गीता दर्शन-(प्रवचन-088)

धर्म का सार: शरणागति—(प्रवचन—इकतीसवां) 

अध्याय –7

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप।। 27।।

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।। 28।।

हे भरतवंशी अर्जुन, संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए सुख-दुख आदि द्वंद्व रूप मोह से संपूर्ण प्राणी अति अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं। परंतु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो हे गया है, वे रागद्वेषादि द्वंद्व रूप मोह से मुक्त हुए और दृढ़ निश्चय वाले पुरुष मेरे को सब प्रकार से भजते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-088)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-087)

कामना और प्राथना—( प्रवचन—तीसवां)

अध्याय—7

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।। 23।।

परंतु उन अल्पबुद्धि वालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं।

कामनाओं से प्रेरित होकर की गई प्रार्थनाएं जरूर ही फल लाती हैं। लेकिन वे फल क्षणिक ही होने वाले हैं; वे फल थोड़ी देर ही टिकने वाले हैं। कोई भी सुख सदा नहीं टिक सकता, न ही कोई दुख सदा टिकता है। सुख और दुख लहर की तरह आते हैं और चले जाते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-087)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-086)

श्रद्धा का सेतु—(प्रवचन—उन्‍नतीवां)

अध्याय—7

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।। 21।।

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।

लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्।। 22।।

जो-जो सकामी भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की मैं उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूं। तथा वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त हुआ उस देवता के पूजन की चेष्टा करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-086)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-085)

मुखौटों से मुक्ति—(प्रवचन—अट्ठाईवां)

अध्याय—7

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।। 18।।

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।। 19।।

यद्यपि ये सब ही उदार हैं अर्थात श्रद्धासहित मेरे भजन के लिए समय लगाने वाले होने से उत्तम हैं, परंतु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरूप ही है, ऐसा मेरा मत है, क्योंकि वह स्थिर बुद्धि ज्ञानी भक्त अति उत्तम गति-स्वरूप मेरे में ही अच्छी प्रकार स्थित है। और जो बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी, सब कुछ वासुदेव ही है, इस प्रकार मेरे को भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-085)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-084)

जीवन अवसर है—(प्रवचन—सत्‍ताईवां)

अध्याय -7

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।। 15।।

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। 16।।

माया द्वारा हरे हुए ज्ञान वाले और आसुरी स्वभाव को धारण किए हुए तथा मनुष्यों में नीच और दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग तो मेरे को नहीं भजते हैं।

और हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन, उत्तम कर्म वाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात निष्कामी, ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मेरे को भजते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-084)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-083)

प्रकृति और परमात्मा—(प्रवचन—छबीसवां)

अध्याय-7

ये चैव सात्त्विा भावा राजसास्तामसाश्च ये।

मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि।। 12।।

और भी जो सत्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू मेरे से ही होते हैं ऐसा जान, परंतु वास्तव में उनमें मैं और वे मेरे में नहीं हैं।

प्रकृति परमात्मा में है, लेकिन परमात्मा प्रकृति में नहीं है। यह विरोधाभासी, पैराडाक्सिकल सा दिखने वाला वक्तव्य अति गहन है। इसके अर्थ को ठीक से समझ लेना उपयोगी है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-083)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-082)

आध्यात्मिक बल—(प्रवचन—पच्‍चीस) 

अध्याय –7

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।। 10।।

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।। 11।।

हे अर्जुन, तू संपूर्ण भूतों का सनातन कारण मेरे को ही जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूं।

और हे भरत श्रेष्ठ, मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूं, और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-082)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-081)

अदृश्य की खोज—(प्रवचन—चौबीसवां)

अध्याय-7

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।

अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।। 6।।

मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।। 7।।

और हे अर्जुन, तू ऐसा समझ कि संपूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पत्ति वाले हैं और मैं संपूर्ण जगत का उत्पत्ति तथा प्रलयरूप हूं, अर्थात संपूर्ण जगत का मूल कारण हूं।

हे धनंजय, मेरे सिवाय किंचितमात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है। यह संपूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में गुंथा हुआ है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-081)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-080)

परमात्मा की खोज—(प्रवचन—तेइसवां) 

