आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-36)

आत्म पूजा उपनिषद-भाग-2

अठारहवां प्रवचन- साधना-पथ का सहज विकास

प्रश्न

  1. ग्रीक, वैज्ञानिक खोज सत्य के लिए है, तथा पूर्वीय, धार्मिक खोज मोक्ष के लिए है।
  2. ध्यान में प्रगति की ओर इंगित करने वाले कौन-कौन से लक्षण हैं?
  3. क्या किसी संसारी व्यक्ति को भक्ति का मार्ग चुनना चाहिए और योग का मार्ग त्यागियों के लिए छोड़ देना चाहिए?

भगवन्! साधारणतः ऐसा विश्वास किया जाता है कि धर्म सत्य की खोज के लिए है। किन्तु एक रात्रि प्रवचन में आपने कहा कि यूनानी मन, वैज्ञानिकता की ओर झुका हुआ न, सत्य की खोज करता है और पूर्वीय धार्मिक मन के लिए मोक्ष यानी मुक्ति खोज की वस्तु है। परन्तु आपने पीछे यह भी कहा है क सत्य ही केवल मुक्त करता है?

क्या आप कृपा कर इस विरोधाभास को समझायेंगे?

दर्शनशास्त्र, फिलोसोफी सत्य की खोज के लिए है, न कि धर्म। धर्म तो मुक्ति की खोज है, आत्यंतिक मुक्ति की। दोनों में क्या अंतर है? जब तुम सत्य की खोज कर रहे हो, तो जोर अधिकाधिक बुद्धिगत मानसिक होता है। जब तुम मुक्ति की खोज कर रहे हो, तो फिर यह कोई सिर्फ बुद्धि का प्रश्न नहीं है, किन्तु तब यह तुम्हारे पूरे अस्तित्व का प्रश्न है।

जिस क्षण भी कोई ‘सत्य’ शब्द का उच्चारण करता है तो तुम्हारी बुद्धि पर असर होता है। तुम्हारे भाव अप्रभावित रह जाते हैं, तुम्हारा शरीर अछूता रह जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सत्य का संबंध सिर्फ सिर से है। सत्य का तुम्हारे पैर के अंगूठे से क्या लेना-देना? सत्य का तुम्हारे रक्त, तुम्हारी हड्डी, मांस, मज्जा से क्या संबंध? लेकिन जैसे ही तुम ‘मुक्ति’ शब्द का उच्चारण करते हो, तो उसका संबंध तुम्हारी पूरी समग्रता से है। तब तुम उसमें पूरे-के-पूरे ही संलग्न हो जाते हो। यह पहला अंतर है। धर्म कोई बुद्धिगत मामला नहीं उसमें सिर्फ एक हिस्से की तरह संलग्न होती है, परन्तु तुम्हारा सारा अस्तित्व उसमें लगा होता है। मुक्ति तुम्हारे समग्र बीइंग के लिए है।

दूसरी बात, जब भी कोई सत्य के बारे में सोचता है तो उसमें ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि सत्य को कहीं और खोजना है। तुम सिर्फ खोज करने वाले हो, सत्य कहीं और किसी वस्तु की भाँति रखा है जिसे कि खोजना है। परन्तु जब तुम मुक्ति की खोज में हो, तो मुक्ति को कहीं और किसी वस्तु की तरह नहीं खोजना है। तुम्हें ही रूपान्तरित होना है-उसे पाने के लिए। क्योंकि मुक्ति का अर्थ होता है-अपनी दासता को गिरा देना। सत्य हमें थिर प्रतीत होता है, जैसे कि कोई वस्तु हो। मुक्ति एक प्रक्रिया है, जीवन्त। इसीलिए मैं कहता हूँ कि धर्म बुनियादी रूप से मुक्ति की खोज है-आत्यंतिक, समग्र-मुक्ति की।

यह भी सही है कि मैंने कई बार कहा है कि सत्य मुक्त करता है। इसमें कुछ भी विरोधाभास नहीं है। धर्म की खोज मुक्ति के लिए है, सत्य सिर्फ साधनरूप है। यदि तुम सत्य को पा लेते हो, तो तुम्हें मुक्त होने में मदद करता है। सत्य मुक्त करता है, किन्तु मुक्ति ही अन्तिम बात है।

सचमुच, ज्यादा अच्छा हागा कि हम उसे दूसरी तरह से परिभाषित करें। जो मुक्त करे वह सत्य है, और जब तक वह तुम्हें मुक्त न करे, वह सत्य नहीं है। लेकिन मुक्ति अन्तिम-लक्ष्य है-धर्म के लिये। यह जोर कुछ छोटा-मोटा भेद नहीं है। यह एक बड़ा भेद है, क्योंकि जब भी मन खोजने निकलता है, सत्य की खोज करता है, तो सारी बात ही बदल जाती है। तब तुम उसके लिए सोचने लगते हो, तुम उसके लिए तर्क करने लगते हो, तुम उसे बौद्धिकता का रूप दे देते हो। तो बात मनसंगत हो जाती है।

सत्य अर्थपूर्ण है लेकिन सिर्फ मुक्ति की ओर साधन की भांति। अतः धर्म सत्य की खोज के विरुद्ध नहीं है। धर्म मुक्ति के लिए है, सत्य उसकी मदद करता है। किन्तु सत्य तब गौण, द्वितीय हो जाता है। वह प्राथमिक नहीं रहता, वह बुनियादी नहीं रहता। वह सिर्फ साधन है, मुक्ति लक्ष्य है। इसीलिए सारे हिन्दू-चिंतन के लिए ‘मोक्ष’ अंतिम लक्ष्य है, सारी हिन्दू खोज के लिए ‘मुक्ति’ अंतिम बात है।

सत्य सहायता करता है मुक्त होने में, इसलिए सत्य को खोजो, किन्तु सिर्फ मुक्ति की बड़ी खोज के एक हिस्से की भांति। सत्य को लक्ष्य मत बनाओ। यदि तुम सत्य को लक्ष्य बनाओगे, तो फिर तुम्हारी खोज धार्मिक नहीं है, तब वह दार्शनिक है। इसीलिए ग्रीक (यूनानी) मन और हिन्दू मन में अंतर है।

अरस्तु अथवा प्लेटो अथवा सुकरात के लिये सत्य ही आखिरी लक्ष्य है-सत्य को कैसे खोजें? तब तर्क साधन हो जाता है। हिन्दू मन के लिये ‘मुक्ति’ लक्ष्य है। मुक्ति कैसे।

यदि किसी को मुक्त होना है, तो उसे अपनी सारी दासतायें गिरा देनी पड़ेंगी। दासता की जंजीरों को कैसे काटें? तुम्हें उन्हें काटने के लिये एक विज्ञान की जरूरत है। वह विज्ञान है-योग। तब तुम्हारी खोज एक दूसरा ही मार्ग ले लेती है : तुम गुलाम क्यों हो? तुम बन्धन में क्यों पड़े हो? तुम बन्धन में पड़े ही कैसे? तुम दुःख में क्यों हो? क्यों? यह ‘क्यों तुम्हारी खोज की सारी यात्रा को बदल देगा। बन्धन का पता चलाना होगा, और तब उसे तोड़ना पड़ेगा। तभी तुम मुक्त होओगे।

यदि सत्य ही खोज है तो फिर आदमी गलती में क्यों है? तब समस्या यह है कि इस गलती से कैसे बचा जाये। तब यह बात मूलभूत हो जाती है। तर्क गलत से बचने में मदद करेगा, तब तर्क-वितर्क, दार्शनिक चिंतन ही साधन है। इसीलिए यूनानी मन योग जैसी किसी बात के बारे में नहीं सोच सका। योग मौलिक रूप से पूर्वीय है। यूनानी मन तर्क को विकसित करेगा। वही यूनानी देन है-सारे संसार के विचार को। उन्होंने उसे इतना विकसित किया, आखिरी शिखर तक, कि वस्तुतः इन दो हजार वर्षों में उसमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सका। अरस्तु में तर्क अपने अंतिम शिखर पर पहुँचा। ऐसा कभी-कभी ही होता है कि एक आदमी किसी भी विज्ञान को उसकी पूर्णता तक विकसित कर दे। अरस्तु ने यह किया, परन्तु योग का कोई ख्याल वहाँ नहीं है।

भारत में योग आधारभूत है। हमने भी तर्क प्रणालियाँ विकसित की हैं, किन्तु सिर्फ उन सत्यों की उन अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए जो कि भाषा के पार चले जाते हैं। अतः हमने तर्क विकसित किया-एक साधन की भाँति-किसी चीज़ को अभिव्यक्त करने के लिये, न कि किसी चीज़ तक पहुँचने के लिये।

यूनानी तर्क का अर्थ है सत्य तक पहुँचने की एक प्रक्रिया। हिन्दू तर्क का अर्थ है कि सत्य तो उपलब्ध हो गया, मुक्ति पा ली गई किसी और साधन से। अब जबकि तुमने अनुभव उपलब्ध कर लिया उसे अभिव्यक्त करने के लिये तर्क की आवश्यकता पड़ेगी। इस भेद को स्पष्ट करने के लिये मैंने कहा कि हिन्दू मन धार्मिक है, और ग्रीक मन दार्शनिक है। धार्मिक मन अधिक-अधिक प्रायोगिक है।

मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। बुद्ध यह कहानी बहुत बार सुनाते थे। एक आदमी मर रहा था। बुद्ध एक जंगल से गुजर रहे थे और उस आदमी के शरीर में एक तीर लगा था-किसी शिकारी का तीर। वह आदमी मर रहा था। वह एक दार्शनिक था। बुद्ध उस आदमी से कहते हैं कि इस तीर को निकाला जा सकता है। मुझे इसे बाहर निकाल लेने दो।

वह आदमी कहता है, ‘नहीं, पहले मुझे यह बताओ कि यह तीर किसने मारा? मेरा शत्रु कौन है? यह तीर मेरे शरीर में क्यां लगा? मेरे किन कर्मों का यह फल है? क्या तीर विष-बुझा है, या नहीं है?’ बुद्ध कहते है, ‘यह सारी बात तुम बाद में पूछ लेना। पहले मुझे तीर खींच लेने दो, क्योंकि तुम मरने ही वाले हो। यदि तुम सोचते हो कि नहीं पहले इन सब बातों का पता चल जाये और फिर तीर को खींचा जाये, तो तुम बचने वाले नहीं हो।’

यह कहानी उन्होंने बहुत बार सुनाई थी। उनका इस कहानी से क्या मतलब था? उनका अर्थ था कि हम सब मृत्यु के किनारे ही खड़े हैं। मृत्यु का तीर पहले ही तुम्हारी छाती में चुभा हुआ है। तुम्हें इसका पता हो या नहीं हो। मृत्यु का तीर तुमको पहले से ही लग चुका है। इसीलिए तुम दुःख में हो। तीर चाहे दिखाई नहीं पड़ता हो, किन्तु पीड़ा तो है। तुम्हारी पीड़ा कहती है कि मृत्यु का तीर तुम्हारे भीतर प्रवेश कर चुका है। मत पूछो इस तरह के सवाल कि इस जगत को किसने बनाया और मैं क्यों बना गया, कि जीवन बहुत है कि एक ही जीवन है, क्या मैं मृत्यु के बाद भी बचूँगा या नहीं।

बुद्ध कहते हैं, ये बातें बाद में पूछ लेना। पहले इस दुःख के तीर को खींच लेने दो। तब बुद्ध हँसते हैं और कहते हैं कि फिर बाद में मैंने किसी को पूछते हुए नहीं पाया, इसलिए बाद में सारी पूछताछ कर लेना।

यह योग है, इसका तुम्हारी स्थिति से ज्यादा संबंध है-तुम्हारी पीड़ा की वास्तविक स्थिति से और कैसे उससे पार हुआ जाये। इसका ज्यादा संबंध है तुम्हारी दासता से, तुम्हारे कारागृह से। और कैसे इसका अतिक्रमण किया जाये, कैसे मुक्त हुआ जाये? इसलिए ‘मोक्ष’ लक्ष्य है, अंतिम लक्ष्य, वास्तविक लक्ष्य। यह कोई सैद्धान्तिक सत्य नहीं है।

हमने बहुत-से सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं, लेकिन वे सिर्फ उपाय हैं। हमारे पास नौ प्रणलियाँ हैं और बहुत बड़ा साहित्य है। सर्वाधिक समृद्ध साहित्यों में से एक परन्तु हमारे सारे सिद्धान्त अर्थपूर्ण नहीं हैं। हमने बहुत से विचित्र सिद्धान्तों को निर्मित किया है। लेकिन बुद्ध तथा महावीर कहते हैं कि यदि कोई सिद्धान्त बन्धन से पार जाने में मदद करते हैं, तो वे ठीक हैं।

किसी भी सिद्धान्त के बारे में चिंतित होने की जरूरत नहीं है कि वह सही है या गलत है, उसके तर्क-वितर्क पर भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। उसका उपयोग करो और पार चले जाओ। नाव के बारे में सोचना-विचारना कैसा? यदि वह तुम्हें नदी पार करने में सहायता करे, तो नदी के पार चले जाओ। पार जाना अर्थपूर्ण है, नाव तो अर्थ हीन है। अतः कोई भी नाव काम दे देगी। इसीलिए हिन्दुओं ने एक अगूठा सहिष्णु मन विकसित किया, वह एक मात्र सहिष्णु मन है। एक ईसाई सहिष्णु नहीं हो सकता। असहिष्णुता वहाँ होगी। एक मुसलमान सहिष्णु नहीं हो सकता। असहिष्णुता वहाँ भी होगी ही।

इसमें उसका दोष नहीं है। यह इसलिए है क्योंकि उसके लिये नाव बहुत महत्वपूर्ण है। वह कहता है कि तुम केवल इसी नाव से नदी के पार जा सकते हो। दूसरी नावें ‘नाव’ नहीं हैं, वे सब नहीं हैं। दूसरा किनारा इतना महत्वपूर्ण नहीं है। इस किनारे की यह नाव ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए यदि तुमने गलत नाव चुनी तो तुम उस किनारे नहीं पहुँच सकोगे। परन्तु हिन्दू मन कहता है कि कोई भी नाव काम दे देगी। नाव असंगत है।

सब सिद्धान्त नावें हैं। यदि तुम ठीक से दूसरे किनारे पर दृष्टि लगाये हो, यदि तुम्हारी आँख दूसरे किनारे पर लगी हुई है, यदि तुम्हारा मन दूसरे छोर का ध्यान कर रहा है, तो फिर कोई भी नाव काम दे देगी। और यदि तुम्हारे पास कोई नाव नहीं है, तो तुम तैरो।

प्रत्येक व्यक्ति पार जासकता है, किसी भी संगठित नाव की आवश्यकता नहीं है। तैरो और यदि तुम हवा के रुख को जानते तो तुम्हें तैरने की भी जरूरत नहीं है। तब सिर्फ बहो। यदि तुम हवा के रुख को ठीक दिशा में हवा को बहने दो। फिर सिर्फ गिर पड़ना और छोड़ देना, और हवायें स्वयं तुम्हें उसे पार ले जायेंगी।

किसी नाव ने कोई ठेका नहीं ले लिया है। बिना नाव के भी कोई तैर सकता है। और यदि कोई आदमी बुद्धिमान है तो तैरने की भी जरूरत नहीं है, वह भी व्यर्थ है। यह आखिरी बात है जो कि बुद्धि से समझ में नहीं आयेगी। वे कहते हैं कि यदि तुम समग्र रूप से छोड़ दो, और विश्राम में आ जाओ तो यह किनारा ही वह किनारा है। तब कहीं जाना नहीं हैं। यदि तुम पूर्णरूप से विश्राम में हो, और पूर्णरूप से समर्पित हो, तो फिर यह किनारा ही वह किनारा है।

ऐसे हिन्दू मन के लिये, सिद्धांत, दर्शन, प्रणालियाँ आदि सब खेल है, उपाय हैं, सहायक हैं। किन्तु यदि तुम उनसे बहुत ज्यादा जुड़ जाओ तो वे हानिप्रद भी हो सकती हैं, यदि कोई आदमी किसी नाव से बहुत ज्यादा जुड़ जाये तो वे हानिप्रद भी हो सकती हैं, यदि कोई आदमी किसी नाव से बहुत ज्यादा जुड़ जाये तो फिर वह उस नाव से पार नहीं जा सकेगा क्यांकि अन्ततः वह नाव ही उसके लिये बाधा बन जायेगी। नाव तुम्हें उस पार ले जाये तो भी तुम नाव से उतरोगे ही नहीं। यह नाव की पकड़ ही बाधा बन जायेगी। ऐसा जो रुख है कि सिद्धान्त और प्रणालियाँ उपाय हैं, यह अदार्शनिक रुख है। दर्शन जीता है सिद्धान्तों में, जबकि धर्म अधिक प्रायोगिक है।

मुल्ला नसरुद्दीन कहा करता था कि सिर्फ प्रायोगिक विधियाँ ही धार्मिक विधियाँ है। एक दिन वह अपनी छत पर काम कर रहा था। वर्षा आने वाली थी और वह छप्पर पर काम कर रहा था। एक फकीर, एक भिखारी ने सड़क पर से मुल्ला को पुकारा, उसने उसे नीचे आने के लिये कहा। नीचे आना जरा कठिन था, किन्तु फिर भी मुल्ला नीचे उतरकर आया और उसने पूछा, ‘क्या मामला है? तुमने मुझे वहीं से क्यों नहीं बताया? मैं तुम्हारी बात सुन लेता।’ फकीर ने कहा, ‘मैं कुछ भीख मांगने आया हूँ, और मुझे जोर से पुकार कर मांगने में लज्जा आ रही थी।’ मुल्ला ने कहा कि ‘झूठे अहंकार में मत रहो। मेरे साथ ऊपर आओ, फकीर उसके पीछे-पीछे गया।’

फकीर जरा मोटा आदमी था। उसके लिये घर की छत पर चढ़कर जाना कठिन था। जब वह वहाँ पहुँचा तो नसरुद्दीन ने अपना काम वापस शुरू कर दिया। फकीर ने कहा कि, ‘मेरा क्या?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरे पास कुछ भी देने को नहीं है, माफ करना।’ फकीर ने कहा, ‘यह क्या बेवकूफी की बात है? तुमने मुझे नीचे सड़क पर ही क्यों न कहा दिया?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘प्रायोगिक विधियाँ अधिक उपयोगी हैं। अब तुम्हें पता चल जायेगा।’

धर्म प्रायोगिक है, दर्शन अप्रायोगिक है। क्या अर्थ है मेरा? यदि तुम पूछो कि क्या ईश्वर है? तो मैं तुम्हारा प्रश्न दो प्रकार से ले सकता हूँ-दार्शनिक अथवा धार्मिक। यदि तुम पूछो, ईश्वर क्या है? अथवा, क्या ईश्वर है? और मैं यदि इसे दार्शनिक तरह से लेता हूँ तो फिर किसी यात्रा की कोई जरूरत नहीं। मैं तुम्हें यही उत्तर दे दूंगा। मेरा जो भी विश्वास है, वह मैं तुम्हें कह दूँगा। मैं तर्क दूँगा। मैं और तर्क दूँगा और प्रमाण जुटाऊँगा, लेकिन यह सभी यहीं हो जायेगा। इसके लिये प्रायोगिक यात्रा की जरूरत नहीं है।

सत्य तभी अर्थपूर्ण है जबकि ऐसा प्रतीत हो कि बिना सत्य के तुम मुक्त नहीं हो सकते। लेकिन तब सत्य का साधन की तरह मूल्य है, यही फर्क है। और इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। मैं कहता हूँ कि सत्य मुक्त करता है, किन्तु क्योंकि वह मुक्त करता है इसीलिए वह सत्य है। मुक्ति अंतिम लक्ष्य होना चाहिये, तब तुम सत्य का भी उपयोग कर सकते हो।

यदि तुम इस प्रश्न को एक धार्मिक प्रश्न की भाँति पूछो तो फिर फर्क को समझो। यदि तुम कहो कि यह धार्मिक सवाल है तब फिर मैं तुम्हें कोई सिद्धान्त नहीं दे सकता। तब मैं तुम्हें यह नहीं कह सकता कि ईश्वर है या नहीं, तब वैसा कहना व्यर्थ है। तब मैं तुम्हें एक विधि दूंगा और मैं तुम्हें उसका अभ्यास करने के लिये कहूँगा और तब तुम उसे जानोगे। तब तुम्हें लम्बी यात्रा पर जाना पड़ेगा। और जब तुम चेतना की एक विशेष स्थिति पर पहुँच जाओगे, तभी तुम्हें उत्तर उपलब्ध होगा।

दार्शनिक खोज के लिये किसी व्यक्तिगत रूपान्तरण की आवश्यकता नहीं है। तुम पूछो और मैं तुम्हें उत्तर दूँगा-यहाँ और अभी। तुम्हारे मन को बदलने की जरूरत नहीं है। यदि तुम धार्मिक प्रश्न पूछो तो चाहे प्रश्न वहीं हो, लेकिन यदि तुम कहते हो कि यह धार्मिक है, तो इसका अर्थ है कि किसी विशेष परिवर्तन की आवश्यकता है।

एक अंधा आदमी आता है और पूछता है कि क्या प्रकाश है? यदि वह एक दार्शनिक प्रश्न पूछ रहा है तो मैं एक सिद्धान्त प्रस्तुत कर सकता हूँ। इस बात से कोई संबंध नहीं है कि वह अंधा है, या वह अंधा नहीं है। सिद्धान्त तो अंधे के द्वारा भी समझे जा सकते हैं-प्रकाश के सिद्धान्त तो समझ ही सकता है, वह एक बौद्धिक मामला है। और वस्तुतः हो सकता है कि वह तुमसे भी ज्यादा सिद्धान्त को समझने में समर्थ होक्योंकि उसे प्रकाश के बारे में बात करो जिसके पास आँखें हैं, तो उसके अपने अनुभव हैं प्रकाश के बारे में कोई चिन्ता नहीं है।

यदि तुम एक आदमी से प्रकाश के बारे में बात करो जिसके पास आँखें हैं, तो उसके अपने अनुभव हैं प्रकाश के बारे में। तुम्हारे सिद्धान्त उसके अनुभवसे मेल खायें और न भी खायें, किन्त वह तर्क ज्यादा करेगा। जब कि एक अंधे आदमी को कोई भी सिद्धान्त चलेगा। सिर्फ एक ही कसौटी होगी कि उसे तर्क के द्वारा साबित किया जा सके। यदि तुम उसे तर्क के कथन की तरह से साबित कर सको, तो अंधा आदमी उस पर विश्वास कर लेगा। लेकिन यदि वह अंधा आदमी धार्मिक रूप से पूछे तो फिर उसकी दृष्टि के साथ कुछ करना पड़ेगा कि उसकी दृष्टि वापस आ जाये। सिद्धान्तों से उसे कुछ न होगा। कोई शल्य-चिकित्सा की जरूरत है, किसी ऑपरेशन की आवश्यकता है, सिद्धांतों से काम न चलेगा। किसी विधि की जरूरत है, ताकि वो अंधा आदमी देख सके। और जब तक वह देख नहीं लेता है, तब तक उसके लिये कोई प्रकाश नहीं है।

अब एक बहुत कठिन बात समझने के लिये है। यहाँ प्रकाश है। तुम अपनी आँखें बन्द कर लेते हो, क्या तुम सोचते हो कि जब तुमने आँखे बन्द कर लीं हैं तब भी प्रकाश है? वस्तुतः तर्क की दृष्टि से या ऊपर से आँखें बन्द कर लेने से प्रकाश नहीं मिट जाता है, प्रकाश तो वहाँ है। जब मैं अपनी आँख खोलता हूँ तो प्रकाश वहाँ है, जब मैं अपनी आँख बन्द कर लेता हूँ तब भी प्रकाश वहाँ है। मेरे आँख बन्द कर लेने से प्रकाश का कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं है। यह एक सामान्य ज्ञान है।

लेकिन भौतिक शास्त्र कुछ और बात कहता है वह कहता है कि प्रकाश एक ऐसी घटना है जिसमें तुम्हारी आँखों का भी योगदान है। तुम्हरी आँखों के बिना प्रकाश नहीं हो सकता। प्रकाश का स्रोत रह सकता है लेकिन प्रकाश नहीं हो सकता। प्रकाश तुम्हारी व्याख्या है, तुम्हारा दिया गया अर्थ है। कुछ अ, ब, स, है जिसे कि मेरी आँखें प्रकाश की तरह अर्थ देती हैं। यदि मेरी आँखें बन्द हो जाएं, तो फिर अर्थ देने वाला कोई भी नहीं बचा, प्रकाश विलीन हो गया।

एक दूसरा सरल उदाहरण लो। हम यहाँ बैठे हैं। इतने सारे रंग हैं, इतने सारे कपड़े हैं, किन्तु रंग को तुम्हारी आँखों की जरूरत है अन्यथा वह नहीं हो सकता। तुम आकाश में एक इन्द्रधनुष देखते हो। अपनी आँखें बन्द कर लो और इन्द्रधनुष विलीन हो गया। सिर्फ तुम्हारे लिये ही नहीं बल्कि वह वस्तुतः विलन हो गया है, उ क्योंकि एक इन्द्रधनुष को होने के लिये तीन चीजों की जरूरत हैः पानी की लटकती हुई बूंदें, उनके पार जाती हुई सूरज की किरणें और एक आंख उसकी ओर देखती हुई। इन तीनों चीजों की आवश्यकता है एक इन्द्रधनुष को होने के लिये। यदि एक भी तत्व कम हो तो इन्द्रधनुष नहीं हो सकता।

यदि पृथ्वी पर कोई भी मनुष्य नहीं हो तो फिर कोई इन्द्रधनुष भी नहीं होंगे। यदि जमीन पर कोई आंख नहीं हो, तो कोई रंग न होंगे। मैं यह क्यों कह रहा हूँ? अंधे के लिये प्रकाश नहीं होता। आध्यात्मिक अंधे के लिये कोई परमात्मा नहीं होता। स्रोत वहाँ है, किन्तु स्रोत परमात्मा नहीं है। स्रोत का अनुभव होने पर परमात्मा तो उसकी की गई एक व्याख्या है। स्रोत का अनुभव होने पर परमात्मा तो उसकी की गई एक व्याख्या है। स्रोत वहाँ है, तुम यहां अंधे हो। इसलिए कोईईश्वर नहीं है। जब स्रोत और तुम्हारी आंखें मिलती हैं तो परमात्मा की घटना घटती है, वह मिलना ही परमात्मा है।

धर्म एक प्रायोगिक विज्ञान है-तुम्हारी आंख को खोलने के लिये, अथवा तुम्हारी आँख जो कि काम नहीं कर रही है, उसे क्रियाशील बनाने के लिये किस कोण से देखने पर तुम्हारी आँखें परमात्मा का अनुभव करने में समर्थ हो जायें। वह कोई सैद्धान्तिक बात नहीं है। और परम स्वतन्त्रता, मुक्ति अंतिम लक्ष्य है, क्योंकि बन्धन ही दुःख में, अपनी पीड़ा में, अपने बन्धन में। अतः अन्ततः तुम्हारा रस है तुम्हारे अपने आनन्द में, तुम्हारी मुक्ति में न कि सत्य में।

सत्य तभी अर्थपूर्ण है जबकि ऐसा प्रतीत हो कि बिना सत्य के तुम मुक्त नहीं हो सकते। लेकिन तब सत्य का साधनकी तरह मूल्य है, यही फर्क है। और इसमें कोई विरोधाभास नहीं है। मैं कहता हूँ कि सत्य मुक्त करता है, किन्तु क्योंकि वह मुक्त करता है इसीलिए वह सत्य है। मुक्ति अंतिम लक्ष्य होना चाहिये, तब तुम सत्य का भी उपयोग कर सकते हो।

सत्य लक्ष्य नहीं होना चाहिये, वरना तुम्हारी दिशा गलत हो जायेगी। तब तुम अस्तित्व के पास बुद्धि के द्वारा पहुंचने का प्रयत्न करोगे। और हर कदम अगले कदम पर ले जाता है, और प्रत्येक कदम एक श्रृंखला निर्मित करता है। एक जरा-सा भेद तुम्हारे प्रश्न में, एक बहुत छोटा-सा परिवर्तन और तुम्हारा सारा मार्ग दूसरा हो जायेगा।

कोई बुद्ध के पास आता है और कहता है-क्या मृत्यु के पार भी जीवन है? बुद्ध उससे पूछते हैं, क्या तुम सचमुच जानना चाहते हो? वह आदमी कहता है, हाँ, सचमुच। लेकिन वह जरा बेचैन हो जाता है। वह उत्सुक था, लेकिन उसका कोई रस नहीं था। वह उत्सुकतावश जानना चाहता था कि क्या मृत्यु के बाद भी जीवन होता है? क्या जीवन बचता है मृत्यु के पार भी? बुद्ध उससे पूछते हैं, क्या तुम्हारा सचमुच ही रस है? और उनकी आँखें उस गरीब आदमी के भीतर चली जाती हैं और इसलिए वह आदमी बेचैन हो उठता है, और कहता है, ‘हाँ, सचमुच।’

तब बुद्ध कहते हैं कि तुम दो बार विचार करो। यदि वस्तुतः ही तुम्हारा रस हो, तो मैं तुम्हें रास्ता बता सकता हूँ कि मरा कैसे जाये और तब तुम देख लेना कि जीवन बचता है या नहीं। तुम्हारे लिये कोई दूसरा कैसे मर सकता है, और कौन जान सकता है? तुम्हें ही इसमें से गुजरना पड़ेगा। यदि मैं कहूँ भी कि हाँ, जीवन होता है मृत्यु के बाद भी, तो भी तुम इस पर विश्वास कैसे कर सकते हो? तब कोई दूसरा कहेगा कि ‘नहीं’। अतः फिर तुम किस भाँति निर्णय करोगे? लेकिन यदि सिर्फ उत्सुकता ही है, तो फिर तुम सिद्धान्तवादियों के पास चले जाओ, किसी दार्शनिक के पास चले जाओ। मैं कोई दार्शनिक नहीं हूँ।

बुद्ध कहा करते थे कि मैं एक वैद्य हूँ, एक चिकित्सक हूँ, अतः यदि तुम वाकई बीमार हो, तो मेरे पास आओ। मेरे पास कोई सिद्धान्त नहीं है, किन्तु मेरे पास तुम्हें ठीक करने की विधि है। मैं एक चिकित्सक हूँ।

धर्म एक औषधि है, दर्शनशास्त्र एक सिद्धान्त है।

भगवान, ध्यान के पथ पर बहुत से साधक यह जानने में बड़ी कठिनाई अनुभव करते हैं कि क्या वे कुछ प्रगति कर रहे हैं या नहीं, अथवा कि वे बीच में ही लटके हुए हैं और फिर-फिर पुनरूक्ति ही कर रहे हैं?

