ताओ उपनिषद-प्रवचन-043

धर्म है–स्वयं जैसा हो जाना—(प्रवचन—तैंतालीसवां)

प्रश्न-सार

1-क्या रुकने के लिए दौड़ना जरूरी नहीं?

2-सांसारिक और आध्यात्मिक वासना में भेद क्या?

3-क्या सत्य साधारण लोगों के लिए नहीं है?

4-आत्म-हीनता और आत्म-विश्वास क्यों?

5-क्या ऐसी शिक्षा संभव है जो आवरण न बने?

6-जिज्ञासा के लिए क्या पूर्व-ज्ञान आवश्यक नहीं है?

7-क्या स्व-बोध आनंद-स्वरूप है?

8-हम धार्मिक ही क्यों हों?

एक मित्र ने पूछा है: क्या रुकने के लिए दौड़ना जरूरी नहीं है? Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-043”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-042

आध्यात्मिक वासना का त्याग व सरल स्व का उदघाटन—(प्रवचन—बयालिसवां)

अध्याय 19 : सूत्र 2

स्वयं को जानो

लेकिन ये तीनों ही बाह्य हैं और अपर्याप्त हैं;

लोगों को संबल के लिए कुछ और भी चाहिए:

(इसके लिए) तुम अपने सरल स्व का उदघाटन करो,

अपने मूल स्वभाव का आलिंगन करो,

अपनी स्वार्थपरता त्यागो,

अपनी वासनाओं को क्षीण करो।

बुद्धिमत्ता और ज्ञान, मानवता और न्याय, चालाकी और उपयोगिता, इन सब को छोड़ देना नकारात्मक है। इनका छोड़ना जरूरी है, लेकिन काफी नहीं; आवश्यक है, लेकिन पर्याप्त नहीं। विधायक को भी प्रकट करना होगा, पाजिटिव को भी प्रकट करना होगा। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-042”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-041

सिद्धांत व आचरण में नहीं, सरल-सहज स्वभाव में जीना–प्रवचन–इकतालिसवां

अध्याय 19 : सूत्र 1

स्वयं को जानो

  1. बुद्धिमत्ता को छोड़ो, ज्ञान को हटाओ,

और लोग सौ गुना लाभान्वित होंगे;

मानवता को छोड़ो, न्याय को हटाओ,

और लोग अपनों को पुनः प्रेम करने लगेंगे;

चालाकी छोड़ो, उपयोगिता को हटाओ,

और चोर तथा लुटेरे अपने आप ही लुप्त हो जाएंगे। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-041”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-040

ताओ के पतन पर सिद्धांतों का जन्म—(प्रवचन—चालीसवां)

अध्याय 18 : सूत्र 1

ताओ का पतन

महान ताओ के पतन पर,

मानवता और न्याय के सिद्धांत का उदय हुआ।

और जब ज्ञान और होशियारी का जन्म हुआ,

तब पाखंड भी अपनी पूरी तीव्रता में सक्रिय हो गया।

जब संबंधों के बीच शांति असंभव हो गई,

तब दयालु माता-पिता और आज्ञाकारी पुत्रों की प्रशंसा शुरू हुई।

और जब देश में कुशासन और अराजकता छा गई,

तब स्वामिभक्त मंत्रियों की प्रशंसा होने लगी।

जीवन की अत्यंत कठिन पहेली के संबंध में यह सूत्र है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-040”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-039

श्रेष्ठ शासक कौन?–जो परमात्मा जैसा हो–(प्रवचन–उनतालीसवां)

 अध्याय 17 : खंड 1

शासक

सर्वश्रेष्ठ शासक कौन है?

जिसके होने की भी खबर प्रजा को न हो;

उससे कम श्रेष्ठ को प्रजा प्रेम और प्रशंसा देती है;

उससे भी कम से वह डरती है;

और सब से घटिया शासक की वह निंदा करती है।

जब शासक प्रजा की श्रद्धा के पात्र नहीं रह जाते,

और प्रजा उनमें विश्वास नहीं करती,

तब ऐसे शासक शपथों का सहारा लेते हैं!

लेकिन जब श्रेष्ठ शासक का काम पूरा हो जाता है,

तब प्रजा कहती है: “यह हमने स्वयं किया है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-039”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-038

ताओ का द्वार–सहिष्णुता व निष्पक्षता—(प्रवचन—अड़तीसवां)

अध्याय 16 : सूत्र 2

शाश्वत नियम का ज्ञान

जो शाश्वत नियम को जान लेता है, वह सहिष्णु हो जाता है;

सहिष्णु होकर वह निष्पक्ष हो जाता है;

निष्पक्ष होकर वह सम्राट जैसी गरिमा को उपलब्ध होता है;

इस गरिमा के साथ प्रतिष्ठित हो वह हो जाता है स्वभाव के साथ अनुरूप;

स्वभाव के अनुरूप हुआ वह ताओ में प्रविष्ट होता है;

ताओ में प्रविष्ट वह अविनाशी है;

और इस प्रकार उसका समग्र जीवन दुख के पार हो जाता है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-038”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-037

निष्क्रियता, नियति व शाश्वत नियम में वापसी—(प्रवचन—सैतीसवां)

अध्याय 16 : सूत्र 1

शाश्वत नियम का ज्ञान

निष्क्रियता की चरम स्थिति को उपलब्ध करें,

और प्रशांति के आधार से दृढ़ता से जुड़े रहें।

सभी चीजें रूपायित होकर सक्रिय होती हैं;

लेकिन हम उन्हें विश्रांति में पुनः वापस लौटते भी देखते हैं।

जैसे वनस्पति-जगत लहलहाती वृद्धि को पाकर

फिर अपनी उदगम-भूमि को लौट जाता है।

उदगम को लौट जाना विश्रांति है;

इसे ही अपनी नियति में वापस लौटना कहते हैं। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-037”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-036

तटस्थ प्रतीक्षा, अस्मिता-विसर्जन व अनेकता में एकता—(प्रवचन—छतीसवां)

प्रश्न-सार

01-साधना में प्रतीक्षा का क्या महत्व है?

02-अहंकार और अस्मिता में क्या अंतर है?

03-सत्य की निषेधात्मक और विधायक अभिव्यक्तियां क्या हैं?

04-शांति, अशांति और समता क्या हैं?

05-लाओत्से और कृष्ण के व्यवहार में इतनी भिन्नता क्यों?

पहला प्रश्न:

भगवान श्री, जल के निर्मल होने की प्रतीक्षा मैं बारह वर्षों से कर रहा हूं। किंतु परिस्थितियों की गाड़ियां तो गुजरती रहती हैं; और यह आजीवन होता रहेगा। फिर भी क्या प्रतीक्षा करता रहूं? Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-036”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-035

विश्रांति से समता व मध्य मार्ग से मुक्ति—(प्रवचन—पैंतीसवां)

अध्याय 15 : खंड 2

पुराने समय के संत

इस अशुद्धि व अशांति से भरे संसार में कौन विश्रांति को उपलब्ध होता है?

जो स्थिरता में रुक कर अशुद्धियों को बह जाने देता है।

कौन अपनी समता व शांति को सतत बनाए रख सकता है?

जो प्रत्येक सक्रियता के बाद सहज ही घटित होने वाले विश्राम के राज को जान लेता है।

अतः जो व्यक्ति ताओ को उपलब्ध होता है,

वह हमेशा स्वयं को अति पूर्णता से बचाता है।

और चूंकि वह अति पूर्णता से बचा रहता है,

इसलिए वह क्षय और पुनर्जीवन के पार चला जाता है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-035”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-034

संत की पहचान: सजग व अनिर्णीत, अहंशून्य व लीलामय—(प्रवचन—चौंतीसवां) 

अध्याय 15 : खंड 1

प्राचीन समय के संतजन

प्राचीन समय में ताओ में प्रतिष्ठित एवं निष्णात संतजन सूक्ष्म

और अति संवेदनशील अंतर्दृष्टि से उसके रहस्यों को समझने में

सफल हुए। और वे इतने गहन थे कि मनुष्य की समझ के परे थे।

और चूंकि वे मनुष्य के ज्ञान के परे थे, इसलिए उनके संबंध में

इस प्रकार कुछ कहने का प्रयास किया जा सकता है कि वे अत्यंत

सतर्क व सजग हैं, जैसा कोई शीत-ऋतु में किसी नाले को पार करते

समय हो; वे सतत अनिर्णीत व चौकन्ने रहते हैं, जैसा कि

कोई व्यक्ति जो कि सब ओर खतरों से घिरा हो; Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-034”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-033

अक्षय व निराकार, सनातन व शून्यता की प्रतिमूर्ति—(प्रवचन—तैतीसवां)

अध्याय 14 : खंड 2

पूर्व-ऐतिहासिक स्रोत

न उसके प्रकट होने पर होता प्रकाश,

न उसके डूबने पर होता अंधेरा।

ऐसा है वह अक्षय और अविच्छिन्न रहस्य,

जिसकी परिभाषा संभव नहीं है।

और पुनः-पुनः वह शून्यता के आयाम में प्रविष्ट हो जाता है।

इसीलिए निराकार ही उसका आकार कहा जाता है।

वह शून्यता की प्रतिमूर्ति है।

इन सब कारणों से उसे दुर्गम्य भी कहा जाता है।

उससे मिलो, फिर भी उसका चेहरा दिखाई नहीं पड़ता;

उसका अनुगमन करो, फिर भी उसकी पीठ दिखाई नहीं पड़ती।

वर्तमान कार्यों के समापन के लिए जो व्यक्ति पुरातन व

सनातन ताओ को सम्यकरूपेण धारण करता है,

वह उस आदि स्रोत को जानने में सक्षम हो जाता है

जो कि ताओ का सातत्य है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-033”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-032

अदृश्य, अश्राव्य व अस्पर्शनीय ताओ—(प्रवचन—बत्‍तीसवां)

अध्याय 14 : खंड 1

पूर्व-ऐतिहासिक स्रोत

उसे देखें, फिर भी वह अनदिखा रह जाता है;

इसीलिए उसे अदृश्य कहा जाता है।

उसे सुनें, फिर भी वह अनसुना रह जाता है;

इसीलिए उसे अश्राव्य कहा जाता है।

उसे समझें, फिर भी वह अछूता रह जाता है;

इसीलिए उसे अस्पर्शनीय कहा जाता है।

इस प्रकार वह अदृश्य, अश्राव्य और अस्पर्शनीय

हमारी जिज्ञासा की पकड़ से छूट जाता है;

और वह दुर्ग्राह्य बना रहता है।

स्तित्व के परम रहस्य के संबंध में यह सूत्र है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-032”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-031

अहंकार-शून्य व्यक्ति ही शासक होने योग्य—(प्रवचन—इक्‍कतीसवां)

अध्याय 13 : सूत्र 2

प्रशंसा और निंदा

इसका क्या अर्थ है कि सम्मान और अपमान दोनों ही

स्वयं के भीतर हैं?

हम इस कारण भयभीत होते हैं,

क्योंकि हमने अहंकार को ही अपना होना समझ लिया है।

जब हम अहंकार को ही अपनी आत्मा नहीं मानते,

तो डर किस बात का होगा?

इसलिए जो व्यक्ति संसार को उतना ही सम्मान दे,

जितना कि स्वयं को, तो ऐसे व्यक्ति के

हाथ में संसार का शासन सौंपा जा सकता है।

और जो संसार को उतना ही प्रेम करे, जितना स्वयं को,

तो उसके हाथों में संसार की सुरक्षा सौंपी जा सकती है।

कल के सूत्र के संबंध में एक प्रश्न है। प्रश्न महत्वपूर्ण है, मात्र जिज्ञासा के कारण नहीं, बल्कि साधना की दृष्टि से भी। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-031”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-030

एक ही सिक्के के दो पहलू: सम्मान व अपमान, लोभ व भय—(प्रवचन—तीसवां)

अध्याय 13 : खंड 1

निंदा और प्रशंसा

सम्मान और अपमान, दोनों से हमें निराशा मिलती है;

हम जिसे मूल्यवान समझते हैं और जिससे भयभीत होते हैं,

वे दोनों ही हमारे स्वयं के भीतर हैं।

सम्मान और अपमान के संबंध में ऐसा कहने का क्या अर्थ है?