अध्याय-7

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। 3।।

परंतु हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है, और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हुआ मेरे को तत्व से जानता है अर्थात यथार्थ मर्म से जानता है।

प्रभु की यात्रा सरल भी है और सर्वाधिक कठिन भी। सरल इसलिए कि जिसे पाना है, उसे हमने सदा से पाया ही हुआ है। जिसे खोजना है, उसे हमने वस्तुतः कभी खोया नहीं है। वह निरंतर ही हमारे भीतर मौजूद है, हमारी प्रत्येक श्वास में और हमारे हृदय की प्रत्येक धड़कन में। इसलिए सरल है प्रभु को पाना, क्योंकि प्रभु की तरफ से उसमें कोई भी बाधा नहीं है। इसे ठीक से ध्यान में ले लेंगे। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-080)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-079)

अनन्य निष्ठा (अध्याय—7) प्रवचन—बाईसवां

श्रीमद्भगवद्गीता

अथ सप्तमोऽध्यायः

श्रीभगवानुवाच

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युग्जन्मदाश्रयः।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।। 1।।

श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे पार्थ, तू मेरे में अनन्य प्रेम से आसक्त हुए मन वाला और अनन्य भाव से मेरे परायण योग में लगा हुआ मुझको संपूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त सबका आत्मरूप जिस प्रकार संशयरहित जानेगा, उसको सुन।

र्म मौलिक रूप से जीवन के प्रति एक प्रेमपूर्ण निष्ठा का नाम है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-079)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-078)

श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है (अध्याय—6) प्रवचन—इक्कीसवां

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।। 46।।

योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है, तथा सकाम कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है, इससे हे अर्जुन, तू योगी हो।

पस्वियों से भी श्रेष्ठ है, शास्त्र के ज्ञाताओं से भी श्रेष्ठ है, सकाम कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ है, ऐसा योगी अर्जुन बने, ऐसा कृष्ण का आदेश है। तीन से श्रेष्ठ कहा है और चौथा बनने का आदेश दिया है। तीनों बातों को थोड़ा-थोड़ा देख लेना जरूरी है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-078)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-077)

आंतरिक संपदा (अध्याय—6) प्रवचन—बीसवां

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।

यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।। 43।।

और वह पुरुष वहां उस पहले शरीर में साधन किए हुए बुद्धि के संयोग को अर्थात समत्वबुद्धि योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है। और हे कुरुनंदन, उसके प्रभाव से फिर अच्छी प्रकार भगवत्प्राप्ति के निमित्त यत्न करता है।

जीवन में कोई भी प्रयास खोता नहीं है। जीवन समस्त प्रयासों का जोड़ है, जो हमने कभी भी किए हैं। समय के अंतराल से अंतर नहीं पड़ता है। प्रत्येक किया हुआ कर्म, प्रत्येक किया हुआ विचार, हमारे प्राणों का हिस्सा बन जाता है। हम जब कुछ सोचते हैं, तभी रूपांतरित हो जाते हैं; जब कुछ करते हैं, तभी रूपांतरित हो जाते हैं। वह रूपांतरण हमारे साथ चलता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-077)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-076)

यह किनारा छोड़ें (अध्याय—6) प्रवचन—उन्नीसवां

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।। 40।।

हे पार्थ, उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है, क्योंकि हे प्यारे, कोई भी शुभ कर्म करने वाला अर्थात भगवत-अर्थ कर्म करने वाला, दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है।

र्जुन ने पूछा है कृष्ण से कि यदि न पहुंच पाऊं उस परलोक तक, उस प्रभु तक, जिसकी ओर तुमने इशारा किया है, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; साधना न कर पाऊं पूरी, मन न हो पाए थिर, संयम न सध पाए, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; तो कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं इसे भी खो दूं और उसे भी खो दूं! तो कृष्ण उसे उत्तर में कह रहे हैं; बहुत कीमती दो बातें इस उत्तर में उन्होंने कही हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-076)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-075)

तंत्र और योग (अध्याय—6) प्रवचन—अठारहवां

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।। ।।

मन को वश में न करने वाले पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है अर्थात प्राप्त होना कठिन है और स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा साधन करने से प्राप्त होना सहज है, यह मेरा मत है।