क्या आप कृपा कर यह बतायेंगे कि वे कौन-से-लक्षण हैं जो कि ध्यानी की सतत प्रगति को दर्शाते हैं?

ध्यान करते हुए, अपने पर काम करते हुए यदि तुम्हें यह पता न चलता हो कि तुम प्रगति कर रहे हो या नहीं तो यह बात ठीक से समझ लेना कि तुम प्रगति नहीं कर रहे हो। क्योंकि जब प्रगति होती है तो तुम उसे जानते हो। क्यों? यह ठीक ऐसे ही है जैसे कि बीमार होते हो और दया ले रहे होते हो, तो क्या तुम्हें यह अनुभव नहीं होगा कि तुम स्वस्थ हो रहे हो या नहीं? यदि तुम्हें स्वास्थ्य का अनुभव नहीं हो रहा हो और फिर भी यह प्रश्न उठता हो कि तुम ठीक हो रहे हो या नहीं, तो यह बात ठीक से जान लेना कि तुम ठीक नहीं हो रहे हो। स्वस्थ होना एक ऐसा अनुभव है कि जब तुम स्वस्थ होते हो, तो तुम उसे जानते ही हो।

लेकिन यह सवाल क्यों उठता है? यह सवाल कई कारणों से उठता है। एक कि तुम वस्तुतः श्रम नहीं कर रहे हो। तुम सिर्फ अपने को धोखा दे रहे हो। तुम अपने साथ चालबाजी कर रहे हो। तब तुम क्या कर रहे हो इसकी तुम्हें परवाह कम है और इस बात की ज्यादा है कि क्या घट रहा है। यदि तुम वस्तुतः उसे कर रहे हो, तो तुम परिणाम को परमात्मा पर छोड़ सकते हो। लेकिन हमारा मन कुछ ऐसा है कि हमें कारण की परवाह कम है और हमें परिणाम की परवाह ज्यादा है-लोभ के कारण।

लोभ बिना कुछ भी किये पाना चाहता है। इसलिए लोभी मन आगे चलता है। तब लोभी चित्त पूछता है कि क्या घट रहा है? कुछ हो भी रहा है या नहीं? जो तुम लोभी चित्त पूछता है कि क्या घट रहा है? कुछ हो भी रहा है या नहीं? जो तुम कर रहे हो केवल उसकी ही चिन्ता करो, और जब कुछ होगा तो तुम उसे जानोगे। वह होगा ही तुम्हें। उसे पूछने किसी और के पास नहीं जाना पड़ेगा।

दूसरा कारण इस बात को पूछने का यह है क्योंकि हम सोचते हैं कि कुछ चिन्ह, कुछ प्रतीक, कुछ रास्ते के पत्थर होने चाहिए जिनसे कि पता चले कि मैं पहुँच रहा हूँ, कि मैं यहाँ तक पहुँच गया, मैं अब वहाँ तक पहुँच गया अंतिम लक्ष्य पर पहुँचने के पहले हम हिसाब-किताब लगाना चाहते हैं। हम आश्वस्त होना चाहते हैं कि हम आगे बढ़ रहे हैं।

लेकिन वस्तुतः रास्ते के कोई पत्थर नहीं हैं क्योंकि कोई पटा-पटाया एक रास्ता नहीं है। और प्रत्येक अलग-अलग रास्ते पर हैं, हम सब एक ही सड़क पर नहीं चल रहे हैं। यहाँ तक कि जब तुम एक ही ध्यान की विधि का प्रयोग कर रहे हो, तब भी तुम उसी रास्ते पर नहीं हो। तुम हो नहीं सकते। कोई आम रास्ता नहीं है। हर रास्ता, हर मार्ग व्यक्तिगत है, निजी है। इसलिए किसी और का अनुभव तुम्हें इस मार्ग पर मदद नहीं करेगा। बल्कि, वह हानिप्रद भी हो सकता है।

किसी को अपने मार्ग पर कुछ चीज दिखलाई पड़ सकती है। यदि वह कहता है कि यह प्रगति का चिन्ह है तो हो सकता है कि वह चीज तुम्हें दिखलाई न पड़े। वे ही वृक्ष तुम्हारे मार्ग में नहीं भी हो सकते, वे ही पत्थर तुम्हारे मार्ग में नहीं भी मिल सकते हैं। अतः इस प्रकार की बकवास के शिकार होने की जरूरत नहीं है। केवल कुछ आंतरिक अनुभूतियाँ ही संगत हैं। उदाहरण के लिये, यदि तुम प्रगति कर रहे हो, तो कुछ बातें युगपथ होने लगेंगी। एक, तुम्हें अधिकाधिक सन्तोष का अनुभव होगा।

जब ध्यान पूरा होता है तो कोई इतना तृप्त अनुभव करता है कि वह ध्यान करना भी भूल जाता है। क्योंकि ध्यान करना भी एक प्रयास है, एक असंतोष है। यदि किसी दिन तुम ध्यान करना भी भूल जाओ और तुम्हें उसकी कोई तलब न लगे, तुम्हें कोई अन्तराल महसूस नहीं हो, तुम्हें भरा-पूरापन लगे, तब जानो कि यह अच्छा चिन्ह है। बहुत से लोग हैं जो कि ध्यान करते हैं और यदि वे नहीं करते हैं वो उनके साथ एक अजीब घटना घटती है। यदि वे कहते हैं तो उन्हें कुछ भी अनुभव नहीं होता। यदि वे नहीं करते हैं तो उन्हें लगता है कि जैसे वे कुछ चूक रहे हैं।

यह एक प्रकार की आदत है, जैसे कि सिगरेट पीना, शराब पीना, या कोई भी, यह सिर्फ एक आदत है। ध्यान को एक आदत मत बनाओ, उसे जीवन्त रहने दो तब असन्तोष धीरे-धीरे खो जायेगा। तुम्हें सन्तोष का, तृप्ति का अनुभव होगा। और जब तुम ध्यान करते हो, तभी यदि कुछ घटित होता है, जब तुम ध्यान करते हो केवल तभी घटता है तो फिर वह झूठा है, वह सम्मोहन है। वह कुछ अच्छा करता है, लेकिन गहरा जाने वाला नहींहै। वह सिर्फ तुलना में अच्छा है। यदि कुछ भी नहीं हो रहा है, कोई ध्यान नहीं हो रहा है, कोई आनंद का क्षण नहीं आ रहा है, तो उसकी चिन्ता मत करो। यदि कुछ हो रहा है तो उसे पकड़ो भी मत। यदि ध्यान ठीक जा रहा है, गहरा हो रहा है तो तुम सारे दिन रूपान्तरित अनुभव करोगे। एक सूक्ष्म तृप्ति, एक सन्तोष हर क्षण मौजूद रहेगा। जो भी तुम कर रहे होओगे, तुम्हारे भीतर तुम्हें एक शीतल केन्द्र का अनुभव होगा-एक सन्तोष, एक तृप्ति की अनुभूति होगी।

निश्चित ही परिणाम भी होंगे। क्रोध कम-और कम संभव होता जायेगा। वह विलीन होने लगेगा। क्यों? क्योंकि क्रोध एक अ-ध्यानी चित्त की दशा है, एक ऐसे मन की जो कि अपने साथ चैन से नहीं है। इसीलिए तुम दूसरों पर क्रोध करते हो। मूलतः तुम अपने पर ही क्रोधित हो। चूंकि तुम अपने पर क्रोधित हो, तुम दूसरों पर क्रोध करते चले जाते हो।

क्या तुमने कभी यह देखा कि तुम उन्हीं पर सबसे ज्यादा क्रोधित होते हो जो कि तुम्हारे निकटतम होते हैं? जितनी ज्यादा निकटता होती है, उतना ही ज्यादा क्रोध होता है। क्यों? जितनी ज्यादा निकटता होती है, उतना ही ज्यादा क्रोध होता है। क्यों? जितनी ज्यादा दूरी होगी दूसरे व्यक्ति से उतना ही क्रोध कम होगा उसके प्रति। तुम अजनबी आदमी पर क्रोध नहीं करते। तुम अपनी पत्नी, अपने पति, अपने बेटे, अपनी बेटी, अपनी मां पर ज्यादा क्रोध करते हो। क्यों? क्यों तुम उन लोगों के प्रति ज्यादा क्रोधित होते हो जो कि तुम्हारे अधिक निकट हैं?

उसका कारण यह है कि तुम अपने पर ही क्रोधित हो। जितना ज्यादा कोई आदमी तुम्हारे निकट होगा, उतना ही वह तुमसे ज्यादा एक हो जायेगा। तुम अपने पर क्रोधि हो, अतः जब भी कोई तुम्हारे निकट होगा, तुम उस पर अपना क्रोध फेंक सकते हो। वह अब तुम्हारा हिस्सा हो गया। ध्यान के साथ तुम अधिकाधिक अपने से प्रसन्न रहने लगोगे-स्मरण रहे, अपने से।

कोई व्यक्ति अपने से प्रसन्न रहे, यह चमत्कार है। हमारे लिये, या तो हम किसी के साथ प्रसन्न हैं या किसी पर क्रोधित हैं। जब कोई अपने ही साथ प्रसन्न होता है, तो यह वस्तुतः स्वयं के ही प्रेम में पड़ जाता और जब तुम अपने ही प्रेम में पड़े होते हो तो क्रोध करना कठिन हो जाता है। सारी बात ही अर्थहीन लगती है। तब क्रोध कम होने लगेगा, प्रेम बढ़ता, जायेगा करुणा बढ़ती जायेगी। ये चिन्ह होंगे, सामान्य चिन्ह होंगे।

अतः यदि प्रकाश का अनुभव हो रहा हो, तो यह मत सोचो कि तुम्हें कुछ उपलब्धि हो रही है, कि कुछ रंग दिखाई पड़ रहे हैं। वे ठीक हैं, परन्तु सन्तुष्ट होने की जरूरत नहीं है जब तक कि मानसिक परिवर्तन नहीं होते हैं-कम क्रोध, अधिक प्रेम, कम हिंसा, अधिक करुणा।

जब तक यह नहीं होता तब तक तुम्हारा प्रकाश रंगां को देखना बच्चों का खेल है। वे सन्दर हैं, बहुत सुन्दर हैं। उनके साथ रहना अच्छा है। लेकिन वे ध्यान का उद्देश्य नहीं हैं। वे मार्ग पर घटित होते हैं, वे सिर्फ सह-उत्पत्ति हैं। लेकिन उनमें मत उलझना।

मेरे पास बहुत लोग आते हैं और वे कहते हैं कि अब मुझे नीला प्रकाश दिखलाई पड़ रहा है, तो इस चिन्ह का क्या अर्थ है? मैं कितने आगे बढ़ा? नीले प्रकाश से कुछ भी न होगा क्योंकि तुम्हारा क्रोध लाल रोशनी प्रकट कर रहा है। मूलभूत मनोवैज्ञानिक परिवर्तन अर्थपूर्ण है। अतः खिलौनों से राजी मत हो जाना। ये सिर्फ खिलौने हैं-आध्यात्मिक खिलौने। तुम्हें नीला प्रकाश दिखाई पड़े तो तुम कोई परमहंस नहीं हो जाओगे।

ये सब चीजें साध्य नहीं हैं। संबंधों में देखें कि क्या हो रहा है। अब तुम अपनी पत्नी के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हो? इसे देखो। क्या उसमें कुछ परिवर्तन आया? वह परिवर्तन ही अर्थपूर्ण है। तुम अपने नौकर के साथ कैसा बर्ताव करते हो? क्या उसमें बदलाहट हुई? वह बदलाहट ही महत्वपूर्ण है। यदि उसमें कोई परिवर्तन नहीं है, तो फेंको अपने नीले प्रकाश को। उससे कुछ भी न होगा। तुम धोखा दे रहे हो, और तुम धोखा देते रह सकते हो। इन चालाकियों को तो आसानी से पाया जा सकता है।

इसीलिए तथाकथित धार्मिक आदमी अपने को धार्मिक समझने लगता है। क्योंकि अब वह यह और वह देखने लगता है, और वह स्वयं जैसा था वैसा ही रहता है। यहाँ तक कि वह पहले से भी बुरा हो जाता है। तुम्हारी प्रगति को तुम्हारे संबंधों में देखना चाहिये। संबंध ही दर्पण हैं। वह उसमें तुम अपना चेहरा देखो। सदैव स्मरण रखो कि संबंध ही दर्पण है। यदि तुम्हारा ध्यान गहरा जा रहा है तो तुम्हारे संबंध भिन्न हो जायेंगे-समग्ररूप से भिन्न हो जायेंगे। प्रेम तुम्हारे संबंधों का आधार हो जायेगा, न कि हिंसा। अभी जैसे भी तुम हो, हिंसा ही आधारभूत स्वर है। यहाँ तक कि जब तुम किसी की ओर देखोगे भी तो तुम्हारा देखना भी हिंसा के ढंग से होगा। लेकिन वह हमारी आदत हो गई है।

ध्यान मेरे लिये बच्चों का खेल नहीं है। वह एक गहरा रूपान्तरण है। इस रूपान्तरण को कैसे जाना जाये? उसकी झलक हर क्षण तुम्हें अपने संबंधों में मिलेगी। क्या तुम किसी के मालिक बनना चाहते हो? तो फिर तुम हिंसक हो। कैसे कोई किसी का मालिक बन सकता है? क्या तुम किसी पर शासन करना चाहते हो? तो तुम हिंसक हो। कैसे कोई किसी पर शासन कर सकता है? प्रेम शासन नहीं कर सकता, प्रेम किसी का मालिक बनना नहीं चाहता।

इसलिए जो भी तुम कर रहे हो, सजग रहो, देखो उसे और ध्यान करते चले जाओ। जल्दी ही तुम्हें परिवर्तन का पता चल जायेगा। अब संबंधों में मालकियत नहीं होगी। धीरे-धीरे मालकियत खो जायेगी। और जब मालकियत नहीं रहती तो संबंध का अपना ही एक सौंदर्य होता है। जब मालकियत का भाव होता है, तो हर चीज गंदी हो जाती है, कुरूप तथा अमानवीय हो जाती है। लेकिन हम इतने धोखेबाज हैं कि हम अपने संबंधों के दर्पण में अपने को नीं देखेंगे क्योंकि वहां हमारा असली चेहरा दिखाई पड़ जायेगा। अतः हम अपने संबंधों की तरफ से आँखें बंद कर लेते हैं और सोचते रहते हैं कि कुछ भीतर दिखाई पड़नेवाला है।

तुम भीतर कुछ भी नहीं देख सकते। सबसे प्रथम, तुम अपना भीतरी रूपान्तरण अपने संबंधों में देखोगे, और तब तुम गहरे जाओगे। केवल तभी तुम्हें भीतर का अनुभव होगा। लेकिन हमारे अपने को देखने का निश्चित ढंग है। हम अपने संबंधों में बिल्कुलझांकना नहीं चाहते क्योंकि तब नग्न चेहरा ऊपर आ जाता है।

मुल्ला नसरुद्दीन की शादी उसके पिताजी तय कर रहे थे। वह तय की हुई शादी थी, अतः मुल्ला अपनी होनेवाली पत्नी का चेहरा नहीं देख सकता था। तब विवाह के दिन जब विवाह संपन्न हो गया तो उसकी पत्नी ने चेहरे पर से पर्दा उठाया। वह भयानक रूप से कुरूप थी। और जब मुल्ला उस गहरे आघात से पीड़ित था तो उसकी पत्नी ने पूछा, ‘अब बोलो, मेरे प्यारे, तुम्हारा क्या हुक्म है?’यह एक मुसलमानों की रीत है। पहली बात जो पत्नी पूछती है वह यह है कि हे मेरे प्यारे, बताओ तुम्हारा क्या हुक्म है? मैं किससे पर्दा करूं, और मैं किसको अपना मुंह दिखाऊँ? बोला, मुल्ला कराहते हुए कहा-‘तुम जिसे चाहो अपना मुंह दिखा सकती हो बस, तुम मुझे अपना चेहरा न दिखाओ’। यह एक अनुबंध है।’

जब भी किसी चीज की इच्छा विलीन हो जाती है तो तुम अज्ञात में प्रवेश करते हो। ध्यान अपने अन्तिम लक्ष्य को पहुंच गया। तब संसार ही मोक्ष है। तब यह संसार ही मुक्ति है। तब यह किनारा ही वह किनारा है।

किन्तु बचकाने लक्षणों के पीछे न जाओ। जरा भी नहीं। उन्हें निर्मित कर सकते हो।

मेरा यह मतलब नहीं है कि उन लक्षणों के सारे अनुभव ही कल्पना हैं, लेकिन यदि तुम उस तरह से सोचो, तो तुम उनकी कल्पना कर सकते हो। यदि तुम यह विचार करते हो कि एक खास स्थिति में नीले प्रकाश का अनुभव होता है तो तुम बिना उस स्थिति को पहुंचे ही उसे निर्मित कर सकते हो। यह बहुत आसान है, उस स्थिति को पहुंचना बहुत कठिन है। इस नीचे प्रकाश को निर्मित करना बहुत सरल है। अपनी आंखें बंद करो और उस पर ध्यान केंद्रित करो और थोड़े ही दिनों में उसका अनुभव होने लगेगा। तब तुम्हारा अहंकार मजबूत होने लगेगा। अब तुम आध्यात्मिक मार्ग पर हो। कुण्डलिनी का विचार करो और तुम उसे अपने रीढ़ से चढ़ते हुए पाओगे। यह सब कल्पना है। यह आसान है, कठिन नहीं है। लेकिन तब तुम अपने को गलत मार्ग पर ले जा रहे हो।

मैं यह नहीं कहता कि इस तरह का कोई भी अनुभव कल्पना है, लेकिन यदि तुम उसके बारे में विचार करते हो, तो वह कल्पना हो जायेगा। उसे पूरी तरह भूल जाओ। केवल ध्यान में उत्सुकता रहे, तुम्हारे बदलते हुए संबंधों पर ही ध्यान रहे, तुम्हारे मौन पर तुम्हारे संतोष पर, तुम्हारे प्रेम पर ही ध्यान रे। इन पर ही तुम्हारा ध्यान केंद्रित रहे और कभी अचानक रीढ़ में ऊर्जा का प्रादुर्भाव होगा।

लेकिन उसके बारे में विचार मत करो। इस बात के प्रति सचेत होओ और भूल जाओ। अचानक तुम्हें कोई विशेष प्रकाश दिखाई पड़ेगा, उसे देखो और भूल जाओ। अचानक कोई चक्र चलने लगेगा, उसे जानो और भूल जाओ। उससे कोई मतलब मत रखो। उनकी चिंता ही हानिप्रद है। तुम्हारा मतलब तो सिर्फ संतोष, शांति, मौन, प्रेम, करुणा, ध्यान आदि से हो।

ये सब बातें होती रहेंगी। तभी वे प्रमाणिक हैं। जब तुम्हारा उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं और फिर भी वे होती हैं, तभी वे वास्तविक हैं। और वे बहुत बातें इंगित करती हैं लेकिन तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं क्योंकि जब वे होती हैं तो तुम जानते हो कि वे क्या दर्शा रही हैं। जैसा कि आदमी का मन मूढ़ है, यदि मैं तुम्हें यह कहूं कि वे क्या दर्शाती हैं तो तुम्हारा संबंध प्रेम, मौन तथा करुणा से कम होगा। ये बातें बड़ी कठिन हैं। नीला प्रकाश पैदा करना बड़ा सरल है और यह भी अनुभव करना बड़ा आसान है कि तुम्हारी रीढ़ में सर्प ऊपर उठ रहा है। यह बहुत आान है, इसमें कोई भी कठिनाई नहीं है।

इसलिए याद रहे कि दो प्रकार के आंतरिक अनुभव हैं। एक वे, जो कि सर्प ऊपर उठ रहा है। यह बहुत आसान है, इसमें कोई भी कठिनाई नहीं है।

इसलिए याद रहे कि दो प्रकार के आंतरिक अनुभव हैं। एक वे, जो कि तुम्हारी कल्पना द्वारा निर्मित किये जाते हैं और दूसरे वे जो कि घटित होते हैं। लेकिन घटित होने वाले अनुभवों के लिए तुम्हारी जरूरत नहीं है, कल्पना के लिए तुम्हारी जरूरत है। कल्पना के साथ मत खेलो। यह एक खतरनाक खेल है। कोई कुछ भी कल्पना कर सकता है तुम चाहे जो कल्पना कर सकते हो, लेकिन उससे तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। और मन कुछ ऐसा है कि वह कुछ भी झूठी चीजें पाने की कोशिश करता रहता है, क्योंकि झूठे परिपूरक बड़े सस्ते हैं।

यदि तुम्हें अपने बगीचे में असली गुलाब उगाना हो तो उसमें समय लगता है। उसके लिए धैर्य की, प्रयास की जरूरत है और फिर भी पक्का नहीं है कि उगेगा ही। गुलाब निकले, न भी निकले। सरल है कि एक गुलाब खरीद लिया जाए, लेकिन तब वह तुम्हारा नहीं है। वह ऐसा लगता है जैसे तुम्हारे बगीचे में ही उगा है, लेकिन वास्तव में वह नहीं उगा है। जब तुम एक गुलाब का फूल खरीदते हो तो उसकी जड़ें तुम्हारे भीतर नहीं होतीं, वह सिर्फ तुम्हारे हाथ में होता है। वह तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा नहीं हुआ। तुमने उसकी कभी प्रतीक्षा नहीं की है, तुमने उसके लिए कभी धैर्य नहीं रखा है। वह बच्चा नहीं है। वह तुम्हारा बच्चा नहीं है। तुमने उसे खरीदा है। वह वहाँ है लेकिन एक विदेशी की तरह-न कि तुम्हारे आंतरिक विकास की तरह।

लेकिन कुछ चालाक लोग हैं जो कि असली फूल भी नहीं खरीदेंगे, वे लोग कागज के या पलास्टिक के फूल खरीद लेंगे क्योंकि वे ज्यादा स्थायी हैं। एक असली फूल तो मुरझा जाएगा। शाम तक वह खो जायेगा। इसलिए प्लास्टिक का फूल खरीद लो, वह सस्ता पड़ेगा, कम कष्टप्रद होगा और स्थायी होगा। लेकिन तब तुम धोखा दे रहे हो। असली विकास के लिए समय चाहिए, धैर्य चाहिए, श्रम चाहिए। काल्पनिक विकास तो नकली है इस भेद को सदा याद रखो।

एक बात और : जो भी तुम कर रहे हो, ऐसा मत सोचो कि परिणाम भविष्य में आयेगा। यदि तुम कुछ वास्तविक बात कर रहे हो, तो परिणाम अभी और यहीं होगा। भीतर के कार्यक्षेत्र में यदि तुमने आज ध्यान किया है, तो उसका नतीजा कल नहीं आयेगा। यदि तुमने आज ध्यान किया है, तो उसकी सुगंध, चाहे थोड़ी-सी हो, आज ही होगी। यदि तुम संवेदनशील हो, तो तुम उसे अनुभव कर सकते हो। जब भी कुछ वास्तविक किया जाता है, तो उसका प्रभाव तुम पर पड़ता है-अभी और यहीं।

इसलिए ऐसा मत सोचो कि कुछ भविष्य में होगा। जो भी तुम कर रहे हो वह तुम्हें अभी ही परिवर्तित नहीं करनेवाला है। समय से कुछ भी न होगा। समय अकेला उसमें सहायता न देगा। समय उसको गहरा करेगा, लेकिन अकेले समय से कुछ भी न होगा।

लेकिन हो सकता है कि तुम संवेदनशील नहीं हो। जो तुम कर रहे हो, तुम उसके प्रति संवेदनशील नहीं भी हो सकते हो। हमारी संवेदना खो गई है, क्योंकि असंवेदनशीलता में कुछ सुरक्षा है। यदि तुम्हें ज्यादा कुछ महसूस नहीं होता है तो तुम कम दुःखी होते हो। जो आदमी ज्यादा महसूस करता है, वह ज्यादा दुःख पाता है। इस कारण हमने अपने आप को असंवेदनशील बना लिया है। इसलिए जब कुछ इतना तीव्र होता है कि उसे ध्यान से हटाना असंभव हो, तभी हम उसके प्रति सजग होते हैं। अन्यथा हम मरे हुए रहते हैं, नींद में सोये हुए चलते रहते हैं।

यह संवेदनशीलता का अभाव समस्याएँ पैदा करेगा। जब तुम ध्यान करोगे तो ध्यान में जो भी होगा उसके प्रति भी संवेदनशील नहीं होओगे। अतः अधिकाधिक संवेदनशील बनो। और तुम एक ही आयाम में संवेदनशील नहीं रह सकते। या तो कोई सभी आयामों में संवेदनशील होगा, या फिर एक भी आयाम में संवेदनशील नहीं होगा। संवेदनशीलता तुम्हारे समग्र अस्तित्व से संबंध रखती है। अतः ज्यादा-से-ज्यादा संवेदनशील बनो, तब जो हो रहा है वह तुम्हें रोज-रोज प्रतीत होगा।

उदाहरण के लिए, तुम धूम में चल रहे हो। तब किरणों को अपने चेहरे पर अनुभव करो, संवेदनशील रहो। वे तुम पर चोट कर रही हैं। यदि तुम उन्हें अनुभव कर सको तो तुम्ळें भीतर के प्रकाश का भी अनुभव होगा जब वह तुम्हें चोट करेगा। अन्यथा, तुम अनुभव न कर सकोगे।

बाहर से ही प्रारंभ करो क्योंकि वह सरल है। और यदि तुम बाहर का भी अनुभव नहीं कर सकते, तो तुम भीतर का अनुभव भी नहीं कर सकते। जीवन में ज्यादा काव्यात्मक बनो व्यावसायिक नहीं। और कभी-कभी संवेदनशील होने में कुछ लगता भी नहीं है। तुम स्नान कर रहे हो, क्या तुमने कभी पानी का अनुभव किया? तुम रोजमर्रा के काम की तरह स्नान कर रहे हो, क्या तुमने कभी पानी का अनुभव किया? तुम रोजमर्रा के काम की तरह स्नान कर लेते हो, और बाहर निकल जाते हो। कुछ मिनट के लिए उसे अनुभव करो। पानी के फव्वारे के नीचे कुछ देर खड़े रहो और पानी के स्पर्श को अनुभव करो। उसे अपने ऊपर बहते हुए अनुभव करो। वह एक गहरा अनुभव हो सकता है, क्योंकि पानी जीवन है। तुम नब्बे प्रतिशत पानी हो। यदि तुम पानी को अपने ऊपर पड़ते हुए अनुभव नहीं कर सकते, तो तुम अपने भीतर के पानी के ज्वार को अनुभव नहीं कर सकोगे।

जीवन समुद्र में पैदा हुआ था। और तुम्हारे भीतर भी कुछ पानी है जो कि नमक की कुछ मात्रा लिए हुए है। समुद्र में तैरो और पानी को बाहर अनुभव करो। जल्दी ही तुम्हें पता चलेगा कि तुम भी समुद्र के हिस्से हो, और तुम्हारा भीतरी भाग समुद्र में उसके प्रति संवेदन में ज्वार उठा होगा तो तुम्हारा शरीर भी लहरें लेने लगेगा। वह लहरें लेता है, लेकिन तुम उसे अनुभव नहीं कर पाते हो। इसलिए यदि तुम इतनी स्थूल चीजें भी अनुभव नहीं कर सकते, तो फिर तुम्हारे लिए ध्यान जैसी सूक्ष्म चीज को अनुभव करना कठिन है।

