अमृृृत कण-(धर्म)-09

धर्म-ओशो

मैं आपको देखता हूं तो दुख अनुभव करता हूं, क्योंकि किसी भी भांति बिना सोचे विचारे, मूर्छित रूप से जिए जाना जीवन नहीं, वरन धीमी आत्महत्या है। क्या आपने कभी सोचा कि आप अपने जीवन के साथ क्या कर रहे हैं? क्या आप सचेतन रूप से जी रहे हैं? क्योंकि यदि हम अचेतन रूप से बहे जा रहे हैं और जीवन के अचेतन सृजन में नहीं लगे है, तो सिवाय मृत्यु की प्रतीक्षा के हम और क्या कर रहे हैं? जीवन तो उसी का है जो उसका सृजन करता है।  आत्मसृजन जहां नहीं, वहां आत्मघत है। मित्र, जन्म को ही जीवन मत मान लेना। यह इसलिए कहता हूं कि अधिक लोग ऐसा ही मान लेते हैं। जन्म तो प्रच्छन्न मृत्यु है। वह तो आरंभ है और मृत्यु उसका ही चरम विकास और अंत। वह जीवन नहीं, जीवन को पाने का एक अवसर भर है। लेकिन जो उस पर ही रुक जाता है, वह जीवन पर नहीं पहुंच पाता। जन्म तो जीवन के अनगढ़ पत्थर को हमारे हाथों में सौंप देता है। उसे मूर्ति बनाना हमारे हाथों में है। यहां कलाकार और कलाकृति और कला और कला के उपकरण सभी हम ही हैं। जीवन के इस अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बनाने की अभीप्सा धर्म है।  धर्म जीवन से भिन्न नहीं है जो धर्म जीवन से भिन्न है, वह मृत है। मैं कैसे जीता हूं, वही मेरा धर्म है। यह मत पूछिए कि मेरा कौन सा धर्म है क्योंकि धर्म बस धर्म है। Continue reading “अमृृृत कण-(धर्म)-09”

अमृृृत कण-(स्वतंत्रता)-08

स्वतंत्रता-ओशो

मैं ऐसे गुलामों को जानता हूं, जो मानते हैं कि वे स्वतंत्र है। और उनकी संख्या थोड़ी नहीं है, वरन सारी पृथ्वी ही उनसे भर गई है। और चूंकि अधिक लोग उनके ही जैसे हैं, इसलिए उन्हें स्वयं की धारणा को ठीक मान लेने की भी सुविधा है, लेकिन मेरा हृदय उनके लिए आंसू बहाता है, क्योंकि गुलाम होते हुए भी उन्होंने अपने आपको स्वतंत्र मान रखा है। और इस भांति स्वयं ही अपने स्वतंत्र होने की प्राथमिक संभावना को ही समाप्त कर दिया है। धर्मों के नाम से संप्रदायों में कैद व्यक्ति ऐसी ही स्थिति में है।  इस भांति की परतंत्रता में निश्चय ही सुविधा है और सुरक्षा है। सुविधा है, स्वयं विचार करने के श्रम से बचने की और सुरक्षा है, सबके साथ होने की। और इसलिए ही जो कारागृह है, उन्हें नष्ट करने की तो बात ही दूर, कैदी गण ही उसकी रक्षा के लिए सदा प्राण देने को तत्पर रहते हैं! मनुष्य भी कैसा अदभुत है, वह चाहे तो अपने कारागृहों को ही मोक्ष भी मान सकता है! लेकिन इससे बदतर गुलामी कोई दूसरी नहीं हो सकती है।  स्वतंत्रता पाने के लिए सबसे पहले तो यही आवश्यक है कि हम जाने कि हमारा चित्त किसी गहरी दासता में है, क्योंकि जो यही नहीं जानता, वह स्वतंत्रता के लिए अभीप्सा भी अनुभव नहीं कर सकता। Continue reading “अमृृृत कण-(स्वतंत्रता)-08”

