मा लगाना बिलकुल अच्छा नहीं लगत, और अभी वह हनीमून से लौटी है, और…….’

‘मैडम, ‘ डाक्टर बीच में ही टोकते हुए बोला, ‘कृपया अपने पर नियंत्रण रखें। आपकी बेटी  अस्पताल में आ जाए। चाहे उसकी आंखें कितनी ही खराब क्यों न हों, फिर भी यह कोई बहुत बड़ा संकट नहीं है।’

‘ओह, नहीं?’ मां ने कहा, ‘सुनिए तो जरा, अब जो आदमी उसके साथ है वह वही आदमी नहीं है, जिसके साथ वह नियाग्रा—फाल्स देखने गई थी।’

लेकिन यही तो सभी की हालत है। जिस आदमी से तुम सुबह प्रेम करते हो, शाम को उसी से घृणा करने लगते हो। सुबह जिस आदमी से घृणा करते हो, शाम को उसी आदमी से प्रेम करने लगते हो। स्त्री या पुरुष जो एक दिन सुंदर मालूम होता था, आज सुंदर नहीं मालूम होता है।

यही है इमरजेंसी केस, यही है संकट की घड़ी।

और इसी तरह से तुम जीए चले जाते हो। बहते हुए लकड़ी के टुकड़े की तरह, जिधर हवा उसे ले जाती है, वह उधर ही चला जाता है। हवा का रुख बदलता है, लकड़ी के टुकड़े का रुख भी बदल जाता है। ठीक ऐसे ही तुम्हारे विचार बदलते हैं, तुम बदल जाते हो। तुम्हारे पास अपनी कोई चेतना, अपनी कोई आत्मा नहीं है।

गुर्जिएफ अपने शिष्यों से कहा करता था, ‘पहले आत्मवान बनो, क्योंकि अभी तो तुम्हारा होना अस्तित्व ही नहीं रखता है। अपने जीवन का एकमात्र यही लक्ष्य बन जाने दो, आत्मवान बनो।’ अगर कोई गुर्जिएफ से पूछता, ‘हम प्रेम कैसे करें?’

वह कहता, ‘नासमझी की बातें मत पूछो। पहले आत्मवान बन जाओ, क्योंकि जब तक तुम आत्मवान न होओगे, तुम प्रेम कैसे कर सकते हो?’

जब तक तुम आत्मवान नहीं बनोगे, तुम कैसे आनंदित हो सकते हो? जब तक आत्मवान नहीं बनोगे, कैसे कुछ कर सकते हो? सर्वप्रथम तो आत्मवान होना है, फिर उसके बाद ही सभी कुछ संभव हो सकता है।

जीसस कहा करते थे, ‘पहले तुम प्रभु का राज्य खोज लो, और फिर सब अपने से मिल जाएगा।’ मैं इसमें थोड़ा परिवर्तन करना चाहूंगा पहले अपने अंतर — अस्तित्व को, अपने प्रभु के अस्तित्व के राज्य को खोज लो, और फिर सब अपने से मिल जाएगा। और जीसस का भी प्रभु के राज्य से यही मतलब है। अस्तित्व के राज्य को ही पुरानी शब्दावली में प्रभु ‘का राज्य कहा जाता है। पहले आत्मवान, अस्तित्ववान हो जाओ —तब सभी कुछ संभव है। लेकिन अभी तो जब मैं तुम्हारी आंखों में देखता हूं, तो तुम वहां मौजूद ही नहीं होते। बहुत से अतिथि वहां होते हैं, लेकिन मेजबान ही वहा नहीं होता है।

‘एकाग्रता परिणाम’, चेतना की एकाग्रता की आधारभूत रूप से आवश्यकता है, जिससे तुम्हारा अस्तित्व जीवंत हो सके। अगर तुम हमेशा परिवर्तित होते रहो, अस्तित्ववान होने की कोई संभावना ही नहीं है। अधिक से अधिक आज यह रूप होगा, तो कल वह रूप होगा, तो कभी कुछ और रूप होगा, लेकिन अस्तित्ववान कभी न हो सकोगे।

‘जो कुछ अंतिम चार सूत्रों में कहा गया है, उसके द्वारा मूल —तत्वों और इंद्रियों की विशिष्टताओं उनके गुण — धर्म और उनकी अवस्थाओं के रूपांतरणों की व्याख्या भी हो जाती है।’