सम्मान-प्राप्ति के बाद निम्न स्थिति में होना ही अपमान है।

सम्मान की उपलब्धि से उसे खोने का भय पैदा होता है;

और उसे खोने पर और अधिक संकटों के भय का जन्म होता है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-030”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-029

ताओ की साधना–योग के संदर्भ में—(प्रवचन—उन्‍नतीसवां)

प्रश्न-सार

1-योग और ताओ में भेद व समानता।

2-ताओ की नाभि केंद्र की साधना।

3-लाओत्से की अक्रिया और कृष्ण के कर्म में भेद।

4-ताओ की अयात्रा और यात्रा क्या है?

5-प्रकृति बुराई क्यों करती है?

बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। एक प्रश्न दोत्तीन मित्रों ने पूछा है और स्वाभाविक है कि आपके मन में भी उठे।

योग ऊर्ध्वगमन की पद्धति है, ऊर्जा को, शक्ति को ऊपर की ओर ले जाना है। और लाओत्से की पद्धति ठीक विपरीत मालूम पड़ती है–ऊर्जा को नीचे की ओर, नाभि की ओर लाना है। तो प्रश्न उठना बिलकुल स्वाभाविक है कि इन दोनों पद्धतियों में कौन सी पद्धति सही है? Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-029”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-028

एंद्रिक भूख की नहीं– नाभि-केंद्र की आध्यात्मिक भूख की फिक्र—(प्रवचन—अठाईसवां)

अध्याय 12 : सूत्र 1

पंचेंद्रियां

पंच रंग मनुष्य की आंखों को अंधा कर जाते हैं;

पंच स्वर उसके कानों को बहरा कर जाते हैं;

पंच स्वाद उसकी रुचि को नष्ट कर देते हैं;

घुड़दौड़ और शिकार उसके मन को पागल कर देते हैं;

दुर्लभ और विचित्र पदार्थों की खोज उसके आचरण को भ्रष्ट कर देती है।

इस कारण संत बहिर नेत्रों की दुष्पूर आकांक्षाओं की तृप्ति नहीं,

वरन उस भूख की चिंता करते हैं, जो नाभि के अंतरस्थ केंद्र में निहित है।

संत एक का निषेध और दूसरे का समर्थन करते हैं। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-028”

ताओ उपनिषद-प्रवचन-027

अनस्तित्व और खालीपन है आधार सब का—(प्रवचन—सताईसवां)

अध्याय 11 : सूत्र 1

अनस्तित्व की उपयोगिता

पहिए की तीसों तीलियां उसके मध्य भाग में आकर जुड़ जाती हैं,

किंतु पहिए की उपयोगिता धुरी के लिए छोड़ी गई खाली जगह पर निर्भर होती है।

मिट्टी से घड़े का निर्माण होता है, किंतु उसकी उपयोगिता

उसके शून्य खालीपन में निहित है।

दरवाजे और खिड़कियों को, दीवारों में काट कर प्रकोष्ठ बनाए जाते हैं,

किंतु कमरे की उपयोगिता उसके भीतर के शून्य पर अवलंबित होती है।

इसलिए, वस्तुओं का विधायक अस्तित्व तो लाभकारी सुविधा देता है,

परंतु उनके अनस्तित्व में ही उनकी वास्तविक उपयोगिता है। Continue reading “ताओ उपनिषद-प्रवचन-027”

ताओ उपनिषाद-प्रवचन-026

ताओ की अनुपस्थित उपस्थिति—(प्रवचन—छबीसवां)

अध्याय 10 : सूत्र 3

अद्वय की स्वीकृति

(क्रमशः)

ताओ सभी पदार्थों को जन्म देता है और भरण-पोषण करता है;

वह उनका जन्मदाता है, फिर भी अपने मालिक होने का दावा नहीं करता।

वह सब कुछ करता है, फिर भी उसे ऐसा करने का दंभ नहीं है;

वह सभी वस्तुओं का सर्वेसर्वा (अध्यक्ष) है, फिर भी उन्हें नियंत्रित नहीं करता।

इसे ही ताओ की रहस्यमयी विशेषता कहते हैं।

स्तित्व में जो जितना ही सूक्ष्म है, उतना ही अदृश्य है; जितना स्थूल है, उतना दृश्य है। जो दिखाई पड़ता है, वह उथला है; जो नहीं दिखाई पड़ता, वही गहरा है। इसलिए जो लोग परमात्मा को देखने निकल पड़ते हैं, वे बुनियादी भूल में पड़ जाते हैं। ईश्वर-दर्शन शब्द ही असंगत है। जो दिखाई पड़ सकता है, वह ईश्वर नहीं होगा। जो दिखाई पड़ जाए, वह दिखाई पड़ जाने के कारण ही ईश्वर नहीं रह जाएगा। Continue reading “ताओ उपनिषाद-प्रवचन-026”

ताओ उपनिषाद-प्रवचन-025

 आमंत्रण भरा भाव व नमनीय मेधा—(प्रवचन—पचीसवां)

अध्याय 10 : सूत्र 2

अद्वय की स्वीकृति

जनसमूह के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने में और शासन के

व्यवस्थापन की प्रक्रिया में क्या वह सोद्देश्य

कर्म के बिना अग्रसर नहीं हो सकता?

क्या वह स्वर्ग के अपने दरवाजे (नासारंध्र)

को खोलने और बंद करने में एक स्त्रैण

पक्षी की तरह काम नहीं कर सकता?

जब उसकी मेधा सभी दिशाओं की ओर अभिमुख हो,

तब क्या वह ज्ञानरहित होने जैसा नहीं दिख सकता? Continue reading “ताओ उपनिषाद-प्रवचन-025”

ताओ उपनिषाद-प्रवचन-024

शरीर व आत्मा की एकता, ताओ की प्राण-साधना व अविकारी स्थिति—(प्रवचन—चौबीसवां)

अध्याय 10 : सूत्र 1

अद्वय की स्वीकृति

यदि बौद्धिक और एंद्रिक आत्माओं को एक

ही आलिंगन में आबद्ध रखा जाए,

तो उन्हें पृथक होने से बचाया जा सकता है।

जब कोई अपनी प्राणवायु को अपनी ही एकाग्रता

द्वारा नमनीयता की चरम सीमा तक पहुंचा दे,

तो वह व्यक्ति शिशुवत कोमल हो जाता है।

जब वह कल्पना के अतिशय रहस्यमय दृश्यों

को झाड़-पोंछ कर साफ कर लेता है, तो वह निर्विकार हो जाता है। Continue reading “ताओ उपनिषाद-प्रवचन-024”

ताओ उपनिषाद-प्रवचन-023

ताओ उपनिषद—(भाग-2) ओशो

(ओशो द्वारा लाओत्‍से के ‘ताओ तेह किंग’ पर दिए गए 127 प्रवचनों में से 21 (तेईस से तैंतालीस) अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

लाओत्‍से ने जो भी कहा है, वह पच्‍चीस सौ साल पुराना जरूर है, लेकिन एक अर्थों में इतना ही नया है। जैसे सुबह की ओस की बूंद नई होती है। नया इसलिए है कि उस पर अब तक प्रयोग नहीं हुआ। नया इसलिए है कि मनुष्‍य की आत्‍मा उस रास्‍ते पर एक कदम भी अभी नहीं चली। रास्‍ता बिलकुल अछूता और कुवांरा है।

पुराना इसलिए है कि पच्‍चीस सौ साल पहले लाओत्‍से ने उसके संबंध में खबर दी। लेकिन नया इसलिए है कि उस खबर को अब तक सुना नहीं गया है। और आज उस खबर को सुनने की सर्वाधिक जरूरत आ गई है। जितनी कि कभी नहीं थी।

ओशो

सफलता के खतरे, अहंकार की पीड़ा और स्वर्ग का द्वार—(प्रवचन—तेईसवां)

अध्याय 9 : सूत्र 1 व 2

आशातीत सफलता के खतरे

  1. किसी भरे हुए पात्र को ढोने की कोशिश करने की

अपेक्षा उसे अधजल छोड़ना ही श्रेयस्कर है।

यदि आप तलवार की धार को बार-बार महसूस करते रहें,

तो दीर्घ अवधि तक उसकी तीक्ष्णता नहीं टिक सकती।

  1. सोने और हीरे से जब भवन भर जाता है,

तब मालिक उसकी रक्षा नहीं कर सकता है।

जब समृद्धि और सम्मान से घमंड उत्पन्न होता है,

तब वह स्वयं के लिए अमंगल का कारण बन जाता है।

कार्य की सफल निष्पत्ति के अनंतर जब कर्ता का यश

फैलने लगे, तब उसका अपने को ओझल बना लेना ही स्वर्ग का मार्ग है।

जीवन एक गणित नहीं है; गणित से ज्यादा एक पहेली है। और न ही जीवन एक तर्क-व्यवस्था है; तर्क-व्यवस्था से ज्यादा एक रहस्य है।

गणित का मार्ग सीधा-साफ है। पहेली सीधी-साफ नहीं होती। और सीधी-साफ हो, तो पहेली नहीं हो पाती। और तर्क की निष्पत्तियां बीज में ही छिपी रहती हैं। तर्क किसी नई चीज को कभी उपलब्ध नहीं होता। रहस्य सदा ही अपने पार चला जाता है।

लाओत्से इन सूत्रों में जीवन के इस रहस्य की विवेचना कर रहा है। इसे हम दो तरह से समझें।

एक तो हम कल्पना करें कि एक व्यक्ति एक सीधी रेखा पर ही चलता चला जाए, तो अपनी जगह कभी वापस नहीं लौटेगा। जिस जगह से यात्रा शुरू होगी, वहां कभी वापस नहीं आएगा, अगर रेखा उसकी यात्रा की सीधी है। लेकिन अगर वर्तुलाकार है, तो वह जहां से चला है, वहीं वापस लौट आएगा। अगर हम यात्रा सीधी कर रहे हैं, तो हम जिस जगह से चले हैं, वहां हम कभी भी नहीं आएंगे। लेकिन अगर यात्रा का पथ वर्तुल है, सरकुलर है, तो हम जहां से चले हैं, वहीं वापस लौट आएंगे।

तर्क मानता है कि जीवन सीधी रेखा की भांति है। और रहस्य मानता है कि जीवन वर्तुलाकार है, सरकुलर है। इसलिए पश्चिम, जहां कि तर्क ने मनुष्य की चेतना को गहरे से गहरा प्रभावित किया है, जीवन को वर्तुल के आकार में नहीं देखता। और पूरब, जहां जीवन के रहस्य को समझने की कोशिश की गई है–चाहे लाओत्से, चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध–वहां हमने जीवन को एक वर्तुल में देखा है। वर्तुल का अर्थ है कि हम जहां से चलेंगे, वहीं वापस पहुंच जाएंगे। इसलिए संसार को हमने एक चक्र कहा है, दि व्हील। संसार का अर्थ ही चक्र होता है। यहां कोई भी चीज सीधी नहीं चलती, चाहे मौसम हों, चाहे आदमी का जीवन हो। जहां से बच्चा यात्रा शुरू करता है जीवन की, वहीं जीवन का अंत होता है। बच्चा पैदा होता है, तो पहला जीवन का जो चरण है, वह है श्वास। बच्चा श्वास लेता पैदा नहीं होता, पैदा होने के बाद श्वास लेता है। कोई आदमी श्वास लेता हुआ नहीं मरता, श्वास छोड़ कर मरता है। जिस बिंदु से जन्म शुरू होता है, जीवन की यात्रा शुरू होती है, वहीं मृत्यु उपलब्ध होती है। जीवन एक वर्तुल है। इसका अगर ठीक अर्थ समझें, तो लाओत्से की बात समझ में आ सकेगी।

लाओत्से कहता है, सफलता को पूरी सीमा तक मत ले जाना, अन्यथा वह असफलता हो जाएगी। अगर सफलता को तुम पूरा ले गए, तो तुम अपने ही हाथों उसे असफलता बना लोगे। और अगर यश के वर्तुल को तुमने पूरा खींचा, तो यश ही अपयश बन जाएगा।

यदि जीवन एक रेखा की भांति है, तो लाओत्से गलत है। और अगर जीवन एक वर्तुल है, तो लाओत्से सही है। इस बात पर निर्भर करेगा कि जीवन क्या है, एक सीधी रेखा?