अमृृृत कण-(आत्म-विश्वास)-07

आत्म विश्वास-ओशो 

आत्म-विश्वास का अभाव ही समस्त अंधविश्वासों का जनम है। जो स्वयं में विश्वास नहीं करता, वह किसी और में विश्वास करके अपने अभाव की पूर्ति कर लेता है। यह पूर्ति बहुत आत्मघती है क्योंकि इस भांति व्यक्ति स्वयं के विकास और पूर्णता की दिशा से वंचित हो जाता है। जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं, उसे सिवाय अनुकरण और किसी पर निर्भर होने के और उपाय ही क्या है?  पर निर्भरता हीनता लाती है और किसी की शरण पकड़ने से दीनता पैदा होती है। चित्त धीरे-धीरे एक भांति की दासता में बंध जाता है और दास चित्त कभी भी प्रौढ़ नहीं हो सकता। प्रौढ़ता आती है- स्वयं के पैरों पर खड़े होने से स्वयं की आंखों से देखने से और स्वयं के अनुभवों की कठोर चट्टान पर जीवन निर्मित करने से। स्वयं के अतिरिक्त स्वयं के सृजन का और कोई द्वार नहीं है।  मैं किसी और मैं श्रद्धा करने को नहीं कहता हूं। दूसरों में श्रद्धा करने के कारण ही सब भांति के पाखंड पैदा हुए है। वस्तुतः किसी को किसी का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि प्रत्येक किसी दूसरे जैसा नहीं, वरन स्वयं ही होने को पैदा हुआ है। Continue reading “अमृृृत कण-(आत्म-विश्वास)-07”

अमृृृत कण-(अज्ञान)-06

अज्ञान-ओशो

पाप क्या है? अज्ञान ही पाप है। शेष सारे पाप तो उसकी ही छायाएं हैं। इसलिए मैं कहूंगा कि छायाओं से नहीं, वरन उससे ही लड़ो जो कि उनका मूल है और आधार है। जो छायाओं से लड़ता है, वह निश्चय ही भटक जाता है। छायाओं से लड़कर जीत तो असंभव ही है। बस हार ही हो सकती है।  कन्फ्न्युसियस ने कभी कहा थाः अज्ञान ही मन की रात्रि है। इस रात्रि में फिर न मालूम कितने पापों की प्रति छायाएं खड़ी हो जाती हैं। रात्रि के साथ ही उनकी सत्ता है और रात्रि के साथ ही उनकी मृत्यु है। जो जानता है, वह उनसे वही वरन उनकी जन्मदात्री रात्रि से ही लड़ता है। और लड़ना भी रात्रि से लड़ने का कोई उपाय नहीं। उस प्रकाश की संभावना भी प्रत्येक के भीतर ही है। जो मन अज्ञान के कारण रात्रि है, वही मन प्रज्ञा के प्रकाश से दिवस भी बन जाता है।  स्व विवेक को प्र वलित कर निश्चय ही समस्त अंधकार नष्ट किया जा सकता है। किंतु जो आलोक भीतर है उसे हम बाहर खोजते हैं और इसलिए उपलब्ध नहीं कर Continue reading “अमृृृत कण-(अज्ञान)-06”

अमृृृत कण-(अप्रमाद)-05

अप्रमाद-ओशो

मैं मृत्यु के तथ्य को अनुभव करने से अप्रमाद को उपलब्ध हुआ हुआ। जीवन में भविष्य में एक भी क्षण का भरोसा नहीं। जो क्षण हाथ में है, वही है। वही निश्चित है और उसके अतिरिक्त शेष सब अनिश्चित। वर्तमान के क्षण के सिवाय और किसी की कोई भी सत्ता नहीं है। न अतीत है, न भविष्य है। जब है और जो है, वह वर्तमान है।  जीवन वर्तमान में है- अभी और यही। इसलिए वर्तमान के जीवन को भविष्य में जीने के लिए आंखें रहते स्थगित नहीं किया जा सकता। और न ही उसे अतीत की मृत स्मृतियां में डूबकर ही गंवाया जा सकता है। जो क्षण हाथ में है उसके कार्य को आने वाले क्षण पर छोड़ने से बड़ी और क्या भूल हो सकती है? ऐसी भूल ही प्रमाद है। जीवन में स्थगन की प्रवृत्ति ही प्रमाद है। प्रत्येक क्षण को उसकी पूर्णता में जी लेना अप्रमाद है।  प्रमाद मृत्यु के क्षण तक स्थगित ही करता रहता है और अंततः पाया जाता है कि जीवन बिना जिए ही चुक गया है। मृत्यु यह देखने को भी तो नहीं ठहरती है कि आप अभी जी भी पाए थे या नहीं? किंतु अधिकतर लोगों की प्रमाद निद्रा मृत्यु के पहले नहीं टूटती है। वे तो मरकर ही जानते हैं कि जीवन जा चुका है। और जिए बिना जीवन निकल जाने से बड़ी पीड़ा नहीं है। Continue reading “अमृृृत कण-(अप्रमाद)-05”