फिर तुम प्रेम को अनुभव कैसे करोगे? हर आदमी दुःखी है, पीड़ित है। मैंने हजारों-हजारों लोगों को गहरे दर्द में डूबा हुआ देखा है। वह सारा दुःख प्रेम के लिए है। वे प्रेम करना चाहते हैं, और वे चाहते हैं कि कोई उन्हें प्रेम करे, लेकिन समस्या यह है कि यदि कभी तुम प्रेम भी करो, तो वे उसे अनुभव नहीं कर पाते। वे पूछते ही रहेंगे, क्या तुम मुझे प्रेम करते हो? अतः क्या किया जाये? यदि तुम कहो कि ‘नहीं’ तो उन्हें पीड़ा होगी।

यदि तुम्हें सूरज की किरणों का भी अनुभव नहीं होता है, यदि तुम्हें वर्षा की भी प्रतीति नहीं होती है, यदि तुम्हें प्रेम, करुणा आदि गहरी बातों का पता नहीं चलेगा। यह बड़ा कठिन है। तुम्हें क्रोध का, हिंसा का, उदासीनता का पता चलता है क्योंकि वे इतने स्थूल हैं। भीतर जानेवाला मार्ग तो बहुत सूक्ष्म है। और जितना ज्यादा सूक्ष्म तुम्हारा ध्यान होता जाता है, उतनी ही ज्यादा सूक्ष्म तुम्हारी प्रतीति हो जायेगी। लेकिन तब तुम्हें तैयार रहना पड़ेगा।

इसलिए ध्यान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे कि तुम एक घंटा करो और फिर भूल जाओ। वस्तुतः सारा जीवन ही ध्यानपूर्ण होना चाहिए। तभी केवल तुम चीजों को अनुभव कर सकोगे। और जब मैं कहता हूँ कि सारा जीवन ही ध्यानयुक्त होना चाहिए, तो मेरा यह मतलब नहीं है कि तुम चौबीस घंटे आँखें बंद करके बैठ जाओ और ध्यान करो। नहीं जहां भी तुम होओ, वहीं तुम संवेदनशील बने रह सकते हो। वह संवेदनशीलता उपयोगी है। तब तुम्हें यह पूछने की जरूरत नहीं पड़ेगी कि मैं ध्यान में प्रगति कर रहा हूँ या नहीं।

तुम एक अंधे आदमी की भांति हो। तुम रास्ते को महसूस नहीं कर सकते क्योंकि तुमने कभी कोई चीज अनुभव नहीं की है। और जिस तरीके से हमें शिक्षित किया गया है, सुसंस्कृत किया गया है वह सब असंवेदनशीलता के लिए है। एक बच्चा रो रहा है। सारा घर उसके विरुद्ध है : रोओ मत। मेहमान आनेवाले हैं। मेहमान ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, और बच्चे का रोना कतई महत्वपूर्ण नहीं है। अब तुम उसे जीवन भर के लिए दबा रहे हो।

वह अपना रोना बंद कर देगा, लेकिन रोना बंद करना एक बड़ी गंभीर बात है। उससे उसके शरीर का सारा गुण धर्म बदल जाएगा। रोने को रोकने के लिए उसे तनावपूर्ण होना पड़ेगा, वह विश्राम में नहीं जा सकता। जो ऊपर आ रहा है उसे उसको भीतर दबाना पड़ेगा, उसे अपने श्वास को बदलना पड़ेगा। वास्तव में उसे अपना श्वास रोकना पड़ेगा, क्योंकि अगर श्वास आसानी से चलती रहे तो रोना भी चलता रहेगा। उसे अपना पेट खींचना पड़ेगा, उसके शरीर में सब कुछ गड़बड़ हो जायेगा। तब वह नहीं रो सकता, लेकिन तब वह हंस नहीं सकता। तब तुम उसे उसके सारे जीवन भर के लिए पंगु बना रहे हो।

हर व्यक्ति लंगड़ा हो गया है और उसे लकवा मार गया है। हम एक पक्षापात से भरे संसार में रह रहे हैं। अब सतत दमन होता रहेगा। यह बच्चा अब हंस नहीं सकता, वह रो नहीं सकता, वह नाच नहीं सकता, वह कूद नहीं सकता। जो भी उसका शरीर करना चाहेगा, वह नहीं कर सकता। जब भी शरीर कुछ करना चाहेगा, वह उसे नहीं करने देगा। और जब तुम उसको खेलने के लिए कहते हो तो वह भी स्वत-स्फूर्त नहीं है। उसका खेलना भी झूइा हो गया है। तुम कहते हो कि अब तुम खेल सकते हो। जब उसका समस्त अस्तित्व खेलना चाह रहा था उसे खेलने नहीं दिया गया और अब तुम उसे खेलने के लिए कहते हो। लेकिन अब वह खेलने का प्रयास करता है। और अब वह भी एक काम है।

अन्ततः हम एक ऐसा आदमी निर्मित करते हैं जो कि ज्यादा-से-ज्यादा एक यंत्र है। क्या तुम रो सकते हो? क्या तुम स्वत-स्फूर्त हंस सकते हो? क्या तुम अपने से नाच सकते हो? क्या तुम अपने से प्रेम कर सकते हो? यदि तुम नहीं कर सकते तो तुम ध्यान कैसे कर सकते हो? क्या तुम खेल सकते हो? यह मुश्किल है।

हर बात मुश्किल हो गई है। आदमी असंवेदनशील हो गया है। अपनी संवेदनशीलता को लौटाओ। उसे वापस प्राप्त करो। थोड़ा खेलो। खेलपूर्ण होना ही धार्मिक होना है। हंसो, रोओ, गाओ, कुछ अपने आप करो अपने पूरे दिल से। अपने शरीर को शिथिल छोड़ दो, अपनी श्वास कोढीला छोड़ दो और इस तरह घूमो जैसे कि तुम फिर से बच्चे हो गये। तब जब तुम ध्यान करोगे, तो तुम नहीं पूछोगे कि क्या मुझे कुछ हो रहा है? क्या मैं आगे बढ़ रहा हूं या नहीं, अथवा कि मैं सिर्फ एक वर्तुल में ही घूम रहा हूँ? तुम स्वयं जान जाओगे।

मैं तुम्हारी मुश्किल भी समझता हूँ। तुम अभी अनुभव नहीं कर पाते, क्योंकि तुम्हारी अनुभूति खो गई है। अपनी अनुभूति को पुनः प्राप्त करो। कम विचार, अधिक अनुभव, ज्यादा हृदय से जिओ, और सिर से कम जिओ। कभी-कभी समग्ररूप से शरीर में जिओ, क्योंकि यदि तुम अपने शरीर को भी अनुभव नहीं कर सकते, तो तुम अपनी आत्मा को अनुभव नहीं कर सकते। इसे स्मरण रखो। वापस शरीर में आ जाओ।

हम सचमुच शरीर के चारो ओर घूम रहे हैं, हम शरीर में नहींहैं। हर आदमी शरीर में रहने से डरा हुआ है। समाज ने डर पैदा कर दिया है, और वह बहुत गहरा है। वापस शरीर में लौटो, फिर से शरीर में जाओ। एक निर्दोष पशु की भांति हो जाओ।

पशुओं की ओर देखो-उन्हें कूदते, दौड़ते हुए। कभी-कभी उनकी तरह से दौड़ो और कूदो। तब तुम वापस शरीर में लौट आओगे। तब तुम अपने शरीर को अनुभव कर सको। सूरज की किरणों को, वर्षा को और बहती हुई हवाओं को अनुभव कर पाओगे। चारों ओर जो भी हो रहा है। उसको देखने की इस सामर्थ्य के साथ तुम भीतर जो भी हो रहा है, उसको अनुभव करने की सामर्थ्य जुआ पाओगे।

भगवन्! दोनों मार्गों में यानी भक्ति तथा योग दोनों में योग अति कठिन है, उसके लिए कठिन तपस्या कीर जरूरत है। एक संसारी आदमी के लिए वह अति कठिन है। जिन्होंने भी ‘ब्रह्म’ या ‘मोक्ष’ को उपलब्ध किया योग के द्वारा, उन्होंने संसार को त्याग दिया दूसरी और नरसी मेहता और मीराबाई के दृष्टांत हैं जो कि ये दर्शाते हैं कि एक सामान्य आदमी भक्ति के द्वारा भी परम ज्ञान को उपलब्ध हो सकता है।

इसलिए क्या यह सही नहीं होगा कि सामान्य आदमी भक्ति के मार्ग को अपनाये?

सामान्य आदमी जैसा कोई आदमी नहीं है। प्रत्येक आदमी असाधारण है। चाहे तुम्हें पता हो, चाहे न हो, लेकिन कोई भी आदमी साधारण नहीं है। यह पहली बात है।

दूसरी बातः मीरा, नरसी मेहत्ता अथवा चैतन्य आदि ने कोई आसानी से अपने लक्ष्य को नहीं नहीं पा लिया। यह धारणा बिल्कुल गलत है। बल्कि इसके विपरीत, मीरा ने और भी ज्यादा कठिन मार्ग की यात्रा की है। इसीलिए तुम बहुत से योगियों का नाम गिना सकते हो, लेकिन तुम हजारों मीराओं का नाम नहीं गिना सकते। यदि तुम भक्तों की गिनती करने जाओ, जो कि मीरा के बराबर क्षमता रखते हों तो तुम्हारे हाथ की दो अंगुलियाँ काफी होंगी।

फिर योगियों की गणना करो, वे अनगिनत हैं। क्यों? यदि योग का मार्ग कठिन है और भक्ति का मार्ग, प्रेम का मार्ग सुगम है, सीधा सरल है, तो फिर यह असमानता क्यों? क्योंकि वह सरल नहीं है। लेकिन तब क्या मेरा यह अर्थ है कि भक्ति का मार्ग योग के मार्ग से ज्यादा कठिन है? नहीं। यह तुम पर निर्भर करता है।

यदि तुम्हारा मन एक विशेष ढंग का हो तो एक विशेष मार्ग तुम्हारे लिए सरल होगा। यदि तुम भक्त के ढंग के पुरुष या स्त्री हो तो तुम्हारे लिए भक्ति सरल होगी, और योग कठिन होगा। लेकिन यह तुम पर निर्भर करता है। मार्गों की तुलना नहीं की जाती है। यदि मैं भक्ति-भाव से भरा आदमी नहीं हूँ, तो मेरे लिए योग सरल होगा और भक्ति कठिन होगी। इसलिए यह साधक पर निर्भर है, न कि मार्ग पर। कोई भी मार्ग सरल नहीं है, और कोई भी मार्ग मुश्किल नहीं है।

लेकिन तब अधिक योगी क्यों हुए और भक्त इतने कम क्यों हुए? इसके बहुत से कारण हैं। पहला : कि यह भ्रान्तिपूर्ण विचार कि भक्ति का मार्ग सरल है, इसने बहुत-सी गड़बड़ पैदा कर दी। इसके कारण जिनके लिए, भक्ति का मार्ग नहीं है वे उस मार्ग पर जाते हैं। लेकिन तब वे मीरा और चैतन्य की भांति नहीं हो पाते, वह उनके लिए नहीं।

वह मार्ग उनके लिए नहीं है। उन्होंने अपने अनुसार उसे नहीं चुना। उन्होंने झूठी धारणा के कारण, जो कि प्रचलित है, उसके कारण चुना।

वास्तव में, जो लोग भक्ति का मार्ग चुनते हैं, वे सचमुच उस पर चलने के लिए उसे नहीं चुनते। वे सोचते हैं कि इस मार्ग पर चलना तो कुछ भी नहीं है और पा सब लेना है। ऐसा समझा जाता है कि तुम्हें भक्ति मार्ग पर कुछ भी नहीं करना है, और तुम सब कुछ पा लेते हो, सब केवल ‘नाम स्मरण’ से सब हो जाएगा। और खासकर कलियुग में, कलि के युग में।

वस्तुतः जो लोग कुछ भी नहीं करना चाहते हैं वे भक्ति को चुनते हैं। और भक्ति कोई दावा नहीं है कि तुम बिना कुछ भी किए सब कुछ पा लोगे। भक्ति तुम्हारी समग्रता को मांगती है। वह कोई खाली ‘नाम स्मरण’ नहीं है। तुम्हें अपने को समग्ररूप से समर्पण करना होता है। किन्तु समग्र समर्पण एक बड़ी कठिन बात है। इस झूठे विश्वास के कारण बहुत से तथाकथित भक्त हो गये हैं, किन्तु वे अपने को धोखा दे रहे हैं।

दूसरी बात यह धारणा कि योग का मार्ग अति कठिन है इस बात ने भी बहुत-सी समस्याएँ पैदा की हैं। क्योंकि जो लोग अहंकारी हैं वे इस मार्ग की ओर आकर्षित होते हैं। अहंकार चाहता है कुछ कठिन काम करना। यदि कोई बात सरल है तो वह अहंकार को तृप्त नहीं करती।

यदि कोई एवरेस्ट पहाड़ हो या गौरीशंकर हो, तो अहंकार को रस आता है। यदि मैं पहुँच जाऊँ तो मैं कह सकता हूँ कि केवल मैं ही पहुंचा हूँ। यह इतना कठिन है। कोई दूसरा नहीं पहुंचा। यदि वह कोई छोटी-सी पहाड़ी है, और कोई बच्चा भी चढ़ सकता है तो फिर अहंकार को उसमें कोई रस नहीं आता। अतः इस धारणा के कारण ही कि योग का मार्ग अति कठिन है, दुरुह है, असंभव है, बहुत-से अहंकारी उसके तरफ आकर्षित हुए हैं। और अहंकार ही तो बाधा है।

जो लोग कुछ भी करना नहीं चाहते हैं, वे भक्ति की ओर आकर्षित हो जाते हैं, और भक्ति में बहुत कुछ करना होता है, वह कोई न करना नहीं है। जो लोग अहंकारी होते हैं वे योग की ओर आकर्षित हो जाते हैं, लेकिन वे अहंकार के कारण ही आकर्षित होते हैं। वे अधिकाधिक अहंकारी हो जाते हैं। यदि तुम्हें पूरी तरह से अहंकारी देखने हों, तो तुम्हें कहीं और जाने की जरूरत नहीं, तथाकथित योगियों के पास चले जाओ, तब तुम्हें पूर्णरूपेण अहंकारी मिल जायेंगे। वह सर्वाधिक कठिन काम कर रहा है जगत में।

दोनों ही धारणाएँ गलत हैं। स्वयं के अनुसार चुनाव करो, सर्वप्रथम अपने प्रति जागो। वस्तुतः यदि तुम स्वयं के प्रति सजग हुए, तो तुम्हें चुनने की भी जरूरत नहीं रहेगी। तुम उसी मार्ग की तरफ जाते जाओगे जो कि तुम्हारे लिए उचित है। केवल अपने प्रति सजग रहो। स्वयं को अधिकाधिक अनुभव करो, ध्यान करो और अधिकाधिक अपने को अनुभव करो। फिर अपने चुनाव की भी चिंता मत करो।

मीरा ने कभी चुनाव नहीं किया। वह घटित हुआ। न ही महावीर ने कोई चुनाव किया। वह भी घटा। यदि तुम अपने को जानते हो, यदि तुम स्वयं को अनुभव करते होऔर ध्यान करते हो, तो धीरे-धीरे तुम उस मार्ग की तरफ जाने लगोगे जो कि तुम्हारे लिए है। तुम अपनी नियति की ओर मुड़ने लगोगे। यदि तुम चुनाव करोगे तो तुम चीजों को गड़बड़ कर दोगे-क्योंकि तुम्हारा चुनाव आखिर तुम्हारा ही चुनाव है। कैसे तुम अपनी नियति का चुनाव कर सकते हो? तुम सिर्फ उसे होने दे सकते हो, तुम उसे चुन नहीं सकते।

यदि तुम चुनाव करोगे तो तुम एक गहरी गलीत धारणा में पड़ जाओगे। तुम गलत हो, अतः तुम गलत ही चुन लोगे। तब बहुत-सा श्रम व्यर्थ चला जाएगा। और तुम तर्क बिठाते रहोगे कि मैं इतना सब कर रहा हूँ, और ऐसा ऐसा नहीं हो रहा है। और यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो उसके कारण होने चाहिए। मेरे पुराने कर्म बाधा बन रहे हैं। अथवा, मुझे और भी ज्यादा प्रयास करना चाहिए, या मुझे ज्यादा समय लगेगा। अथवा मैंने बहुत देर से शुरू किया, इसलिए अगले जन्म में जल्दी प्रारंभ करूँगा।

मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में एक घटना, और फिर हम बात पूरी करेंगे। मुल्ला नसरुद्दीन ने एक गधा खरीदा। गधे के मालिक ने मुल्ला को कहा कि गधे को कितना खाना रोजाना देना होगा? मुल्ला ने सोचा कि यह तो बहुत ज्यादा होगा, अतः उसने कहा, ठीक है। धीरे-धीरे मैं गधे की खुराक कम कर दूंगा और इसकी कम राशन की आदत डाल दूंगा। अतः वह धीरे-धीरे रोजाना उसका खाना कम करता गया।

अन्ततः खाना बिल्कुल भी नहीं पर आ गया-बिल्कुल नहीं पर। तो गधा गिर कर मर गया। मुल्ला बोला, कैसी दुर्भाग्य की बात है। यदि मुझे थोड़ा समय और मिलता तो मैं इस गधे को बिना खुराक पर भी रहने की आदत डाल देता। प्रयोग पूरा ही होने वाला था, लेकिन बड़े दुःख की बात है कि गधा मर गया।

आदमी रेशनलाइज करता चला जाता है, तर्क बिठाता रहता है। तर्क बिठाने से कुछ भी न होगा। चुनाव करने की कोशिश मत करो। होने दो। चुनाव मत करो, अपने स्वभाव को पहचानो। अपनी आत्यतिंक संभावना से संवेदनशील बनो, ध्यान करो और चुनाव करने का प्रयत्न मत करो। धीरे-धीरे तुम किसी एक दिशा में बढ़ते जाओगे। वह गति, वह बढ़ना अपने आप होने लगेगा। वह कोई चुना हुआ प्रयत्न नहीं होगा। वह तुम्हारे साथ घटित होगा, वह तुम्हारे भीतर विकसित होगा, और तुम उस तरफ बढ़ने लगोगे।

और तब तुम एक दिन जानोगे कि भक्ति तुम्हारा मार्ग है या योग तुम्हारा मार्ग है या योग तुम्हारा मार्ग है। जो दिशा तुम्हारे भीतर घटित होगी, प्रकृतिगत वह तुम्हारी होगी। जो दिशा चुनी जायेगी और जबरदस्ती थोपी जाएगी वह तुम्हारे लिए नहीं है। चुना हुआ मार्ग कठिन होगा, दुर्गम होगा, और अन्ततः व्यर्थ जायेगा। एक बिना-चुना मार्ग, एक दिशा जो कि तुम्हारे सामने अपने आप खुल गई है, वही सरल होगी, प्रकृतिगत होगी, ‘सहज’ होगी।

आज इतना ही।

 

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-35)

आत्म पूजा उपनिषद–भाग-2

सत्रहवां -प्रवचन

सत्रहवाँ सूत्र

सर्व निरामय परिपूर्णोऽहमस्मीति मुमुक्षणां मोक्षैक सिर्द्धिभवति इत्युपनिषद्।

‘मैं ही वह परिपूर्ण शुद्ध ब्रह्म हूँ’-ऐसा जान लेना ही मोक्षोपलब्धि है।

अस्तित्व दो में बँटा है। अस्तित्व जैसा कि हम देखते हैं, द्वैत है। जैविकरूप से मनुष्य दो में विभाजित है : पुरुष तथा स्त्री। ओण्टोलोजिकली, शुद्ध स्वरूप के सिद्धान्त के आधार पर भी, अस्तित्व दो में बँटा है-मन तथा पदार्थ। चीनियों ने इसे यिन तथा यांग कहा है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-35)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-34)

आत्म पूजा उपनिषद–भाग-2

सोलहवां प्रवचन -दो ध्रुवों का मिलन

प्रश्न

  1. क्या विज्ञान और धर्म की ध्रुवतायें मिल सकती हैं?
  2. क्या पश्चिम प्रज्ञा को उपलब्ध होने के लिये तैयार है? और पूर्व किस तरह से ऐण्टी-फिलोसोफिक है, यानी तर्क-विरोधी है?

 

भगवन्। हम ऐसा समाज क्यों नहीं बना सके जो कि दोनों ध्रुवों को मिलाता हो-दार्शनिकता तथा काव्य को, और विज्ञान तथा धर्म को?

क्या इन ध्रुवताओं की समग्ररूप से मिलन की कोई संभावना है? इस मिलन के लिये कौन-सी भूमि अधिक उपजाऊ है-पूरब या पश्चिम?

क्या यह मिलन सिर्फ व्यक्तिगत ही संभव है, अथवा क्या यह साथ ही समाज में भी संभव है?

किस भांति ‘ध्यान’ इस मिलन के लिये उपयोगी हो सकता है?

वे कौन-कौन सी आवश्यक बातें हैं जो मनुष्य को विज्ञान तथा धर्म इन दोनों आयामों में विकसित होने में सहयोगी हो सकती हैं?

अब तक यह असंभव था कि ऐसा समाज निर्मित किया जा सके जो कि विज्ञान तथा धर्म, तर्क तथा काव्य की ध्रुवताओं का समन्वय कर सके। यह बात असंभव थी क्योंकि ऐसा समन्वय तभी संभव है, जब दोनों विकल्प अकेले-अकेले लेने पर असफल सिद्ध हों। अभी मानव चेतना के इतिहास में पहली बार हम ऐसी जगह पहुँचे हैं जहाँ कि दोनों विकल्प असफल हो गये हैं। अकेले-अकेले लेने पर असफल सिद्ध हों। अभी मानव चेतना के इतिहास में पहली बार हम ऐसी जगह पहुँचे हैं जहाँ कि दोनों विकल्प असफल हो गये हैं। अकेले-अकेले चुनने पर, अकेले-अकेले लिये जाने पर, प्रत्येक असफल सिद्ध हुआ है। इसलिए यह युग एक बहुत ही गहन महत्त्व का है क्योंकि अब मानव-मन पुराने द्वंद्व तथा पुरानी ध्रुवताओं के पार जा सकेगा।

पूर्व ने एक विकल्प के साथ प्रयास किया-उसने विज्ञान की कीमत पर धर्म को चुना। पश्चिम ने ठीक इसके विपरीत किया-उसने धर्म की कीमत पर विज्ञान को चुना। केवल कुछ लोगां को आंतरिक केन्द्र तक पहुँचाने में पूरब सफल हुआ। पश्चिम भी सफल हुआ एक भरा-पूरा समाज उपलब्ध करने में। आर्थिक रूप से तथा तकनीक में पूरब असफल हुआ। वह दरिद्र रहा। पश्चिम आध्यात्मिक अर्थों में असफल हुआ। वह आंतरिक रूप से खाली रहा। इसलिए एक समन्वय होना प्रारंभ हुआ।

पूर्व तथा पश्चिम में कुछ लोग इस बात को अनुभव भी करने लगे। वे भविष्य में झाँके और उन्हें युगद्रष्टा के नाम से पुकारा गया क्योंकि वे जान सकते हैं, वे भविष्य की गहराई में गहरे छानबीन कर सकते हैं। किन्तु युगद्रष्टाओं पर कभी विश्वास नहीं किया गया, जब तक कि वे जीवित थे। क्योंकि वे बहुत आगे चले जाते हैं। हम उनको नहीं समझ सकते और हम यह नहीं देख पाते कि उनकी अंतर्दृष्टि किस भाँति काम करती है। अतः उनका कभी विश्वास नहीं किया जाता, उनको कभी समझा नहीं जाता। केवल बहुत बाद में ही हम जान पाते हैं कि वे लोग सही थे।

कई बार ऐसा समन्वय प्रस्तुत किया गया। उदाहरण के लिये, कृष्ण ने इसे प्रस्तुत किया था। उनके द्वारा किया गया प्रयास एक ही बहुत ही गहरा समन्वय का प्रयास था। गीता को पढ़ा जाता है, उसकी पूजा की जाती है, किन्तु उनको किसी ने भी नहीं सुना। सचमुच, पैगम्बर अपने समय से पहले पैदा होते हैं। इसलिए जो लोग उन्हें समझ सकते हैं, वे उस समय नहीं होते और जो होते हैं, वे उन्हें समझ नहीं पाते। एक अन्तराल पड़ जाता है।

केवल कुछ ही व्यक्तिगत लोगों में यह समन्वय उपलब्ध किया जा सका है। केवल कुछ ही लोग ऐसे हुए हैं जो कि दोनों थे-धार्मिक और वैज्ञानिक, तर्कयुक्त तथा काव्यपूर्ण। किन्तु वह एक बहुत ही सूक्ष्म सन्तुलन है और अतीत में केवल बहुत प्रबुद्ध पुरुष ही, जीनियस ही उसे उपलब्ध कर सके। उदाहरण के लिये, माइकिल एन्जेलो या गेटे, अथवा हमारे समय में एल्बर्ट आइन्सटीन। वे व्यक्तिगत रूप से इस समन्वय को उपलब्ध कर सके। किन्तु, तब वे हमारे लिये बेबूझ हो गये क्योंकि वे दोनों ध्रुवों में इतनी आसानी से आ-जा सकते थे कि वे हमें बड़े असंगत प्रतीत हुए।

संगति तभी हो सकती है जब तुम एक ही छोर को पकड़े रहो। यदि कोई दोनों छोरों में गति करता रहता है, यदि कोई वैज्ञानिक एक कवि भी है तो फिर उसके दो व्यक्तित्व हैं। वह दोनों में घूमता रहता है। जब वह अपनी प्रयोगशाला में जाता है, तो वह कविता बिल्कुल भूल जाता है। वह अपना व्यक्तित्व एक कवि से एक वैज्ञानिक में बदल लेता है। वह बिल्कुल दूसरे ही ढंग से सोचने लगता है। जब वह अपनी प्रयोगशाला से बाहर आता है, तो वह फिर दूसरे ही रूप में बदल जाता है। यह दूसरा रूप गणित का नहीं है, प्रायोगिक नहीं है। यह किसी वैज्ञानिक प्रयोग के बजाय, स्वप्न जैसा ज्यादा है।

यह बात बहुत ही कठिन है। लेकिन कभी-कभी किन्हीं व्यक्तियों के साथ यह घटना घटती है। माइकिल एन्जेलो एक गणितज्ञ था और साथ ही एक महान कलाकार भी। गेटे एक कवि था और साथ ही एक गहरा तार्किक व चिंतनशीलव्यक्ति भी। आइन्सटीन वास्तव में तो एक गणितज्ञ था, एक भौतिकशास्त्री था, और फिर भी वह अपने चारों ओर घिरे हुए गहरे रहस्य के प्रति सजग था। किन्तु यह बात सिर्फ कुछ ही व्यक्तियों के लिये संभव हो सकी। इसे बहुत लोगों के लिये सींव होना चाहिये। अब समय परिपक्व हुआ है। और अब यह क्षण जल्दी ही आयेगा जब समाज को विपरीत की भाषा में सोचने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वरन्, उसे परिपूरक की भाषा में सोचना पड़ेगा।

वस्तुतः दो विपरीत, दो शत्रु नहीं हैं। वे एक-दूसरे को सहारा देने वाले है। दोनों में से कोई भी दूसरे के बिना नहीं हो सकता। नीचे गहरे में वे दोनों जुड़े हैं। हम उन्हें कह सकते हैं-निकट शत्रु। वे दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं। उनमें से कोई भी दूसरे के बिना नहीं हो सकता, और फिर भी वे विरोधी हैं, विपरीत हैं। ये विपरीत एक तनाव पैदा करते हैं, एक विशेष ऊर्जा, जो कि उनके होने के लिये सहायक है।

लेकिन यह बात अतीत में संभव नहीं थी। बहुतों ने सिर्फ एक ही विकल्प चुना क्योंकि एक के साथ प्रयत्न करना सरल है। तुम आसानी से धार्मिक हो सकते हो, तुम आसानी से वैज्ञानिक हो सकते हो। किन्तु दोनों होना, उसके लिये एक बहुत ही नाजुक सन्तुलन की जरूरत है। और तब तुम्हें बहुत ही विकसित मास्तिष्क वाला होना चाहिये जो कि एक-समूह में से दूसरे समूह में आसानी से आ-जा सके।

अपने मन की ओर देखो। जब तुम अपने घर से दफ्तर चले जाते हो तब भी तुम्हारा मन घर पर ही होता है। जब तुम अपने दफ्तर से घर चले जाते हो, तब ऐसा नहीं होता कि तुम्हारे दफ्तर छोड़ देने से तुम्हारा मन भी दफ्तर छोड़ देता है। वह दफ्तर में लगा रहता है। शारीरिक गति सरल है, मानसिक गति मुश्किल है। और घर तथा दफ्तर में ऐसी कोई विपरीतता भी नहीं है। किन्तु जब कोई गणित की भाषा में सोचता है, तब वह जीवन के प्रति देखने का एक बिल्कुल अलग ढंग है। जब कोई काव्यात्मक ढंग से सोचने लगता है, तो वह बिल्कुल अलग ढंग है। जब कोई काव्यात्मक ढंग से सोचने लगता है, तो वह बिल्कुल अलग बात है। यह ऐसा ही है जैसे तुम एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर चले गये, और दूसरे की कोई आवाज वहाँ नही आ सकती। इसलिए एक बहुत ही गहन संयम तथा समन्वय की आवश्यकता है, वरना मन सदा एक ही ढाँचे में चलता है। और एक ही ढाँचे में चलना आसान है। इसीलिए समाजो के लिये चुनाव करना आसान है।