इसलिए पूरब ने इतिहास नहीं लिखा। पश्चिम ने इतिहास लिखा है। क्योंकि पश्चिम मानता है कि जो घटना एक बार घटी है, वह दुबारा नहीं घटेगी, अनरिपीटेबल है। प्रत्येक घटना अद्वितीय है। इसलिए जीसस का जन्म अद्वितीय है, दुबारा नहीं होगा। और जीसस पुनरुक्त नहीं होंगे। इसलिए सारा इतिहास जीसस से हिसाब रखता है। जीसस के पहले और जीसस के बाद, सारी दुनिया में इतिहास को हम नापते हैं। ऐसा हम राम के साथ नहीं नाप सकते। हम ऐसा नहीं कह सकते कि राम के पूर्व और राम के बाद। क्योंकि पहली तो बात यह है कि हमें यह भी पक्का नहीं कि राम कब पैदा हुए। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम, जो राम का पूरा जीवन बचा सकते थे, वे उनके जन्म की तिथि नहीं बचा सकते थे। यह बहुत समझने जैसी बात है। पूरब ने कभी इतिहास लिखना नहीं चाहा, क्योंकि पूरब की दृष्टि यह है कि कोई भी चीज अद्वितीय नहीं है, सभी चीजें वर्तुल में वापस-वापस लौट आती हैं। राम हर युग में होते रहे और हर युग में होते रहेंगे। नाम बदल जाए, रूप बदल जाए, लेकिन वह जो मौलिक घटना है, वह नहीं बदलती। वह पुनरुक्त होती रहती है।

इसलिए एक बहुत मीठी कथा है और वह यह कि वाल्मीकि ने राम के जन्म के पहले कथा लिखी; पीछे राम हुए। ऐसा दुनिया में कहीं भी सोचा भी नहीं जा सकता। राम हुए बाद में, वाल्मीकि ने कथा लिखी पहले। क्योंकि राम का होना, पूरब की दृष्टि में, एक वर्तुलाकार घटना है। जैसे एक चाक घूमता है, तो उस चाक में जो हिस्सा अभी ऊपर था, अभी नीचे चला गया, फिर ऊपर आ जाएगा, फिर ऊपर आता रहेगा। जैन कहते हैं कि हर कल्प में उनके चौबीस तीर्थंकर होते रहेंगे। नाम बदलेगा, रूप बदलेगा, लेकिन तीर्थंकर के होने की घटना पुनरुक्त होती रहेगी।

इसलिए पूरब ने इतिहास नहीं लिखा; पूरब ने पुराण लिखा। पुराण का अर्थ है: वह जो सारभूत है, जो सदा होता रहेगा, बार-बार होता रहेगा। इतिहास का अर्थ है कि जो दुबारा कभी नहीं होगा। अगर जीवन एक वर्तुल में घूम रहा है, तो फिर यह बार-बार हिसाब रखने की जरूरत नहीं कि राम कब पैदा होते हैं और कब मर जाते हैं। राम के होने का क्या अर्थ है, इतना ही याद रखना काफी है। राम का सारभूत व्यक्तित्व क्या है, इतना ही याद रखना काफी है। फिर ये बातें गौण हैं कि शरीर कब श्वास लेना शुरू करता है और कब बंद कर देता है। ये बातें अर्थपूर्ण नहीं हैं। हम उन्हीं चीजों को याद रखने की कोशिश करते हैं, जो दुबारा नहीं दुहरती हैं। जो रोज ही दुहरने वाली हैं, उनको याद रखने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।

तो पूरब की समझ जीवन को एक वर्तुलाकार देखने की है। और यह समझ महत्वपूर्ण भी है। क्योंकि इस जगत में जितनी गतियां हैं, सभी वर्तुलाकार हैं। गति मात्र वर्तुल में है–चाहे चांदत्तारे घूम रहे हों, चाहे पृथ्वी घूम रही हो, चाहे मौसम घूम रहा हो, चाहे व्यक्ति का जीवन घूम रहा हो–इस जगत में ऐसी कोई भी गति नहीं है, जो सीधी हो। इस जगत में जहां भी गति है, वहां वर्तुल अनिवार्य है। तो अकेला जीवन के संबंध में अपवाद नहीं होगा।

लेकिन वर्तुल का अपना तर्क है; और वर्तुल का अपना रहस्य है। और वह यह है कि जहां से हम शुरू करते हैं, वहीं हम वापस पहुंच जाते हैं। और जब हमारा मन होता है कि हम और जोर से आगे बढ़े चले जाएं, तो हमें पता नहीं होता कि हमारे आगे बढ़े जाने में एक जगह से हमने पीछे लौटना शुरू कर दिया है। एक लिहाज से जवानी बुढ़ापे के बहुत विपरीत है। लेकिन एक अर्थ में बहुत विपरीत नहीं है, क्योंकि जवानी सिर्फ बुढ़ापे में ही पहुंचती है, और कहीं पहुंचती नहीं। तो जितना आदमी जवान होता जा रहा है, उतना बूढ़ा होता जा रहा है।

और यह बात लाओत्से कहता है, “किसी भरे हुए पात्र को ढोने की कोशिश करने की बजाय उसे अधभरा ही छोड़ देना श्रेयस्कर है।’

क्योंकि जब भी कोई चीज भर जाती है, तो अंत आ जाता है। वह कुछ भी हो, अकेला पात्र ही नहीं, पात्र तो केवल विचार के लिए है। कोई भी चीज जब भर जाती है, तो अंत आ जाता है। अगर प्रेम भी भर जाए, तो प्रेम का अंत आ जाता है। जो चीज भी भर जाती है, वह मर जाती है। असल में, भर जाना मर जाने का लक्षण है। पक जाना गिर जाने की सूचना है। फल जब पक जाएगा, तो गिरेगा ही। तो जब भी हम किसी चीज को पूरा कर लेते हैं, तभी समाप्त हो जाती है।

तो लाओत्से कहता है कि जीवन के सत्य को अगर समझना हो, तो ध्यान रखना, किसी पात्र को भरने की बजाय अधभरा रखना ही श्रेयस्कर है।

लेकिन बड़ा कठिन है, अति कठिन है, क्योंकि जीवन की सभी प्रक्रियाएं भरने के लिए आतुर हैं। जब आप अपनी तिजोरी भरना शुरू करते हैं, तो आधे पर रुकना मुश्किल है। तिजोरी तो दूर है, जब आप अपने पेट में भोजन डालना शुरू करते हैं, तब भी आधे पर रुकना मुश्किल है। जब आप किसी को प्रेम करना शुरू करते हैं, तो आधे पर रुकना मुश्किल है। जब आप सफल होना शुरू करते हैं, तो आधे पर रुकना मुश्किल है। महत्वाकांक्षा आधे पर कैसे रुक सकती है? सच तो यह है, जब महत्वाकांक्षा आधे पर पहुंचती है, तभी प्राणवान होती है। और तभी आशा बंधती है कि अब जल्दी ही सब पूरा हो जाएगा। और जितनी तीव्रता से हम पूरा करना शुरू करते हैं, उतनी ही तीव्रता से नष्ट होना शुरू हो जाता है। तो जिस बात को भी पूरा कर लेंगे, वह नष्ट हो जाएगी।

लाओत्से कहता है, आधे पर रुक जाना।

आधे पर रुक जाना संयम है। और संयम अति कठिन है। जीवन के समस्त नियमों पर आधे पर रुक जाना संयम है। पर आधे पर रुकना बहुत कठिन है, बड़ा तप है। क्योंकि जब हम आधे पर होते हैं, तभी पहली दफा आश्वासन आता है मन में कि अब पूरा हो सकता है। अब रुकने की कोई भी जरूरत नहीं है। जब आप बिलकुल सिंहासन पर पैर रखने के करीब पहुंच गए हों सारी सीढ़ियां पार करके–सीढ़ियों के नीचे रुक जाना बहुत आसान था, पहला कदम ही न उठाना बहुत आसान था। क्योंकि आदमी अपने मन में समझा ले सकता है कि अंगूर खट्टे हैं। और लंबी यात्रा का कष्ट उठाने से भी बच सकता है। आलस्य भी सहयोगी हो सकता है। प्रमाद भी रोक सकता है। संघर्ष की संभावना और संघर्ष के साहस की कमी भी रुकावट बन सकती है। आदमी पहला कदम उठाने से रुक सकता है। लेकिन जब सिंहासन पर आधा कदम उठ जाए और पूरी आशा बन जाए कि अब सिंहासन पर पैर रख सकता हूं, तब लाओत्से कहता है, पैर को रोक लेना। क्योंकि सिंहासन पर पहुंचना सिंहासन से गिरने के अतिरिक्त और कहीं नहीं ले जाता। सिंहासन पर पहुंचने के बाद करिएगा भी क्या? फल पक जाएगा और गिरेगा। सफलता पूरी होगी और असफलता बन जाएगी। प्रेम पूरा होगा और मृत्यु घट जाएगी। जवानी पूरी होगी और बुढ़ापा उतर आएगा।

जैसे ही कोई चीज पूरी होती है, वर्तुल पुरानी जगह वापस लौट आता है। हम वहीं आ जाते हैं, जहां से हमने शुरू किया था। बूढ़ा आदमी उतना ही असहाय हो जाता है, जितना असहाय पहले दिन का बच्चा होता है। और जीवन भर की सफलता की यात्रा पुनः बच्चे की असफलता में छोड़ जाती है। एक अर्थ में शायद बच्चे से भी ज्यादा असहाय होता है। क्योंकि बच्चे को तो सम्हालने को उसके मां-बाप भी होते हैं और बच्चे को असहाय होने का पता भी नहीं होता। लेकिन बूढ़े के लिए सहारा भी नहीं रह जाता और असहाय होने का बोध भारी हो जाता है। और यह सारे जीवन की सफलता है! और सारे जीवन आदमी यही कोशिश कर रहा है कि मैं किसी तरह अपने को सुरक्षित कैसे कर लूं! सारे जीवन की सुरक्षा का उपाय और अंत में आदमी इतना असुरक्षित हो जाता है जितना कि बच्चा भी नहीं है, तो जरूर हम किसी वर्तुल में घूमते हैं, जिसका हमें खयाल नहीं है।

“तलवार की धार को बार-बार महसूस करते रहें, तो ज्यादा समय तक उसकी तीक्ष्णता नहीं टिक सकती।’

यह भी उसी पहेली का दूसरा हिस्सा है। पहली बात कि किसी भी चीज को उसकी पूर्णता पर मत ले जाना, अन्यथा आप उसी बात की हत्या कर रहे हैं। जिसको आप पूर्ण करना चाहते हैं, आप उसके हत्यारे हैं। रुक जाना। आधे में रुक जाना। इसके पहले कि चाक वापस लौटने लगे, ठहर जाना। उसी पहेली का दूसरा हिस्सा लाओत्से कहता है कि किसी चीज को बार-बार महसूस करने से उसकी तीक्ष्णता मर जाती है। अगर तलवार पर धार रखी है और बार-बार उसकी धार को महसूस करते रहें कि धार है या नहीं, तो धार मर जाएगी। रही भी हो, तो भी यह बार-बार परीक्षा करने से मर जाएगी।

लेकिन जिंदगी में हम यह भी करते हैं। अगर मेरा किसी से प्रेम है, तो दिन में मैं चार बार पता लगा लेना चाहता हूं कि प्रेम है या नहीं है। पूछ लेना चाहता हूं, उपाय करता हूं कि कह दिया जाए कि हां, प्रेम है। लेकिन जिस चीज को बार-बार महसूस किया जाता है, उसकी धार मर जाती है। प्रेमी ही एक-दूसरे के प्रेम की हत्या कर डालते हैं। और यह प्रेम के लिए ही नहीं, जीवन के समस्त तत्वों के लिए लागू है। अगर आपको बार-बार खयाल आता रहे कि आप ज्ञानी हैं, तो आप अपनी धार अपने हाथ से ही मार लेंगे। अगर आपको बार-बार यह स्मरण होता रहे कि मैं श्रेष्ठ हूं, तो आपकी श्रेष्ठता आप ही अपने हाथ से पोंछ डालेंगे।

जिस चीज को भी हम बार-बार एहसास करते हैं, वह क्यों इतनी जल्दी मिट जाती है?