कृष्ण ने दोत्तीन बातें इस सूत्र में कही हैं, जो समझने जैसी हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-075)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-074)

वैराग्य और अभ्यास—(अध्याय—6) प्रवचन—सत्रहवां

प्रश्न: भगवान श्री, सुबह के श्लोक में चंचल मन को शांत करने के लिए अभ्यास और वैराग्य पर गहन चर्चा चल रही थी, लेकिन समय आखिरी हो गया था, इसलिए पूरी बात नहीं हो सकी। तो कृपया अभ्यास और वैराग्य से कृष्ण क्या गहन अर्थ लेते हैं, इसकी व्याख्या करने की कृपा करें।

राग है संसार की यात्रा का मार्ग, संसार में यात्रा का मार्ग। वैराग्य है संसार की तरफ पीठ करके स्वयं के घर की ओर वापसी। राग यदि सुबह है, जब पक्षी घोंसलों को छोड़कर बाहर की यात्रा पर निकल जाते हैं, तो वैराग्य सांझ है, जब पक्षी अपने नीड़ में वापस लौट आते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-074)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-073)

मन का रूपांतरण—(अध्याय-6) प्रवचन—सोलहवां

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।

एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।। 33।।

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। 34।।

हे मधुसूदन, जो यह ध्यानयोग आपने समत्वभाव से कहा है, इसकी मैं मन के चंचल होने से बहुत काल तक ठहरने वाली स्थिति को नहीं देखता हूं। क्योंकि हे कृष्ण, यह मन बड़ा चंचल और प्रमथन स्वभाव वाला है, तथा बड़ा दृढ़ और बलवान है, इसलिए उसका वश में करना मैं वायु की भांति अति दुष्कर मानता हूं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-073)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-072)

सर्व भूतों में प्रभु का स्मरण—(अध्याय—6) प्रवचन—पंद्रहवां

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।। 31।।

इस प्रकार जो पुरुष एकीभाव में स्थित हुआ संपूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बर्तता हुआ भी मेरे में बर्तता है।

कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन को सब भूतों में प्रभु को भजने के संबंध में कुछ कह रहे हैं। भजन का एक अर्थ तो हम जानते हैं, एकांत में बैठकर प्रभु के चरणों में समर्पित गीत; एकांत में बैठकर प्रभु के नाम का स्मरण; या मंदिर में प्रतिमा के समक्ष भावपूर्ण निवेदन। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-072)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-071)

अहंकार खोने के दो ढंग— (अध्याय-6) प्रवचन—चौदहवां

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।। 29।।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।। 30।।

और हे अर्जुन, सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त हुए आत्मा वाला तथा सबमें समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को संपूर्ण भूतों में बर्फ में जल के सदृश व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-071)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-070)

पदार्थ से प्रतिक्रमण–परमात्मा पर—(अध्याय-6) प्रवचन—तेरहवां

युग्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते।। 28।।

और वह पापरहित योगी इस प्रकार निरंतर आत्मा को परमात्मा में लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्मा की प्राप्तिरूप अनंत आनंद को अनुभव करता है।

पाप से रहित हुआ व्यक्तित्व आत्मा को सदा परमात्मा में लगाता हुआ परम आनंद को उपलब्ध होता है।

पाप से रहित हुआ पुरुष ही आत्मा को परमात्मा की ओर सतत लगा सकता है। पाप से रहित हुआ जो नहीं है, पाप में जो संलग्न है, वह आत्मा को सतत रूप से पदार्थ में लगाए रखता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-070)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-069)

मन साधन बन जाए—(अध्याय-6) प्रवचन—बारहवां

यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।। 26।।

परंतु जिसका मन वश में नहीं हुआ हो, उसको चाहिए कि यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस कारण से सांसारिक पदार्थों में विचरता है, उसे उससे रोककर बारंबार परमात्मा में ही निरोध करे।

न चंचल है। वही उसकी उपयोगिता भी है, वही उसका खतरा भी। मन चंचल होगा ही, क्योंकि मन का प्रयोजन ही ऐसा है कि उसे चंचल होना पड़े। मन की चंचलता ठीक वैसी है, जैसे कि हवा का रुख देखने के लिए कोई घर के ऊपर पक्षी का पंख लगा दे। अगर पंख चंचल न हो, तो हवा का रुख न बता पाए। हवा जिस तरफ बहे, पंख को उसी तरफ घूम जाना चाहिए, तो ही वह खबर दे पाएगा कि हवा का रुख क्या है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-069)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-068)