पूर्व ने एक विकल्प के साथ प्रयोग किया और पश्चिम ने दूसरे विकल्प के साथ। दोनों ही असफल हो गये। मानव का सारा इतिहास दो असफलताओं का इतिहास है-पूर्वी तथा पश्चिमी। अब इन दोनों असफलताओं का अध्ययन किया जा सकता है। अब हम इतिहास की भूलों के प्रति सजग हो सकते हैं और अनुभव के द्वारा प्राप्त बिन्दुओं की गलतियों के प्रति जाग सकते हैं। अब तुम्हें यह प्रतीत हो सकता है कि एक नया जगत एक नये ही दृष्टिकोण के साथ सींव है-एक समन्वय का दृष्टिकोण।

स्पष्ट है कि संसार पूर्वी या पश्चिमी नहीं हो सकता। इसलिए यह बात मत पूछो कि कौन-सी भूमि ज्यादा उपजाऊ है क्योंकि अब सारा जगत ही क संसार हो जायेगा। वास्तव में, यदि अभी भी तुम इस भाषा में सोचते हो कि कौन-सी भूमि ज्यादा उपजाऊ है तो तुम अभी भी पुराने ढंग से सोचने की कोशिश कर रहे हो। यदि पूर्व और पश्चिम होने की सारी बकवास को छोड़ दिया जाये। अब सिर्फ एक मनुष्यता पैदा होनी है। वह न तो पूर्वी है और न पश्चिमी। वह सिर्फ मानव है और पृथ्वी का यह ग्रह एक छोटा-सा गाँव है।

एक अखंड पृथ्वी का निर्माण सींव है, किन्तु यह पृथ्वी अब तक एक नहीं रही है। अब पहली बार सीमायें टूट रही हैं। इन पुरानी सीमाओं को तोड़ते रहना पड़ेगा। अचेतन रूप से यह काम काफी लम्बा समय लेगा। चेतन रूप से इसे आसानी से किया जा सकता है और बिना किसी तकलीफ तथा कष्ट के। अब आदमी को किसी खास भूमि का-किसी एक संस्कृति, किसी एक सभ्यता, किसी एक मर्म का-होने की आवश्यकता नहीं है। अब पहली बार मनुष्य को सारी पृथ्वी का होना चाहिये।

पूर्वी और पश्चिमी, इस तरह से सोचने का सारा आधार अतीत का है। भविष्य के लिये ऐसा सोचना मूर्खता ही नहीं है बल्कि गहन रूप से हानिप्रद भी है। लकिन इसे संभव कैसे बनाया जाये? इसे तीन प्रकार से संभव बनाया जा सकता है। एक, मन का प्रशिक्षण किसी एक दिशा में नहीं होना चाहिये। मन को एक साथ दोनों दृष्टिकोणों से प्रशिक्षित किया जाना चाहिये। एक बच्चे को सिर्फ तर्क, संशय तथा विज्ञान में ही प्रशिक्षित नहीं किया जाना चाहिये। एक बच्चे को सिर्फ तर्क, संशय तथा विज्ञान में ही प्रशिक्षित नहीं किया जाना चाहिये। धार्मिक संवेदना के लिये भी उसे तैयार किया जाना चाहिये। और ये दोनों प्रशिक्षण साथ-साथ दिये जाने चाहिये।

उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति दूसरी भाषा बोलने वाले समूह में विवाह करता है-जैसे कि एक जर्मन एक भारतीय से शादी करता है, तो बच्चे प्रारंभ से ही द्वि-भाषी हो जायेंगे। यदि तुम एक ही भाषा वाले ग्रुप में से विवाह करते हो, तो तुम एक ही भाषा सीखते हो, तुम्हारी मातृ-भाषा के रूप में। तब बाद में तुम दूसरी भाषा सीख सकते हो लेकिन दूसरी भाषा दूसरी भाषा ही होगी। वह पहलीपर थोपी जायेगी, और पहली भाषा उसे हमेशा रंग देती रहेगी। भीतर गहरे अचतेन में वह जो बुनियादी भाषा है वह रहेगी और केवल चेतन में ही दूसरी भाषा होगी।

मेरा एक मित्र बीस वर्षों तक जर्मनी में था। यह इतना लम्बा समय था कि वह कई बार काफी समय के लिये मूचि्र्छत हो जाता (बीमारी कुछ ऐसी थी कि वह कई बार काफी समय के लिये र्मूच्छत हो जाता था) तो वह मराठी बोलता था। तब वह जर्मन बिल्कुल नहीं समझ पाता था।

गहरा अचेतन पहली भाषा ही जानता है, दूसरी तो आरोपित है। लेकिन एक द्वि-भाषीय बच्चे के लिये जो कि दो भाषाओं के बीच पैदा हुआ है, दोनों मातृ-भाषायें हैं। उसके लिये दोनों भाषाओं में बोलने-चालने में कोई कठिनाई नहीं होगी। सचमुच उसे एक भाषा से दूसरी भाषा में जाने में कोई मुश्किल नहीं होगी। सत्य की ओर जाने के लिये विज्ञान एक भाषा है और धर्म दूसरी भाषा है। विज्ञान एक तटस्थ भाषा और धर्म एक घनिष्टता की भाषा है। उन दोनां को ही एक साथ सिखाया जाना चाहिये। वे दोनों एक ही हो जानी चाहिये। बच्चे को पता भी नहीं चलना चाहिये कि उन दोनों में चुनाव करना है। मन को सन्देह के लिये प्रशिक्षित करना चाहिये और मन को श्रद्धा के लिये भी प्रशिक्षण देना चाहिये-जीवन के प्रति श्रद्धा के लिये।

हमारे लिये वे दोनों विपरीत हैं क्योंकि हमें उस तरह कभी भी प्रशिक्षित नहीं किया गया। वही एक मात्र बात है। हमारे लिये श्रद्धा और सन्देह दो विरोधी बातें हैं। हम कहते हैं कि मुझे श्रद्धा है तो फिर मैं सन्देह कैसे करूँ? और यदि मैं सन्देहशील व्यक्ति हूँ, यदि मैं सन्देह कर सकता हूँ तो फिर मैं विश्वास कैसे कर सकता हूँ? वस्तुतः यह विभाजन ही मूर्खतापूर्ण है क्योंकि उनके आयाम ही अलग हैं। श्रद्धा है धर्म के लिये, श्रद्धा है सत्य में गहरे उतरने के लिये, श्रद्धा है प्रेम के लिये, श्रद्धा है जीवन के लिये। यह दूसरा ही मार्ग है। सन्देह की आवश्यकता नहीं है। सन्ेदह है वैज्ञानिक खोज के लिये। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिये, तथ्य के लिये-मृत तथ्यों के लिये, निरीक्षण करने के लिये।

बाहरी संसार के लिये सन्देह एक बुनियादी साधन है। आंतरिक जगत के लिये, श्रद्धा आधारभूत साधन है। और इन दोनों में द्वन्द्व में है क्योंकि हमें एक ही बात के लिये प्रशिक्षण दिया गया है, और हम एक से दूसरे में नहीं जा सकते। यह जो एक से दूसरे में जाने में हमें कठिनाई होती है, यह हमारे सारे गलत प्रशिक्षण के कारण है। वरना, जब तुम एक गणित की समस्या को हल कर रहे हो, तब गणित का प्रयोग करो। लेकिन जब तुम एक फूल की ओर देख रहे हो, तब तुम्हारे गणित को जरूरत नहीं है- पूर्णिमा की रात के लिये गणित की आवश्यकता नहीं है। भूली गणित को। अपने स्वरूप का तब दूसरा ही द्वार खोलो।

जीसस ने कहा है कि मेरे पिता के घर में बहुत से कक्ष हैं, बहुत से आयाम हैं। तुम भी एक द्वार वाले घर नहीं हो। तुम्हें जरूरत भी नहीं है ऐसा होने की। यदि तुम ऐसे हो, तो उसका इतना ही अर्थ होता है कि सिर्फ एक ही दरवाजा खोला गया है। दूसरे दरवाजे भी हैं। और यदि उन्हें खोला जाये, तो तुम उनके कारण अधिक समृद्ध हो जाओगे। यदि तुम दूसरे द्वारों का भी उपयोग कर सको, तब तुम्हारा व्यक्तित्व रुका हुआ नहीं होगा, बल्कि एक सरिता की तरह होगा। तब तुम मरे हुए कम होओगे, और जीवन्त ज्यादा होओगे।

गति ही जीवन है। और जितनी सूक्ष्म गति होती है, उतना ही तुम्हारा जीवन समृद्ध होता जाता है। अतः सन्देह का साधन की तरह उपयोग करो, श्रद्धा का भी साधन की तरह उपयोग करो।

यह कैसे संभव हो सकता है? दूसरी बातः यह तभी संभव है जब कि तुमने अपना तादात्म्य-सम्बंध न श्रद्धा से जोड़ा हो, न सन्देह से। यदि तुम सन्देह से एक हो गये हो, तो तुम फिर गति नहीं कर सकते। तब तुम्हारा मन ही सन्देह है, अतः तुम कैसे श्रद्धा में जा सकते हो? यदि तुम श्रद्धा के साथ तादात्म्य बनाये हो तो तुम सन्देह में नहीं जा सकते।

अतः दरवाजों से तादात्म्य मत बनाओ। तुम भिन्न हो, द्वार तुमसे अलग हैं। जब तुम और द्वार अलग-अलग हो तो फिर कोई कठिनाई नहीं है। अतः ऐसा मत सोचो कि सन्देह ही तुम्हारा स्वरूप है अथवा श्रद्धा ही तुम्हारा स्वरूप है। श्रद्धा भी एक द्वार है, सन्देह भी एक द्वार है। तुम दोनों से आ-जा सकते हो। एक से दूसरे में जा सकते हो। यदि तुम तादात्म्य जोड़े हो, तो फिर कोई चुनाव नहीं है।

लेकिन हम सब तादात्म्य बनाये हैं, हम कहते चले जाते हैं, मैं विश्वास नहीं कर सकता, मैं श्रद्धा नहीं कर सकता, क्योंकि मैं सन्देहवान व्यक्ति हूँ। अथवा कोई कहता है, मैं सन्देह नहीं कर सकता क्योंकि मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूँ। यह बात बतलाती है कि तुम्हारी चेतना स्थिर हो गई है-पत्थर की तरह। वह सरिता की तरह नहीं है, बहती हुई, गतिमान। बहो, गतिमान होओ। अतः दूसरी बात : मन को प्रशिक्षित करना है कि वह साधनों से तादात्म्य न करे। तभी तुम उनका उपयोग कर सकते हो। तुम एक तलवार का उपयोग कर सकते हो। लेकिन यदि तुम उससे इतने एक हो गये हो कि तुम्हारा हाथ ही तलवार हो गया है, तब तुम एक गुलाब के फूल को हाथ में कैसे लोगे? तब तुम कहोगे कि यह असम्भव है? कैसे मैं एक गुलाब के फूल को हाथ में ले सकता हूँ? मेरा हाथ तो तलवार है।

और तलवार और फूल में कोई संबंध नहीं है। तुम तलवार को भी ले सकते हो और फूल कोभी। यदि तुम्हारा हाथ तादात्म्य से मुक्त है तभी यह संभव हो सकता है। अतः दूसरी बात कि तादात्म्य न जोड़ो। भविष्य में हमें शिक्षा की ऐसी प्रणाली बनानी पड़ेगी जिसमें जो साधनों से अ-तादात्म्य सिखाती हो। तब बात सरल हो जायेगी, बहुत सरल, होगी।

तीसरी बात, इसे स्मरण रखो : जगत का अस्तित्व है विपरीत ध्रुवताओं की तरह। अतः यदि तुम एक को चुनो तो जगत दरिद्र हो जायेगा। यदि तुम कहते हो कि मैं यह करूँगा और वह नहीं करूँगा, तुम आधे जगत के ही हो सकोगे। तुम आधे ही जीवित रहोगे। याद रहे, अस्तित्व विपरीत पर खड़ा है, अतः यदि तुम्हें इस सारे अस्तित्व से एक होना है, तो गतिमान होने की सामर्थ्य जुटाओ।

हम सोचते हैं कि कोई आदमी बड़ा प्रेमी है, अतः हमें आश्चर्य होता है कि वह घृणा कैसे कर सकता है? कोई आदमी बड़ा घृणापूर्ण है, अतः वह प्रेम कैसे कर सकता है? किन्तु यदि तुम्हारा प्रेम ऐसा है कि तुम घृणा नहीं कर सकते हो तो फिर तुम्हारा प्रेम कुछ भी नहीं है। उसमें कोई उष्मा, कोई जीवन नहीं होगा। तुम्हारा प्रेम नपुंसक होगा। यदि तुम घृणा नहीं कर सकते तो फिर तुम्हारा प्रेम कुछ भी नहीं है। उसमें कोई उष्मा, कोई जीवन नहीं होगा। तुम्हारा प्रेम नपुंसक होगा। यदि तुम घृणा नहीं कर सकते तो फिर तुम्हारा प्रेम जीवन्त नहीं हो सकता। और यही बात दूसरे छोर की भी है। यदि तुम सिर्फ घृणा ही कर सकते हो और प्रेम नहीं कर सकते, तो तुम्हारी घृणा भी थोथी होगी।

वह जो विपरीत है, वह जीवन प्रदान करता है। यदि तुम घृणा भी कर सकते हो, तो तुम्हारा प्रेम समृद्ध होगा। घृणा करने की जरूरत नहीं हैं, किन्तु तुम घृणा कर सकते हो, यदि वैसी तुम्हारी सामर्थ्य है, यदि तुम घृणा भी कर सकने में समर्थ हो, तो तुम्हारे प्रेम में एक अलग ही प्रकार की गुणवत्ता होगी-एक गहरी गुणवत्ता होगी।

प्रत्येक चीज़ जो कि विपरीत दिखाई पड़ती है, वह मूल में जुड़ी हुई है, और वह विपरीत ही शक्ति देता है। किन्तु हमें एक ही जगह स्थिर होने का प्रशिक्षण दिया गया है। हमें प्रक्रियाओं की तरह प्रशिक्षित नहीं किया गया है, किन्तु पूरी हो चुकी घटनाओं की तरह, खत्म हो गई चीजों की तरह प्रशिक्षित किया गया है। इसलिए हम कहते हैं कि कोई आदमी ऐसा है जो कि दयालु है, कोई आदमी क्रोध करने वाला है। परनतु यदि जो व्यक्ति सिर्फ दयालु ही हो और यह यदि क्रोध नहीं कर सकता हो, तो उसकी दयालुता उथली होगी। उसकी दयालुता सिर्फ ऊपर का आवरण होगी। यदि वह क्रोध भी कर सके, तभी उसकी दयालुता में भी गइराई होगी।

क्रोध करने की जरूरत नहीं है, उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु सामर्थ्य तो होनी चाहिये। यह जो सामर्थ्य है जो विरोधी ध्रुवों को भी मिला लेती है, इसके लिये एक अलग ही प्रशिक्षण की आवश्यकता है। एक दूसरे ही प्रकार का मन संसार में लाया जाना चाहिये।

इसे स्मरण रखें : जो भी ज्ञानी हुए, जो भी अहिंसा को लाये, वे सभी क्षत्रिय थे। वे सब के सब योद्धा-जाति के थे। महावीर, बुद्ध, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, वे सब के सब क्षत्रिय थे। वे सब लड़ने वाली जाति के थे।

यह बात बड़ी अजीब लगती है। अच्छा होता यदि ब्राह्मणों ने अहिंसा की शिक्षा दी होती। परन्तु किसी भी ब्राह्मण ने अहिंसा का पाठ नहीं पढ़ाया। आज तक किसी ब्राह्मण ने अहिंसा की शिक्षा नहीं दी। केवल क्षत्रियों ने उसकी शिक्षा दी। क्यों? और क्यों महावीर और बुद्ध के पास अहिंसा की इतनी गहराई है? क्योंकि वे गहरी हिंसा के लिये समर्थ थे। वे उसमें जा सकते थे। वे वस्तुतः हिंसक वर्ग से संबंधित थे, एक हिंसक चित से जुड़े थे। वे उसी में पैदा हुये थे, और तब वे दूसरे ध्रुव को चले गये। उनमें गहराई थी।

यह बात बड़ी विचित्र है। यदि तुम जाओ और महावीर तथा बुद्ध का विपरीत खोजो तो तुम परशुराम को पाओगे-एक ब्राह्मण, जिसने कि लाखों क्षत्रियों का संहार किया। ऐसा कहा जाता है कि वे कितनी ही बार पृथ्वी को क्षत्रियों से खाली करने के लिये निकले थे। यह एक बहुत ही हिंसक चित्त था, किन्तु यह एक बहुत अहिंसक जाति से आया था। वे ब्राह्मण थे।

क्यों? किसी भी क्षत्रिय की तुलना परशुराम से नहीं की जा सकती। वे बेजोड़ हैं। जगत ने उन जैसा फिर पैदा ही नहीं किया। महावीर और बुद्ध क्षत्रिय थे। यह बात बहुत अर्थपूर्ण है, बहुत काम की है। भिन्न होने की क्षमता एक प्रकार की शक्ति देती है।

दूसरा उदाहरण : तुमने कितने ही महान पुरुषों की कितनी घटनाओं के बारे में सुना होगा कि कभी-कभी वे कितनी मूर्खता की बात करते हैं। कोई भी मूर्ख ऐसी बात नहीं करेगा। हम हँसते हैं, हम कहते हैं कि वे भुलक्कड़ किस्म के लोग हैं।

इमैनुअल काण्ट के बारे में कहा जाता है कि एक रात जब वह घूमकर घर लौटा, अपने छाते के साथ, तो वह भूल गया कि कौन-कौन था। उसने अपना छाता बिस्तर पर लिटाया, उसे कम्बल से ढका और फिर वह स्वयं कोने में खड़ा हो गया यह सोचकर कि वह स्वयं अपना छाता है। और यह बात उसे तब पता चली जबकि सवेरे नौकर ने दरवाजा खटखटाया। तब उसे गलती का पता चला। सारी रात वह खड़ा रहा। वह सो रहा था, वह खड़ा नहीं था। जब नौकर ने दरवाजा खटखटाया, तो उसने बिस्तर की तरफ देखा और सोचने लगा कि मैं दरवाजा खोलने क्यों नहीं जा रहा हूं? और तब अचानक उसे पता चला कि उससे गलती हो गयी है।

हम इमैनुअल पर हँस सकते है। हम जानते हैं कि ऐसे महान पुरुष कभी-कभी बड़े भुलक्कड़ होते हैं। किन्तु क्यों? तुम ऐसी मूर्खता की बात नहीं कर सकते क्योंकि तुम दूसरे छोर पर नहीं जा सकते। इमैनुअल काण्ट ही ऐसी गलती कर सकता है। वह बुद्धि का एक छोर स्पर्श करता है, इसलिए फिर दूसरा छोर भी सींव हो जाता है। अतः कभी भी मूर्ख लोगों के बारे में नहीं सुना गया कि उन्होंने ऐसी मूर्खता की बात की जैसी कि इन तथाकथित ज्ञानियों ने बुद्धिशाली लोगों ने की है।

कभी-कभी इसके उलटा भी होता है। एक महामूर्ख आदमी भी कभी-कभी ऐसी सलाह दे सकता है कि कोई महाविद्वान आदमी भी नहीं दे सकता। और ऐसा सदा से इतिहास में होता आया है, और इसीलिए प्रत्येक सम्राट के दरबार में बहुत-से विद्वान लोग होते थे, किन्तु एक मूर्ख को दरबार में रखा जाता था दरबारी विदूषक।

और ऐसा कई बार होता था कि जब विद्वान लोग कोई सलाह देने में असमर्थ होते, तो वह दरबारी मूर्ख सलाह देता था। क्यों? क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि विद्वजन इतने विद्वान हो जाते हैं कि वे अव्यवावहारिक हो जाते हैं। उनकी बुद्धिमानी ही बाधा बन जाती है। और वह दरबारी मूर्ख निडर होता है। वह मूर्ख होने से नहीं डरता, इसलिए वह कुछ भी कह सकता है। और बहुत बार तुम यदि निडर हो, तभी तुम्हारी सलाह कुछ काम की होती है।

क्यों? क्योंकि यदि तुम बेवकूफ नहीं हो, तो तुम जीवन का आनंद नहीं ले सकते। तुम तब एक उदास, गंभीर और मुर्दा आदमी हो जाते हो। जो भी जीवन में सुन्दर हैं उसका आनन्द तभी लिया जा सकता है जब तुम बेवकूफी का खेल खेलने को राजी हो, मूर्ख बनने को तैयार हो। वरना यह असंभव है। अतः जितने ज्यादा तुम बुद्धिमान होओगे, उतने ही तुम मूर्ख होओगे जहाँ तक जीवन का सवाल है। हम धर्म और विज्ञान के बीच समन्वय की बात सोच सकते हैं लेकिन हम एक विद्वान तथा मूर्ख के बीच समन्वय की कल्पना भी नहीं कर सकते क्योंकि इसमें समस्या और भी गहरे चली जाती है।

और जब तक वैज्ञानिक चित्त और धार्मिक मन के बीच समन्वय की बात सोचते हैं, तो यह कोई हमारी समस्या नहीं है। यह हमसे बहुत दूर है। इस बात से हमारा कुछ लेना-देना नहीं हैं। किन्तु जब मैं कहता हूँ कि बुद्धिमानी और मूढ़ता में एक बहुत गहरे समन्वय की आवश्यकता है तो फिर इस बात से तुम्हारी सीधा संबंध है। तब तुम कुछ बेचैन होने लगते हो। तब मन कहेगा कि बुद्धिमानी को चुना, े मूढ़ता को मत चुना। किन्तु मूढ़ता की इतनी निंदा करने की क्या जरूरत है? और बच्चे इतने सुन्दर हैं क्योंक वे मर्ख हैं। और पशु इतने भोले-भाले हैं क्योंकि वे मूर्ख हैं।

और पंडितों की ओर देखो : वे इतने बुद्धिमान हैं, इतने गंभीर हैं, इतने उदास हैं कि सचमुच के रुग्ण हैं, पैथोलोजिकल हैं। यह जो गहरा समन्वय है सब विरोधों के बीच, यह एक प्रशिक्षण बन सकता है, और भविष्य के मन के लिये यही प्रशिक्षण होनेवाला है। यदि धार्मिक आदमी हँस नहीं सके और नाच नहीं सके, तो वह समग्र नहीं है। और जो समग्र नहीं है वह पवित्र भी नहीं हो सकता। समग्रता ही पवित्रता है।

इस रूप से झेन बौद्धों ने एक गहरे समन्वय को उपलब्ध किया है। झेन फकीर तथा ज्ञानी बड़े मजे से मूर्खता की बात कर सकते हैं। और वही उनकी प्रज्ञा का द्योतक है, यदि तुम कभी-कभी मूर्खता की बात नहीं कर सको, तो इससे तुम अभी भी ज्ञानी नहीं हो। एक ज्ञानी एक से दूसरे में आ-जा सकता है। मैं मुल्ला नसरुद्दीन के बारे में इतनी बात करता हूँ क्योंकि वह दोनों है, एक गहरा समन्वय है। वह मूर्खता की बात कर सकता है, और फिर भी ऐसा बुद्धिमान आदमी खोजना मुश्किल है।

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन के गाँव के लोगों ने उसे भाषण देने के लिये बुलाया। कोई त्यौहार का दिन था और वे चाहते थे कि कोई आदमी धार्मिक प्रवचन दे। अतः नसरुद्दीन ने कहा अच्छी बात है, मैं आता हूँ। अतः वे उसे लेने आये। वह अपने गधे पर उलटा बैठा हुआ अपने घर से बाहर आ रहा था। उसका चेहरा गधे के पीछे की ओर था और उसकी पीठ गधे के मुँह की तरफ थी।

वह सारे के सारे लोग जो कि उसे लेने आये थे वह उसके पीछे-पीछे चलने लगे, किन्तु वे लोग बहुत बेचैन हो गये क्योंकि गाँव के लोग घूर-घूर कर देख रहे थे। उन्होंने सोचा कि यह मुल्ला तो बेवकूफ है, और जो लोग उसके पीछे चल रहे हैं और जो उसकी बात सुनने वाले लोग हैं वे और भी ज्यादा मूर्ख हैं। गधे पर इस तरह बैठना कभी देखा-सुना है किसी ने? लेकिन फिर भी उसके पीछे चलने वाले लोग डटे रहे। उन्होंने मुल्ला से कहा, अच्छा हो कि आप अपनी स्थिति बदल लें। सारा गाँव हँस रहा था।

मुल्ला नसरुद्दीन ने बड़ी गंभीतरता से कहा, यदि आप मेरी बात सुनने को राज हैं, यदि आप मेरी बात समझने को तैयार है, तो सबसे पहला सिद्धान्त याद रखें कि आप दूसरों की बात पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, और इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं कि हम क्या कर रहे हैं। जो कुछ भी हम कर रहे हैं, उसकी ओर अधिक ध्यान दें। और अब मैं तुम्हें समझाता हूँ। मुल्ला ने कहा कि ‘मैं तुम्हें बात बतलाता हूँ। यदि मैं साधारण ढंग से बैठता, तो मेरी पीठ तुम्हारी तरफ होती और इससे तुम्हारा अपमान होता। और यदि मैं तुम्हें अपने आगे-आगे चलने देता तो वह मेरा अपमान होता। अतः यही एकमात्र मानवीय ढंग हो सकता है। यही एक मात्र तरीका है जो कि अपनाया जा सकता है जिससे कि किसी का भी अपमान न हो।’

मुल्ला मूर्ख मालूम पड़ता है किन्तु वह बुद्धिमान है। किन्तु उसकी विद्वता को पाना जरा कठिन है क्योंकि वह मूर्खतापूर्ण कार्यों से ढकी है। केवल एक बुद्धिमान आदमी ही उसके भीतर प्रवेश कर सकता है।

जब तुम किसी का सम्मान करते हो, तो तब तुम क्या करते हो? जब तुम अपनी उम्र के कारण सम्मान की अपेक्षा करते हो, तो तुम क्या करते हो? जब तुम आदर देते हो, तो तुम इस भाँति नहीं बैठना चाहते कि तुम जिस व्यक्ति को आदर दे रहे हो, उसकी तरफ पीठ करके बैठो। फिर मुल्ला पर हँसने की क्या जरूरत है? वह भी उसी तरह व्यवहार कर रहा है जिस तरह मनुष्य का मन व्यवहार करता है। केवल इतनी ही तो बात है कि वह तर्क के आखिरी किनारे तक चला जाता है और कहता है-यही एकमात्र तरीका संभव है जो कि अपनाया जा सकता है।

वास्तव में, वह तुम्हारे तथाकथित आदर-सम्मान आदि पर हँस रहा है। यदि तुम भी उस पर हँस सकते हो तो सारी मनुष्यता की मूर्खता पर हँसो। यदि तुम एक कुर्सी पर बैठे हो और तुम्हारे पिता उस कमरे में आ जाते हैं, तो तुम क्या करोगे? यदि तुम खड़े नहीं होओ तो वे समझेंगे कि उनका अपमान कर रहे हो। लेकिन यह भी कैसी मूर्खता की बात है। खड़े होते हो या कि बैठे रहते हो इस बात से क्या अन्तर पड़ता है? अतः असली बात यह नहीं है कि तुम खड़े हो या कि बैठे हो। असली बात यह है कि हर आदमी अहंकारी है और हर आदमी ऐसा कुछ हावभाव चाहता है जिससे कि उसका अहंकार भरता रहे।

एक महान शिक्षक हुआ, ए.एस. नील। एक दिन वह अपनी कक्षा में पढ़ा रहा था और विद्यार्थी जैसा उनकी मौज में आये-बैइे थे। एक भारतीय शिक्षक उनकी कक्षा देखने गये और वह तो देखकर हैरान रह गये। उनकी समझ में ही न आया कि यह किस प्रकार की क्लास थी। एक विद्यार्थी सिगरेट पी रहा था, एक फर्श पर लेटा हुआ था आँखें बन्द करके और कक्षा चल रही थी और ए.एस. नील पढ़ा रहा था। अतः उस भारतीय शिक्षक ने कहा, यह तो अनुशासनहीनता है। आप क्या कर रहे हैं रुकें, पहले इन्हें ठीक से बैठ जाने दें, शिक्षक को आदर मिलना चाहिये।

नील ने कहा, आपको पता नहीं कि यहाँ पर क्या हो रहा है। ये लोग मुझे इतना प्रेम करते हैं कि ये लोग मेरे साथ आराम से बैठ सकते हैं। और यही आदर प्रेम के विरुद्ध जाता हो, तो प्रेम ही चुनना ठीक होगा। प्रेम से ज्यादा मेरे लिए आदरपूर्ण क्या होगा? इन्हें ऐसा लग रहा है कि वे लोग घर पर ही हैं, और फिर मैं यहाँ इन्हें पढ़ाने के लिये हूँ, न कि ठीक ढंग से बैठाने के लिये। यदि एक लड़के को ऐसा लगता है कि वह फर्श पर लेटकर, आँखें बन्द कर, ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकता है, तो ठीक है। यदि मैं उन्हें जबरदस्ती ठीक ढंग से बैठाऊँ और उसी कारण वे समझ नहीं सकें तो मैं अपना शिक्षक का कर्तव्य पूरा नहीं कर रहा हूँ।