और पतंजलि कहते हैं, यही स्थिति है तुम्हारे आसपास संसार बदल रहा है, शरीर बदल रहा है, इंद्रियां बदल रही हैं, मन बदल रहा है, सभी कुछ बदल रहा है — और अगर तुम भी इनके साथ बदल रहे हो, तो फिर अपरिवर्तनीय को, शाश्वत को खोजने की कोई संभावना नहीं बचती है।

यह सत्य है कि शेष सभी कुछ परिवर्तित हो रहा है। संसार निरंतर परिवर्तित हो रहा है। और तीव्रता से परिवर्तित हो रहा है; उसमें ठहराव जैसा कुछ भी नहीं है। संसार का परिवर्तित होना एक अनवरत प्रवाह है। और संसार को ऐसा होना ही है। संसार में केवल एक ही चीज स्थायी है, और वह है स्वयं परिवर्तन। परिवर्तन के अतिरिक्त शेष सभी कुछ बदल रहा है। केवल परिवर्तन ही स्थायी रूप में बना रहता है।

हर पल शरीर बदल रहा है। रोज—रोज शरीर की उम्र बढ़ रही है, शरीर आगे बढ़ रहा है, अगर शरीर विकासमान न हो तो आदमी वृद्ध कैसे होगा, युवा कैसे होगा, बालक से जवान कैसे हो सकेगा? क्या कोई यह बता सकता है कि कब बच्चा बालक से युवा हो गया, या युवा आदमी से किस समय वृद्ध हो गया? कठिन है बताना। सच तो यह है कि अगर किसी फिजीशियन से पूछा जाए तो उन्हें अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि ठीक—ठीक किस समय पता चलता है कि कोई आदमी अभी जीवित था और थोड़ी देर बाद मर गया। कुछ भी बताना असंभव है। इसकी परिभाषा अभी भी स्प्ष्ट नहीं है, क्योंकि जीवन एक प्रक्रिया है, गतिमयता है। सच तो यह है जब कोई आदमी मर भी जाता है और उसके घर—परिवार के लोग, नाते —रिश्तेदार, मित्र उसके पास से हट भी जाएं, तो भी शरीर में थोड़ी —बहुत प्रक्रिया जारी रहती है —जैसे नाखूनों का बढ़ना, बालों का बढ़ना फिर भी जारी रहता है। शरीर का कोई हिस्सा अभी भी जीवित और विकासमान रहता है।

कब व्‍यक्ति को मृत घोषित किया जाए, अभी तक फिजीशियन लोग भी ठीक से नहीं समझ पाए हैं। सच तो यह है जीवन और मृत्यु की कोई परिभाषा की भी नहीं जा सकती है, क्योंकि शरीर एक प्रवाह है। शरीर निरंतर परिवर्तित हो रहा है, मन परिवर्तित हो रहा है —हर क्षण मन परिवर्तित हो रहा है।

अगर इस परिवर्तनशील संसार के साथ तुम भी निरंतर परिवर्तित हो रहे हो, और साथ ही अगर सत्य की, परमात्मा की, आनंद की खोज कर रहे हो, तो सिवाय निराशा और हताशा के कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। स्वयं के भीतर जाओ, और विचारों के बीच के उन अंतरालों में डुबकी मारो जहां न संसार का अस्तित्व होता है, न मन का अस्तित्व होता है, और न ही शरीर का अस्तित्व होता है। उन्हीं अंतरालों में पहली बार उस शाश्वत से साक्षात्कार होता है, जिसका न कोई प्रारंभ है और न कोई अंत है, जो कभी परिवर्तित नहीं होता है।

‘चाहे वे सुप्त हों या सक्रिय हों या अव्यक्त हों, सारे गुणधर्म आधार—तत्व में अंतर्निष्ठ होते हैं।’

पतंजलि कहते हैं कि चाहे फूल खिला हुआ हो या मुर्झा गया हो, उससे कुछ भेद नहीं पड़ता। जब फूल खिला हुआ होता है तो उसके मुर्झा जाने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है, और जब फूल वृक्ष की डाली से टूटकर गिर जाता है तो वह फिर से खिलने की तैयारी कर रहा होता है। इसी तरह सृष्टि के कम में सृजन फिर असृजन, फिर सृजन चलता रहता है, इसी प्रक्रिया द्वारा सृष्टि चलती रहती है। इसे ही पतंजलि प्रकृति कहते हैं। प्रकृति शब्द का अनुवाद नहीं किया जा सकता है। प्रकृति शब्द का अर्थ केवल सृजन ही नहीं है. इसमें सृजन और अ —सृजन दोनों सम्मिलित हैं।