दुखों में अचलायमान—(अध्याय-6) प्रवचन—ग्यारहवां

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते।। 22।।

और परमेश्वर की प्राप्तिरूप जिस लाभ को प्राप्त होकर, उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता है, और भगवत्प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित हुआ योगी बड़े भारी दुख से भी चलायमान नहीं होता है।

प्रभु को पाने की कामना पूरी हो जाए, तो फिर और कोई कामना पूरी करने को शेष नहीं रह जाती है। प्रभु में प्रतिष्ठा मिल जाए, तो फिर किसी और प्रतिष्ठा का कोई प्रश्न नहीं है। मिल जाए प्रभु, तो फिर न मिलने को कुछ बचता है, न पाने को कुछ बचता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-068)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-067)

चित्त वृत्ति निरोध (अध्याय—6) प्रवचन—दसवां

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।। 20।।

और हे अर्जुन, जिस अवस्था में योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमेश्वर के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही संतुष्ट होता है।

योग से उपराम हुआ चित्त!

इस सूत्र में, कैसे योग से चित्त उपराम हो जाता है और जब चित्त उपराम को उपलब्ध होता है, तो प्रभु में कैसी प्रतिष्ठा होती है, उसकी बात कही गई है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-067)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-066)

योग का अंतर्विज्ञान (अध्याय—6) प्रवचन—नौवां

प्रश्न: भगवान श्री, योग के अभ्यास और उसकी आवश्यकता पर बात चल रही थी। आपने समझाया था कि धर्म और आत्मा तो हमारा स्वभाव ही है। उसे उपलब्ध नहीं करना है, वह मिला ही हुआ है। लेकिन योग का अभ्यास अशुद्धि को काटने के लिए करना पड़ता है। कृपया योगाभ्यास से अशुद्धि कैसे कटती है, इस पर कुछ कहें।

स्वभाव कहते हैं उसे, जो हमें मिला ही हुआ है। जिसे हम चाहें तो भी खो नहीं सकते। जिसे खोने का कोई उपाय नहीं है। स्वभाव का अर्थ है, जो मेरा होना ही है, जो हमारा अस्तित्व ही है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-066)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-065)

योगाभ्यास–गलत को काटने के लिए (अध्याय-6) प्रवचन—आठवां

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।

न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।। 16।।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।। 17।।

परंतु हे अर्जुन, यह योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध होता है और न बिलकुल न खाने वाले का तथा न अति शयन करने के स्वभाव वाले का और न अत्यंत जागने वाले का ही सिद्ध होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-065)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-064)

अपरिग्रही चित्त—(अध्याय—6) प्रवचन—सातवां

युग्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।

शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।। 15।।

इस प्रकार आत्मा को निरंतर परमेश्वर के स्वरूप में लगाता हुआ, स्वाधीन मन वाला योगी मेरे में स्थितरूप परमानंद पराकाष्ठा वाली शांति को प्राप्त होता है।

निरंतर परमात्मा में चेतना को लगाता हुआ योगी!

सुबह जिन सूत्रों पर हमने बात की है, उन्हीं सूत्रों की निष्पत्ति के रूप में यह सूत्र है। समझने जैसी बात इसमें निरंतर है। निरंतर शब्द को समझ लेने जैसा है। निरंतर का अर्थ है, एक भी क्षण व्यवधान न हो। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-064)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-063)

अंतर्यात्रा का विज्ञान (अध्याय—6) प्रवचन—छठवां

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।। 11।।

तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।

उपविश्यासने युग्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।। 12।।

शुद्ध भूमि में कुशा, मृगछाला और वस्त्र है उपरोपरि जिसके, ऐसे अपने आसन को न अति ऊंचा और न अति नीचा स्थिर स्थापन करके, और उस आसन पर बैठकर

तथा मन को एकाग्र करके, चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं को वश में किया हुआ, अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-063)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-062)