अतः नील मुल्ला नसरुद्दीन की घटना को समझ सकता है। जीवन बहुआयामी है और एक बहुत विरोधाभासी घटना है। तुम्हें दोनों ध्रुवों में आ-जा सकने में समर्थ होना चाहिये और फिर भी उनके पार रहना चाहिये। और जब तुम दोनों के पार हो, तभी तुम दोनों में आ-जा सकते हो।

गुरजिएफ के लिये ऐसा कहा जाता है, उसके बहुत से शिष्यों ने कहा है कि अचानक, किसी भी क्षण वह बड़ी मूर्खता की बात करता। वह ऐसी स्थिति पैदा कर देता कि उसके शिष्य बड़ी मुश्किल में पड़ जाते। क्यों? वह महानतम बुद्धिमान लोगों में से एक था। क्यों? क्योंकि बुद्धिमानी की बात करते रहना अहंकार का ही हिस्सा है।

एक दिन एक अखबार का संवाददाता उससे वार्तालाप करने आया। वह वहां बैठा था। कुछ शिष्य भी बैठे थे और वह उनके प्रश्नों का जवाब दे रहा था। संवाददाता वहाँ आया, और चूंकि वह एक बहुत बड़े अखबार का प्रेस रिपोर्टर था, वह अहंकार से भरा था, अपने को बहुत महत्वपूर्ण समझता था। गुरजिएफ ने उसे अपने पास ही एक तरफ बैठा लिया। और फिर अचानक दूसरी तरफ बैठी एक महिला से कहा, आज क्या दिन है? उस महिला ने जवाब दिया, आज शनिवार है। गुरजिएफ ने कहा, यह कैसे संभव हो सकता है? कल तो शुक्रवार था, फिर आज शनिवार कैसे हो सकता है? और कल तुमने कहा था कि कल शुक्रवार था।

संवाददाता खड़ा हो गया और उसने कहा कि बस ठीक है, मैं जाता हूँ। जब वह संवाददाता चला गया तो गुरजिएफ हँसने लगा। लेकिन सारे शिष्यों को बड़ी बेचैनी हो गयी, क्योंकि उन्होंने ही तो इस भेंटवार्ता का प्रबंध किया था और वह संवाददाता जाकर खबर छपवाएगा कि वह एक मूर्ख शिक्षक के शिष्य हैं और वे एक बेवकूफ की बातों पर चल रहे हैं।

लेकिन एक गुरजिएफ ही ऐसा कर सकता है। उसने ऐसा करके क्या किया? उसने अपने शिष्यों को बता दिया कि चाहे तुम्हें इस बात का पता हो, चाहे नहीं हो, लेकिन तुम गुरजिएफ के द्वारा भी अपने अहंकार को ही मजबूत कर रहे हो। लेकिन शिष्यों ने जोर दिया, कि वह समझेगा कि आप मूर्ख हैं। अतः गुरजिएफ ने कहा, समझने दो उसे। इससे क्या होता है? दूसरे क्या सोचते हैं, यह बात असंगत है।

सचमुच ही एक विनम्र आदमी है, क्योंकि यदि तुम इस बात की परवाह करो कि दूसरे तुम्हारे बारे में क्या सोचे हैं, तो तुम झूठे मुखौटे लगाओगे। तुम सुन्दर, बुद्धिमान दिखलाई पड़ने की कोशिश करोगे क्योंकि तुम्हारा इस बात से कहाँ संबंध है कि तुम क्या हो। तुम्हें इस बात की ज्यादा चिन्ता है कि दूसरे क्या सोचते हैं। और यही अहंकार की मूर्खता है।

इसलिए हमें हमारे मन को इस तरह से प्रशिक्षित करना चाहिये कि वह द्वैत के पार जाने में समर्थ हो और कहीं भी जा सके, आनंद ले सके, प्रफुल्लित हो और गंभीर भी, और कोई भी काम कर सके। ऐसी तरलता अब संभव है। ऐसा पहले संभव नहीं था।

और चूँकि अब दोनों विकल्प असफल हो गये हैं, तीसरी संभावना खुलती है। ध्यान बहुत सहायता कर सकता है। वस्तुतः ध्यान ही एक ऐसी बात है जो कि सहायता कर सकती है। यदि ध्यान तुम्हें एकांगी बनाये तो फिर वह ध्यान नीं है। यदि ध्यान तुम्हें ज्यादा सन्तुलित जीवन प्रदान करे, एक ज्यादा सन्तुलित चेतना दे तो ही वह वास्तविक है। अतः यदि ध्यान तुम्हें जीवन से हट जाने के लिये कहे तो फिर वह ध्यान नहीं है।

यदि ध्यान तुम्हें इस संसार में रहते हुये संसार से बाहर रहने में मदद करे, यदि ध्यान तुम्हें संसार में रहने में सहायक हो और संसार को तुम्हारे भीतर नहीं रहने दे, तो ही तुमने समन्वय उपलब्ध किया। जनक एक समन्वय है; कृष्ण एक समन्वय हैं। जीवन को उसके विरोधों में नहीं लिया गया। किसी एक ध्रुव में आसक्त न होकर दोनों ध्रुवों के बीच जीना संभव हो सकता है।

भगवन्! कल रात्रि आपने कहा कि पश्चिम ने तर्क, बुद्धि तथा दर्शनशास्त्र को विकसित किया और पूर्व ने कला, रहस्य तथा धर्म को?

एक बार आपने कहा था कि मनुष्य का मन तीन चरणों में विकसित होता है : अज्ञान, ज्ञान तथा ज्ञान का अतिक्रमण यानी प्रज्ञा?

तब क्या यह सही नहीं है कि पश्चिम अज्ञान से ज्ञान में प्रगति कर चुका है, और अब वह तीसरे क्षेत्र में यानी प्रज्ञान में प्रवेश कर सकता है?

दूसरी बात, क्या यह भी सच नहीं है कि पूर्व ने ही छः दर्शन-शास्त्रों को जन्म दिया है? फिर आप किन अर्थों में पूर्व को दर्शन-विरोधी कहते हैं?

तीन स्थितियाँ हैं : अज्ञान, ज्ञान और ज्ञान का अतिक्रमण, यानी ज्ञानातीत स्थितप्रज्ञ। ये तीन स्थितियाँ सभी आयामों में आधारभूत हैं-चाहे विज्ञान, चाहे धर्म। एक धार्मिक आदमी अज्ञानी है। वह पहली स्थिति में है। उसे शरीर से ऊपर कुछ भी पता नहीं, संसार से ऊपर कुछ भी पता नहीं है। यह एक बच्चे की तरह जीता है।

तब फिर दूसरी स्थिति है-ज्ञान की। वह सोचने लगता है, वह ज्ञान इकट्ठा करता है, सूचनायें इकट्ठी करता है वह तथाकथित ज्ञानी हो जाता है। किन्तु यह ज्ञान उधार है, यह उसका अपना नहीं है। उसने उसे जाना नहीं है।

फिर वह उसे भी फेंक देता है। जो कुछ भी उधार था, वह फेंक दिया जाता है। अब वह अपने भीतर छलांग लगाता है, अपने स्वरूप के अन्तिम स्रोत पर पहुँच जाता है। तब वह प्रज्ञावान बनता है। वह अज्ञान, ज्ञान, फिर से अज्ञान इनसे गुजरकर प्रज्ञावान बनता है।

यही बात विज्ञान के साथ भी है। पहली स्थिति है अज्ञान की। फिर कोई वैज्ञानिक बनता है। यह जानना बाहर के जगत का है। यह जानना भी उधार है। यह ज्ञान भी तकनीकी है। यदि कोई इसे जानने में अटका रह जाये तो वह दूसरी स्थिति में बना रहता है। परन्तु यदि वह वैज्ञानिक ज्ञान को फेंक दे और अस्तित्व में ही छलांग लगा जाये, अज्ञात अस्तित्व में कूद जाये, तो वह प्रज्ञावान बनता है। अतः कोई भी आयाम क्यों न हो, ये तीन स्थितियाँ संगत होंगी।

जो भी तुम दूसरे के मार्फत जानते हो, दूसरों से जानते हो, परंपरा से, शास्त्रों से, किसी और से, जो कुछ भी तत्काल नीं है-बिना किसी माध्यम के नहीं है, जो भी सीधा नहीं जाना गया है-सब ज्ञान है। जो भी तुमने सीधे जाना है, तत्क्षण जाना है वह प्रज्ञा है। अतएव चाहे धर्म हो, और चाहे विज्ञान हो इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। जो भी सीखा गया उसे अनसीखा करना ही पड़ता है, तभी छलांग लगती है। चाहे कोई कहीं भी क्यों न खड़ा हो, छलांग लगा सकता है और कहीं से भी।

चाहे वह कला ही हो, कला के ज्ञान से भी छलांग लगानी ही पड़ेगी। केवल तभी प्रज्ञा के फूल खिलते हैं। झेन में, ध्यान के लिये कई चीजों के द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है-कला, धनुर्विद्या, फूलों को सजाना आदि। बुनियादी सिद्धान्त यही होता है।

बोकुजू अपने गुरु के पास सीख रहा था। वह एक बहुत बड़ा चित्रकार बन गया था-महानतम चित्रकारबन गया था-महानतम चित्रकार जैसा कि कभी जाना गया हो। और तब एक दिन, उसके गुरु ने कहा कि अब पेंटिग करना बन्द करो। जब वह उसके शिखर पर था, चरम सीमा पर था, जब उसका नाम दूर-दूर तक पहुँच रहा था, जब सम्राट भी उसमें रस लेने लगे थे, जब सब लोग उसकी चित्रकला का गुणगान कर रहे थे, इस गुरु ने कहा, अब तुम यह चित्रकला बन्द करो। बारह साल तक चित्रकला को भूल ही जाओ। फेंक दो इसे।

कितना कठिन था यह। वह अपने शिखर पर था। बोकुजू ने अपने गुरु के कथनानुसार ही किया। वह अपने गुरु के बाग में एक साधारण-सा माली हो गया। बारह साल तक कोई चित्रकारी नहीं हुई कोई चित्रकला की बात भी न हुई। और एक दिन गुरु ने कहा, अब तुम पुनः चित्र बना सकते हो। बोकुजू ने कहा, ‘अब मैं जानता हूँ। उस समय मैंने आप पर विश्वास किया। अब मैं जानता हूँ कि अब मैं जो भी बनाऊँगा वह मेरा होगा।’

यह हुआ सीखना और अनसीखा करना। उसने कहा अब मैं एक बच्चे की तरह चित्रकारी कर सकता हूँ, जो चित्रकला के बारे में कुछ भी जानता न हो मैं सब कुछ भूल गया हूँ, अब मैं एक बच्चे की भाँति चित्रकारी कर सकता हूँ। और तब ऐसा कहा जाता है कि बोकुलू बच्चे की भाँति चित्रकारी कर सकता हूँ। और तब ऐसा कहा जाता है कि बोकुजू बच्चे की भाँति चित्र बनाता था। अब ये चित्र दूसरे ही जगत के थे। वे इस जगत के थे ही नहीं। उन्हें चित्रित भी नहीं किया गया था। वह ऐसा ही था जैसे की एक बच्चा खेल रहा हो चित्र बनाते हुए। तब उसके गुरु ने कहा, अब तुम प्रज्ञावान हुए। अब कोई प्रयास नहीं है, कोई प्रशिक्षण, कोई कला, कोई ज्ञान नहीं है। अब तुम निर्दोष हुए हो। अब तुम पुराने ढंग से चित्र नहीं बना सकते।

पहले सीखना पड़ता है और फिर उसे अनसीखा करना पड़ता है। जब कला विस्मृत हो जाती है, तभी कलाकार का जन्म होता है। यदि तुम जानते हो कि तुम उसमें समग्रता से नहीं हो सकते, तो तुम्हारा ज्ञान तुम्हें बाधा देता रहेगा।

मैं तुम्हें एक दूसरी कहानी सुनाता हूँ। थाई लैण्ड में एक मंदिर बनाया जा रहा था। और उसके द्वार को चित्रत करने के लिये महानतम चित्रकार बुलाया गया था। सम्राट ने कहा था कि ‘यह द्वार, यह मंदिर सारी दुनिया में अपूर्व होना चाहिये। इसकी कोई तुलना नहीं होनी चाहिये, अतः खूब श्रमपूर्वक काम करो।’ यह चित्रकार एक साधु था। उसने कड़ी मेहनत की। यह उसकी आदत थी कि जब भी वह कुछ बनाता था, तो वह अपने साथ रहनेवाले परम शिष्य से पूछता था कि क्या यह ठीक है? तुम क्या कहते हो?

यदि शिष्य ने कहा कि ठीक है तो ही वह आगे जाता था, वरना वह उसे फेंक देता था। उसने कई सौ चित्र रंग कर तैयार किये और फिर वह शिष्य की तरफ देखता और शिष्य अपनी गरदन हिला देता था कि ‘नहीं’ तो वह उन्हें फेंक देता था। तीन महीने बीत गये और सम्राट बार-बार पूछता कि कब… ? किन्तु शिक्षक कहता है कि मुझे पता नहीं। जब तक मेरा शिष्य ‘हां’ नहीं कह देता है।

एक दिन जब वह चित्र बना रहा था तो स्याही खतम हो गई। वह बीच में ही था, अतः उसने शिष्य से और स्याही बनाने के लिये कहा। शिष्य स्याही बनाने के लिये बाहर चला गया। तब बिना स्याही के ही, सिर्फ पेन्सिल से उसने एक चित्र बनाया। जब शिष्य आया तो उसने कहा, क्या? आपने तो काम पूरा कर दिया। यही तो वह चीज है। परन्तु आपने किया कैसे? आपने तीन महीने इतना परिश्रम किया।

शिक्षक हँसने लगा और बोला, तुम उपस्थित रहते थ, इसलिए मैं स्वयं के प्रति सजग हो जाता था। वही एकमात्र भूल सका, इसीलिए यह चीज बनी है। जब तुम यहाँ रहते थे तो मैं अपने को भूल ही नहीं पाता था। तब यहाँ एक निर्णायक सदैव मौजूद रहता था और मैं हर क्षण डरा रहता था कि तुम ‘हां’ कहोगे कि ‘ना’। और वह प्रयास ही बाधा थी। तुम यहाँ मौजूद नहीं थे, अतः मैं विश्राम में था-और चीज बन गई।

कोई भी चीज तभी बनती है जब तुम इतने विश्राम में होते हो, कि तुम होते ही नहीं। परनतु एक तथाकथित ज्ञानी कभी विश्राम में नहीं होता। ज्ञान ही बोझ है, तनाव है। अतः चाहे कोई भी आयाम हो-कला, धर्म, दर्शन शास्त्र चाहे कुछ भी, ये ही तीन स्थितियाँ हैं-अज्ञान, ज्ञान का सीखना, और फिर उस ज्ञान को अनसीखा करना। तब तुम प्रज्ञा को उपलब्ध होते हो।

और दूसरी बात, यह भी पूछा गया है कि क्या ऐसा नहीं है कि पूर्व ने छः दर्शन-शास्त्रों को जन्म दिया है, तब आप किस भाँति पूर्व को दर्शन-विरोधी कहते हैं? बहुत से कारण हैं : पहला, भारतीय दर्शन प्रणालियाँ पश्चिम के अर्थों में दर्शन नहीं हैं। पश्चिमी दर्शन उन्हें ‘धार्मिक प्रणालियाँ’ कहता है। वह उन्हें कहता है, धार्मिक प्रणालियाँ रिलीजियस फिलोसोफिस। वे अरस्तु, प्लेटो, काण्ट, अथवा हीगल के अर्थों में दर्शनशास्त्र नहीं है। उनका अन्तिम प्रमाण है स्वानुभव।

पश्चिमी दर्शन में अन्तिम प्रमाण है तर्क न कि अनुभूति। यदि मैं कोई चीज तर्क से सिद्ध कर दूँ, तो बस ठीक है। परन्तु भारतीय मनीषा बिल्कुल भिन्न है। भारतीय मनीषा कहती है कि यदि तु एक बात को तर्क से सिद्ध कर दो, तो भी जरूरी नहीं है कि वह सत्य हो ही। और ऐसा भी हो सकता है कि किसी चीज़ को तर्क से सिद्ध नहीं भी कर सकूँ, तो भी वह सत्य हो।

उदाहरण के लिये, तुम कहते हो कि तुम प्रेम में हो। अब सिद्ध करो कि तुम प्रेम में हो। क्या है सबूत? कैसे करोगे इसे सिद्ध? इसे सिद्ध तो नहीं किया जा सकता। और यदि इसे सिद्ध करने गये, तो तुम स्वयं शक में पड़ जाओगे कि वाकई तुम प्रेम में हो या नहीं? क्योंकि बहुत से सवाल उठाये जा सकते हैं जिनका कोई जवाब नहीं होगा। और फिर भी तुम जानते हो कि तुम प्रेम मं हो।

अदालत में मुल्ला नसरुद्दीन के विरुद्ध एक मुकद्दमा था। उसके पास से कोई चीज़ बरामद हुई थी जो कि उसके पड़ोसी के यहाँ से चुराई गयी थी। इसलिए उस पर शक था। परन्तु उसके वकील ने बहस की। कोई सबूत नहीं था। उसे घर के भीतर जाते भी नहीं देखा गया था, और न ही किसी ने उसे घर से बाहर आते देखा था बस उसके पास वह चीज मिली थी। वकील ने जिरह इतनी सुन्दरता से की कि मुल्ला मुकद्दमा जीत गया।

जब वह लोग कोई से बाहर आ रहे थे, तो वकील ने मुल्ला से पूछा, ‘अब मुझे तो बताओ कि क्या सचमुच ही इस मामले में तुम्हारा कुछ हाथ था?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘पहले तो मैं भी समझता था कि मेरा इसमें हाथ है, परन्तु आपने इतने तार्किक ढंग से जिरह की कि अब तो ुझे भी सन्देह होने लगा है। आपने तो मुझे भी ठीक से समझा दिया।’

भारतीय दर्शन के लिये तार्किक विश्वास कोई कसौटी नहीं है, यही अंतर है। अनुभव ही अंतिम प्रमाण है। भारतीय धार्मिक दर्शनशास्त्र तर्कसंगत बात करता है। महावीर, बुद्ध, कपिल, वे सब तर्कसंगत बात करते हैं, प्रत्येक भारतीय-पद्धति तर्क-संगत है, किन्तु वे तर्क पर निर्भर नहीं हैं। वे दो बातें कहती हैं। पहली, हमारी अभिव्यक्ति तर्कसंगत है ताकि तुम समझ सको। परन्तु जो भी हम प्रस्तावित कर रहे हैं वह तर्क से नहीं निकला है। वह हमें अनुभव से मिला है।

उदाहरणार्थ, मैं कुछ अनुभव करता हूँ। फिर मैं उसे तुम्हें सुनाता है और तुम उसके बारे में बहस करने लग जाते हो, अतः मैं भी उसके बारे में बहस करता हूं। परन्तु वह अनुभव बहस से नहीं आया है। बल्कि सारी बहस उस अनुभव से आयी है, यही अन्तर है। पश्चिम में, वे कहते हैं कि यदि तर्क ठीक है और उसे तोड़ा नहीं जा सकता, तो फिर निष्पत्ति ठीक है। भारत में, वे कहते हैं कि चाहे उसे तोड़ा जा सके या नहीं, यदि उसे अनुभव किया गया है, तो ही वह सही है। इसलिए उसकी सत्यता अनुभव पर आधारित है, न कि विवाद पर।

अतः मैं भी अनुभव की हिन्दू पद्धति को दर्शनशास्त्र कहना पसन्द नहीं करता। वे दर्शनशास्त्र नहीं हैं। और मैं उन्हें दर्शन-विरोधी क्यों कहता हूँ? क्योंकि वे दार्शनिक रुख के खिलाफ हैं। वे कहते हैं कि सत्य को तार्किक अन्वेषण से नहीं पाया जा सकता। वे कहते हैं कि सत्य को वाद-विवाद तर्क आदि सब सिर्फ अभिव्यक्ति के ढंग हैं-उससे ज्यादा कुछ भी नहीं। बुनियादी रूप से, सत्य तो सिर्फ अनुभव ही रहता है, इसलिए वे एटी फिलोसोफिक है, दर्शन-विरोधी है।

बुद्ध से कोई सवाल पूछो और उन्हें ऐसा प्रतीत हो कि तुम सिर्फ पूछने के खातिर ही पूछ रहे हो, तो वे जवाब देने वाले नहीं हैं। वे उत्तर न देंगे। वे उत्तर तभी देंगे जबकि उन्हें लगे कि पूछने वाला वस्तुतः ही जिज्ञासु है, कि वह एक प्रामाणिक खोजी है, मतलब यह अनुभव में उतरने के लिये तैयार है, अन्यथा बुद्ध को कोई रस नहीं हैं।

पश्चिमी दर्शन कहता है, विशेषतः यूनानी दर्शन, का प्रारंभ होता है विस्मय से। ऐसा भारत में कभी भी नहीं कहा गया। हिन्दू पद्धतियाँ यह कहती है कि चिन्तन शुरू होता है दुःख में न कि विस्मय में। अतः इस गहन बुनियादी अन्तर को नोट कर लो। पश्चिम कहता है कि दर्शन का प्रारंभ होता है कुतूहल से।

एक बच्चा पूछता है कि यह सारा संसार कहाँ से आया? एक दार्शनिक भी यही बात पूछ रहा है। यदि तुम एक बुद्ध से यह बात पूछो कि यह संसार कहाँ से आया, तो वे कहेंगे कि यह बहुत बचकानी बात है, तुम्हारा इस बात से लेना-देना क्या है? और चाहे जो भी कारण हो, यह बात ही असंगत है। वे कहते हैं, यदि तुम बीमार हो, तो दया के लिये पूछो। बुद्ध कहते हैं कि हम सब दुःखी हैं, जीवन दुःख है, अतः प्रश्न यह है कि कैसे उस दुःख के पार जाया जाये?

यही अन्तर है। सत्य की पूछताछ गलती के खिलाफ है, मुक्ति की खोज दुःख के विरुद्ध है। भारतीय मन मनोवैज्ञानिक अधिक है, चिन्तनशील कम है- वह मनुष्य के वास्तविक रूपान्तरण से अधिक संबंधित है, और व्यर्थ की उत्सुकता में उसका बहुत कम रस है। और वह दर्शन-विरोधी है।

किन्तु हमने नौ पद्धतियाँ निर्मित की हैं-छः हिन्दू पद्धतियाँ है और तीन अ-हिन्दू पद्धतियाँ हैं। ये नौ पद्धतियाँ कोई दार्शनिक पद्धतियाँ नहीं हैं, किन्तु आंतरिक अनुभवों के दार्शनिक कथन है इसलिए उन्हें पद्धतियाँ कहते हैं।

वस्तुतः पद्धति ठीक शब्द नहीं हैं। संस्कृत में उन्हें संप्रदाय कहते हैं-न कि पद्धतियाँ हैं। या प्रणालियाँ। एक संप्रदाय अथवा स्कूल एक दूसरी ही बात है, और एक पद्धति, एक दूसरी बात है। एक सिस्टम का अर्थ होता है कि वह दार्शनिक है, और एक स्कूल का अर्थ होता है एक प्रशिक्षण का स्थान। एक स्कूल का अर्थ होता है कि तुम्हें किसी विशेष अनुभव के लिये प्रशिक्षित किया जा रहा है। ये सारे नौ दर्शन एक प्रकार से प्रशिक्षण हैं-मोक्ष के अन्तिम लक्ष्य की ओर जाने के लिये प्रशिक्षण। इसीलिए मैं उन्हें ऐटी-फिलोसोफिकल, दर्शन-विरोधी कहता हूँ।

और चूँकि हम उसके बारे में दर्शन-शास्त्र की तरह सोचते हैं, हम बहुत कुछ चूक रहे हैं। यह पश्चिमी मन की सिर्फ नकल है। जिस तरह से वे दर्शन-शास्त्र पढ़ाते हैं और पढ़ते हैं पश्चिम में, उस तरह पूर्व में कभी भी पढ़ते-पढ़ाते नहीं थे, किन्तु आजकल हमारे विश्वविद्यालय भी पश्चिम की ही नकल हैं।

नालंदा एक बिल्कुल ही भिन्न चीज थी। तक्षशिला एक अलग ही बात थी। वे पूर्वीय विश्वविद्यालय थे-जो कि बिल्कुल ही भिन्न थे-मौलिक रूप से भिन्न। नालंदा में सिर्फ बौद्ध दर्शन पढ़ाया जाता था। और वहाँ क्या था प्रशिक्षण? वहाँ प्रशिक्षण सिर्फ मौखिक, सिर्फ शास्त्र-संबंधी, सिर्फ मात्र जानना ही नहीं था कि बौद्ध दर्शन क्या है। वहाँ प्रशिक्षण बौद्ध योग का था। शिष्य पहले मौखिक शिक्षा का पालन करता था और तब साथ-साथ ध्यान में गहरे, और गहरे, और गहरे जाता था। जब तक ध्यान और मौखिक शिक्षा साथ-साथ न चले, तब तक सब व्यर्थ है।

एक कहानी सुनाई जाती है जबकि हुएनसांग नालंदा आया था। वह मुख्य द्वार से प्रवेश कर रहा था। उस समय नालंदा भारत का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय था। वहाँ पर अलग-अलग देशों के दस हजार विद्यार्थी अध्ययन करते थे। कहते हैं कि जीसस भी वहाँ के एक विद्यार्थीरह चुके थे।

जब हुएनसांग मुख्य द्वार पर गया तो उसे एक भिक्षु मिला, संन्यासी मिला। वह उससे विश्वविद्यालय के बारे में प्रश्न पूछने लगा कि वहाँ क्या शिक्षा दी जाती है, और क्या प्रशिक्षण-आदि? वह आदमी उसके सवालों के जवाब देता रहा। हुएनसांग उस आदमी से बहुत प्रभावित हुआ, और वह उस समय का चीन का सबसे महान विद्वान था कि उसने सोचा कि शायद वह वहाँ उपकुलपति हो। किन्तु वह सिर्फ एक द्वारपाल था। वह अपने संस्मरणों में लिखता है कि वह सिर्फ एक द्वारपाल था, परन्तु वह दर्शनशास्त्र के बारे में सब कुछ जानता था।

अतः हुएनसांग उस विश्वविद्यालय में तीन वर्ष रहा। जब वह वापस लौट रहा था, तो वह फिर उसी द्वार से गुजारा और उसने उस आदमी से पूछा, ‘तुम अभी भी द्वारपाल ही क्यों बने हुए हो? तुम इतना सब कुछ जानते हो?’ उस आदमी ने कहा ‘क्योंकि मैं सिर्फ जानता हूँ। मैं अनुभव करने में असफल रहा हूँ। मैं सिर्फ जानता हूँ इसलिए मैं विफल हूँ। मैं भी उतना ही जानता हूँ जितना कि उपकुलपति जानता है। जहाँ तक ज्ञान का सवाल है उसमें कोई अंतर नहीं है। परन्तु मैं विफल हूँ क्योंकि मैं अनुभव में नहीं बढ़ सका, इसीलिए मैं सिर्फ द्वारपाल ही हूँ।’

इसलिए शास्त्र के ज्ञानी सिर्फ द्वारपाल ही है। भारतीय रुख अनुभव की ओर है। कभी कोई कबीर भी शिखर छू लेते हैं बिना किसी ज्ञान के-बिना किसी तथाकथित ज्ञान के। अनुभव असली चीज है, इसीलिए पूर्व दर्शन-विरोधी है।

आज इतना ही।  

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-33)

आत्म-पूजा उपनिषद्–भाग-2

पंद्रहवाँ प्रवचन–विसर्जन : आकार-मुक्ति का उपाय

प्रश्न:

पहले मूर्ति बनाकर उसे विसर्जित करने का क्या अर्थ है?

एक साधक अपने असंतोष के साथ कैसे तालमेल बिठाये?

भगवन्! कल रात्रि आपने एक हिन्दू-प्रथा के बारे में बताया जिसमें कि पहले एक मिट्टी की प्रतिमा बनाई जाती है और उसे फिर नदी या समुद्र में विसर्जित कर दिया जाता है। यह बात बाहर भौतिक तल पर होती है।

इस बाह्य क्रिया-काण्ड का मनोवैज्ञानिक तथा आंतरिक अर्थ क्या है? वह क्या है जिसे कि भीतर निर्मित करना ही चाहिये? और उसे कब विसर्जित करना चाहिये? Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-33)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-32)

आत्म पूजा उपनिषद–भाग-2

चौदहवां प्रवचन

सोलहवाँ सूत्र

सर्व सन्तोषोविर्सनमिति स एवं वेद।

पूर्ण सन्तोष विसर्जन है, अर्थात पूजा की क्रिया की समाप्ति है। जो ऐसा जानता है वही ज्ञान को उपलब्ध है।

पूर्ण संतोष ही ज्ञान है।

तीन बातें समझ लेनी हैं। पहली बात, पूर्ण संतोष? दूसरी प्रज्ञा, ज्ञान क्या है? ज्ञानी हो जाना, ज्ञान को उपलब्ध हो जाने का क्या अर्थ है? और तीसरी बात, कि संतोष ज्ञान क्यों है? जो कुछ भी हम संतोष के बारे में जानते हैं वह सब नकारात्मक बात है। जीवन दुःख है, भारी दुःख है, और हमें अपने को सांत्वना देनी पड़ती है। ऐसे क्षण होते हैं कि आदमी कुछ भी नहीं कर सकता, इसलिए उसे संतोष की कोई धारणा पैदा करनी पड़ती है, अन्यथा जीना कठिन हो जायेगा। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-32)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-31)

आत्म पूजा उपनिषद–भाग-2

तेरहवाँ प्रवचन

संतोष तथा स्वीकार सेविकास

प्रश्न

  1. क्या विकास असन्तोष तथा अस्वीकार का परिणाम नहीं है?
  2. व्यक्ति अथवा परिस्थिति-कौन जिम्मेवार है, तथा क्या धार्मिक व्यक्ति की समाज को बदलने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए?

