तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-48)-ओशो

तुम ही लक्ष्‍य हो—(प्रवचन—अड़तालीसए)

प्रश्‍नसार:

1—प्रेरणा और आदर्श में क्‍या फर्क है? क्‍या किसी जिज्ञासा  

      के लिए किसी से प्रेरणा लेना गलत है?

2—सामान्‍य होना क्‍या है? और आजकल इतनी विकृति क्‍यों है?

3—बोध को उपलब्‍ध हुए बिना उसे ‘अनुभव’ कैसे किया जा सकता है? 

       जो अभी घटा नहीं है उसका भाव कैसे संभव है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-48)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-47)-ओशो

मूलाधार से सहस्‍त्रार की ज्‍योति—यात्रा—(प्रवचन—सैतालीसवां)

सूत्र:

70—अपनी प्राण—शक्‍ति को मेरूदंड में ऊपर उठती,

        एक केंद्र से दूसरे केंद्र की और गति करती हुई

         प्रकाश—किरण समझों; ओरइस भांति तुममें

        जीवंतता का उदय होता है।

 71—या बीच के रिक्‍त स्‍थानों में ये बिजली कौंधने

            जैसा है—ऐसा भाव करो।

 72—भाव करो कि ब्रह्मांड एक पारदर्शी शाश्‍वत उपस्‍थिति है। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-47)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-46)-ओशो

समझ और समग्रता कुंजी है—(प्रवचन—छियालीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—मोक्ष की आकांक्षा कामना है या मनुष्‍य की मुलभूत अभीप्‍सा?

      2—हिंसा और क्रोध जैसे कृत्‍यों में समग्र रहकर कोई कैसे रूपांतरित हो सकता है?

      3—क्‍या आप बुद्धपुरूषों की नींद की गुणवत्‍ता और स्‍वभाव पर कुछ कहेंगे? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-46)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-45)-ओशो

न बंधन है न मोक्ष—(प्रवचन—पैतालीसवां)

सूत्र:

68—जैसे मुर्गी अपने बच्‍चों का पालन—पोषण करती है,

वैसे ही यथार्थ में विशेष ज्ञान और विशेष कृत्‍य का

पालन—पोषण करो।

69—यथार्थत: बंधन और मोक्ष सापेक्ष है; ये केवल विश्‍व से

      भयभीत लोगों के लिए है। यह विश्‍व मन का प्रतिबिंब है।

      जैसे तुम पानी में एक सूर्य के अनेक सूर्य देखते हो, वैसे

ही बंधन और मोक्ष को देखो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-45)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-44)-ओशो

आधुनिक मनुष्‍य प्रेम में असमर्थ क्‍यों—(प्रवचन—चव्‍वालीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—आधुनिक मनुष्‍य प्रेम करने में असमर्थ क्‍यों हो गया है?

2—केंद्र की उपलब्‍धि के लिए क्‍या परिधिगत गति बंद होनी आवश्‍यक है?

3—क्‍या चिंता और निराशा के बिना परिवर्तन को परिवर्तन के द्वारा विसर्जित करना कठिन नहीं है?

4—तनाव और भाग—दौड़ से भरे आधुनिक शहरी जीवन के प्रति तंत्र का क्‍या दृष्‍टिकोण है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-44)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-43)-ओशो

परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो—(प्रवचन—तीरालीसवां)

सार सूत्र:

66—मित्र और अजनबी के प्रति, मान और अपमान में,

      असमता के बीच समभाव रखो।

67—यह जगत परिवर्तन का है, परिवर्तन ही परिवर्तन

      का है। परिवर्तन के द्वारा परिवर्तन को विसर्जित करो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-43)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-42)-ओशो

आचरण नहीं, बोध मुक्‍तिदायी है—(प्रवचन—बयालीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—क्‍या अनैतिक जीवन ध्‍यान में बाधा नहीं पैदा कराता है?

2—यदि कोई नैतिक ढंग से जीता है तो क्‍या तंत्र को कोई आपत्‍ति है?