उसके कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि हम उसी चीज को बार-बार एहसास करना चाहते हैं, जिसका हमें भरोसा नहीं होता। भीतर हम जानते ही हैं कि वह नहीं है। वह जो भीतर भरोसा नहीं है, उसी को पूरा करने के लिए हम जांच करते हैं। लेकिन जांच करने की कोई भी चेष्टा निरंतर, जिसकी हम जांच करते हैं, उसकी तीक्ष्णता को भी नष्ट करेगी ही। क्योंकि तीक्ष्णता होती है तीव्र पहले अनुभव में। और जितनी पुनरुक्ति होती है अनुभव की, उतनी ही तीक्ष्णता कम हो जाती है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ध्यान में हमें बहुत गहरा अनुभव पहली बार हुआ, लेकिन अब वैसा नहीं हो रहा है। अब वैसे अनुभव को वे रोज-रोज लाने की कोशिश में लगे हैं। तलवार की धार भी तीक्ष्णता खो देती है; ध्यान की धार भी तीक्ष्णता खो देगी। असल में, जिस अनुभव को हम पुनरुक्त करना चाहते हैं, पुनरुक्त करने के कारण ही वह अनुभव बासा हो जाता है। बासे होने के कारण उसकी संवेदना क्षीण हो जाती है।

अगर आप एक ही इत्र का उपयोग करते हैं रोज, तो सारी दुनिया को भला पता चलता हो आपकी इत्र की सुगंध का, आपको पता चलना बंद हो जाता है। तीक्ष्णता मर जाती है। रोज की पुनरुक्ति, और आपके नासापुट संवेदना खो देते हैं। सुंदरतम रंग भी, अगर आप रोज-रोज देखते रहें, तो रंगविहीन हो जाते हैं। इसलिए नहीं कि वे रंग खो देते हैं, बल्कि इसलिए कि आंखें उनके साथ संवेदना का संबंध छोड़ देती हैं। इसलिए जो हमें मिल जाता है, उसे हम धीरे-धीरे भूल जाते हैं।

इसका यह अर्थ हुआ कि जीवन उतना ही बासा हो जाएगा, जितना हम पुनरुक्ति की कोशिश करेंगे। और एक ही चीज को बार-बार अहसास करने की चेष्टा करेंगे, जीवन धीरे-धीरे मृत और बासा हो जाएगा। और हम सबका जीवन बासा और मृत हो जाता है। फिर न ही जीवन में कहीं कोई सुबह मालूम पड़ती है; न कोई सूरज की नई किरण फूटती है; न कोई नया फूल खिलता है; न कोई नए गीत का जन्म होता है; न कोई नए पक्षी आकाश में पर फैला कर उड़ते हैं। सब बासा हो जाता है।

इस बासेपन का कारण क्या है? इस बासेपन का कारण है कि जो भी हमें अनुभव होता है, उसे हम बार-बार अनुभव करने की कोशिश करके उसकी तीक्ष्णता को मार डालते हैं। अगर मैंने आज प्रेम से आपका हाथ अपने हाथ में लिया, कल फिर आप प्रतीक्षा करेंगे कि वह हाथ मैं अपने हाथ में आपका लूं। और अगर मुझे भी लगा कि बहुत सुखद प्रतीति थी, तो मैं भी कल कोशिश करूंगा कि वह हाथ फिर अपने हाथ में लूं। और हम दोनों मिल कर ही उस सुख की अनुभूति को बासा कर देंगे। कल हाथ हाथ में आएगा और तब लगेगा कि कहीं कुछ धोखा हो गया। क्योंकि वैसा सुख, जो पूर्व में जाना था, अब नहीं मिलता है। तब हम और पागल की तरह हाथों को पकड़ेंगे। और ज्यादा पकड़ेंगे और कोशिश करेंगे कि उस सुख का हमें अनुभव हो जाए। वह सुख खो जाएगा। हमारी चेष्टा ही उस सुख का अंत बन जाएगी। हम सभी सुख को नष्ट करते रहते हैं। क्योंकि जो हमें मिलता है, हम उसे पागल की तरह पाने की कोशिश करते हैं। उसमें ही वह खो जाता है।

जिंदगी बहुत अदभुत है। अदभुत इस अर्थों में है कि यहां उलटी घटनाएं घटती हैं। जो आदमी पाए सुख को पाने की दुबारा कोशिश नहीं करता, उसे वह सुख रोज-रोज मिल जाता है। और जो अपनी धार की तीक्ष्णता की फिक्र ही नहीं करता बार-बार जांच करने की, उसकी धार, उसकी तलवार की धार सदा ही तीक्ष्ण बनी रहती है।

मैंने सुना है कि रूस के एक थियेटर में एक दिन बड़ी मुश्किल हुई थी। बड़ा नाटक चल रहा था। और उस नाटक में एक हकलाने वाले आदमी का काम था। वह हकलाने वाला आदमी अचानक बीमार पड़ गया, जो हकलाने का अभिनय करता था। और ऐन वक्त पर खबर आई, और पर्दा उठने के करीब था। और मैनेजर और मालिक घबड़ाए, क्योंकि उसके बिना तो सारी बात ही खराब हो जाती। वही हास्य था उस पूरे नाटक में। उसी की वजह से रंग था। कोई उपाय नहीं था, और किसी आदमी को इतनी जल्दी हकलाने का अभ्यास करवाना भी मुश्किल था। लेकिन तभी किसी ने कहा कि हमारे गांव में एक हकलाने वाला आदमी है, हम उसे ले आते हैं। उसे सिखाने की कोई जरूरत नहीं है। आप उससे कुछ भी कहो, वह हकलाता ही है। और सब तरह के इलाज हो चुके हैं, बड़े चिकित्सक उसको देख चुके हैं। उसका कोई इलाज अब तक सफल नहीं हुआ है। वह धनपति का लड़का है।

उसे ले आया गया। और बड़ा चमत्कार हुआ, उस दिन वह नहीं हकला सका। पहली बार जिंदगी में, नाटक के मंच पर खड़ा होकर, वह युवक नहीं हकला सका। क्या हुआ? मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर इतना सचेतन कोई हो जाए, तो कोई भी चीज खो जाती है। कोई भी चीज खो जाती है।

मैं एक नगर में था और एक युवक को मेरे पास लाया गया। युवक विश्वविद्यालय का स्नातक है। और बड़ी तकलीफ में है। तकलीफ उसकी यह है कि चलते-चलते अचानक वह स्त्रियों जैसा चलने लगता है। मनोचिकित्सा हो चुकी है, मनोविश्लेषण हो चुका है। दवाइयां हो चुकी हैं, सब तरह के उपाय किए जा चुके हैं। लेकिन दिन में दो-चार बार वह भूल ही जाता है। और अब एक कालेज में अध्यापक का काम करता है, तो बड़ी कष्टपूर्ण बात हो गई है।

मैं उस युवक को कहा कि मैं एक ही इलाज समझता हूं और वह यह कि जब भी तुम्हें खयाल आ जाए, तब तुम जान कर स्त्रियों जैसा चलना शुरू कर दो। रोको मत। अब तक तुमने रोकने की कोशिश की है। और गैर-जाने में तुम स्त्रियों जैसा चलने लगते हो और जान कर पुरुष जैसे चलते हो। अब तुम इसे उलट दो। अब तुम्हें जब भी खयाल आए, तुम जान कर स्त्रियों जैसा चलो। उसने कहा, आप क्या कह रहे हैं! मैं वैसे ही मुसीबत में पड़ा हूं। बिना जाने ही मुसीबत में पड़ा हूं। और अब जान कर भी चलूंगा, तब तो चौबीस घंटे स्त्रियों जैसा ही चलता रहूंगा। मैंने उससे कहा, तुम मेरे सामने ही चल कर बता दो। उसने बहुत कोशिश की, वह नहीं चल पाया।

चेतना का एक नियम है, जिस चीज की आप बहुत कोशिश करते हैं, उसकी धार मिट जाती है। उसकी धार को पाना मुश्किल है। हम सभी सुख की धार को मार लेते हैं। और बड़े मजे की बात है कि दुख में हमारे धार बनी रहती है। हम इतना दुख जो पाते हैं, इसका कारण जगत में बहुत दुख है ऐसा नहीं, हमारे जीने के ढंग में बुनियादी भूल है। दुख को हम कभी छूना नहीं चाहते, इसलिए उसमें धार बनी रहती है। और सुख को हम छूते-छूते रहते हैं निरंतर, उसकी धार मर जाती है। आखिर में हम पाते हैं, दुख ही दुख रह गया हाथ में और सुख की कोई खबर नहीं रही। तब हम कहते हैं कि सुख तो मुश्किल से कभी मिला हो मिला हो, सपना मालूम पड़ता है। सारा जीवन दुख है।

लेकिन दुख की यह धार हमारे ही कारण है। इससे उलटा जो कर लेता है, उसका नाम तप है। वह दुख की धार को छूता रहता है और सुख की फिक्र छोड़ देता है। धीरे-धीरे दुख की धार मिट जाती है और सारा जीवन सुख हो जाता है। जिस चीज को आप छुएंगे, वह मिट जाएगी। जिस चीज को आप मांगेंगे, वह खो जाएगी। जिसके पीछे आप दौड़ेंगे, उसे आप कभी नहीं पा सकेंगे।

इसलिए जीवन गणित नहीं, एक पहेली है। और जो गणित की तरह समझता है, वह मुश्किल में पड़ जाता है। जो उसे एक रहस्य और एक पहेली की तरह समझता है, वह उसके सार राज को समझ कर जीवन की परम समता को उपलब्ध हो जाता है।

लाओत्से कहता है, “सोने और हीरे से जब भवन भर जाए, तब मालिक उसकी रक्षा नहीं कर सकता है।’

ये उलटी बातें मालूम पड़ती हैं, कंट्राडिक्टरी मालूम पड़ती हैं, विरोधाभासी मालूम पड़ती हैं। लाओत्से कहता है, जब सोने और हीरे से भवन भर जाए, तब मालिक उसकी रक्षा नहीं कर सकता है। असल में, मालिक तभी तक रक्षा कर सकता है अपनी संपत्ति की, जब तक गरीब हो; जब तक इतनी संपत्ति हो कि जिसकी रक्षा वह स्वयं ही कर सके। गरीब ही कर सकता है। जिस दिन संपत्ति की रक्षा के लिए दूसरों की जरूरत पड़नी शुरू हो जाती है, उसी दिन तो आदमी अमीर होता है। और जिस दिन से दूसरों के द्वारा सुरक्षा की जरूरत आ जाती है, उसी दिन से भय प्रवेश कर जाता है। क्योंकि दूसरों के हाथ में संपत्ति कहीं सुरक्षित हो सकती है? इसलिए इस जमीन पर एक अनूठी घटना घटती है कि गरीब यहां कभी-कभी अमीर जैसा सोया देखा जाता है और अमीर यहां सदा ही गरीब जैसा परेशान देखा जाता है। भिखारी यहां कभी-कभी सम्राट की शान से जी लेते हैं और सम्राट यहां भिखारियों से भी बदतर जीते हैं। क्योंकि जो हमारे पास है, उसकी रक्षा का उपाय भी दूसरे के हाथ में देना पड़ता है।

