सत्य का दर्शन-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(स्वतंत्रता के सूत्र)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक अत्यंत वीरानी पहाड़ी सराय में मुझे ठहरने का मौका मिला था। संध्या सूरज के ढलते समय जब मैं उस सराय के पास पहुंच रहा था, तो उस वीरान घाटी में एक मार्मिक आवाज सुनाई पड़ रही थी। आवाज ऐसी मालूम पड़ती थी जैसे किसी बहुत पीड़ा भरे हृदय से निकलती हो। कोई बहुत ही हार्दिक स्वर में, बहुत दुख भरे स्वर में चिल्ला रहा थाः स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। और जब मैं सराय के निकट पहुंचा, तो मुझे ज्ञात हुआ, वह कोई मनुष्य न था, वह सराय के मालिक का तोता था, जो यह आवाज कर रहा था।

मुझे हैरानी हुई। क्योंकि मैंने तो ऐसा मनुष्य भी नहीं देखा जो स्वतंत्रता के लिए इतने प्यास से भरा हो। इस तोते को स्वतंत्र होने की ऐसी कैसी प्यास भर गई? निश्चित ही वह तोता कैद में था, पिंजड़े में बंद था। और उसके प्राणों में शायद मुक्त हो जाने की आकांक्षा अंकुरित हो गई थी। Continue reading “सत्य का दर्शन-(प्रवचन-06)”

सत्य का दर्शन-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(विचार नहीं, भाव है महत्वपूर्ण)

मेरे प्रिय आत्मन्!

शुक्रिया। ईश्वर के संबंध में मेरे क्या विचार हैं, इस संबंध में बोलने को मुझसे कहा गया है। यह सवाल ही थोड़ा कठिन है। कठिन इसलिए है, कि शायद ईश्वर अकेली एक ऐसी अनुभूति है जिसके संबंध में कोई विचार नहीं हो सकते। और जो विचार रखता होगा ईश्वर के संबंध में, उसका ईश्वर से कोई मिलना नहीं हो सकता।

ईश्वर के संबंध में सोचने का कोई उपाय नहीं है। ईश्वर को हम अपने सोचने का औचित्य, अपने सोचने का विषय नहीं बना सकते। और जब तक हम सोचते हैं, विचार करते हैं, तब तक ईश्वर का हमें कोई पता भी नहीं लग सकता है। Continue reading “सत्य का दर्शन-(प्रवचन-05)”

सत्य का दर्शन-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा-(जीवन यानी परमात्मा)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक बहुत बड़े मंदिर में बहुत पुजारी थे। विशाल था वह मंदिर। सैकड़ों पुजारी उसमें सेवारत थे। एक रात एक पुजारी ने स्वप्न देखा कि कल संध्या जिस प्रभु की पूजा वे निरंतर करते रहे थे, वे साक्षात ही मंदिर में आने को हैं। दूसरे दिन तो उस मंदिर में उत्सव का दिन हो गया। दिन भर पुजारियों ने मंदिर को स्वच्छ किया, साफ किया। प्रभु आने को थे, उनकी तैयारी थी। संध्या तक मंदिर सज कर दुल्हन की भांति खड़ा हो गया। मंदिर के कंगूरे-कंगूरे पर दीये जल गए थे, धूप-दीप, फूल की सुगंध से मंदिर बिलकुल नया हो उठा था।

सांझ आ गई, सूरज ढल गया और प्रभु की प्रतीक्षा शुरू हो गई। पुजारी द्वार पर खड़े थे। लेकिन घड़ियां बीतने लगीं और उस प्रभु के आने का कोई, कोई भी सुराग न मिला। उसके रथ के आगमन की कोई सूचना न मिली। फिर रात गहरी होने लगी। और पुजारियों को शक हो आया। कोई कहने लगाः स्वप्न का भी क्या भरोसा है कोई? स्वप्न, स्वप्न होते हैं, स्वप्न भी कहीं सत्य हुए हैं। भूल में पड़ गए हम। व्यर्थ हमने श्रम किया। फिर वे थक गए थे दिन भर के, सो गए। दीयों का तेल चुक गया और दीये बुझ गए। धूप बुझ गई। घनघोर अंधेरे में मंदिर रोज की भांति फिर डूब गया। Continue reading “सत्य का दर्शन-(प्रवचन-04)”