भगवन! कल रात्रि आपने कहा कि समग्र स्वीकार से कोई विकसित रह गया जबकि पश्चिम अस्वीकार व संतोष के कारण ही विकसित हुआ।

इसलिए, क्या यह स्पष्ट नहीं है कि असंतोष व अस्वीकार ही विकास और आगे बढ़ने के लिए एकमात्र सिद्धान्त है? Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-31)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-30)

आत्म पूजा उपनिषद–भाग-2

बाहरवां-प्रवचन –आंतरिक एकालाप का भंजन

पंद्रहवाँ सूत्र

मौनं स्तुतिः।

मौन ही प्रार्थना है।

मौन ही प्रार्थना है। प्रार्थना से हमारा मतलब सदा परमात्मा से कुछ कहने का होता है। लेकिन उपनिषद कहते हैं कि जो कुछ भी तुम कहोगे वह प्रार्थना नहीं है। प्रार्थना की नहीं जा सकती। तुम प्रार्थना नहीं कर सकते, वह कोई कृत्य नहीं है। वह तुम्हारा करना नहीं है। इसलिए वस्तुतः तुम प्रार्थना नहीं कर सकते। तुम केवल प्रार्थना ‘हो’ सकते हो। प्रार्थना तुम्हारे कुछ भी करने से संबंधित नहीं है। वह तुम्हारे अस्तित्व का किसी खास स्थिति में होना है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-30)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-29)

आत्म पूजा उपनिषद–भाग-2

ग्यारहवाँ-प्रवचन–संतुलन का मध्यबिंदु

प्रश्न

  1. ज्ञान और भक्ति में क्या अंतर है?
  2. यदि धर्म निषेधात्मक तथा विधायक दोनों विरोधी ध्रुवों को समाविष्ट कर लेता है तो फिर रूपान्तरण का क्या अर्थ हुआ?
  3. आप अंतर्राष्ट्रीय नव-संन्यास के अन्तर्गत क्या कर रहे हैं?

 

भगवान सोऽहं-‘मैं ही वह हूँ’ अथवा ‘अहम ब्रह्मास्मि’ अर्थात ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’ या ‘अनलहक’-ये सारे कथन ज्ञानी के कथन मालूम पड़ते हैं। कल रात्रि का सूत्र कहता है, ‘ सोऽहं-मैं ही वह हूँ-यही नमस्कार है। इसका दूसरा भाग भवन का कथन प्रतीत होता है, जबकि पहला भाग ज्ञानी का मालूम पड़ता है। ऐसा जोड़ मुश्किल से ही कभी होता है। कृपया, बतायें कि क्यों एक ज्ञानी और भक्त के कथन को साथ-साथ रखा गया है?

  1. इस संदर्भ में कृपया यह भी बतलायें कि ज्ञानी व भक्त में क्या अन्तर है?
  2. किस भाँति कपिल ऋषि व शंकर जैसे ज्ञानी चैतन्य व मीरा जैसे भक्तों से भिन्न हैं?
  3. क्यों महान भक्तों ने अपने को भगवान से अलग रखा, जैसे मीरा ने कृष्ण से?
  4. क्या ज्ञान भक्ति में परिणत होता है और भक्ति ज्ञान में?

 

वह जो अल्टीमेट है, आत्यंतिक है वह जो एक है, लेकिन उसे बहुत-से कोणों से देखा जा सकता है। उसे देखने के बहुत से दृष्टिकोण हो सकते हैं। वह तो एक ही है लेकिन जब उसे अभिव्यक्त किया जाता है तब उसकी अभिव्यक्ति अंतर रूप ले सकती है। वह तो एक हीहै, लेकिन जब कोई उसकी ओर जाता है तो मार्ग अलग-अलग होते हैं। और एक मार्ग से जो भी कहा जाएगा वह पूर्ण सत्य नहीं होगा, वह सत्य का सिर्फ एक पहलू ही होगा। वह पूर्ण सत्य नहीं होगा।

समग्र का अनुभव तो संभव है, लेकिन समग्र की अभिव्यक्ति संभव नहीं है। अभिव्यक्ति हमेशा ही आंशिक हैं तुमे समग्र को अनुभव कर सकते हो। लेकिन जैसे ही तुम उसे व्यक्त करने जाते हो, वैसे ही वह एक दृष्टिकोण हो जाता है, वह कभी भी समग्र नहीं होता।

ये दोनों आधारभूत मार्ग हैं, उस तक पहुँचने के-ज्ञान का मार्ग तथा प्रेम का मार्ग। मनुष्य का मन इन दो में बँटा हुआ है। ये दो उस आत्यंतिक सत्य के विभाजन नहीं हैं, ये मनुष्य के मन के दो विभाजन हैं। सत्य की ओर मन कभी ज्ञानी की भाँति भी देख सकता है और प्रेमी की तरह भी। यह उस आखिरी सत्य पर निर्भर नहीं है, बल्कि यह तुम पर निर्भर करता है। यदि तुम एक प्रेमी की आँख से देखो, तो तुम्हारा अनुभव तो वही होगा जबकि तुम एक ज्ञानी की आँख से देखो, लेकिन तब तुम्हारी अभिव्यक्ति में अन्तर होगा। जब तुम प्रेम से देखोगे तब तुम्हारी अभिव्यक्तिबिल्कुल ही अलग होगी।

यह भेद क्यों है? यह इतना भेद क्यों है? क्योंकि प्रेम की अपनी भाषा है, ज्ञान की अपनी भाषा है। प्रेम की अपनी एक अलग ही भाषा है। ये भाषायें एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। उदाहरण के लिए, ज्ञान सदैव एक के लिए कोशिश करता है, और प्रेम असंभव हैं यदि वहाँ दो नहीं हो तो। प्रेम संभव ही तब है जबकि वहाँ दो हों। लेकिन मैं शीघ्रता से यह भी जोड़ना चाहता हूँ कि प्रेम एक बहुत ही रहस्यपूर्ण अनुभव है। यह दो के बीच एकता है। दो होने ही चाहिए, लेकिन वहाँ दो हों, तो जरूरी नहीं है कि प्रेम होगा ही। जब दो आपस में एक गहरी एकात्मता अनुभव करने लगें, तब प्रेम होता है।

प्रेम में दोहरा द्वैत होता है : दो में एकता। द्वैत वहाँ होना ही चाहिए और फिर भी एक होने का अनुभव हो। और प्रेम की भाषा इस द्वैत को बनाये रखेगी? प्रेमी व प्रेमिका। ये दो ध्रुव हैं। इन दो ध्रुवों में एकता का अनुभव किया जाता है, किन्तु वह एकता इन दो ध्रुवों के बिना नहीं हो सकती।

प्रेमी कहेगा, ‘मैं मेरी प्रेमिका के साथ एक हो गया मेरी प्रेमिका मुझ में ही है।’ लेकिन वह ज्ञान की बात नहीं कर सकता। लेकिन वह नहीं कह सकता कि द्वैत खो गया है। वह इतना ही कहेगा कि दो का होना भ्रामक है। हम दो हैं किन्तु फिर भी हम दो नहीं हैं। यह विरोधाभास कि हम दो हैं किन्तु भी दो नहीं हैं, यह विरोधाभास कि हम दो हैं फिर भी दो नहीं हैं, यह प्रेम का भाषा है। यह गणित की बात नहीं है, यह भावना की भाषा है।

तुम बिना एक हुए भी एक होने का अनुभव कर सकते हो। एक होने की कोई जरूरत भी नहीं है, वह असंगत है। तुम बिना मिले भी, बिना डूबे भी एक हो सकते हो। तुम बाहरी रूप से दो रह सकते हो और भीतर तुम एक हो सकते हो। और भक्ति का मार्ग, प्रेम का मार्ग कहता है कि एक होने का मतलब यदि दो का मिट जाना है, तो ऐसी ऐक्यता किसी काम की न होगी, वह बिल्कुल सपाट होगी। उस एक होने में कोई काव्य नहीं होगा, वह बिल्कुल रूखी होगी। वह गणित की तरह एक होना होगा। प्रेम कहता है कि एक होना एक जीवंत बात है, वह गणित की एकता नहीं है। प्रेमी और प्रेमिका दोनों होते हैं, फिर भी वे महसूस करने लगते हैं कि वे खो गये हैं। दुई रहती है लेकिन वह अधिकाधिक भ्रामक होने लगती है। एक होना ज्यादा वास्तविक मालूम पड़ता है बजाय दो होने के, किन्तु दो होना बना रहता है।

प्रेम के पथ पर चलने वाला साधक कहता है कि यही उसका सौन्दर्य है और उससे अनुभव समृद्ध होता है। और गणित की एकता का अर्थ होता है कि अनुभव समृद्ध होता ही नहीं। सीधा-सीधा कहें तो दो चीजें खो गईं और एक ही बची। इसमें कम रहस्य है। प्रेमी कहते हैं कि हम दो हैं और फिर भी हम दो नहीं हैं, और वे इस द्वैत में अद्वैत की बात करते चले जाते हैं, इस दो में एक होने की भाषा बोलते रहते हैं। एक होना बुनियादी बात है। सतह पर प्रेमिका प्रेमिका है और प्रेमी प्रेमी है और एक अन्तराल। लेकिन भीतर गहरे में यह अन्तराल विलीन हो गया है। प्रेम अस्तित्व की ओर काव्यात्मक ढंग से जाना है। और मन भिन्न-भिन्न होते हैं।

मुझे एक ब्रिटिश वैज्ञानिक की एक घटना का स्मरण आता है जो कि नोबल पुरस्कार भी प्राप्त कर चुका था। उसका नाम था डेरिक। डेरिक के एक मित्र ने जो कि एक रशियन वैज्ञानिक था, जिसका कि नाम कपिक्सज़ा था, उसे डोस्टेवस्की का एक बहुत प्रसिद्ध उपन्यास-‘क्राइम एण्ड पनिशमेंट’-पढ़ने के लिए दिया। कपिक्सज़ा ने डेरिक से कहा कि इस उपन्यास कोढ़ जाओ और फिर मुझे अपने इंप्रेशन्स, अपने मनोभाव बतलाना। जब डेरिक ने वह किताब लौटाई तब उसने कहा कि यह उपन्यास अच्छा है लेकिन इसमें एक कमी है, एक गलती है कि लेखक कहता है कि दिन में दो बार सूरज उगता है। एक ही दिन में दो बार सूरज उगता है।

कहानी में डोस्टेवस्की से यह भूल हो गई कि सूरज एक ही दिन में दो बार उगता है। इसलिए डेरिक कहता है कि यही बस एक गलती है और मुझे कुछ भी नहीं कहना है। और यही एक मात्र बात वह डोस्टेवस्की के महान उपन्यास-‘क्राइम एण्ड पनिशमेंन्ट’ के बारे में बोला। और वह कोई साधरण आदमी नहीं है, लेकिन एक ैानिक का रुख, एक गणितज्ञ का रुख। एक कवि का रुख नहीं है, एक कलाकार, एक प्रेमी का रुख नहीं है। यह जो रुख है बिल्कुल पक्षपात रहित है, एक णितज्ञ का ढंग है। केवल इतना ही उसके पास कहने के लिए था कि एक ही गलती है कि एक ही दिन में सूरज दो बार नहीं उग सकता। इतने बड़े सृजन में, इतनी बड़ी कलाकृति में केवल यह बात उसके ख्याल में आई।

क्यों? क्योंकि मस्तिष्क का प्रशिक्षण ही एक पक्षपातरहित ढंग से देखने का हुआ है, एक गणितज्ञ की आँख से देखने का हुआ है। इस गलती को कभी किसी ने भी नहीं खोजा था। वह पहला आदमी था। बहुतों को डोस्टेवस्की के उपन्यास में एक गहरी अंतर्दृष्टि का अनुभव हुआ था, एक गहरे मनोविज्ञान, एक महान काव्य, एक महान नाटक का दर्शन हुआ था किन्तु इस गलती को कोई भी न खोज पाया था, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम जगत को किस भाँति देखते हो।

एक प्रेमी दूसरी ही आँख से देखता है। जब एक प्रेमी उस आत्यंतिक अनुभव तक आता है, वह जानता है कि अब सब कुछ हो गया है, लेकिन वह कहता है कि यदि यह एकता साधारण एकता है, खाली एकता है, तो फिर मुर्दा है। यह एक जीवन्त एकता है, यह एक जीवन्त, गत्यात्मक घटना है। यह एक एकता है, एक गति है; एक जीवन्त प्रक्रिया है, जब कोई मुर्दा एकता नहीं है।

और सत्य कोबिल्कुल विपरीत दृष्टियों से भी देखा जा सकता है। वह जो गणितज्ञ का मन है, एक द्रष्टा का मन, तटस्थ द्रष्टा (यानी एक ज्ञान की राह पर चलनेवाला) वह कहेगा कि या तो दो हैं या फिर एक ही है। दोनों असंभव हैं।

यह एक तर्कयुक्त दृष्टिकोण है। तुम कैसे कह सकते हो कि एक ही है जबकि दो भी मौजूद है? या तो दो को मिटाओ, तब एक हो सकता है, या फिर एक की बात ही मत कहो, दो की बात करो। और वह भी अपनी तरह से ठीक है। यह उसका ढंग है। वह कहता है कि यदि तुमने एकता को उपलब्ध कर लिया है, तो फिर न तो प्रेमी ही है और न प्रेमिका ही है। दोनों खो गये, अब कोई भेद नहीं है। तुम प्रेमिका की, परमात्मा की, दिव्य की बात ही नहीं कर सकते। तुम भक्त की बात ही नहीं कर सकते। वह सब बेकार है। बन्द करो इसे और अब भी तुम इसे चालू रखते हो, इस द्वैत को, तो फिर तुम अभी एक पर नहीं आये हो, क्योंकि दोनों एक साथ नहीं हो सकते।

यह एक गणित की भाँति सोचने का ढंग है। लेकिन जीवन गणित नहीं है और जीवन विरोधी को भी समा लेता है, विपरीत को भी जगह दे देता है। इसलिए मैं इसे दूसरी तरह से ही समझाने की कोशिश करूँगा, वह आसान भी होगा।

इस सदी ने विज्ञान के जगत में बड़ी-से-बड़ी क्रान्ति को देखा है, और वही गणित को सिंहासन से नीचे उतार देती है। इलेक्ट्रॉन की खोज के बाद पुराने तर्क की व्यवस्था, बेकार हो गई है, कालबाह्य हो गई है।

तुमने शायद एक जर्मन विचारक इमैनुअल कांट के बारे में सुना होगा। उसके पास दो बिल्लियाँ थीं। एक बड़ी थी, एक छोटी थी। दोनों बिल्लियाँ उसके साथ सोती थीं, लेकिन एक कठिनाई थी। कभी-कभी वे समय पर नहीं आती थीं और तब कांट को बहुत परेशानी होती थी क्योंकि कांट समय का बड़ा पाबन्द था। वह घड़ी के हिसाब से चलता था। उसे बिल्लियों के लिए ठहरना पड़ता था, और तभी वह दरवाजा बन्द कर सकता था। अतः एक दिन उसने अपने नौकर को कहा कि किसी बढ़ई को बुलाकर लाये और दरवाजे में दो छोड़ कर दे-एक बड़ी बिल्ली के लिए और एक छोटी बिल्ली के लिए, तब बिल्लियाँ कभी भी आ सकती हैं और मैं मजे में सो सकता हूँ, उसने कहा।

नौकर ने उसे पागल समझा क्योंकि बिल्लियाँ एक छिद्र में से भी आ सकती हैं। दो छिद्रों की कोई भी जरूरत नहीं थी। लेकिन गणित के हिसाब से कांट की बात ठीक है। वास्तव में वह बिल्कुल बेवकूंफी की बात है, लेकिन गणित से वह बिल्कुल सही है। खैर, नौकर ने सोचा एक छिद्र काफी होगा, इसलिए उसने एक छिद्र बनवा दिया। जब कांट यूनिवर्सिटी से लौटकर आया तो उसने बड़ा छेद देखा बड़ी बिल्ली के लिए, तब उसने कहा कि मेरी छोटी बिल्ली भीतर कहाँ से घुसेगी? दूसरा छिद्र कहाँ है? नौकर ने उत्तर दिया कि वह भी इसी छिद्र से प्रवेश कर सकती है, वह कोई इतनी बड़ी दार्शनिक नहीं है। बिल्लियाँ व्यावहारिक हाती हैं, वे सैद्धान्तिक नहीं होतीं। इसलिए उनके बारे में चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह बात कांट के समझ में नहीं आई, अतः वह रुका। और जब उसने अपनी आँखों से दोनों बिल्लियों को एक ही छेद में से आते हुए देखा तब उसे चैन पड़ा।

हमें इस बात पर हँसी आती है, लेकिन अब ससे भी अधिक पागलपन की बात हुई है। इलेक्ट्रॉन की खोज के साथ भौतिकशास्त्र की सारी चीजें गड़बड़ हो गई हैं, क्योंक एक इलेक्ट्रॉन को यदि शीशे पर फेंका जाये, एक पर्दे पर फेंका जाये जिस पर कि दो छिद्र हों तो वह दोनों छिदों में से एक ही साथ पार निकलता है। एक इलेक्ट्रॉन को एक ही छिद्र से निकलना चाहिए। यदि तुम्हें खिड़की से बाहर फेंका जाए तो तुम दो खिड़कियों से एक साथ बाहर कैसे निकलोगे? लेकिन एक इलेक्ट्रॉन निकलता है।

जब इस बात को पहली दफे देखा गया तो इलेक्ट्रॉन बिल्कुल ही अव्यवावहारिक मालूम पड़ा। सारी बात ही जादुई लगने लगी। कैसे एक ही इलेक्ट्रॉन एक साथ दो छिद्रों में से निकल सकता है? लेकिन वह निकलता है, और इलेक्ट्रॉन कोई दार्शनिक तो होते नहीं हैं। अतः अब क्या करें और इस घटना को कैसे समझें?

विज्ञान को नई धारणा को विकसित करना पड़ा। अब वे कहते हैं कि इलेक्ट्रॉन जो है वह कण भी है और लहर भी है। वह दोनों है। इसलिए जब तुम उसे पर्दे पर फेंकते हो तो वह एक साथ दो छिद्रों से निकल जाता है क्योंकि एक लहर दो छिद्रों में से एक साथ गुजर सकती है लेकिन एक पदार्थ का कण नहीं निकल सकता। लेकिन जब तुम उसकी तरफ देखते हो, तो वह कण होता है, लेकिन वह व्यवहार लहर की तरह करता है।

अब पुराना गणित, पुरानी ज्यामिति, पुराना युक्लिड का गणित इस बात के लिए राजी नहीं होगा। क्योंकि एक कण, एक लहर नहीं कर सकते। हमें अपना गणित के हिसाब से चलो, तुम तर्क के हिसाब से चलो। भौतिकशास्त्र ने बहुत ही अजीब जगत की खोज की है जहाँ कि हमारे सब नियम गड़बड़ हो गये हैं। यदि तुम इलेक्ट्रॉन को देखो तो वह तुम्हें कण दिखलाई पड़ेगा-एक बिन्दु की तरह। यदि तुम उसका व्यवहार देखो तो वह एक लहर की तरह लगेगा-एक रेखा की भाँति।

यही बात आत्यंतिक सत्य के लिए भी है। यदि तुम उसे प्रेम की आँख से देखो तो वह एक लहर की तरह व्यवहार करता है। यदि तुम एक ज्ञाता की दृष्टि से देखो तो वह कण दिखाई पड़ता है। एक जानने वाले की आँख से वह एक दिखाई पड़ता है, और एक प्रेमी की आँख से वह दो दिखलाई पड़ता है। यह देखनेवाले पर निर्भर करता है। वह दोनों हैं, और दोनों ही नहीं है।

इसके कारण ही यदि कोई अपने ही बिन्दु पर जोर देता ही चला जाए तो फिर वह बिन्दु दूसरे की तुलना में विपरीत दिखाई पड़ेगा-क्योंकि यदि कोई कहता है कि इलेक्ट्रॉन कण है, और मैंने स्वयं देखा है, तो वह सही है इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन तब वह दूसरे को छोड़ देता है। तब दूसरा अपने आप ही गलत हो जाता है। यदि वह कहता है कि चूँकि मैं सही हूँ, तुम गलत हो, क्योंकि मैंने इलेक्ट्रॉन को एक कण के रूप में देखा है, वह लहर नहीं हो सकता, तब तुमने बिल्कुल ही मना कर दिया। तब विरोध पैदा होगा।

लेकिन यही बात दूसरे भी कह सकते हैं जिन्होंने कि उसे लहर की भाँति बर्ताव करते देखा है, जिन्होंने कि अपनी स्वयं की आँखों से दो छिद्रों में से एक साथ निकल जाते देखा है। तब वे कहते हैं कि यह कण जरा भी नहीं है, क्योंकि एक कण लहर की तरह व्यवहार नहीं कर सकता। तब वे उस पर जोर देते चलें जाते हैं। तब फिर वे संप्रदाय निर्मित करते हैं-अलग-अलग संप्रदाय।

यह सूत्र अनूठा है, यह दोनों को समाविष्ट कर लेता है। यह कहता है कि जब तुम जानते हो कि तुम्हीं वह हो, तभी नमस्कार होता है। पहला हिस्सा ज्ञान के मार्ग का है, और दूसरा हिस्सा भक्ति के मार्ग का है, प्रेम के मार्ग का है। दूसरे शब्दों में कहना चाहिए यह सूत्र कहता है कि जब तुम यह भी जान पाते हो कि तुम दो हो। अथवा, जब तुम्हें यह पता लगता है कि तुम दो हो, तभी तुम्हें उस आंतरिक एकता का अनुभव होता है।

यह दो का भाव तथा एक का भाव तुम्हारा ही है, सत्य का नहीं। सत्य तो दोनों ही है या दोनों नहीं है। एक प्रेमी की आँख के सामने यह दो कि भाँति व्यवहार करता है, यह दो में, प्रेमी व प्रेमिका में विभाजित हो जाता है। एक जानने वाले की आँख के सामने यह एक कण की तरह व्यवहार करता है-जैसे एक हो। वास्तव में कोई विपरीतता नहीं है, बल्कि वे दोनों एक दूसरे पर हँसेंगे। ज्ञान के मार्ग के खोजी भक्ति के मार्ग पर चलने वालों के लिए सदैव ऐसा महसूस करेंगे कि जैसे वे कुछ चूक रहे हैं, कि वे उस परम को नहीं पा सकेंगे। वे सही हैं-एक तरह से, क्योंकि उनके दृष्टिकोण से ऐसा ही है।

मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ जो कि मैंने एक दिन सुनी थी। एक सुबह जरा तड़के ही हुआ। सूर्य अभी उगने को है। एक केंचुआ आधा जागा है, आधा सोया है वह विश्राम कर रहा है अपने को चारों ओर से समेटकर। फिर सूर्य उगने लगता है, कोहरा खोने लगता है और इस केंचुए को दूसरे केंचुए की उपस्थिति का पता चलना शुरू होता है। वह पत्थर के चारों ओर देखता है। दूसरी तरफ से दूसरा केंचुआ भी आ रहा है। वह उसे देखकर उसके प्रेम में पड़ जाता है जैसी कि आदमी की और केंचुए की आदत होती है कि वे पहली ही नजर में प्रेम में पड़ जाते हैं। और जब उनके प्रेमालाप की प्राथमिक बातें पूरी हो जाती हैं तो पहला केंचुआ दूसरे से कहता है, ‘‘बेबी, मैं गहरे प्रेम में डूब गया हूँ। अब मैं तुम्हारे बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। इसलिए मुझ से विवाह कर लो।’’ दूसरा अब तक चुपचाप था, वह हँसने लगा और बोला, ‘‘बेवकूफ। मैं तुम्हारा ही दूसरा छोर हूँ।’’

ज्ञान के मार्ग पर, भक्त मूर्ख नज़र आते हैं। लगता है कि वे अपने ही दूसरे छोर से बातें कर रहे हैं। वे परमात्मा को, प्रेमी, प्रेमिका नाम दे रहे हैं, दिव्य कहकर पुकार रहे हैं, लेकिन वे अपने ही दूसरे छोर से बातें कर रहे हैं। जो ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले लोग हैं, उन्हें वे मूर्ख लगते हैं। किन्तु वे अच्छे लोग हैं, क्योंकि वे अपनी मूर्खता को स्वीकार कर लेते हैं।

संत फ्रांसिस ने अपने को सदा परमात्मा कोमूर्ख कहकर पुकारा-गॉडस फूल। वह कहता कि मैं मूर्ख हूँ, लेकिन मूर्ख ही रहने दो। मैं विद्वान बनना नहीं चाहता, क्योंकि मैंने विद्वानों को देखा है। मैं भले ही पागल होऊँ लेकिन मुझे पागल ही रहने दो। यह मुझ में और परमात्मा में प्रेम काफी है।

भक्त मूर्ख हैं, लेकिन विधिपूर्वक। वे पागल हैं, लेकिन विधिवत। वे कहते हैं कि यह पागलपन ही एक मात्र बुद्धिमानी है। यदि तुम अपने को ही प्रेम नहीं कर सकते, तो फिर तुम प्रेम ही नहीं कर सकते। कोई हर्ज नहीं यदि वह दूसरा छोर ही हो, लेकिन प्रेम करना इतना अच्छा है, इतना सुन्दर है कि यदि किसी को स्वयं अपने आप को दो में भी बाँटना पड़े, प्रेम करने के लिए, तो भी बाँट देना चाहिए। इसीलिए तो भक्तों ने, प्रेमियों ने कहा कि यह संसार लीला है। राधा ही कृष्ण भी हैं-भेष बदले हुए हैं। परमात्मा स्वयं को ही प्रेम कर रहा है, कितने ही भेषों में। इसलिए भक्त इतने गंभीर नहीं हैं। वे कहते हैं कि हम मूर्ख लोग हैं, हम पागल आदमी हैं, लेकिन हम अपने पागलपन में प्रसन्न हैं। और हमें तुम्हारा रूखा ज्ञान नहीं चाहिए। माना कि वह एकदम सही है लेकिन रूखा है, मृत है। हमारा पागलपन जीवंत है।

वे जो कि ज्ञान के मार्गी हैं, उनके लिए प्रेम को समझना कठिन है। वे कहते हैं कि यदि तुम प्रेम करते हो, तो तुम जान नहीं सकते। प्रेम से पक्ष हो जाता है। तुम अलग नहीं रह सकते। एक खोजी को, तो अलग रहना चाहिए, उसे जुड़ नहीं जाना चाहिए। उसे तो अलग, दूर रहना है। उसे तो बाहर खड़े आदमी की तरह निरीक्षण करना है, उसे स्वयं प्रक्रिया में नहीं उतर जाना चाहिए।

एक प्रेमी अलग नहीं रह सकता। तुम मजनू को लैला से अलग रहने के लिए नहीं कह सकते, वह असंभव है। वह कहेगा कि लैला ही एकमात्र सुन्दर स्त्री है-इस समय की नहीं, बल्कि सारे समय की। यह बात बिल्कुल बेकार है, लेकिन वह प्रेम में डूबा है। प्रेम इस भावना को जन्म दे रहा है। वह प्रामाणिक है। जो भी वह कह रहा है, वैसा वह अनुाव भी कर रहा है। लेकिन प्रतीति एक आसक्त आदमी की है-उसकी, जो कि जुड़ गया है। वह चाहिए नहीं है।

वह लैला की तरफ तटस्थ होकर नहीं देख सकता, इसलिए ज्ञान के पथ के अनुयायी कहेंगे कि वह कभी भी सत्य तक नहीं पहुँच सकता। वह सदैव अपनी ही भ्रान्तियों में जीयेगा। जो भी वह कह रहा है, वह उसकी वैयक्तिक प्रतीति है, यह कोई वस्तुगत सत्य नहीं है। वे कहेंगे कि भक्त अपनी-अपनी भ्रांतियों की बात करते रहते हैं। यदि तुम्हें सत्य को जानना है, तो वस्तुगत आब्जेक्टिव बनो। तब फिर प्रेम नहीं होगा। वास्तव में तो प्रेम बाधा बन जायेगा क्योंकि वह हर चीज को रंग देता है।

संस्कृत में एक शब्द है ‘राग’ राग का अर्थ होता है, आसक्ति और राग का अर्थ होता है रंग। कोई भी राग वस्तु को रंग दे देता है। यह प्रक्षेपण है। ज्ञान का मार्ग कहता है कि बिल्कुल निरपेक्ष रूप से अलग रहो। वीतरागी बनो। कोई लगाव नहीं, कोई प्रेम नहीं, कोई भक्ति भाव नहीं। तभी केवल तुम सत्य तक पहुँच सकोगे।