चंगीजखान की मृत्यु हुई। वह मृत्यु महत्वपूर्ण है। चंगीजखान जैसा आदमी स्वभावतः मृत्यु से भयभीत हो जाएगा। और अपनी मृत्यु न आए, इसके लिए उसने लाखों लोगों को मारा। लेकिन जितने लोगों को वह मारता गया, उतना ही भयभीत होता गया कि अब कोई न कोई उसे मार डालेगा। अपनी रक्षा के लिए उसने जितने लोगों की हत्या की, उतने शत्रु पैदा कर लिए। रात वह सो नहीं सकता था। क्योंकि रात अंधेरे में कुछ भी हो सकता है। और संदेह उसके इतने घने हो गए कि अपने पहरेदारों पर भी वह भरोसा नहीं कर सकता था। तो पहरेदारों पर पहरेदार, और पहरेदारों पर पहरेदार, ऐसी उसने सात पर्तें बना रखी थीं। उसके तंबू के बाहर सात घेरों में एक-दूसरे पर पहरा देने वाले लोग थे। और जब किसी पहरेदार पर इतना भी भरोसा न किया जा सके और उसके ऊपर भी बंदूक रखे हुए दूसरा आदमी खड़ा हो और उस दूसरे आदमी पर भी तीसरा आदमी खड़ा हो, तो ये पहरेदार मित्र तो नहीं हो सकते हैं। यह चंगीजखान को भी समझ में आता था। लेकिन तर्क जो करता है, वह यही कि वह पहरेदारों की संख्या बढ़ाए चला जाता था कि अगर इतने से नहीं हो सकता, तो और बढ़ा दो।

और एक रात, दिन भर का थका-मांदा, उसे झपकी लग गई। रात सोता नहीं था। अपनी तलवार हाथ में लिए बैठा रहता था। कभी भी खतरा हो सकता था। चंगीज सिर्फ दिन में सोता था, भरी दुपहरी में। जब रोशनी होती चारों तरफ, तब सो पाता था। उस दिन झपकी लग गई। पास में बंधे हुए घोड़ों में से कोई घोड़ा छूट गया रात। भाग-दौड़ मची। लोग चिल्लाए। घबरा कर चंगीज उठा। अंधेरे में उसने समझा कि दुश्मन ने हमला कर दिया। तंबू के बाहर भागा। तंबू की खूंटी में पैर फंस कर गिरा। तंबू की खूंटी ही उसके पेट में धंस गई।

यह तंबू सुरक्षा के लिए था! यह खूंटी रक्षा के लिए थी! ये पहरेदार, ये घोड़े, यह सब इंतजाम था, व्यवस्था थी। कोई मारने नहीं आया था। किसी ने मारा भी नहीं चंगीज को। चंगीज मरा अपने ही भय से। सुरक्षा के उपाय के लिए भागा था।

पूरे जीवन में ऐसी घटना घटती है। आदमी मकान बनाता है; फिर मकान पर पहरेदार बिठाने पड़ते हैं। धन इकट्ठा करता है; फिर धन की सुरक्षा करनी पड़ती है। और यह जाल बढ़ता चला जाता है। और यह बात ही भूल जाती है कि मैंने जिस आदमी के लिए यह सब इंतजाम किया था, वह अब सिर्फ एक पहरेदार रह गया है, और कुछ भी नहीं।

अमरीका के अरबपति एंड्रू कारनेगी ने अपने आत्म-संस्मरण में लिखवाया है। मरने के दो दिन पहले उसने अपने सेक्रेटरी को पूछा कि मैं तुझसे यह पूछना चाहता हूं कि अगर दुबारा हम दोनों को जन्म मिले, तो तू मेरा सेक्रेटरी होना चाहेगा या तू एंड्रू कारनेगी होना चाहेगा और मुझे अपना सेक्रेटरी बनाना चाहेगा?

एंड्रू कारनेगी मरा, तो दस अरब रुपए छोड़ कर मरा।

उसके सेक्रेटरी ने कहा, माफ करिए, आपको मैं इतना जानता हूं कि कभी भी परमात्मा से ऐसी प्रार्थना नहीं कर सकता कि मैं एंड्रू कारनेगी होना चाहूं। काश, आपका मैं सेक्रेटरी न होता, तो शायद इस कामना से भी मर सकता था कि भगवान मुझे भी एंड्रू कारनेगी बना दे। कारनेगी ने पूछा, तेरा क्या मतलब? तो उस सेक्रेटरी ने कहा कि मैं देखता हूं रोज जो हो रहा है। आप सबसे ज्यादा गरीब आदमी हैं। न आप ठीक से सो सकते हैं, न आप ठीक से बैठ सकते हैं, न आप ठीक से बात कर सकते हैं। न आपको अपनी पत्नी से मिलने की फुर्सत है, न अपने बच्चों के साथ बात करने की फुर्सत है। और देखता हूं कि दफ्तर में आप सुबह साढ़े आठ बजे पहुंच जाते हैं; चपरासी भी साढ़े नौ बजे आते हैं; क्लर्क साढ़े दस बजे आते हैं; मैनेजर बारह बजे आता है; डायरेक्टर्स एक बजे पहुंचते हैं। डायरेक्टर्स तीन बजे चले जाते हैं; मैनेजर चार बजे चला जाता है; साढ़े चार बजे क्लर्क भी चले जाते हैं; पांच बजे चपरासी भी चले जाते हैं; मैंने आपको सात बजे से पहले कभी घर लौटते नहीं देखा।

चपरासी भी पहले चले जाते हैं। क्योंकि चपरासी दूसरे की सुरक्षा कर रहे हैं, अपनी नहीं। एंड्रू कारनेगी अपनी ही सुरक्षा कर रहा है।

यह लाओत्से कहता है कि जब सोने और हीरे से भवन भर जाता है, तब मालिक उसकी रक्षा नहीं कर सकता है। और जब मालिक रक्षा नहीं कर सकता, तो मालिक मालिक नहीं रह जाता है। वह सोने और हीरों का गुलाम हो जाता है।

हम अपनी संपत्ति के कब गुलाम हो जाते हैं, हमें पता ही नहीं चलता। मालिक होने के लिए ही कोशिश करते हैं। भूल ही जाते हैं कि जिसका हमने मालिक होना चाहा था, हम बहुत पहले ही उसके गुलाम हो चुके हैं। असल में, इस दुनिया में कोई भी आदमी यदि मालिक बनने की कोशिश करेगा, तो गुलाम हो जाएगा। असल में, हम जिसके भी मालिक बनना चाहेंगे, उसका हमें गुलाम होना ही पड़ेगा। बिना गुलाम बने मालिक बनने का कोई उपाय नहीं है। इसीलिए जीवन एक रहस्य है। यहां मालिक तो केवल वे ही लोग बन पाते हैं, सच्चे मालिक, जो किसी के मालिक ही नहीं बनते हैं, जो किसी पर अपनी मालकियत ही स्थापित नहीं करते हैं।

आदमी की तो हम बात छोड़ दें। चीजों पर भी अगर आपने मालकियत स्थापित की, तो चीजें आपकी मालिक हो जाती हैं। जब आपको एक मकान छोड़ना पड़ता है, तो मकान नहीं रोता आपके लिए कि आप जा रहे हैं, आप रोते हैं। आपसे एक कमीज भी छीन ली जाए, तो कमीज जरा भी परेशान नहीं होती, आप परेशान होते हैं। वस्तुएं भी मालिक हो जाती हैं; दि पजेसर बिकम्स दि पजेस्ड। वह जो मालिक है, वह गुलाम हो जाता है। और जिसका मालिक है, उसी का गुलाम हो जाता है।

“जब समृद्धि और सम्मान से घमंड उत्पन्न होता है, तो वह स्वयं के लिए अमंगल का कारण है। और कार्य की सफल निष्पत्ति के अनंतर जब कर्ता का यश फैलने लगे, तब उसका अपने को ओझल कर लेना ही स्वर्ग का रास्ता है।’

और जब कोई काम सफल हो जाए, तो इसके पहले कि अहंकार का जन्म हो, कर्ता को ओझल हो जाना चाहिए। अन्यथा सफलता से बड़ी असफलता नहीं है। अन्यथा सफलता से बड़ा नर्क नहीं है। अन्यथा अपनी ही सफलता अपने लिए जहर बन जाती है। मकड़ी जैसे अपने ही भीतर से जाले को निकाल कर बुनती है, वैसे ही हम भी अपने चारों तरफ अपने जीवन का उलझाव बुन लेते हैं खुद ही। और कई बार ऐसा हो जाता है कि उस जाले में फंस कर हम ही चिल्लाते हैं कि कैसे मुक्ति हो! कैसे छुटकारा मिले! कैसे स्वतंत्रता संभव हो! यह गुलामी कैसे टूटे! और यह सारी गुलामी हमारा ही निर्माण है। लेकिन निर्माण कुछ ऐसे ढंग से होता है कि जब तक हो ही न जाए, हमें पता नहीं चलता। तो उस सूत्र को हमें समझ लेना चाहिए कि यह अनजानी गुलामी कैसे निर्मित हो जाती है और हम स्वयं ही कैसे निर्मित कर लेते हैं।

पहली बात, इस पृथ्वी पर एक ही मालकियत संभव है–ऐसा स्वभाव है, ऐसा नियम है–और वह मालकियत अपनी है। अपने अतिरिक्त और किसी की मालकियत संभव नहीं है। और जब भी कोई अपने सिवाय किसी और पर मालकियत करने जाएगा, तो गुलाम हो जाएगा। अगर महावीर या बुद्ध अपने राजमहल को और अपने राज्य को छोड़ कर निकल जाते हैं, तो आप सदा यही सोचते होंगे कि कितना महान त्याग है कि राज्य को, धन को, संपदा को, इतने राजमहलों को छोड़ कर निकल जाते हैं! तो आप गलती में हैं। महावीर और बुद्ध सिर्फ अपनी गुलामी को छोड़ कर निकल जाते हैं। यह बात उन्हें साफ हो जाती है कि अपने सिवाय और सभी तरह की मालकियत गुलामी है। तो फिर जितनी बड़ी यह मालकियत होगी, उतनी बड़ी गुलामी हो जाती है।

इसलिए यह मजे की बात है, आपने कभी सुना अब तक इतिहास में कि कोई भिखारी अपने भिखमंगेपन को छोड़ कर और त्यागी हो गया हो? किसी भिखारी ने अपना भिक्षा-पात्र छोड़ दिया हो और त्यागी हो गया हो? क्या बात है कि भिखारी भिक्षा-पात्र नहीं छोड़ पाता और कभी कोई सम्राट अपना साम्राज्य छोड़ देता है? सम्राट तो बहुत हुए हैं साम्राज्य को छोड़ देने वाले, लेकिन भिखारी अब तक इतने साहस का नहीं हो सका कि अपना भिक्षा-पात्र छोड़ दे। बात क्या है? असल में, भिखारी की गुलामी ही इतनी छोटी होती है कि उसे पता ही नहीं चलता कि मैं गुलाम भी हूं। सम्राट की गुलामी इतनी बड़ी हो जाती है और इतनी आत्मघाती हो जाती है कि उसे पता चलता है कि मैं गुलाम हूं। सम्राट के पास साम्राज्य एक कारागृह की तरह खड़ा हो जाता है। भिखारी का भिक्षा-पात्र कारागृह मालूम नहीं पड़ता, क्योंकि अभी भी भिखारी अपने भिक्षा-पात्र को लेकर कहीं भी चल पड़ता है। अभी कारागृह इतना छोटा है कि हाथ में टांगा जा सकता है। लेकिन एक सम्राट अपने कारागृह को लेकर कहीं भी नहीं जा सकता, कारागृह में ही उसे होना पड़ता है। सम्राट छोड़ सके, क्योंकि गुलामी इतनी बड़ी हो गई कि अपनी मालकियत का भ्रम छूट गया। भिखारी नहीं छोड? पाता, गुलामी इतनी छोटी है कि मालकियत का भ्रम कायम बना रहता है।