सत्य का दर्शन-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-(परिस्थिति नहीं मनःस्थिति)

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं अत्यंत आनंदित हूं कि अपने हृदय की थोड़ी सी बातें आपसे कह सकूंगा। एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करूंगा।

बहुत वर्षों पहले, यूनान में एक बादशाह बीमार पड़ा। उसका जितना इलाज हुआ, बीमारी बढ़ती गई। बीमारी उस जगह पहुंच गई, जहां कि बादशाह का मरना करीब-करीब तय हो गया। मरने की प्रतीक्षा शुरू हो गई। महल उदास हो गए और राजधानी फीकी पड़ गई। आज या कल, कल या परसों बादशाह मर जाएगा, इसकी संभावना, इसकी उदासी ने पूरी राजधानी को घेर लिया। लेकिन तभी गांव में एक फकीर आया। और राजमहल तक यह खबर पहुंची कि एक फकीर गांव में आ गया है, जिसके बावत कहा जाता है कि वह मुर्दों को भी छू दे तो वे जी जाएं, तो राजा तो अभी जीवित है, अगर उस फकीर की कृपा हो जाए, तो राजा ठीक हो सकता है। Continue reading “सत्य का दर्शन-(प्रवचन-03)”

सत्य का दर्शन-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(प्रेम है दान स्वयं का)

मेरे प्रिय आत्मन्!

उस कहानी का संबंध कल मैंने जो आपसे कहा है उससे बहुत गहरा है। कल मैंने जो आपसे कहा है, वह उस कहानी में पूरा का पूरा वापस आपके सामने खड़ा हो सके, इसीलिए उसे दोहराऊंगा।

एक सम्राट के दरबार में एक दिन एक बहुत आश्चर्यजनक घटना घटने को थी। सारी राजधानी महल के द्वार पर इकट्ठी हो गई। शाही दरबार के सारे सदस्य मौजूद थे और सभी बड़ी आतुर प्रतीक्षा से ठीक घड़ी का इंतजार कर रहे थे। एक व्यक्ति ने आज से छह महीने पहले सम्राट को कहा था, तुम इतने बड़े सम्राट हो, तुम्हें साधारण आदमी के वस्त्र शोभा नहीं देते। तुम चाहो, तो मैं देवताओं के वस्त्र स्वर्ग से तुम्हारे लिए ला सकता हूं। सम्राट के लोगों को यह बात पकड़ गई थी। और उसने सोचा, उचित होगा यह, कि मनुष्य-जाति के इतिहास में मैं पहला मनुष्य होऊंगा, जिसने देवताओं के वस्त्र पहने। Continue reading “सत्य का दर्शन-(प्रवचन-02)”

सत्य का दर्शन-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(चित्त का निरीक्षण)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।

एक बहुत बड़े नगर में एक बहुत बड़े विशाल भवन के सामने बहुत भीड़ इकट्ठी थी। सत्रहवीं मंजिल से एक युवक उस भवन पर से कूद कर आत्महत्या करने को था। लोग उसे समझा रहे थे। सोलहवीं मंजिल पर भी लोग इकट्ठे थे और उस युवक को बचाने की कोशिश कर रहे थे। उस युवक ने अपने मकान के सब तरफ से द्वार बंद कर रखे थे और ऐसा प्रतीत होता था कि वह आज कूदे बिना नहीं मानेगा। और सत्रहवीं मंजिल से कूदने का क्या अर्थ हो सकता था? सोलहवीं मंजिल पर जो लोग इकट्ठे थे उनमें से एक बूढ़े ने उस युवक को समझाने की कोशिश की। उस वृद्ध ने कहाः बेटे, अपने मां-बाप का खयाल करो, यह तुम क्या कर रहे हो? वह युवक ऊपर से चिल्लायाः मेरे कोई मां-बाप नहीं हैं। उस बूढ़े ने कहाः तो अपने बच्चे, अपनी पत्नी का स्मरण करो, उनके जीवन का खयाल करो, यह तुम क्या कर रहे हो? उस युवक ने कहाः माफ करें, न मेरी कोई पत्नी है और न मेरे कोई बच्चे। लेकिन वृद्ध भी हार मानने को राजी न था। उसने अंतिम कोशिश की। Continue reading “सत्य का दर्शन-(प्रवचन-01)”

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