प्रकृति में सभी कुछ अभिव्यक्त होता है, फिर प्रकृति में ही वापस चला जाता है, उसी में लुप्त हो जाता है; लेकिन फिर भी वह प्रकृति में मौजूद रहता है। वह फिर से लौट आता है। जैसे गर्मी

आती है, चली जाती है, वर्षा आती है, चली जाती है, सर्दी आती है, चली जाती है, इसी तरह से चक्र घूमता रहता है। प्रकृति में सभी कुछ गतिमान है। फूल खिलते हैं, मुर्झा जाते हैं; बादल आते हैं, चले जाते हैं—संसार का चक्र चलता ही चला जाता है।

हर चीज की दो अवस्थाएं हैं, व्यक्त और अव्यक्त। लेकिन तुम उन दोनों के पार हो। तुम न तो व्यक्त हो और न ही अव्यक्त हो, तुम तो साक्षी हो।’निरोध परिणाम’ के द्वारा, दो विचारों के बीच के अंतराल के द्वारा उसकी पहली झलक मिल सकती है। फिर उन विचारों के बीच के अंतराल को बढ़ाते जाना, बढ़ाते जाना। और हमेशा इस बात का खयाल रखना, कि जब कभी विचारों के बीच के दो अंतराल जुड़ जाते हैं, तो वे एक हो जाते हैं। और जब दो अंतराल आपस में मिलते हैं, तो वे दो वस्तुओं की तरह नहीं होते हैं, वे शून्यता की भांति होते हैं। और शून्य कभी भी दो नहीं हो सकते। जब दो शून्यों को निकट लाओ, तो वे एक हो जाते हैं, वे एक —दूसरे में मिल जाते हैं। क्योंकि दो शून्य दो अलग — अलग शून्यों की भांति अपना अस्तित्व नहीं रख सकते। शून्य हमेशा एक ही होता है। चाहे कितने शून्यों को तुम ले आओ—वे आपस में मिलकर एक हो जाएंगे।

इसलिए विचारों के बीच के अंतरालों को, शून्यों को एकत्रित करते जाना, और धीरे — धीरे एक ऐसी घड़ी आएगी, जिसे पतंजलि ने पहले निरोध कहा है, वही समाधि में परिवर्तित हो जाएगी। ’समाधि’ में मन खोने लगता है, मन बिदा होने लगता है. और फिर अंत में वह मिट जाता है और तुम्हारे भीतर एकाग्रता का जन्म हो जाता है। तब पहली बार तुम प्रकृति की सृजन और अ —सृजन की लीला, मन में उठती हुई तरंगों और लहरों, जीवन के सुख —दुख, मन के क्षण — क्षण बदलते भावों, और जीवन की क्षण— भंगुरता के पार जाते हो—तब पहली बार स्वयं की झलक मिलती है। साक्षी का जन्म होता है। तुम साक्षी हो जाते हो।

वह साक्षी ही तुम्हारा वास्तविक अस्तित्व है। और उसको उपलब्ध कर लेना ही योग का एकमात्र लक्ष्य है।

योग का अर्थ है. यूनिओ मिष्टिका। इसका अर्थ है जुड़ाव, स्वयं के साथ एक हो जाना, स्वयं के साथ जुड़ जाना। और अगर स्वयं के साथ एक हो जाओ, तब अकस्मात इस बात का भी बोध होता है कि तुम संपूर्ण अस्तित्व के साथ, परमात्मा के साथ एक हो गए। क्योंकि जब तुम अपने में गहरे जाते हो तो वहां शून्यता और मौन ही होता है और परमात्मा भी परम मौन है। तब फिर दो मौन अलग— अलग नहीं रह सकते —वे एक—दूसरे में मिलकर एक हो जाते हैं।

जब तुम स्वयं में गहरे उतरते हो और परमात्मा अनेक — अनेक रूपों में, संसार में अनेक— अनेक माध्यमों से वापस आ रहा होता है, उसी बीच तुम्हारा परमात्मा से मिलना हो जाता है, और तुम परमात्मा के साथ एक हो जाते हो। योग का यही अर्थ है : एक हो जाना। योग का अर्थ है परमात्मा के साथ एक हो जाना।

आज इतना ही।

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-64)

बीज हो जाओ—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 4 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:

1—एक बार पतंजलि और लाओत्‍सु एक नदी के किनारे पहुंचे।

2—पतंजलि के ध्यान और झाझेन में क्‍या अंतर है?