अमृृृत कण-(अपरिग्रह)-04

अपरिग्रह-ओशो

अपरिग्रह यानी आत्मनिष्ठा। परिग्रह का विश्वास वस्तुओं में है, अपरिग्रह का स्वयं में। अपरिग्रह का मूलभूत संबंध संग्रह से नहीं, संग्रह की वृत्ति से है। जो उसका संबंध संग्रह से ही मान लेता है, वह संग्रह के त्याग में ही अपरिग्रही की उपलब्धि देखता है, जब कि संग्रह का आग्रहपूर्ण त्याग भी वस्तुओं में ही विश्वास है। वह परिवर्तन बहुत ऊपरी है और व्यक्ति का अंतस्तल उससे अछूता ही रह जाता है।  संग्रह नहीं, संग्रह की विक्षिप्त वृत्ति विचारणीय है। स्वयं की आंतरिक रिक्तता और खालीपन को भरने के लिए ही व्यक्ति संग्रह की दौड़ में पड़ता है। रिक्तता से भय पैदा होता है और उसे किसी भी भांति धन से, यश से, पद से, पुण्य से या ज्ञान से भर लेने से सुरक्षा मालूम होने लगती है।  यह रिक्तता की दौड़ से भी भरी जा सकती है। लेकिन ऐसे रिक्तता भरती नहीं केवल भूली रहती है और मृत्यु का आघत सारी वंचना को नष्ट कर देता है। इसलिए ही मृत्यु की कल्पना भी भयभीत करती है। वह भय मृत्यु का नहीं है, क्योंकि भय उसके संबंध में ही हो सकता है जिसे कि हम जानते हों और जिससे परिचित हो। Continue reading “अमृृृत कण-(अपरिग्रह)-04”

अमृृृत कण-(अहंकार)-03

अहंकार-ओशो

मैं अपने से पूछता थाः आत्मा और परमात्मा के बची में कौन सी दीवार है? बहुत खोजा लेकिन कोई भी उत्तर नहीं पाया। फिर थककर बैठ गया तब अचानक दिखा कि मैं ही तो दीवार हूं! अहंकार ही स्वयं और सत्य के बीच एकमात्र दूरी हैं।  अहंकार दबाया जा सकता है और विनम्रता ओढ़ी जा सकती है। वह कोई बहुत कठिन बात भी नहीं, लेकिन तब अहंकार और भी गहरा और सूक्ष्म होकर चित्त को पकड़ लेता है। यह पकड़ क्रमशः अचेतन होती जाती है और स्वयं व्यक्ति को भी उसका बोध नहीं रह जाता। किंतु स्मरण रहे कि ज्ञात शत्रुओं से अज्ञात शत्रु ज्यादा घतक होता है। यह दमित अहंकार विनम्रता से ही प्रकट होने लगता है।  अहंकार को विसर्जन करने का मार्ग दमन नहीं, संघर्ष नहीं, वरन उसकी समस्त अभिव्यक्तियों और उसके समस्त मार्गों का सूक्ष्मतम अवलोकन और बोध है। मन के जिस तल पर अहंकार का साक्षात हो जाता है, अहंकार उसी तल पर अपना आवास छोड़ देता है। जैसे प्रहरी सजग हो तो चोर घर में नहीं आते हैं, ऐसे ही हम यदि सतत जागरूक और सचेत हों तो क्रमशः अहंकार शून्य होने लगता है। और जहां अहंकार शून्य है, वहीं आत्मा अपनी पूर्णता में प्रकट होती है।  अहंकार को खोने वाले हानि में नहीं रहे हैं। क्या देखते नहीं है कि बीज मिटकर वृक्ष को पा लेता है और सरिता स्वयं को खोकर सागर हो जाती है? स्वयं को खोना ही स्वयं को पाना भी है। Continue reading “अमृृृत कण-(अहंकार)-03”