इसलिए मैं जानता हूं जैसा, वह ऐसा है कि जब तक आपको भ्रम बना रहे कि आप अपनी चीजों के मालिक हैं, तब तक आप समझना कि आप गरीब आदमी हैं। चीजें इतनी कम हैं कि अभी आपको पता नहीं चल रहा है। जिस दिन आपको पता चलना शुरू हो जाए कि अब चीजें मालिक हैं, उस दिन आप समझना कि आप अमीर हो गए हैं। अमीर का एक ही लक्षण है कि पता चलने लगे कि चीजों का गुलाम हो गया हूं मैं। और गरीब का एक ही लक्षण है कि उसे अभी पता नहीं चलता कि चीजें उसकी मालिक हैं। अभी भी मालकियत का भ्रम उसे कायम रहता है।

लाओत्से कह रहा है कि अगर सच में ही तुम मालिक होना चाहो, तो इस तरह के मालिक मत बन जाना कि तुम्हारी चीजों की रक्षा की भी जरूरत पड़ जाए। क्योंकि तब तुम पहरेदार हो जाओगे। और लाओत्से कह रहा है कि जब किसी भी काम में तुम सफल हो जाओ, तो इसके पहले कि कर्ता का भाव सघन हो, तुम ओझल हो जाना; कोई जान भी न पाए कि तुमने किया है।

लाओत्से का स्वयं का नाम जब चीन में पहुंच गया गांव-गांव और घर-घर में, और लोग लाओत्से को खोजते हुए आने लगे और रास्ता पूछने लगे कि लाओत्से कहां है, और हजारों मील की यात्रा करके लोगों का आना शुरू हो गया, तो लाओत्से एक दिन ओझल हो गया। फिर लाओत्से का कोई पता नहीं चला उस दिन के बाद। लाओत्से कब मरा और कहां मरा, इसकी कोई खबर नहीं है। बस एक दिन ओझल हो गया।

वही सलाह वह दूसरों को भी दे रहा है। वह कह रहा है, जब तुम्हारा कार्य पूर्ण हो जाए, सफलता हाथ आ जाए, तो तुम चुपचाप सरक जाना।

लेकिन बड़ी कठिन होगी यह बात। क्योंकि हम उसी क्षण की तो प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब सफलता पूर्ण हो जाए। हम भी सरकते हैं कभी, आंख से हम भी ओझल होते हैं, लेकिन सफलता के क्षण में नहीं; असफलता के क्षण में आंख से ओझल होते हैं। जब हार जाते हैं, टूट जाते हैं, पराजित हो जाते हैं, तब हम भी ओझल होते हैं। दुख में, पीड़ा में हम भी भाग जाना चाहते हैं, छिप जाना चाहते हैं। विषाद में, संताप में आत्मघात भी कर लेते हैं। आत्मघात का मतलब ही इतना है कि हम इस बुरी तरह ओझल हो जाना चाहते हैं कि नाम-रेखा भी पीछे न रह जाए। लेकिन अगर कोई आदमी सफलता के क्षण में ओझल हो जाए, तो उसके जीवन में एक क्रांति घटित हो जाती है। असफलता के क्षण में ओझल हो जाना तो बिलकुल ही स्वाभाविक है। मन की चेष्टा ही यही है कि भाग जाओ, अभी छिप जाओ, किसी को पता न चले कि तुम असफल हो गए हो। क्योंकि असफलता अहंकार को पीड़ा देती है, और सफलता अहंकार को तृप्ति देती है और पोषण देती है।

तो जब आदमी सफल होता है, तब तो वह सीना निकाल कर चारों तरफ घूमना चाहता है। तब तो जिनसे वह कभी नहीं मिला था, उनसे भी मिलना चाहता है। जिन्होंने उसे कभी नहीं जाना था, उन्हें भी चाहता है कि वे भी जान लें। तब वह सारे जग में ढिंढोरा पीट देना चाहता है कि मैं सफल हो गया हूं। यह सफलता की खबर के लिए ही तो इतनी चेष्टा, इतना प्रयास था। और यह लाओत्से पागल मालूम पड़ता है। वह कहता है, जब सफल हो जाओ, तो आंख से ओझल हो जाना। क्योंकि सफलता के क्षण में अगर अहंकार निर्मित हो जाए, तो वही तुम्हारा नर्क बन जाएगा। और सफलता के क्षण में अगर तुम ओझल हो सको, तो लाओत्से कहता है, यही स्वर्ग का द्वार है।

“कार्य की सफल निष्पत्ति के अनंतर जब कर्ता का यश फैलने लगे, तब उसका अपने को ओझल बना लेना ही स्वर्ग का रास्ता है।’

तो नर्क का अर्थ हुआ अहंकार और स्वर्ग का अर्थ हुआ अहंकार-शून्यता। कोई और स्वर्ग नहीं है, कोई और नर्क भी नहीं। एक ही नर्क है, मैं जितना सघन हूं, उतने गहन नर्क में हूं। मैं जितना विरल हूं, जितना तरल हूं, उतना स्वर्ग में हूं। मैं जितना हूं, उतना नर्क में हूं। मैं जितना नहीं हूं, उतना स्वर्ग में हूं। मेरा होना ही मेरी पीड़ा और मेरा न होना ही मेरा आनंद है।

इसे थोड़ा समझें। जब भी आपने दुख पाया है, संताप झेला है और नर्क की आग में अपने को तड़पते पाया है, तब कभी आपने खयाल किया कि यह पीड़ा क्या है? यह पीड़ा क्यों हो रही है? इस पीड़ा का मौलिक आधार कहां है? यह कोई और मुझे पीड़ा दे रहा है? या मेरे जीने का ढंग या मेरे अहंकार की सघन करने की चेष्टाएं, वे ही मेरी पीड़ा का कारण बन गई हैं? या जब भी आपने कभी आनंद की क्षण भर को भी पुलक पाई हो, तो कभी भीतर झांक कर देखा हो, तो पता चला होगा कि वहां आप मौजूद नहीं होंगे। जब भी आनंद की पुलक होती है, तो भीतर मैं मौजूद नहीं होता। और जब भी नर्क की पीड़ा होती है, तभी भीतर सघन मैं मौजूद होता है। मैं की छाया ही पीड़ा है। लेकिन हमारी सबकी चेष्टा यह है कि मैं को बचा कर मैं स्वर्ग में प्रवेश कर जाऊं; मैं बच जाऊं और आनंद उपलब्ध हो जाए। मैं बचूं, तो आनंद उपलब्ध नहीं होगा। क्योंकि मैं ही दुख है।

तो जीवन की जो साधारण व्यवस्था है, उसे कहीं से तोड़ देने और कहीं से उसमें जाग जाने की जरूरत है। लाओत्से कहता है, सफलता के क्षण में ओझल हो जाओ। इससे दूसरी बात भी हम समझ सकते हैं कि जब असफलता का क्षण हो, तब ओझल मत होना। जब हारे रहो, जब पराजित हो जाओ, तब राजधानी की सड़कों को मत छोड़ना। और जब जीत जाओ, तब हट जाना कि कोई देखने को भी न हो। विजय के क्षण में जो हट सकता है, उसका अहंकार तत्क्षण तिरोहित हो जाता है, एवोपरेट हो जाता है। पराजय के क्षण में जो टिक सकता है, उसका भी अहंकार तिरोहित हो जाता है। इससे विपरीत दो स्थितियां हैं: पराजय के क्षण में छिप जाओ और विजय के क्षण में प्रकट हो जाओ, तो अहंकार मजबूत होता है। अहंकार के कारण ही हम छिपना चाहते हैं–हारी हुई हालत में। और अहंकार के कारण ही हम प्रकट होना चाहते हैं–जीती हुई हालत में।

इस अहंकार की व्यवस्था और इस अहंकार के निर्माण होने के ढंग को जो ठीक से समझ ले, वह अहंकार के साथ भी खेल खेल सकता है। अभी तो अहंकार हमारे साथ खेल खेलता है। और जो व्यक्ति अहंकार के साथ खेल खेलने को राजी हो जाए, समर्थ हो जाए, वह आदमी अहंकार से मुक्त हो जाता है।

गुरजिएफ न्यूयार्क में था। और बड़ी प्रगाढ़ सफलता गुरजिएफ के विचारों को मिल रही थी। उसके एक शिष्य ने लिखा है कि हम गुरजिएफ को कभी न समझ पाए कि वह आदमी कैसा था। क्योंकि जब कोई चीज सफल होने के पूरे करीब पहुंच जाए, तभी वह कुछ ऐसा करता था कि सब चीजें असफल हो जातीं। ठीक ऐन मौके पर वह कभी नहीं चूकता था चीजों को बिगाड़ने में। और बनाने के लिए इतना श्रम करता था जिसका कोई हिसाब नहीं।

उसने बहुत से साधना-आश्रम निर्मित किए। एक साधना-आश्रम पेरिस के पास निर्मित किया। वर्षों मेहनत की, अथक श्रम उठाया, सैकड़ों लोगों को साधना के लिए तैयार किया। और फिर एक दिन सब विसर्जित कर दिया। जिन्होंने इतनी मेहनत उठाई थी, उन्होंने कहा, तुम पागल मालूम पड़ते हो, क्योंकि अब तो मौका आया कि अब कुछ हो सकता है। इसी दिन के लिए तो हमने वर्षों तक मेहनत की थी। तो गुरजिएफ ने कहा कि हम भी इसी दिन के लिए वर्षों तक मेहनत किए थे। अब हम विसर्जित करेंगे–इसी विसर्जन के लिए। न्यूयार्क में फिर दुबारा एक बड़ी व्यवस्था और एक बड़ी संस्था निर्मित होने के करीब पहुंचने को आई। वर्षों मेहनत की शिष्यों ने और गुरजिएफ ने। और एक दिन सारी चीज उखाड़ कर वह चलता बना। निकटतम साथी उसे छोड़ते चले गए। क्योंकि धीरे-धीरे लोगों को अनुभव हुआ कि यह आदमी निपट पागल है। सफलता का क्षण जब करीब होता है, हाथ के करीब होता है कि फल हाथ में आ जाए, तब यह आदमी पीठ मोड़ लेता है। और जब फल आकाश की तरह दूर होता है, तब यह इतना श्रम करता है जिसका कोई हिसाब नहीं। निश्चित ही, यह पागल आदमी का लक्षण है।

लेकिन लाओत्से इस पागल आदमी को ज्ञानी कहता है। लाओत्से कहता है कि जब सफलता हाथ में आ जाए, तब तुम चुपचाप ओझल हो जाना।

इसे अगर भीतर से समझें, तो जो ट्रांसफार्मेशन, जो क्रांति घटित होगी, वह खयाल में आ जाएगी। इसे कभी प्रयोग करके देखें। सफलता तो बहुत दूर की बात है, अगर रास्ते पर कोई आदमी चलता हो और उसका छाता गिर जाए, तो हम उसे उठा कर खड़े रह कर दो क्षण प्रतीक्षा करते हैं कि वह धन्यवाद दे। और अगर वह धन्यवाद न दे, तो चित्त को बड़ी निराशा और बड़ी उदासी होती है। एक धन्यवाद भी हम छोड़ कर नहीं हट सकते हैं। एक धन्यवाद भी हम ले लेना चाहते हैं।