यह बहस अनन्त तक चल सकती है क्योंकि हर बिन्दु पर ज्ञान के मार्गी भिन्न होंगे। और मैं कहूँगा कि वे सही हैं जहाँ तक उनका संबंध है। जो कुछ भी वे अपने बारे में कह रहे है वह सही है, लेकिन जेसे ही वे दूसरों के बारे में कहते हैं, वे वहीं गलत हो जाते हैं। जब ज्ञान मार्गी भक्तों के बारे में कुछ भी कहते हैं, तो वह गलत हो जाता है क्योंकि भक्तों का अनुभव उनका जरा भी अनुभव नहीं है। जो कुछ भी वे प्रेम के बारे में जानते हैं, वह एक बात है। और जो भी एक भक्त प्रेम के बारे में जानता है वह दूसरी ही बात है।

एक भक्त के लिए जो कि प्रेम के मार्ग पर चल रहा है, यह प्रक्षेपण नहीं है क्योंकि प्रेमी कहता है कि मैं तो अब हूँ ही नहीं, इसलिए अब प्रक्षेपण भी कौन करे? मेरी कुछ अपेक्षा नहीं है, कोई मांग नहीं है, कोई अच्छा भी नहीं है। तो फिर बिना किसी इच्छा के कोई प्रक्षेपण भी कैसे करेगा? जब कोई आकांक्षा नहीं, कोई अपेक्षा नहीं है, तो कैसा प्रक्षेपण? भक्त कहता है कि मैंने अपने को मिटा ही दिया है ताकि परमात्मा के लिए जगह हो जाये और वह मेरे भीतर उतर सके, और अब परमात्मा उतर गया है।

यह प्रेम, यह एक होना कोई प्रक्षेपण नहीं है, क्योंकि प्रक्षेपण सदा इच्छाओं से होता है। अतः यदि तुम कुछ इस एकता से चाह रहे हो, तो वह प्रक्षेपण नहीं हो सकता। इसलिए भक्तों ने कहा है कि हमें तुम्हारा मोक्ष नहीं चाहिए, हमें तुम्हारे वैकुण्ठ की, स्वर्ग की भी अपेक्षा नहीं है, हमें कोई पुण्य मिल जाये, यह भी हम नहीं चाहते, हम तो सिर्फ तुम्हें ही चाहते हैं।

भक्तों का कहना है कि जो लोग ज्ञान के मार्ग पर चल रहे हैं उन्हें मोक्ष चाहिए। उन्हें मोक्ष मुक्ति चाहिए, उन्हें स्वर्ग की कामना है। वे शुद्धता चाहते हैं। उन्हें मुक्ति की इच्छा है। उनका प्रयत्न महत्वाकांक्षी है। भक्त कहते हैं कि यदि वैकुण्ठ वहाँ है, स्वर्ग वहाँ है और तुम्हारे चरण यहाँ हैं तो फिर हम तुम्हारे चरण ही चुनते हैं। उन्होंने कभी मोक्ष, मुक्ति, स्वर्ग नहीं चाहा। वे कुछ भी नहीं मांगते। एक भक्त ने गीत गाया है कि मुझे वृन्दावन में कुत्ता ही हो जाने दो, मुझे वृन्दावन में सिर्फ वहाँ की धूल ही हो जाने दो, इतना काफी है और मैं तुम्हारे चरणों के लिए अनन्त तक प्रतीक्षा करूँगा। मुझे कुछ और नहीं चाहिए।

वस्तुतः गहराई में भक्त हमें ज्ञानी से कम महत्वाकांक्षी दिखलाई पड़ते हैं, लेकिन वे दोनों एक दूसरे को नहीं समझ सकते, वह कठिन है। तुम उन्हें नहीं समझा सकते, वह कठिन है। तुम उन्हें नहीं समझा सकते। उनमें बातचीत असंभव है, क्योंकि वे अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं। उनके क्षेत्र भी अलग-अलग हैं। वे अपने शब्दों को भिन्न ही अर्थ देते हैं। भक्त कहते हैं कि प्रेम ही एकमात्र मुक्ति है-एकमात्र मुक्ति। जो लोग ज्ञान के मार्ग पर हैं उनके लिए ज्ञान ही मुक्ति है, न कि प्रेम। प्रेम बन्धन है। जिस क्षण भी तुम प्रेम में होते हो, तुम बन्धन में होते हो। और भक्त कहते हैं कि प्रेम मुक्ति है, और यदि तुम्हें प्रेम बंधन लगता है तो फिर तुमने प्रेम जाना ही नहीं। वे भिन्न भाषाएँ बोल रहे हैं, उनका मिलना नहीं हो सकता।

केवल कभी-कभी, बहुत कम, कभी ऐसी घटना घटती है कि कोई आदमी दोनों होता है। यह एक बहुत कम घटित होने वाली घटना है। शताब्दियों पर शताब्दियाँ बीत जाती हैं कि कोई दोनों हो पाता है। लेकिन तब उसकी भाषा तुम्हारे लिए समझना और भी कठिन हो जाती है। इसे ऐसे देखें- एक भक्त एक ज्ञानी की बात नहीं समझ पाता है, एक ज्ञानी एक भक्त की बात नहीं समझ पाता है। लेकिन कोई व्यक्ति दोनों हैं तो लोग उसकी बात नहीं समझ पायेंगे। अपने आप में हर एक ही भाषा कठिन है। और जब दोनों भाषाएँ एक होती हैं, तो उसे समझना असंभव हो जाता है। ऐसा आदमी भक्तऔर ज्ञानी दोनों की बात समझ सकता है, लेकिन जन-समूह उसे बिल्कुल नहीं समझ सकता क्योंकि वह सदा अपना ही विरोध करता हुआ मिलेगा।

जब कभी वह ज्ञान के मार्ग की बात करेगा तो यह एक बात कहेगा और जब कभी वह प्रेम की भाषा बोलेगा; तो वह विरोधाभासी, एकदम विरोधाभासी भाषा बोलेगा। वह अपने ही विरोध में बोलता चला जाएगा और तुम सिर्फ उलझन में पड़ोगे। इसका मतलब क्या है? यह बहुत कम होता है, लेकिन जब कभी भी होता है तो ऐसी आदमी बिल्कुल समझ में नहीं आता।

यह उपनिषद ऐसे व्यक्ति का है जो कि दोनों है। तुमने कदाचित ध्यान नहीं दिया, इस उपनिषद का नाम ही है- आत्म पूजा। यह बड़ी फिजूल बात है। यह शीर्षक ही अर्थहीन है, विरोधाभासी है। तुम्हारी अपनी पूजा? पूजा तो सदैव किसी और की होती है, लेकिन यहाँ तुम ही पूजा करने वाले हो और तुम्हींपरमात्मा भी हो। पूजा का सारा अर्थ ही खो गया, और यह व्यक्ति लगातार विरोधाभासी भाषा बोल रहा है। हर एक वाक्य भक्त और ज्ञानी दोनों के लिए है। वह भक्त के प्रतीकों का उपयोग करता है और फिर ज्ञानी के अर्थ देने लगता है, न कि प्रेमी के। लगातार सारा उपनिषद यही कर रहा है। प्रतीक भक्तों के हैं-पूजा के, किन्तु जो अर्थ दिये हैं वे ज्ञानियों के हैं।

यह प्रतीति कि मैं हीवह हूँ-‘सोऽहं’-यही नमस्कार है।

इस सूत्र में भी यही बात है। यदि तुम जान गये कि तुम्हीं वह हो, तो वही पूजा है, नमस्कार है। इस असंगतिपूर्ण ‘संगति के रुख के कारण ही यहऋषि लगातार अपने ही विरोध में कहता जाता है और दोहरी भाषा का उपयोग करता है। यह दो भिन्न क्षेत्रों को मिश्रित कर रहा है। इस उपनिषद है और एक बहुत ही सुन्दर भी।

इसकी व्याख्या करना बहुत कठिन है, क्योंकि व्याख्याकार भी दो तरह के हैं। वे जो कि ज्ञान के मार्गी है, उनके लिए सारी भाषा ही दूसरे मार्ग की है। और प्रेम के मार्ग पर चलने वालों के लिए, सारे अर्थ पहले मार्ग वालों के लिए हैं। तो यह आत्म पूजा उपनिषद ऋषि सचमुच किसी मार्ग का नहीं है। और इसीलिए, यह उपनिषद उपेक्षित रहा। कभी इस पर किसी ने नहीं बोला।

इसलिए पहली बात यह है कि ये दो भाषाएँ हैं। प्रेम की अपनी भाषा होती है, ज्ञान की अपनी भाषा होती है। और वे दोनों ऊपर सतह पर नहीं मिल सकतीं। वे केवल व्यक्ति में मिल सकती हैं, न कि बातचीत में। कोई व्यक्ति इस अवस्था को उपलब्ध हो सकता है। लेकिन यह बहुत कम होता है। और बहुत कम क्यों? क्योंकि जब तुम एक मार्ग से चलकर मंजिल पर आ गये, तो फिर दूसरे मार्गों की फिक्र क्यों करना? कोई जरूरत नहीं है। तुम एक मार्ग से मंजिल पर पहुँच गये।

रामकृष्ण ने इसकी कोशिश की। वही एक व्यक्ति था जिसने कि इस युग में इस पर प्रयोग किया। वे चेतना की एक अवस्था तक पहुँच जाते और फिर उसे छोड़ देते और फिर दूसरे मार्ग से चलना शुरू करते, और फिर तीसरे मार्ग से। और वे तब रुके जबकि उन्होंने पाया कि वे कई मार्गों से उसी अवस्था में पहुँच सकते हैं। उन्होंने सूफियों का मार्ग अपनाया, उन्होंने बौद्धों की ध्यान की पद्धति अपनाई, उन्होंने हिन्दू विधियों का अनुसरण किया। गहरे में वे एक भक्त थे। बुनियादी रूप से वे प्रेम के मार्ग पर चलने वाले थे। किन्तु उन्होंने वेदान्त पर प्रयोग किया-ज्ञान का मार्ग। यह बहुत कठिन था, क्योंकि यह कोईआसान मामला नहीं था कि प्रेम के मार्ग से ज्ञान के मार्ग पर चले जाएं। तब सब कुछ विरोधी हो जाता है।

वे तोतापुरी से सीख रहे थे जो कि अपने समय का एक बड़ा भारी वेदान्ती था। और तोतापुरी निरपेक्ष रूप से वेदान्ती था-ज्ञान के मार्ग का अनुसरण करनेवाला। अतः वह रामकृष्ण पर हँसता और कहता कि तुम मूर्ख हो। यह रो-रोकर तुम क्या कर रहे हो? रो रहे हो, चिल्ला रहे हो, नाच रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो। वहाँ कोई भी नहीं है। किससे प्रार्थना कर रहे हो? फिर रामकृष्ण उसके शिष्य हो गये। और यह एक कभी-कभार घटने वाली घटना है क्योंकि रामकृष्ण ने वह सब पा लिया था जो कि तोतापुरी ने उपलब्ध किया था। यह उनकी विनम्रता थी। वे तोतापुरी के शिष्य हो गये। उन्होंने कहा कि मुझे बताओ, अब तुम्हारे मार्ग से चलूंगा।

तोतापुरी उनका गुरु हो गया और वह एक बड़ा कठोर गुरु था-एक बड़ा मास्टर था। और वह रामकृष्ण को भी उसी तरह सिखाता था जैसे ि कवह दूसरों को अ, ब, स से सिखाता था। अतः रामकृष्ण बुरी तरह रोने लगते। फिर तोतापुरी कहता कि इस बचपने से काम नहीं चलेगा।

एक दिन रामकृष्ण ने कहा कि यह तो कठिन है, यह असंभव है। जब भी मैं आँख बन्द करता हूँ, काली की प्रतिमा होती है। और मैं उसके चरणों में झुका हूँ, और तुम कहते हो, इसे फेंक दो, काट दो, नष्ट कर दो। मैं ऐसा कैसे करूँ? मैं देवी की प्रतिमा को कैसे नष्ट करूँ? और फिर यह इतनी सुन्दर है और इसका अनुभव भी इतना प्यार है। और मैं ऐसी सुख मनःस्थिति में होता हूँ कि मैं इस जगत में होता ही नहीं।

तोतापुरी ने कहा कि यह सब भ्रम है, तुम्हारे मन का प्रक्षेपण है। अपने हाथ में एक तलवार उठाओ और प्रतिमा के दो टुकड़े कर दो। मार डालो। रामकृष्ण ने कहा कि लेकिन तलवार कहाँ से लाऊँ? तोतापुरी ने कहा कि वही से जहाँ से कि यह प्रतिमा लाये हो-अपने भीतर से, कल्पना से, जहाँ से तुम इसे नष्ट नहीं करते हो, तो फिर मैं चलता हूँ। और तुमने शपथ ली है कि जो मैं कहूँगा करोगे और मेरे पीछे चलोगे। इसलिए जो कहा गया है, वह करो। वरना मैं इसी क्षण विदा होता हूँ।

अतः रामकृष्ण ने आँखें बंद कीं। वे रो रहे थे, उनकी आँखों में से आँसू बह रहे थे। और तोतापुरी ने हँसते हुए कहा कि क्या मूर्खता है। क्यों रो रहे हो? कोई भी सत्य तक रोते हुए नहीं पहँच सकता है। पुरुष बनो और देवी को समाप्त कर दो। और त बवह एक कांच का टुकड़ा उठा लाया और रामकृष्ण के ललाट पर उससे काट दिया है, उसी तरह तुम भी भीतर काट डालो।

और रामकृष्ण ने प्रतिमा काट डाली। यह अति कठिन काम था। किसी भी भक्त ने कभी नहीं किया। यह पहली दफा किया गया। लेकिन कोई भी भक्त इस मार्ग पर नहीं चलेगा। इसकी कोई जरूरत भी नहीं है।

और तब रामकृष्ण ने कहा कि आखिरी बाधा गिर गई। वह ज्ञान के मार्ग पर आखिरी बाधा थी, इसलिए तोतापुरी प्रसन्न था, आनंदित था। उसने कहा कि अब तुमने पा लिया। अब तुम मोक्ष को प्राप्त हुए।

और दूसरे दिन रामकृष्ण काली के मंदिर में थे और रो रहे थे। और उन्होंने स्वयं कहा था कि आखिरी बाधा गिर गई। और तब तोतापुरी उन्हें छोड़कर चले गये। उन्होंने कहा कि तुम लाइलाज हो।

लेकिन यह कोई मामला चिकित्सा का नहीं है। वे सिर्फ उसी बिन्दु को कई मार्गों से पहुँचने की कोशिश कर रहे थे। वे छः माह के लिए मुसलमान हो गये। तब वे काली के मंदिर में भी प्रवेश नहीं करते थे, क्योंकि एक मुसलमान काली के मंदिर में कैसे घुस सकता था? इसलिए वे बाहर तक जाते और अपनी देवी के बारे में पूछताछ कर लेते और तब वापस चले जाते। वे मस्जिद में ही सोते और छः माह तक सूफी ढंग से साधना करते। उस समय के लिए वे मुसलमान थे। फिर एक दिन वे वापस हँसते हुए लौट आये और बोले कि मैं अब वापस आ गया हूँ। माँ, मैं वापस आ गया हूँ। मैं वहाँ मुसलमान विधि से भी पहुँच गया हूँ।

कभी-कभी ही ऐसा किया गया है। यह उपनिषद ऐसे आदमी का है जो कि दोनों रास्ते जानता था और गहराई से जानता था, इसलिए वह एक से दूसरे मार्ग की भाषा बदलता जाता है। और वे दोनों भाषाएँ विरोधी हैं। यदि तुम इस बात को समझ लो, तो फिर कोई उलझन नहीं होगी।

 

भगवान, आपने कहा कि जीवन विपरीत ध्रुवों में जीता है-जन्म और मृत्यु, शुभ और अशुभ, शान्ति और हिंसा, दया और निर्दयता, सुन्दरता और कुरूपता।

ऐसा लगता है कि ये विपरीत ध्रुव अपरिहार्य हैं, और होंगे ही। तब हम धर्म के द्वारा किस बात के लिए प्रयत्न कर रहे हैं? तब फिर आध्यात्मिक रूपान्तरण का क्या अर्थ होता है?

संत और पैगंबर एक आध्यात्मिक समाज व संस्कृति को निर्मित करने को बदलना चाहते हैं? और यदि हम एक स्वस्थ आध्यात्मिक समाज निर्माण करने में सफल हो जायें, तो दूसरी विरोधी ध्रुव की बातों का-जैसे निर्दयता, हिंसा तथा कुरूपता का क्या होगा?

यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण समस्या है और इसके बारे में बहुत गलत फहमी पैदा हुई है। इसलिए पहले तो इसे ठीक से समझ लो कि धर्म कोई नीतिशास्त्र, कोई नैतिकता नहीं है। नैतिकता उन सब के विरुद्ध काम करती रहती है जो कि अशुभ है, बुरा है, अनैतिक है, पाप है। इसलिए नैतिकता एक लड़ाई है, एक संघर्ष है, बुराई के खिलाफ। नैतिकता एक नैतिक संसार बनाने का प्रयत्न् कर रही है, जहाँ कि कोई अनैतिकता नहीं होनी चाहिए। यह असंभव है। केवल तुम बदल सकते हो, लेकिन सन्तुलन वही रहता है।

यह प्रकृति का एक गहनतम नियम है किवह दो विपरीत ध्रुवों में जीती है। यदि तुम एक को नष्ट करो, तो दूसरा भी नष्ट हो जाएगा। जिस संसार में कुछ भी अशुभ नहीं है, वहाँ कुछ भी शुभ भी नहीं होगा। जहाँ कोई पापी नहीं होगा, वहाँ कोई संत भी नहीं होगा। वे एक दूसरे पर भी निर्भर हैं। इसलिए नैतिकता से ऐसा संसार निर्मित नहीं हो सकता, जहाँ केवल शुभ ही हो। यह एक कभी पूरी नहीं होनेवाली आशा है। और यह कभी भी पूरी नहीं होगी। ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि इसका अर्थ बुनियादी नियम को ही अस्वीकार करना होगा।

अभी भौतिकशास्त्री कहते हैं कि पदार्थ है ही इसलिए क्योंकि कुछ है जो कि पदार्थ के विपरीत है, ऐण्टी-मैटर है। एक ऐण्टी-मैटर का समानान्तर जगत मौजूद है। प्रकृति एक सन्तुलन है, तुम उस सन्तुलन को नष्ट नहीं कर सकते। यदि तुम एक ही ध्रुव की बात पर जोर देते चले जाओ, तो दो बातें संभव होंगी- या तो तुम उसे और भी मजबूत कर दोगे, और तब दूसरा ध्रुवीय तत्व भी उतना ही मजबूत हो जायेगा। या तुम दूसरे को नष्ट कर दोगे। तब जिसे तुम मजबूत करने का प्रयत्न कर रहे हो, वह भी नष्ट हो जायेगा।

जीवन एक प्रकार का सन्तुलन है, इसलिए नैतिकता एक व्यर्थ प्रयास है। जब मैं ऐसा कहता हूँ तो मेरा मतलब यह नहीं है कि नैतिक न होओ, क्योंकि तब फिर तुम सन्तुलन बिगाड़ दोगे। इसलिए वही होओ जो कि तुम हो सकते हो।

धर्म बिल्कुल दूसरे ही जगत की बात है। धर्म कोई अशुभ के खिलाफ शुभ जगत निर्मित नहीं करता। धर्म तो एक संतुलित जगत निर्मित करने के पीछे है, न कि किसी चीज़ के खिलाफ। जहां कि शुभ और अशुभ दोनों ही सन्तुलित हो जाते हैं, वे दोनों एक-दूसरे को काट देत हैं। और जब कोई व्यक्ति न तो साधु होता है और न असाधु, तब वह संत होता है। यह एक सन्तुलन व्यक्ति है-न तो साधु है और न असाधु। बस एग कहरा सन्तुलन है, एक आंतरिक सन्तुलन है दोनों विपरीत ध्रुवों-विरोधी की शक्तियों में।

जब दोनों ध्रुव सन्तुलित हो जाते हैं, तो तुम दोनों के पार हो जाते हो। इसे इस तरह देखो : कभी-कभी तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम स्वस्थ हो। यह असन्तुलन है। कभी-कभी तुम्हें लगता है कि तुम अस्वस्थ हो। यह भी असन्तुलन है। कभी-कभी तुम्हें न तो स्वस्थता का बोध होता है, और न ही अस्वास्थ्य का, यही सन्तुलन है, एक आंतरिक सन्तुलन है दोनों विपरीत ध्रुवों-विरोधी की शक्तियों में।

जब दोनों ध्रुव सन्तुलित हो जाते हैं, तो तुम दोनों के पार हो जाते हो। इसे इस तरह देखो : ध्रुव सन्तुलित हो जाते हैं, तो तुम दोनों के पार हो जाते हो। इसे इस तरह देखो : कभी-कभी तुम्हें प्रतीत होता है कि तुम स्वस्थ हो। यह असन्तुलन है। कभी-कभी तुम्हें लगता है कि तुम अस्वस्थ हो। यह भी असन्तुलन है। कभी-कभी तुम्हें न तो स्वस्थता का बोध होता है, और न ही अस्वास्थ्य का, यही सन्तुलन है।

यह महसूस करना कि तुम स्वस्थ हो, इसका अर्थ होगा कि तुम दूसरे छोर पर पहुँच गये। अब तुम रुग्ण होओगे। इसे याद रखो, जब भी तुम्हें मालूम पड़े कि तुम स्वस्थ हो, तो तुम किनारे पर ही हो, अब तुम बीमार पड़ोगे। ऐसा रोज़ होता है, लेकिन तुम्हें इसका बोध नहीं है। जब कभी तुम्हें लगता है कि मैं प्रसन्न हूँ, प्रसन्नता खो जाती है। जब भी तुम्हें किसी चीज की प्रतीति होती है, तो इसका अर्थ होता है कि तुम दूर चले गये। अब लौट आओ। सन्तुलन वापस पाना है, और उस सन्तुलन को पाने के लिए तुम्हें उसके विरोधी छोर पर लौटना पड़ेगा।

यह ऐसा ही है जैसे कि सरकस में एक आदमी रस्से पर चलता है, वह लगातार बायें से दायें और दायें से बायें डोलता रहता है। लेकिन क्या कभी तुमने ध्यान दिया कि जब भी वह एक तरफ ज्यादा झुक जाता है तो उसे फौरन दूसरी तरफ लौटना पड़ता है, सन्तुलन बनाने के लिए। ज बवह देखता है कि बायें अधिक चला गया है और अब वह गिरेगा तो इसे सन्तुलित करने के लिए उसे दायें जाना पड़ेगा।

हम सब उस रस्सी पर चलने वाले आदमी की तरह हैं-लगातार शुभ से अशुभ, अशुभ से शुभ, स्वस्थ से अस्वस्थ और अस्वस्थ से स्वस्थ की ओर जाते रहते हैं। बुद्ध पुरुष वह है जो कि रस्से से नीचे उतर गया है। अब उसे बायें या दायें नहीं जाना है। वह दोनों के पार चला गया है।

धर्म अतिक्रमण है।

बुद्ध पुरुष जानता है कि अशुभ को नहीं मिटाया जा सकता क्योंकि वह सन्तुलन का एक हिस्सा है। शुभ अकेला नहीं हो सकता। दोनों आवश्यक हैं। इन्हीं दोनों विपरीत ध्रुवों के बीच अस्तित्व खड़ा है। इसे देखकर इसको जानकर वह जो कि ज्ञानी है, वह सिर्फ अपने को सन्तुलित करता है-दोनों के बीच। काई चुनाव नहीं है। उसने अशुभ के विरुद्ध शुभ को नहीं चुना है। यदि तुमने शुभ को अशुभ के खिलाफ चुना है, तो आगे-पीछे तुम्हें अशुभ कोशुभ के खिलाफ चुनना पड़ेगा। क्योंकि तुम एक दिशा में आगे बढ़ गये, तो तुम्हें दूसरी दिशा में भी आगे बढ़ना पड़ेगा।

इसलिए संत पाप की ओर बढ़ते रहते हैं और पापी संतत्व की ओर बढ़ते रहते हैं। संतों के भी अपने पाप के क्षण होते हैं, और पापियों के भी अपने संतत्व के क्षण होते हैं। हर एक में संत व पापी दोनों की संभावना बनी हुई होती है। और जब कभी भी पाप ज्यादा बढ़ जाता है तो पापी उसको सन्तुलित कर लेता है। इसलिए जो जानते हैं, वे कहते हैं कि तुम चौबीस घंटे संत नहीं रह सकते। तुम नहीं रह सकते। यह बहुत ज्यादा है। यह उबा देगा और बोझ हो जाएगा, इसलिए इससे भी भागना पड़ता है। इसलिए संतों को भी अपनी तरकीबें होती हैं कि इससे कैसे बचा जाए।

तुम सारे समय पापी भी नहीं रह सकते। यह कठिन है, असंभव है। तुम नीचे गिर जाओगे। तुम मर ही जाओगे। तुम्हें वहाँ से हटना ही पड़ेगा। इसलिए कभी-कभी ऐसा होता है कि तुम पापियों को ऐसे साधु कर्म करते हुए पाओगे जैसे कि संत भी नहीं कर सकते। कभी-कभी पापी इतने संतों की तरह होते हैं कि विश्वास नहीं होता। लेकिन वे सब सन्तुलन करते हैं।

धर्म का शुभ और अशुभ से कोई संबंध नहीं है। किसी चुनाव से कुछ संबंध नहीं है। धर्म तो एक चुनावरहित अतिक्रमण है। अस्तित्व की इस विरोधता को जानते हुए, ज्ञानी, वह जो कि इस विरोध को जानता है वह चुनना ही छोड़ देता है। तब फिर वह न तो दायें जाता है, और न बायें जाता है। वह बीच में रहता है। बुद्ध ने इसे ‘मज्झिम निकाय’ कहा है-मध्य मार्ग। बुद्ध कहते है हैं कि मैं चुनाव नहीं करूँगा। मैं बीच में रहूँगा-बिल्कुल ठीक बीच में।

जब तुम चुनाव नहीं करते, तो तुम बीच में होते हो और तब तुम अतिक्रमण कर जाते हो। यह संभव है। ऐसा हो सकता है, या नहीं भी हो सकता है, किन्तु यह संभव है। एक ऐसा जगत संभव है जहाँ कि हम इस लगातार दायें से बायें चुनने के चक्कर से अतिक्रमण कर जायें। पाप और संतत्व शुभ और अशुभ, अच्छाई और बुराई में डोलते रहने का अतिक्रमण कर जायें-जिसमें कि यह सारा संसार सन्तुलित है। वही एक धार्मिक जगत होगा। वह नैतिक नहीं होगा, वह अनैतिक भी नहीं होगा। वह सिर्फ धार्मिक होगा। इसलिए यह धर्म कोई नैतिकता नहीं है। नैतिकता चुनाव है, किसी चीज के खिलाफ और किसी चीज के पक्ष में।

मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूँ। एक बार मुल्ला नसरुद्दीन एक बहुत बड़े विद्वान को सुन रहा था। वह विद्वान एक बहुत बड़ा धार्मिक आदमी था। बड़ा धर्मगुरु भी था। अतः जब प्रवचन पूरा हो गया तो उस धर्मगुरु ने जो लोग वहाँ मौजूद थे, उन सबसे पूछा कि तुममें से स्वर्ग कौन जाना चाहता है? जो स्वर्ग जाना चाहते हैं, वे अपना हाथ खड़ा करें। सबने अपने-अपने हाथ खड़े कर दिये, मुल्ला नसरुद्दीन को छोड़कर और वह सामने की ही कतार में बैठा था।

ऐसा पहली बार ही हुआ था। उस धर्मगुरु ने यह सवाल बहुत से गाँवों में पूछा था और कभी ऐसा नहीं हुआ था कि जो सामने ही बैठा हो, उसने हाथ नहीं उठाया हो-स्वर्ग में जाने के लिए। इसलिए पहली बार उसे दूसरा सवाल पूछना पड़ा। उसने वह सवाल पहले कभी नहीं पूछा था। उसने पूछा कि नर्क में कौन जाना चाहता है? जो नर्क जाना चाहते हैं अब वे अपना हाथ उठायें। किसी ने भी हाथ नहीं उठाया। मुल्ला नसरुद्दीन ने भी नहीं उठाया। तब उस विद्वान ने पूछा कि तुम मेरी बात सुनते भी हो? क्या तुम बहरे हो? कहाँ जाना चाहते हो तुम? मैंने स्वर्ग के लिए पूछा, तुम चुप रहे, मैंने नर्क के लिए पूछा और तुम तब भी चुप रहे। आखिर तुम जाना कहाँ चाहते हो?