अमृृृत कण-(अहिंसा)-02

अहिंसा-(अमृतकण)-ओशो 

अहिंसा ऐसे हृदय में वास करती है, जो इतना बड़ा हो कि सारी दुनिया के फूल उसमें समा जावें, लेकिन जिसमें इतनी सी भी जगह न हो कि एक छोटा सा कांटा भी वहां निवास बना सके।  अहिंसा है निरहंकार जीवन। अहंकार में ही सारी हिंसा छिपी है। अहं केंद्रित जीवन ही हिंसक जीवन है। अहं जहां जितना घनीभूत है, वहां न अहं के प्रति उतना ही विरोध ही और शोषण भी होगा। इसलिए मेरी दृष्टि में अहिंसा मूलतः अहंकार के विसर्जन से ही फलित होती है। अहं क्षीण होता है तो प्रेम विकसित होता है। अहं शून्य होता है तो प्रेम पूर्ण हो जाता है।  अहं शोषण है, तो प्रेम सेवा है। और जैसे ही अहं का केंद्र टूटता है तो प्रेम की अपूर्व ऊर्जा का विस्फोट होता है। जैसे पदार्थ के अणु-विस्फोट से अनंत शक्ति पैदा होती है, ऐसे ही अहं के टूटने से भी होती है। उस शक्ति का नाम ही प्रेम है। वही अहिंसा है। अहिंसा की शक्ति अमाप है। वह व्यक्ति के माध्यम से स्वयं परमात्मा का प्रवाह है।  अहिंसा जहां है, वहीं अभय है। क्योंकि जहां प्रेम है, वहां भय कैसा? हिंसा के पीछे तो भय सदा ही उपस्थित है। हिंसा तो भय से कभी मुक्त हो ही नहीं सकती और इसलिए हिंसा कभी दुख से भी मुक्त नहीं हो सकते हैं। Continue reading “अमृृृत कण-(अहिंसा)-02”

अमृृृत कण-(सत्य)-01

सत्य–(ओशो 

जीवन तो अंधकार है, लेकिन जिनके पास सत्य का दीपक है, वे सदा प्रकाश में ही जीते हैं। जिनके भीतर प्रकाश है, उनके लिए बाहर का अंधकार रह ही नहीं जाता। बाहर अंधकार की मात्रा उतनी ही होती है, जितना कि वह भीतर होता है। वस्तुतः बाहर वही अनुभव होता है, जो कि हमारे भीतर उपस्थित होता है। बाट अनुभव भीतर की उपस्थितियों के ही प्रक्षेपण हैं। यह कारण है कि इस एक ही जगत से भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न जगतों में रहने में समर्थ हो जाते हैं।  इस एक ही जगत में उतने ही जगत हैं जितने कि व्यक्ति हैं। और किसे किस जगत में रहना है, यह स्वयं उसके सिवाय और किसी पर निर्भर नहीं। हम स्वयं ही उस जगत को बनाते हैं, जिसमें हमें रहना है। हम स्वयं ही अपने स्वर्ग या अपने नर्क हैं।  अंधकार या आलोक जिससे भी जीवन पथ पर साक्षात होता है, उसका उदगम कहीं बाहर नहीं, वरन हमारे भीतर होता है। क्या कभी अपने सोचा है कि सूर्य अंधकार से परिचित नहीं है? उसकी अभी तक अंधकार से भेंट ही नहीं हो सकी है? Continue reading “अमृृृत कण-(सत्य)-01”

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