तो लाओत्से जो कह रहा है कि जब काम बिलकुल सफल हो जाए और जीवन सिद्धि के करीब पहुंच जाए और मंजिल सामने आ जाए, तब तुम पीठ मोड़ लेना और चुपचाप तिरोहित हो जाना। बड़े इंटिग्रेशन, बड़ी भीतर सघन आत्मा की जरूरत पड़ेगी। वह जो सघनता है भीतर की, उस सघनता का जो परिणाम होता है, वह बहुत अलौकिक है। जो व्यक्ति मंजिल के पास पीठ मोड़ लेता है, मंजिल उसके पीछे चलनी शुरू हो जाती है। और जो व्यक्ति सफलता के बीच से ओझल हो जाता है, उसके लिए असफलता का जगत में नाम-निशान मिट जाता है। वह आदमी फिर असफल हो ही नहीं सकता।

असल में, उस आदमी ने वह कीमिया पा ली, वह कला पा ली, जिससे वह आदमी आदमी नहीं रह जाता, परमात्मा ही हो जाता है। क्योंकि सफलता को जो छोड़ सके, मंजिल के सामने पीठ मोड़ सके, वह आदमी नहीं रह गया। आदमी की सारी कमजोरी क्या है? आदमी की सारी कमजोरी अहंकार की है। वह कमजोरी न रही।

लाओत्से तिरोहित हो गया। उसका एक शिष्य उसका दूर तक गांव तक पीछा किया। लाओत्से ने उस शिष्य को बहुत कहा कि तू मेरे पीछे मत आ, क्योंकि अब मैं तिरोहित होने जा रहा हूं। और तू पीछे रुक, क्योंकि वहां बड़ी संभावना है सफलता की। वहां लोग हजारों आ रहे हैं पूछने मुझे।

उस शिष्य को भी यह समझ में आया। और आदमी कैसे रेशनलाइजेशन करता है! और आदमी कैसे अपने को तर्क दे लेता है! आखिर में उसने लाओत्से से कहा कि आपके ही काम के निमित्त मैं वापस जाता हूं। आप वहां नहीं होंगे और इतने लोग आएंगे आपको पूछते; तो नहीं, उतना तो मैं नहीं समझा सकूंगा जो आप समझा सकते थे, लेकिन फिर भी कुछ तो समझा सकूंगा। आपके ही निमित्त मैं वापस जाता हूं।

उसके मन में भी मोह पकड़ना शुरू हुआ कि अब इस लाओत्से के साथ भटकना बेमानी है। इसे अब कोई जानता भी नहीं। जिन गांवों से यह गुजर रहा है, इसे कोई पहचानता भी नहीं। और अब यह कहां जाकर समाप्त होगा, पता नहीं। और इसकी जिंदगी भर की मेहनत! इसने जिंदगी भर तो वहां सुगंध फैलाई, अब लोग आने शुरू हुए हैं सुगंध के कारण, और यह भाग गया! तो वह शिष्य एक रात लौट गया वापस।

लाओत्से जिस दिन चीन की सीमा छोड़ कर चीन के बाहर निकला, आखिरी बार उस सीमा पर सीमा-अधिकारी ने उसे देखा। उसके बाद उसका कोई पता नहीं चल सका कि वह कहां गया। परंपरा चीन में कहती है कि लाओत्से जिंदा है! क्योंकि ऐसा आदमी मर कैसे सकता है? मरता तो सिर्फ अहंकार है। और जिस आदमी ने अहंकार इकट्ठा ही न किया हो; और जब सम्राट उसके चरणों में आकर सिर रखने को आतुर हो रहे थे, तब अपने झोपड़े से भाग गया हो; ऐसा आदमी मर कैसे सकता है?

तो लाओत्से के संबंध में दो अनूठी बातें कही जाती हैं। एक तो यह कि वह बासठ साल की उम्र में पैदा हुआ। मां के पेट में बासठ साल वह था; बूढ़ा पैदा हुआ। और लाओत्से को प्रेम करने वाले लोग कहते हैं कि ऐसे लोग बूढ़े ही पैदा होते हैं।

हममें से अधिक लोग मरते दम तक भी बचकाने ही रहते हैं। अगर हम अपनी तरफ देखें, तो लाओत्से की बात बहुत उलटी नहीं मालूम पड़ेगी। अस्सी साल के आदमी को भी अगर देखें, तो खिलौनों से खेलता हुआ मालूम पड़ेगा। खिलौने बदल जाते हैं; बाकी खिलौने जारी रहते हैं।

एक बच्चा है, वह अपनी दूध की बोतल मुंह में दिए चूस रहा है। एक बूढ़ा है, वह अपना चुरुट पी रहा है। मनोवैज्ञानिक कहते, दोनों एक ही काम कर रहे हैं। लेकिन बूढ़ा अगर अपनी दूध की बोतल मुंह में दे, तो बेहूदा मालूम पड़ेगा। इसलिए उसने तरकीबें ईजाद कर ली हैं। इसीलिए सिगरेट से या चुरुट से जो धुआं आपके भीतर जाता है, वह ठीक वैसी ही गर्म धारा भीतर ले जाता है जैसा मां का दूध। और वह धारा के जाने का ढंग ठीक वैसा ही है। और वह सुखद मालूम होता है। वह गर्मी सुखद मालूम होती है, उष्णता सुखद मालूम होती है। उष्णता की धार भीतर जा रही है, वह सुखद मालूम होती है। अब इस बूढ़े में और बच्चे में बहुत फर्क नहीं है। और अगर फर्क है, तो और ज्यादा नासमझी का फर्क है। बच्चा कम से कम दूध ही पी रहा है, ठीक ही कर रहा है।

अगर हम बूढ़े की भी जिंदगी को देखें सामान्यतया, तो हमें पता चलेगा कि वह…कहां, बचपन नहीं बदल पाता, रूप बदल जाते हैं, ढंग बदल जाते हैं, बचपन जारी रहता है। उन्हीं छोटी बातों पर क्रोध आता है। उन्हीं छोटी बातों पर अहंकार घना होता है। उन्हीं छोटी बातों का लोभ लगता है। उतना ही भय है, उतनी ही वासना है। सब उतना ही जारी रहता है। कहीं कोई अंतर नहीं है।

तो अगर हम लाओत्से की तरफ से समझें, तो उसका मतलब हुआ कि हममें से अधिक लोग बच्चे ही मरते हैं। और लाओत्से बूढ़ा पैदा होता है, बासठ वर्ष का पैदा होता है, ऐसी कथा है। कथा मीठी है। और पूरब ने मीठी कथाएं पैदा की हैं, जो बड़ी अर्थपूर्ण हैं। क्योंकि लाओत्से तब तक पैदा ही नहीं होता, जब तक प्रौढ़ नहीं हो जाता। जब प्रौढ़ हो जाता है, तभी पैदा होता है।

और दूसरी बात लाओत्से के बाबत है कि उसका पता नहीं कि वह कभी मरा। मरा ही नहीं। ऐसा आदमी मरता भी नहीं। क्योंकि हमारे भीतर मरने वाली जो चीज है, वह हमारे अहंकार के अलावा और कुछ भी नहीं। हम नहीं मरते; पर हमारा निर्मित अहंकार मरता है। जब हम मरते हैं, तब भी हमारा अहंकार ही मरता है; हम नहीं मरते। और हमें जो पीड़ा होती है, वह हमारे मरने की पीड़ा नहीं है, वह हमारे अहंकार के मरने की पीड़ा है। मरते वक्त जो-जो हमने इकट्ठा किया है, वह छिनता है; जो-जो हमने बनाया है, वह छूटता है; जो-जो हमने पाया है, वह छीना जाता है। एक बात तो तय है कि हमने अपने को नहीं बनाया। और एक बात तय है कि हम मरने में भी नहीं छीने जाते हैं।

आपको याद है कि आप जन्म के पहले थे? नहीं है याद, क्योंकि हमें अहंकार के अतिरिक्त और कोई चीज याद ही नहीं है। और अहंकार तो जन्म के बाद सघन होता है। इसलिए हमारी जो याददाश्त है, मनसविद कहते हैं कि वह तीन साल की उम्र के पहले नहीं जाती। ज्यादा से ज्यादा तीन साल की हमें याद आती है। पहली से पहली जो याद है, वह करीब तीन और पांच साल के बीच की होती है। क्यों? हम तीन साल भी तो थे, कोई याद नहीं बनती। क्योंकि तीन साल हमारे अहंकार को निर्मित होने में लग जाते हैं।

इसलिए बहुत मजे की बात है कि बच्चे अक्सर झूठ बोलने में और चोरी करने में जरा भी तकलीफ अनुभव नहीं करते। उसका कुल कारण, उसका कारण यह नहीं है कि वे चोर हैं और झूठे हैं। उसका कुल कारण इतना है कि अभी वह अहंकार निर्मित नहीं हुआ जो मेरे और तेरे का फासला कर पाए। इसलिए जिसको हम चोरी समझ रहे हैं, बच्चे के लिए शुद्ध समाजवाद है। अभी फासला नहीं है कि यह मेरा है और यह तेरा है। अभी मैं निर्मित नहीं हुआ है। इसलिए हम जिसे चोरी कह रहे हैं, वह हमारे अहंकार के कारण कह रहे हैं। और बच्चे के लिए अभी सभी चीजें, जो उसकी पसंद पड़ जाए, उसकी है। अभी पसंद सब कुछ है। अभी वह अहंकार निर्णय करने वाला नहीं बना कि जो कहे, यह मेरा है और यह तेरा है।

बच्चे को झूठ और सच में भी अभी फर्क नहीं है, क्योंकि बच्चे को सपने में और सच्चाई में फर्क नहीं है। तो अक्सर बच्चे सुबह उठते हैं और रात सपने में जो खिलौना उनका टूट गया, उसके लिए सुबह रोते मिल जाते हैं। या सपने में जो खिलौना खो गया, उसके लिए वे सुबह रो सकते हैं और तड़प सकते हैं कि वह खिलौना कहां गया! क्योंकि अभी स्वप्न में और सत्य में भी फासला नहीं है। असल में, रात के सपने में और दिन की सचाई में फर्क करने के लिए भी अहंकार की जरूरत है।

इसलिए एक मजे की घटना घटती है: बच्चे को सपने में और सुबह की सचाई में फर्क नहीं होता; और जब लाओत्से जैसा आदमी अहंकार को छोड़ कर जगत को देखता है, तब उसको सपने में और सच्चाई में कोई फर्क नहीं होता फिर दुबारा। इसलिए शंकर जैसा आदमी कह पाता है, जगत माया है। उसका और कोई मतलब नहीं, उसका कुल मतलब इतना है कि अब एक दूसरे अर्थ में जगत भी सपने जैसा हो गया। एक दिन सपना भी जगत जैसा था–अहंकार के पूर्व। फिर अहंकार आया और जगत और सपने में फासला मालूम पड़ने लगा। वह फासला मेरे मैं के ही कारण है। फिर वह मैं दुबारा गिर गया। अब, अब जगत भी सपने जैसा मालूम होने लगा।

मृत्यु के क्षण में हमारा निर्मित मैं टूटता है, बिखरता है। एक-एक जगह से उसकी खूंटियां उखड़ने लगती हैं। वे उखड़ती खूंटियां ही हमारी पीड़ा हैं। लेकिन काश, हमें याद आ सके कि जब मैं नहीं था हमारे भीतर तब भी मेरा होना था, तो मृत्यु में भी हम उतने ही आनंद से प्रवेश कर सकते हैं, जितने आनंद से हम जीवन में प्रवेश करते हैं। और जितने आनंद से रात हम निद्रा में प्रवेश करते हैं, उतने ही आनंद से हम मृत्यु की महानिद्रा में प्रवेश कर सकते हैं।

लेकिन कोई मृत्यु के क्षण में अचानक यह बात घट नहीं सकती है। जिसने पूरे जीवन सफलता को संजोया हो, असफलता को त्यागा हो; जिसने पूरे जीवन अहंकार निर्मित करने का एक भी मौका न चूका हो, झूठा भी निर्मित होता हो तो भी न चूका हो…।