मुल्ला ने जवाब दिया कि बस दोनों के बीच में। मैं कहीं भी नहीं जाना चाहता क्योंकि मैं जानता हूँ उनको जो कि स्वर्ग जाते हैं और नर्क में गिर जाते हैं। मैं नर्क भी नहीं चुनता क्योंकि नर्क से तुम फिर कहाँ जा सकते हो? तुम सिर्फ स्वर्ग ही जा सकते हो। इसलिए संभव हो, तो कृपया मुझे दोनों के बीच में ही रहने दें। तभी मैं शान्ति से रह सकूँगा। अन्यथा तो असंभव है। स्वर्ग में नर्क आकर्षक हो जाता है। नर्क में स्वर्ग का आकर्षण खींचता है। इसलिए यदि संभव हो तो मुझे दोनों के बीच में रहने दें।

अचुनाव का यह ढंग है। धर्म अचुनाव है, चुनाव रहितता है। लेकिन हम चाहें तो नैतिकता की भाषामें सोचते रह सकते हैं। और उसे धर्म समझने की भूल कर सकते हैं। नैतिकता रोजमर्रा की बात है। और नैतिकता से तुम नैतिक जगत नहीं बना पाये। वस्तुतः आदमी जितना अधिक नैतिकता के प्रतिजागरूक होता है उतनी ही अनैतिकता बढ़ती चली जाती है। असल में मामला यह है कि तुम नैतिकता के प्रति अत्यधिक सजग हो गये हो। संसार अनैतिक नहीं हुआ है, आदमी नैतिकता के प्रति अधिक सजग हो गया है। इसलिए संसार इतना अनैतिक दिखलाई पड़ता है। यह एक सन्तुलन है।

अभी हम युद्ध की सब जगह निंदा कर रहे हैं। अब युद्ध समग्ररूप से अनैतिक बात है। क्या तुम्हें पता है कि इतिहास में पहले हमने युद्ध को इतनी निंदा कभी नहीं की? हमने युद्ध लड़े हैं, लेकिन हमने उनकी कभी निंदा नहीं की। पहली बार हमने युद्ध की इतनी निंदा की है और और हम एटम बम बना रहे हैं। ये दोनों बातें सन्तुलित कर रही हैं। जितना युद्ध अधिक संघातक हो जायेगा, उतने ही अधिक हम युद्ध के विरुद्ध हो जायेंगे। और जितने हम विरुद्ध हो जायेंगे, उतने ही अधिक युद्ध संघातक हो जायेंगे

इसलिए जिस बात को तुम जितना मना करते हो, उतना ही तुम उसे निर्मित भी करते हो। दुनिया इतनी गरीब कभी भी न थी। और हम एटम बम बना रहे हैं। ये दोनों बातें सन्तुलित कर रही हैं। जितना युद्ध अधिक संघातक हो जायेगा, उतने ही अधिक हम युद्ध संघातक हो जायेंगे।

इसलिए जिस बात को तुम जितना मना करते हो, उतना ही तुम उसे निर्मित भी करते हो। दुनिया इतनी गरीब कभी भी न थी। और जब मैं यह बात कहता हूँ तो मेरा मतलब है कि दुनिया अपनी गरीबी के प्रति इतनी सजग कभी भी नहीं थी। दुनिया सदा से गरीब थी, आज से भी ज्यादा गरीब। दुनिया हमेशा ही इससे भी ज्यादा गरीब थी। जितने पीछे हम जाएँ उतनी ही गरीब दुनिया हमें मिलेगी। लेकिन गरीबी स्वीकृत थी, और धनवान होना अनैतिक नहीं था। अब धनवान होना अनैतिक हो गया है। धनवान आदमी अपने को अपराधी समझता है। और तुम्हारे पास में जो गरीब रहता है, वह तुम्हारा पाप है। पहली बार हम इतने अधिक नैतिकवादी हुए है कि धनी होना भी अपराध है और चारों और जो गरीबी है, वह धनिकों के द्वारा किया गया पाप है।

यह एक बात है : बहुत अधिक सजगता, बहुत अधिक इसका बोध, बहुत अधिक नैतिकता। और साथ ही, जो गरीब थे, वे और भी गरीब हो गये हैं। आर्थिक दृष्टि से वे नहीं हुए, लेकिन अब गरीबी उनकी छाती पर बोझ जैसी लगती है। अतः जो भी हम करें, वह दो दिशाओं में चला जाता है। वह दोनों तरफ एक साथ बराबर चढ़ जाता है, और उसके कारण हमेशा एक सन्तुलन निर्धारित हो जाता है।

धर्म कोई समृद्ध जगत के लिये नहीं है। क्योंकि समृद्ध जगत गरीबी-गहन गरीबी के बिना हो नहीं सकता। सभी आयामों में तुम परिस्थिति बदल सकते हो, नये नाम दे सकते हो, और तब वही बात नया मुखौटा पहने फिर खड़ी हो जाएगी। धर्म तो एक सन्तुलित जगत के लिए है-न अमीर, न गरीब। इसे समझने की कोशिश करें : न अमीर, न गरीब, बल्कि एक सन्तुलित संसार जहाँ कि कोई भी गरीबी के प्रति सजग नहीं है; और न कोई धन के प्रति सजग है। इसलिए एक धार्मिक जगत, एक बहुत ही गहन घटना है। यह एक असंभव क्रान्ति जैसी प्रतीत होती है। ये ध्रवीय-विपरीततायेंह ैं और वे सदैव होंगी। तुम केवल इतना ही कर सकते हो कि तुम इनका अतिक्रमण कर जाओ।

उदाहरण के लिए, हम इसको एक दूसरी दिशा से देखें। आदमी सदा से मृत्यु से लड़ रहा है। मनुष्य का सारा इतिहास कुछ नहीं है, बल्कि मृत्यु के विरुद्ध युद्ध है। वैद्यक का इतिहास, मानव-मन का इतिहास, मृत्यु के खिलाफ लड़ाई है। अभी मने जीवन को लम्बा कर दिया है। अब आदमी ज्यादा-से-ज्यादा जी रहा है, किन्तु कोई भी मानव समाज मृत्यु से इतना डरा हुआ नहीं था, जितने कि हम डरे हुए हैं। अब, उन्होंने पश्चिम में इस पृथ्वी पर लम्बी-से-लम्बी जिन्दगी खोज ली है।

हमने सुना है और हम बात भी करते रहते हैं कि पुराने समय में, स्वर्ण युग में मनुष्य सौ साल तक जीता था। यह कोई तथ्य नहीं है। यह सिर्फ एक कल्पना है। लेकिन इसके पीछे भी वास्तविकता छिपी है। हर एक आदमी को ऐसा लगता था ि कवह सौ साल जी लिया क्योंकि पीछे कोई गिनता नहीं था। गिनना तो एक नई बात है। किसी का जन्म-दिन याद रखना बिल्कुल नई बात है। लेकिन, स्मरण रहे, जब भी तुम जन्म-दिन याद करोगे, मृत्य-दिवस भी सदा तुम्हारे सामने उपस्थित रहेगा।

कोई भी पशु मृत्यु से भयभीत नहीं है क्योंकि कोई भी पशु जन्म के प्रति सजग नहीं है। अविकसित समाज मृत्यु भी वैसे ही होती है, जैसे जन्म होता है, और इसमें किसी प्रकार की गिनती नहीं होती ि कवे कितने समय तक जिये। जितनी बारीक तुम्हारी गिनती होती है, उतने ही अधिक तुम मृत्यु से भयभीत हो जाते हो। अभी अमेरिका मृत्यु की गिरफ्त में है। सभी हैं, लेकिन अमेरिका सबसे ज्यादा है मृत्यु की पकड़ में क्योंकि समय का बोध शिखर पर पहुँच गया है। हर कोई ही सजग है। लम्बी-से-लम्बी जिन्दगी संभव है, लेकिन तब मृत्यु बहुत ज्यादा डरावनी हो जाती है। क्यों? यह एक गहरा सन्तुलन है।

यदि तुम अपने जीवन को लम्बाते जाओ तो तुम अपनी मृत्यु को भी लम्बा कर दोगे। यदि तुम लम्बे समय तक जीते हो, तो तुम्हारी मृत्यु भी लम्बा मामला ही जायेगा। दोनों साथ-साथ ही बराबर बढ़ते हैं। तुम बच नहीं सकते, तुम चुनाव नहीं कर सकते।

वास्तव में, हमने बीमारियों से लड़ने के सारे संभव उपाय खोज लिये हैं। लेकिन फिर भी आदमी बीमार है- पहले से अधिक बीमार है। क्यों? क्यों तुम्हारी दवाइयों की खोज की दिशा में की गई प्रगति, बीमारी की भी प्रगति हो जाती है?

कार्ल गुस्ताव जुंग ने एक बड़ा अद्भुत विचार प्रस्तुत किया है। वह उसे ‘सिन्क्रोनिसिटी’ कहता है। वह कहता है कि जो कुछ भी किया जाता है उसके समानान्तर जगत भी बनता जाता है। और तुम कुछ भी नहीं कर सकते। यदि ज्ञान बढ़ता है, तो अज्ञान भी गहरा होता जाएगा। यदि स्वास्थ्य बढ़ता है तो बीमारियाँ भी बढ़ेंगी।

यदि तुम अच्छे हो जाते हो, तो कहीं कोई बुरा हो जाता है। और उसमें कोई भी गलत बात नहीं है, यह सिर्फ सन्तुलन है। यह संसार सिर्फ अच्छे सन्तुलन है। यह संसार सिर्फ अच्छे आदमियों से ही नहीं चल सकता। तब यह संसार एक बहुत उबाने वाला हो जाएगा। क्या तुम एक ऐसे संसार की कल्पना कर सकते हो, जिसमें सिर्फ महात्मा-ही-महात्मा हों? सारा संसार फिर आत्महत्या कर लेगा, क्योंकि तब एक दिन के लिए जीना भी इतना मुश्किल मामला होगा। चारों तरफ महात्मा-ही-महात्मा। तुम उनके मारे ही मर जाओगे।

जीवन एक सतत द्वन्द्वात्मकता है। उस विपरीत छोर से ही उसमें समृद्धि आती है। क्योंकि दोनों विपरीत छोर एक साथ जीते हैं। धर्म इन दोनों में चुनाव नहीं करता है। धर्म सिर्फ इस द्वन्द्वात्मक को समझता है और तब अचुनाव का रूख रखता है, कुछ भी चुनना नहीं है।

एक धार्मिक आदमी चुनाव नहीं करता। वह बिना चुने ही रहता है। यदि वह स्वस्थ है तो वह स्वस्थ है, यदि वह बीमार है, तो वह बीमार है। जब वह बीमार है, तो वह अपनी बीमारी में प्रसन्न है। तब वह स्वास्थ्य के लिए आकांक्षा नहीं करता। जब वह स्वस्थ है, तो वह अपनी स्वस्थता से प्रसन्न है। वह उसके प्रति भी सजग नहीं है। वह इन दोनों विपरीत ध्रवों में आराम से घूमता रहता है-बिना किसी चुनाव के। और धीरे-धीरे उसका कंपन, उसका घूमना कम हो जाता है। वह कंन छोटा, और छोटा, और छोटा हो जाता है। और एक क्षण ऐसा आता है कि फिर कोई हलन-चलन नहीं होती, कोई कंपन नहीं होता। यह निश्चलता इस अ-चुनाव से ही आती है। यदि तुम चुनाव करते हो, तो तुम कंपोगे। तुम यहाँ-वहाँ डोलोगे। यदि तुम चुनाव करते हो, तो तुम विपरीत को निर्मित कर दोगे।

यह बड़ा विरोधाभासी लगता है, लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि अच्छे बनने की कोशिश मत करो, वरना तुम बरे हो जाओगे। कुछ भी होने की चेष्टा मत करो वरना तुम उसके बिल्कुल विपरीत हो जाओगे। बिना किसी चुनाव की स्थिति में रहो। अ-चुनाव का रुख रखो। जो भी होता है, उसे होने दो; उसे होने देने में मदद करो।

यह बहुत कठिन है। यदि क्रोध आता है, तो उसे होने दो, चुनाव मत करो। यदि प्रेम घटित होता है, तो उसे होने दो, चुनाव मत करो। और जल्दी ही एक दिन ऐसा आएगा, जबकि न क्रोध आएगा और न प्रेम घटित होगा। यदि तुम चुनाव करते हो, तो तुम पकड़ में हो। तब तुम चक्र में हो, और तब पकड़ स्वचलित है। तब तुम एक से दूसरे में बदलते रहोगे। और यह एक सतत दोहरानेवाली प्रक्रिया रहेगी। तब सारा जीवन ही एक कंपन, एक बिन्दु से दूसरे पर जाना हो जाना है। रस्से पर सरकसबाजी मत करो; उससे नीचे उतर जाओ।

इसे इस तरह से देखो, तुम जमीन पर चल रहे हो। तुम एक संकरी पट्टी पर भी चल सकते हो। हम एक पट्टी चॉक से बना देते हैं-जमीन पर एक सफेद पट्टी और तुम उस पर चल सकते हो, बिना दायें गये कि बायें झुके। क्यों? अब हम दो मकानों के बीच उतनी ही चौड़ी पट्टी लगा देते हैं, उनकी छत्तों से। अब उस पर चलो। तुम उस पर नहीं चल सकोगे। तुम जमीन पर उतनी ही पट्टी पर बड़ी आसानी से चल सकते थे संतुलन बनाकर। लेकिन जब उतनी ही बड़ी पट्टी दो छातों से लगा दी गई है तो तुम एक कदम भी नहीं चल सकते। क्यों?

अब तुम सजग हो गये हो कि तुम नीचे भी गिर सकते हो। अब तुमने कुछ चुनाव कर लिया है, तुमने नीचे नहीं गिरने का चुनाव किया है। अब तुम आराम से नहीं चल सकते। चुनाव है कि नीचे नहीं गिरना है। तुमने चुनाव कर लिया है। इस चुनाव के कारण ही हर एक कदम गिरने की तरफ होगा। इसलिए तुम्हें बायें और दायें चलना पड़ेगा सन्तुलन बनाये रखने के लिये।

जीवन एक रस्सी है- एक कहुत संकरी रस्सी। यदि तुम चुनाव करते हो, तो तुमने यहां-वहां जाने को चुन लिया, कंपन को चुन लिया। न तो अच्छा न बुरा-वही एक शुभ है। न यह न वहा, यही एक मात्र धर्म है। उपनिषदों ने कहा है- ‘नेति, नेति,’ न यह, व वह। तुम चुनाव मत करो। यह एक बिना प्रयासरहित समझना है। यह सिर्फ एक सरल समझ है।

 

भगवन्! अंतर्राष्ट्रीय नव-संन्यास में आप क्या कर रहे हैं? क्या आजा की दुनिया की अधार्मिक स्थिति का सन्तुलन कर रहे हैं, अथवा आप दूसरा विपरीत ध्रुव निर्मित कर रहे हैं?

 

दूसरा विपरीत ध्रुव निर्मित नहीं किया जा सकता क्योंकि नव-संन्यास कोई चुनाव नहीं है। यह संसार के विपरीत नहीं है। यदि संन्यास संसार के विपरीत हो, तो यह चुनाव है। इसलिए यदि संन्यास संसार के विरुद्ध है तो हम एक बहुत ही सांसारिक समाज निर्मित कर देंगे। हमने ऐसा भारत में किया है। ये पाँच हजार साल भारत में संन्यास के लिए जान-बूझकर चुनाव के थे। त्याग के। त्याग, संन्यास लक्ष्य था। और भारतीय मन को देखो-सर्वाधिक सांसारिक है-सारे संसार में। क्यों? क्योंकि हमने निरपेक्ष रूप से एक अलग समाज निर्मित करने की कोशिश की। लेकिन भारतीय मन को देखो : सबसे अधिक लोभी। हम कहते रहे कि धन का मतलब कुछ भी नहीं होता वह मिट्टी है, और देखो हमारे समाज को-धन ही वहाँ सब कुछ है।

ऐसा क्यों हुआ? यह एक जान-बूझकर किया गया चुनाव था। हम संसार के विरुद्ध बातें करते रहते हैं। और सांसारिक ढंग से जीते रहते हैं।

यही बात लौटकर उलटी तरह से पश्चिम में होगी। उन्होंने संसार को चुना है, और अब उनके बच्चे संसार के खिलाफ जा रहे हैं। समाज के खिलाफ, संस्था के खिलाफ, उस सबके खिलाफ जा रहे हैं जो भी कीमती है। अमेरिका का धन के पक्ष में खड़ा हुआ और उसके बच्चे हिप्पी हो रहे हैं। वे धन के विरुद्ध हैं। अमेरिका एक साफ-सुथरा समाज था-सफाई, स्वच्छता को परमात्मा के बाद नम्बर दो पर जगह दी जाती थी, और अब हिप्पी इसके खिलाफ जा रहे हैं। वे सर्वाधिक गन्दे हैं।

क्यों? यदि तुम किसी भी चीज़ के खिलाफ जाते हो, तोकुछ न कुछ ऐसा होगा जो कि उसे सन्तुलित करेगा। यदि तुम धन को चुनते हो, तो तुम्हारे बच्चे धन के खिलाफ होंगे। यदि तुम कोई दूसरा संसार चुनते हो तो तुम्हारे बच्चे यह संसार चुनेंगे।

नव-संन्यास कोई चुनाव नहीं है। यह एक गहरी स्वीकृति है, न कि चुनाव। ने तो ये पक्ष में ही है, और न विपक्ष में। यह एक गहरी समझ है-दोनों के बीच में रहने की। चुनना नहीं, सिर्फ जीना। चुनना नहीं, मात्र बहना। यदि तुम बह सको अपने भीतर एक गहरी स्वीकृति से तो देर-अबेर वह दिन आयेगा जब कि तुम दोनों का अतिक्रमण कर जाओगे। संसार और संन्यास-दोनों का। मेरे लिए संन्यास का अर्थ त्याग नहीं, बल्कि अतिक्रमण है।

आज इतना ही।  

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-28)

आत्म पूजा उपनिषद–भाग-2

दसवाँ प्रवचन–मैं ही ‘‘वह’’ हूँ

सूत्र:

सोऽहं भावो नमस्कारः।

मैं वही हूँ, यह भाव ही नमस्कार है।

अस्तित्व एक है। या कि कहें कि अस्तित्व एकता है, वन-नेस्ं। अलहिलाज मन्सूर को जिन्दा काट डाला गया क्योंकि उसने कहा कि मैं ही वह हूँ, मैं ही ब्रह्म हूँ, मैं ही परमात्मा हूँ, मैं ही हूँ वह-जिसने इस जगत का निर्माण किया। इस्लाम इस तरह की भाषा से बिल्कुल परिचित नहीं था। यह भाषा बुनियादी रूप से हिन्दू है। जब भी, जहाँ भी मनुष्य ने चिन्तन किया है मनुष्य एक द्वैत पर पहुँचा है : परमात्मा-सर्जक और संसार-सृजन। हिन्दू धर्म ने सबसे बड़ी हिम्मत का कदम उठाया यह कहकर कि जो सृजन है, वही सर्जक है। दोनों में बुनियादी भेद नहीं है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-28)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-27)

आत्म पूजा उपनिषद–भाग-2

नवाँ प्रवचन–दुःख-जागरण की एक विधि

प्रश्नसार:

यद्यपि ज्ञान दुःख के प्रति सजग करता है क्या फिर भी वह जीवन को एक गहराई नहीं देता?क्या बुद्ध की भाँति जीसस ने आंतरिक पूर्णचन्द्र चैतन्य की उस स्थिति को उपलब्ध कर लिया था?

भगवन्! आपने एक रात्रि कहा कि सजगता से ज्ञान होता है और ज्ञान आदमी को उसके भीतर की बहुत-सी समस्याओं, दुःखों के प्रति सजग करता है। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि सजगता और ज्ञान मनुष्य के जीवन को अधिक समृद्ध करते हैं, बढ़ाते हैं और एक गहराई देते हैं? Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-27)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-26)

आत्म-पूज़ा उपनिषद–भाग-2

आठवाँ प्रवचन –मौनके तीन आयाम

प्रश्न

  1. कृपया, आंतरिक स्थिरता को आंतरिक मौन के अलावा किसी और आयाम से भी समझायें?
  2. आज के मनुष्य के लिए आंतरिक स्थिरता कठिन क्यों हो गई है और उसके लिए क्या मार्ग है?

 

भगवन! कल रात्रि आपने आंतरिक स्थिरता को आंतरिक मौन के आयाम से समझाया। कृपया आंतरिक स्थिरता को किसी अन्य आयाम से भी समझाने की अनुकंपा करें?

स्थिरता के बहुत से आयाम हैं। एक है मौनः यह ध्वनि का विपरीत ध्रुव है। यह ध्वनि न होना है। दूसरा आयाम है अ-गति यह गति का विपरीत धूव है। मन एक गति है जैसे कि मन एक ध्वनि है। ध्वनि यात्रा करती है और मन भी। मन सतत चलता रहता है, बिना जरा भी रुके। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-26)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-25)

आत्म-पूज़ा उपनिषद-भाग-2

सातवाँ-प्रवचन

अन्तस्थ केन्द्र के मौन की ओर

तेरहवाँ सूत्र

निश्चलत्वं प्रदक्षिणम्।

निश्चलता ही प्रदक्षिणा है, अर्थात ‘उसकी’ पूजा के हेतु घूमने की प्रक्रिया है।

मौन ही ध्यान है। और मौन आधारभूत है किसी भी धार्मिक अनुभव के लिए। क्या है मौन? तुम उसे निर्मित कर सकते हो, तुम उसका अभ्यास भी कर सकते हो, तुम उसे आरोपित कर सकते हो। लेकिन तब वह केवल ऊपरी होगा, झुठा, कृत्रिम होगा। तुम उसका अभ्यास कर सकते हो, तुम उसका अभ्यास कर सकते हो और तुम उसे अनुभव करने लगोगे, तुम्हें उसकी प्रतीति होने लगेगी। परन्तु तुम्हारा अीयास उसे आत्म-सम्मोहन बना देता है। वह वास्तविक मौन नहीं होता। वास्तविक मौन तो तभी आता है जबकि तुम्हारा मन खो जाता है-किसी प्रयत्न के द्वारा नहीं, वरन समझ के द्वारा किसी अीयास के कारण नहीं, बल्कि एक आंतरिक सजगत के कारण। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-25)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-24)

आत्म-पूजा उपनिषद्-भाग-2

छठवाँ प्रवचन

बुद्धत्व मानव की परम स्वतंत्रता

प्रश्न

  1. ऐसा क्यों है कि कुछ ही लोग आंतरिक रूपान्तरण के लिए उत्सुक होते हैं?
  2. क्या आज का युग बुद्ध-पुरुषों को जन्म देने में सक्षम हैं?

भगवान! क्या कारण है कि बहुत थोड़े-से लोग ही जगत में आंतरिक ताप को आध्यात्मिक प्रकाश में रूपान्तरित करने के लिए उत्सुक होते हैं? क्या आपको ऐसा प्रतीत होता है कि आज का युग व पीढ़ी कृष्ण, लाओत्से व क्राइस्ट जैसे बुद्ध-पुरुषों को पैदा करने में सक्षम है? Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-24)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-23)

आत्म-पूजा उपनिषद-भाग-2

पांचवां–प्रवचन-

पूर्ण चन्द्रमा का नैवेद्य

सूत्र- भीतर के पूर्ण चन्द्र के अमृत को इकट्ठा करना ही नैवेद्य है।

तुमने ताओ की धारणा यिन तथा यांग के बारे में सुना होगा-जो कि एकही सत्य में दोध्रुवीय विरोधों की धारणा है। अस्तित्व ध्रुवीय विरोधों में जीता है-विधायक व निषेधात्मक विरोधों में, पुरुष वस्त्री में, यिन व यांग में।

सत्य अस्तित्व की एक द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया है। और जब मैं कहता हूँ द्वन्द्वात्मकप्रक्रिया तो मेरा मतलब है कि यह कोईसाधारण प्रक्रिया नहीं है। यह बडी जटिलप्रक्रिया है। एक सामान्य प्रक्रिया का मतलब होता है कि एक ही तत्त्व काम कररहा हैं, एक द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया का अर्थ है कि दोहैविपरीत ध्रुवों की शक्तियाँ एकही दिशा में कामकर रही हैं। और यद्यपि वे विरोधी दिखलाई पंड़ती है फिरभी वे एक सामंजस्य, एक संगीतपूर्ण लयबद्धता पैदा करती हैं। और वह लयबद्धताही अस्तित्व है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-23)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-22)

आत्म-पूज़ा उपनिषद-भाग-2

चौथा- प्रवचन

मनुष्य-चेतना के विकास में बुद्ध का योगदान

भगवन! मनुष्य की आंशिक चेतन ज़ीवन के पूर्ण विकास में एक तत्त्व है। उसकी चेतना को बढाने के लिए उसके ऐच्छिक प्रयासों का क्या महत्त्व हो सकता है?

कृपया यह भी समझायें कि मानव चेतना की वृद्धि के लिए बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्तियों का वया योगदान होता हैं?

विकास मूर्च्छा का हिस्सा है, वह अचेतन है। किसी इच्छा की आवश्यकतानहीं है, किसी सचेतन प्रयास की ज़रूरत नहीं है। वह बिल्कुल प्राकृतिक है। लेकिन, ज़ब एक बार चेतना विकसित ही ज़ाती है, तब दूसरी ही बात होज़ातीहैं। एक बार चेतना का प्रादुर्भाव हुआ कि विकास रुक ज़ाता है। विकास चेतनाके प्रादुर्भाव तक ही होता है, विकास का काम ही इतना है कि वह चेतना कोज़न्म दे दे। एक बार चेतना आ गई, कि विकास ठहर ज़ाता है। तब सारी ज़िम्मेवारीचेतना की होज़ाती है। इसलिए इसे कईं तरह से समझना पड़ेगा। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-22)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-21)

आत्म-पूजा उपनिषद-भाग-2

तीसरा–प्रवचन

सजगता के दीप

चैतन्य के सूर्य में स्थित होना ही एक मात्र दीपक है

एक दिन एक स्त्री मुल्ला नसरुद्दीन की पाठशाला में आई। उसके साथ उसका एक छोटा बच्चा भी था। उस स्त्री ने मुल्ला को उस लड़केको डराने के लिए कहा। वह लड़काबिगड़गया था और किसी की नहीं सुनता था। उसे किसी बड़ेअधिकारी के द्वारा डराने की जरूरत थी। मुल्ला वाकई अपने गाँव में एक बडा अघिकारी था। उसने एक बडी भयावह भाव-भंगिमा बनाई। उसकी आँखें बाहर निकल आईं और-उनसे आग निकलने लगी और वह स्वयं भी कूदने लगा, उस स्त्री ने देखा कि अब मुल्ला को रोकना असंभव है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-21)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-20)

आत्म-पूजा उपनिषद, (भाग-2)

दूूूूसरा–प्रवचन-बीसवां

ज्ञानवृक्ष का निषिद्ध फल : काम

प्रश्न:

  1. ज्ञान के वृक्ष के फल के लिए निषेध का गहरा अर्थ क्या है?
  2. केन्द्रित होने व आंतरिक रिक्तता में क्या संबंध है?

पहला प्रशन:

भगवान, ज्ञान के वृक्ष का फल खा लेने के बाद, आदम और ईव ने पहली बार अपनी नग्नता का अनुभव किया और लज्जित हुए। इस अनुभव के पीछे क्या गहरा अर्थ हैं? और, दूसरा, यह कहा जाता है कि ज्ञान के वृक्ष का निषेधित फल यौन का ही ज्ञान हैं, आपका इस संबंध में वया दृष्टिकोण है?

प्रकृति स्वयं अपने में निर्दोष हैँ, किन्तु जिस क्षण भी मनुष्य उसके प्रति जागता है बहुत-सी समस्याएँ उठ खड़ी होती है। और जो भी प्राकृतिक है और निर्दोष है, उसे अर्थ देने शुरू ही जाते हैं, तो फिर न वह प्राकृतिक रहता है और न ही निर्दोष। प्रकृति अपने-आप में निर्दोष है। परन्तु जब मनुष्यता होश से भरकर उसकी विवेचना करने लगती है, तो वह विवेचना ही बहुत-से दोषों, पापों, अनैतिकताओ के सिद्धान्त पैदा करने लगती है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-20)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-19)

आत्म-पूजा उपनिषद-भाग-2

पहला–प्रवचन

दसवाँ सूत्र

चिदग्नि स्वरूपं धूमः

स्वयं के भीतर चौतन्य की अग्नि कौ जलाना ही धूप है1

दर्शनशास्त्र के लिए बहुत-सी समस्याएँ हैं-अंत्तहीन। किन्तु घर्म के लिए सिर्फ एक ही समस्या है और वह समस्या है-स्वयं आदमी। ऐसा नहीं है किआदमी की समस्याएँ हैं, परन्तु आदमी स्वयं हो एक समस्या है। तब प्रश्न उठताहै कि आदमी समस्या क्यों है?

पशु समस्याएँ नहीं हैं। वे इतने मूच्छित्त हैं, आनन्दपूर्वक बेहोश हैं, अचेत हैं कि उनके लिए समस्याओं के प्रति सजग होने की कोई संभावना ही नहीं है। समस्याएँ तो हैं, किन्तु पशुओ को उसका कोई भी पता नहीं। देवताओं के लिए भी कोई समस्याएँ नहीं हैं क्योंकि वे पूर्णरूप से सजग हैं। जब मन पूर्णरूप सेजाग जाता है, तब समस्याएँ ऐसे ही विलीन हो जाती हैं जैसे कि प्रकाश होने पर अन्धकार। लेकिन आदमी के लिए पीड़ा है। आदमी का होना ही, उसका अस्तित्वही एक समस्या है, क्योंकि आदमी इन दो के बीच जीता है, वह पशु भी हैऔर देवता भी। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-19)”

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