3—जब मैं अपने को अस्तित्व के हाथों में छोड़ दूंगा, तो क्या अस्तित्व मुझे सम्हाल लेगा?

4—अभी कुछ दिनों से मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि मैं उड़ सकता हूं? क्‍या यह सिर्फ एक पागलपन है…….. ? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-64)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-63)

आंतरिकता का अंतरंग—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 3 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सत्र:

तस्य भूमिष विनियोंग:।। 6।।

संयम को चरण—दर—चरण संयोजित करना होता है।

त्रयमन्‍तरडगं पूर्वेभ्य:।। 7।।

 धारणा, ध्‍यान और समाधि—ये तीनों चरण प्रारंभिक पांच चरणों की अपेक्षा आंतरिक होते हैं।

तदपि बहिरड्गं पूर्वेभ्‍य:।। 8।।

लेकिन निर्बीज समाधि की तुलना में ये तीनों बाह्म ही है।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-63)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-62)

मन चालाक है—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 2 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:

1—एक भिखारी के लिए मैं क्‍या कर सकता हूं?

और आपने कहा है कि हमें विपरीत ध्रुवों को समाहित करना है। तो क्या मैं एक साथ क्रांतिकारी और संन्यासी हो सकता हूं?

 2–भगवान, आप योगी हैं, या भक्त हैं, या ज्ञानी हैं, या तंत्रिक हैं?

 3—अगर मैं स्‍वयं से ही भयभीत हूं तो समर्पण कैसे करू? और मेरे ह्रदय में पीड़ा हो रही है कि प्रेम का द्वार कहां है? Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-62)”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-61)

प्रश्‍न पूछो स्‍व केंद्र के निकट का—(प्रवचन—एक)

दिनांक 1 जनवरी  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र

(अथ विभूतिपाद:) विभूतिपाद

देशबन्‍धश्‍चित्‍तस्‍या धारणा।। 1।।।

जिस पर ध्यान किया जाता हो उसी में मन को एकाग्र और सीमित कर देना धारणा है।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्‍।। 2।।

ध्‍यान के विषय में जुड़ी मन की अविच्‍छिन्‍नता, उसकी और बहता मन का सतत प्रवाह ध्‍यान है।

तदेवार्थमान्‍न्‍निर्भासं स्‍वरूपशून्‍यमिव समाधि:।। 3।।

      जब मन विषय के साथ एक रूप हो जाता है तो वह समाधि है।

Continue reading “पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-61)”

पतंजलि: योग-सूत्र (भाग-4) ओशो

(‘योग: दि अल्‍फा एंड दि ओमेगा’ शीर्षक से ओशो द्वारा अंग्रेजी में दिए गये सौ अमृत प्रवचनों में से चतुर्थ बीस प्रवचनों का हिंदी अनुवाद। जो दिनांक 1 जनवरी  1976 तक ओर 11 अप्रेल 1976 से 20 अप्रेल 1976 तक ओशो आश्रम पूूूूना में दिये गये थे  )  

ज हम पतंजलि के योग — सूत्रों का तीसरा चरण ‘विभूतिपाद’ आरंभ कर रहे हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि चौथा और अंतिम चरण ‘कैवल्यपाद’ तो परिणाम की उपलब्धि है। जहां तक

साधनों का संबंध है, प्रणालियों का संबंध है, विधियों का संबंध है तीसरा चरण ‘विभूतिपाद’ अंतिम है। नौ था चरण तो प्रयास का परिणाम है। Continue reading “पतंजलि: योग-सूत्र (भाग-4) ओशो”

पतंजलि : योग-सूत्र-(प्रवचन-57)

आसन और प्राणायाम के आत्‍यंतिक रहस्‍य—(प्रवचन—स्‍त्रहवां)

दिनांंक  7 सितम्बर 1975 ओशो आश्रम पूना।

योग—सूत्र (साधनपाद)

स्‍थिरसुखमासनम्।। 46।।

स्‍थिर और सुखपूर्वक बैठना आसन है।

प्रयत्‍नशैथिल्‍यानन्‍तसमापत्‍तिभ्‍याम्।। 47।।

प्रयत्न की शिथिलता और असीम पर ध्यान से आसन सिद्ध होता है।

ततो द्वन्‍द्वनभिधात: ।। 48।।

जब आसन सिद्ध हो जाता है, तब द्वंदों से उत्‍पन्‍न

अशांति की समाप्‍ति होती है।

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