इसलिए खुशामद इतनी हमें प्रीतिकर मालूम होती है। और खुशामद करने वाला जानता है कि झूठ है और सुनने वाला भी जानता है कि झूठ है, फिर भी स्तुति कोई कर रहा हो, तो मना करने की हिम्मत नहीं होती। कोई आपकी खुशामद कर रहा हो और आपसे कह रहा हो कि आपसे सुंदर मैंने व्यक्ति नहीं देखा, आपको भी आईने के सामने कभी ऐसा खयाल नहीं आया है, लेकिन फिर भी उस स्तुति के क्षण में मान लेने का मन होता है। दूसरे की निंदा मान लेने का मन होता है; स्वयं की स्तुति मान लेने का मन होता है। दूसरे की निंदा को हम कभी इनकार नहीं करते। वह कितनी ही बेबूझ मालूम पड़े, तो भी इनकार नहीं करते। और अपनी स्तुति को हम कभी इनकार नहीं करते, वह भी कितनी ही असंगत मालूम पड़े। स्वयं की स्तुति सदा ही स्वीकृत मालूम पड़ती है। स्वयं की स्तुति में कभी भी ऐसा नहीं मालूम पड़ता कि कोई चीज सीमा के बाहर जा रही है। सभी चीजें सीमा के भीतर होती हैं। दूसरे की निंदा में सभी चीजें सीमा के भीतर होती हैं। सभी कुछ मानने योग्य होता है।

तो दूसरे की निंदा में रस लिया हो, स्वयं की प्रशंसा में आनंद पाया हो, सफलता के क्षण में पैर जमा कर खड़े हो गए हों बीच चौराहे पर, असफलता के क्षण में अंधेरे में छिप गए हों; सम्मान को खोजा हो, तलाशा हो, असम्मान की तरफ पीठ किए हुए भागते रहे हों; तो मरते क्षण में एकदम से कोई अहंकार को नहीं छोड़ सकता।

लेकिन जिसने इससे उलटा किया हो, दूसरे की निंदा में संदेह पैदा किया हो, अविश्वास पैदा किया हो, अनास्था दिखाई हो; स्वयं की स्तुति में संदेह पैदा किया हो, स्वयं की स्तुति में अनास्था दिखाई हो, स्वयं की स्तुति को मान न लिया हो; सम्मान जब कोई देने आया हो, तो हजार बार सोचा हो; असम्मान जब कोई देने आया हो, चुपचाप स्वीकार कर लिया हो; असफलता में प्रकट हो गया हो, सफलता में छिप गया हो; ऐसा व्यक्तित्व अगर चलता रहे, तो मृत्यु के क्षण में मुक्ति संभव हो पाती है। और ऐसे व्यक्ति के लिए नर्क के द्वार तो बंद ही हो गए; क्योंकि चाभी ही खो गई, जिससे नर्क के द्वार खोले जा सकते थे। और ऐसे व्यक्ति के लिए स्वर्ग का द्वार खुल गया। स्वर्ग का अर्थ है: ऐसे व्यक्ति के लिए सतत सुख का द्वार खुल गया। ऐसा व्यक्ति कहीं भी हो, कैसा भी हो, सुख पा ही लेगा। ऐसे व्यक्ति से सुख छीनने का उपाय ही नहीं है। ऐसा व्यक्ति हमेशा ही सुखद पहलू को खोज लेगा और दुखद पहलू को उसकी आंख पकड़ ही नहीं पाएगी। ऐसा व्यक्ति कंकड़-पत्थरों में भी हीरे देख लेगा। और ऐसे व्यक्ति को कांटों में भी फूल खिल जाते हैं। और ऐसे व्यक्ति के लिए अंधेरा भी प्रकाश हो जाता है और मृत्यु परम जीवन।

इसलिए मैंने कहा कि जीवन गणित नहीं, एक पहेली है। गणित इसलिए नहीं कि गणित में दो और दो चार होते हैं। पहेली में इतना आसान हिसाब नहीं होता। पहेली में गणित कहीं चलता है, परिणाम कुछ होते हैं। पहेली में परिणाम विपरीत हो जाते हैं। लेकिन पहेली का भी अपना सूक्ष्म गणित है। लाओत्से उसी की बात कर रहा है। और जो इस पहेली को समझाना चाहे, उसे उस सूक्ष्म गणित को समझ लेना चाहिए।

जैसे समझें कि अगर कोई शिकारी पक्षियों को तीर मारने की कला सीख रहा है, तो पक्षियों को, आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को तीर मारने में एक सूक्ष्म गणित का उपयोग करना पड़ता है। क्योंकि पक्षी जहां है, अगर आपने वहां तीर मारा, तो आपका तीर कभी भी नहीं लगेगा। पक्षी जहां होगा कुछ क्षण बाद, वहां आपको तीर मारना पड़ेगा। पक्षी अभी आकाश में मेरे आंख के सामने है। अगर मैं सीधा वहीं तीर मारूं, तो पक्षी तो तब तक हट चुका होगा जब तक मेरा तीर पहुंचेगा। मुझे तीर वहां मारना पड़ेगा, जहां पक्षी अभी नहीं है और मेरे तीर पहुंचने पर होगा। इसलिए धनुर्विद्या की कला यह कहेगी कि अगर चलते हुए जीवन, उड़ते हुए पक्षी को तीर मारना हो, तो वहां मारना जहां पक्षी न हो। अगर वहां मारा जहां पक्षी है, तो तीर व्यर्थ चला जाएगा। यह उसकी पहेली हुई। अगर मृत पक्षी बांध कर रखा हो वृक्ष में, तो वहीं तीर मारना जहां पक्षी है।

मृत गणित सीधा चलता है। जीवन का गणित सीधा नहीं चल सकता।

लाओत्से कहता है, अगर सफलता चाहिए हो, तो सफलता से बचना; असफलता चाहिए हो, तो सफलता को आलिंगन कर लेना। लाओत्से कहता है, अगर मिटना हो, मरना हो, तो जीवन को जोर से पकड़ना; और अगर जीना हो, तो जीवन को छोड़ देना, पकड़ना ही मत। और इस जगत में अगर सुख पाना हो, तो सुख की तलाश ही मत करना और सुख को टटोलते मत रहना। अगर ऐसा किया, तो दुख मिलेगा। अगर सुख पाना हो, तो दुख को टटोलना और दुख को खोजना। जो सुख को खोजेगा है, वह सुख को खो देता है; जो दुख को खोजता है, वह दुख को खो देता है। जो सुख को खोजता है, वह दुख को पा लेता है; और जो दुख को खोजने निकल पड़ता है, उसे दुख कभी मिलता ही नहीं है।

इसे हम ऐसा देख पाएं, तो हमारे जीवन का पूरा रास्ता और ढंग का हो जाए; और हमारे कदम और ढंग से उठें; और हमारे देखने की, सोचने की, हमारा पूरा दर्शन, हमारी पूरी दृष्टि और हो जाए। ऐसी दृष्टि जब किसी की हो जाए, तो उसे मैं संन्यासी कहता हूं।

लेकिन हम तो जिसे संन्यासी कहते हैं, वह भी संसारी के गणित से सोचता है। वह भी परमात्मा को खोजने निकलता है। ध्यान रहे, जो परमात्मा को खोजने निकला, जितनी ताकत से खोजने निकलेगा, उतना ही पाना मुश्किल है। यह गणित सिर्फ धन के लिए ही लागू नहीं होता, यह धर्म के लिए भी लागू होता है। परमात्मा कोई ऐसी चीज नहीं है कि आप उठाए लकड़ी, रखे कंधे पर और निकल पड़े। तो आपके हाथ में लकड़ी ही रह जाने वाली है; परमात्मा नहीं मिलेगा। परमात्मा कोई वस्तु नहीं है कि आप खोजने निकल पड़े। परमात्मा एक अनुभव है; जब आप नहीं होते, खोजने वाला नहीं होता, तब प्रकट होता है। तो जो खोजने निकला है, वह मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि खोजने में तो खोजने वाला मौजूद ही रहता है।

इसलिए संन्यासी का अहंकार बहुत सघन हो जाता है, भयंकर हो जाता है। परमात्मा को खोज रहा है! अगर आप उससे कहेंगे, तो वह कहेगा, तुम क्या हो, तुच्छ! संसार की चीजें खोज रहे हो, दो कौड़ी की! हम अमोलक रतन खोज रहे हैं। और तुम क्षणभंगुर सुखों में पड़े हुए पापी हो! और हम मोक्ष खोज रहे हैं। तो स्वाभाविक उसकी अकड़ तेज हो जाए, वह आपके साथ न बैठ सके, उसे सिंहासन पर बिठाना पड़े। यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह स्वाभाविक है इसलिए कि संसार का ही गणित काम कर रहा है अभी भी। अभी भी वही काम कर रहा है।

मैं एक जापानी फकीर तातासुसु के जीवन को पढ़ता था। तातासुसु को आकर अगर कोई उसकी स्तुति करे, तो तातासुसु सुन ले सारी बात और फिर कहे कि मालूम होता है तुम किसी और आदमी के पास आ गए। क्योंकि तुमने जितनी बातें बताईं, इनमें से कोई भी बात मुझमें नहीं है। मालूम होता है तुम किसी और से मिलने निकले थे और किसी और के पास आ गए। मैं वह आदमी नहीं हूं।

और वह इतनी निष्ठा से कहता कि कई बार अपरिचित आदमी तो मान ही लेते–कि माफ करिए, तो आप वह नहीं हैं, तातासुसु आप नहीं हैं! हम तो तातासुसु समझ कर ही आपके चरणों में आ गए। तो तातासुसु कहता कि नहीं, तुम्हें किसी ने गलत रास्ता बता दिया।

अगर तातासुसु की कोई निंदा करते आता और ऐसी बातें भी कहता जिनसे उसका कोई संबंध नहीं, तो तातासुसु स्वीकार कर लेता। वह कहता कि ठीक ही कहते होंगे।

तातासुसु के मरने के बाद ही पता चला कि उसने न मालूम कितनी झूठी निंदाओं में हां भर दी थी। और यह भी पता चला कि वह निंदा करने वाले को कहीं ऐसा न लगे कि इसने झूठी ही हां भर दी है, तो वह सब तरह के उपाय भी करता था कि निंदा करने वाला तृप्त होकर जाए कि निंदा उसने की तो ठीक ही की है।

एक आदमी आया है तातासुसु के पास और वह कहता है कि मैंने सुना है कि तुम बहुत क्रोधी आदमी हो! तो तातासुसु के पास में एक डंडा पड़ा है, वह डंडा उठा लेता है और आगबबूला हो जाता है और उसकी आंखों से आग निकलने लगती है। उसके साथी-शिष्यों ने, संगियों ने कभी उसे जिंदगी में क्रोध से भरा नहीं देखा था। वे भी चकित हो गए हैं। और उस आदमी ने कहा, तो बिलकुल ठीक ही है। अब और प्रमाण की क्या जरूरत है? तातासुसु ने कहा कि बिलकुल ठीक ही है। वह आदमी चला गया।

तातासुसु के शिष्य पूछते हैं कि हमने कभी आपको क्रोध में नहीं देखा। तो तातासुसु ने कहा कि तुमने कभी मुझे मौका ही नहीं दिया। तुम अगर आकर मुझे कहते, तो मैं प्रमाण जुटा देता। क्योंकि अकारण वह आदमी इतने दूर से चल कर आया यह बात कहने के लिए कि तुम क्रोधी हो, तो उसके लिए इतना सा करने में हर्ज भी क्या है! वह संतुष्ट होकर गया है। और अब उसे दुबारा तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। प्रमाण भी हाथ में है।

लाओत्से इस तरह के व्यक्ति की बात कर रहा है। और इस तरह के व्यक्ति का नाम ही संन्यासी है। तो जीवन में एक दूसरा आयाम खुलना शुरू होता है।

इस दूसरे आयाम पर हम आगे सूत्रों में बात करेंगे।

पांच मिनट बैठेंगे; कीर्तन में सम्मिलित हों, और फिर जाएं।

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