हृदय की अंतर-गुफा (अध्याय-6) प्रवचन—पांचवां

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।। 9।।

और जो पुरुष सुहृद, मित्र, बैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बंधुगणों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव वाला है, वह अति श्रेष्ठ है।

कृष्ण के लिए समत्वबुद्धि समस्त योग का सार है। इसके पूर्व के सूत्रों में भी अलग-अलग द्वारों से समत्वबुद्धि के मंदिर में ही प्रवेश की योजना कृष्ण ने कही है। इस सूत्र में भी पुनः किसी और दिशा से वे समत्वबुद्धि की घोषणा करते हैं। बहुत-बहुत रूपों में समत्वबुद्धि की बात करने का प्रयोजन है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-062)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-061)

ज्ञान विजय है (अध्याय-6) प्रवचन—चौथा

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।। 7।।

और हे अर्जुन, सर्दी-गर्मी और सुख-दुखादिकों में तथा मान और अपमान में जिसके अंतःकरण की वृत्तियां अच्छी प्रकार शांत हैं अर्थात विकाररहित हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं।

सुख-दुख में, प्रीतिकर-अप्रीतिकर में, सफलता- असफलता में, जीवन के समस्त द्वंद्वों में जिसकी आंतरिक स्थिति डांवाडोल नहीं होती है; कितने ही तूफान बहते हों, जिसकी अंतस चेतना की ज्योति कंपती नहीं है; जो निर्विकार भाव से भीतर शांत ही बना रहता है–अनुद्विग्न, अनुत्तेजित–ऐसी चेतना के मंदिर में, परम सत्ता सदा ही विराजमान है, ऐसा कृष्ण ने अर्जुन से कहा। तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-061)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-060)

मालकियत की घोषणा—(अध्याय-6) प्रवचन—तीसरा

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। 5।।

और यह योगारूढ़ता कल्याण में हेतु कही है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि अपने द्वारा आपका संसार समुद्र से उद्धार करे और अपने आत्मा को अधोगति में न पहुंचावे। क्योंकि यह जीवात्मा आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है अर्थात और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है।

योग परम मंगल है। परम मंगल इस अर्थ में कि केवल योग के ही माध्यम से जीवन के सत्य की और जीवन के आनंद की उपलब्धि है। परम मंगल इस अर्थ में भी कि योग की दिशा में गति करता व्यक्ति अपना मित्र बन जाता है। और योग के विपरीत दिशा में गति करने वाला व्यक्ति अपना ही शत्रु सिद्ध होता है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-060)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-059)

आसक्ति का सम्मोहन (अध्याय-6) प्रवचन—दूसरा

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।

योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते।। 3।।

और समत्वबुद्धिरूप योग में आरूढ़ होने की इच्छा वाले मननशील पुरुष के लिए योग की प्राप्ति में, निष्काम भाव से कर्म करना ही हेतु कहा है और योगारूढ़ हो जाने पर उस योगारूढ़ पुरुष के लिए सर्वसंकल्पों का अभाव ही कल्याण में हेतु कहा है।

मत्वबुद्धि योग का सार है। समत्वबुद्धि को सबसे पहले समझ लेना उपयोगी है। साधारणतः मन हमारा अतियों में डोलता है, एक्सट्रीम्स में डोलता है। या तो एक अति पर हम होते हैं, या दूसरी अति पर होते हैं। या तो हम किसी के प्रेम में पागल हो जाते हैं, या किसी की घृणा में पागल हो जाते हैं। या तो हम धन को पाने के लिए विक्षिप्त होते हैं, या फिर हम त्याग के लिए विक्षिप्त हो जाते हैं। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-059)”

गीता दर्शन-(प्रवचन-058)

गीता दर्शन—(भाग-3)

कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास (अध्याय-6) प्रवचन—पहला

श्रीमद्भगवद्गीता

अथ षष्ठोऽध्यायः

श्रीभगवानुवाच

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।। 1।।

श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, जो पुरुष कर्म के फल को न चाहता हुआ करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है और केवल अग्नि को त्यागने वाला संन्यासी, योगी नहीं है; तथा केवल क्रियाओं को त्यागने वाला भी संन्यासी, योगी नहीं है। Continue reading “गीता दर्शन-(प्रवचन-058)”

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