3—यदि कुछ भी अशुद्ध नहीं है तो दूसरों की देशनाएं अशुद्ध कैसे हो सकती है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-42)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-41)-ओशो

तंत्र : शुभाशुभ के पार, द्वैत के पार—(प्रवचन—इक्‍तालीसवां)

सूत्र:

64—छींक के आरंभ में, भय में, चिंता में, खाई—खड्ढ

के कगार पर, युद्ध से भागने पर, अत्‍यंत कुतूहल में,

भूख के आरंभ में और भूख के अंत में, सत्‍त बोध रखो।

65—अन्‍य देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे

लिए अशुद्धता ही है। वस्‍तुत: किसी को भी शुद्ध या

अशुद्ध की तरह मत जानो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-41)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-40)-ओशो

ज्ञान क्रमिक नहीं, आकस्‍मिक घटता है—(प्रवचन—चालीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—अगर प्रामाणिक अनुभव आकस्‍मिक ही घटता है

तो फिर यह क्रमिक विकास और दृष्‍टि की

स्‍वच्‍छता क्‍या है, जो हमे अनुभव होती है।

2—जब कोई व्‍यक्‍ति साक्षी चैतन्‍य में स्‍थित हो जाता है,

तो ध्रुवीय विपरीतताओं का क्‍या होता है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-40)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-39)-ओशो

यहीं मन बुद्ध है–(प्रवचन—उन्‍नतालीसवां)

सूत्र:

61—जैसे जल से लहरें उठतीं है और अग्‍नि से लपटें,

      वैसेही सर्वव्‍यापक हम से लहराता है।

62—जहां कहीं तुम्‍हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर,

      उसी स्‍थान पर, यह।

63—जब किसी इंद्रिय—विशेष के द्वारा स्‍पष्‍ट बोध हो,

      उसी बोध में स्‍थित होओ। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-39)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-38)-ओशो

जीवन एक मनोनाट्य है—(प्रवचन—अडतीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—आधुनिक मन अतीत अनुभवों की धूल से कैसे तादात्‍म्‍य कर लेता है?

2—जीवन को साइकोड्रामा की तरह देखने पर व्‍यक्‍ति अकेलापन अनुभव

      करता है। तब फिर जीवन के प्रति सम्‍यक दृष्‍टि क्‍या है?

3—मौन और लीला—भाव में साथ—साथ कैसे विकास करें? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-38)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-37)-ओशो

स्‍वीकार रूपांतरण है—(प्रवचन—सैतीसवां)

सूत्र:

57—तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्‍न रहो।

58—यह तथाकथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र—कृति

            जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।

 59—प्रिय, न सुख में और न दुःख में, बल्‍कि दोनों के

            मध्‍य में अवधान को स्‍थिर करो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-37)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-36)-ओशो

आत्‍म—स्‍मरण और विधायक दृष्‍टि—(प्रवचन—छत्‍तीसवां)

प्रश्‍न—सार:

1—आत्‍म–स्‍मरणमानव मन को कैसे रूपांतरित करता है?

2—विधायक पर जोर क्‍या समग्र स्‍वीकार के विपरीत नहीं है?

3—इस मायावी जगत में गुरु की क्‍या भूमिका और सार्थकता है? Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-36)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-35)-ओशो

स्‍वप्‍न नहीं,स्‍वप्‍नदर्शी सच है—(प्रवचन—पैंतीसवां)

सूत्र:

53—हे कमलाक्षी, हे सुभगे, गाते हुए, देखते हुए,

स्‍वाद लेते हुए या बोध बना रहे कि मैं हूं।

और शाश्‍वत आविर्भूत होता है।

54—जहां—जहां, जिस किसी कृत्‍य में संतोष मिलता हो,

      उसे वास्‍वतिक करो। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-35)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-34)-ओशो

तांत्रिक संभोग और समाधि—(प्रवचन—चौतीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—क्‍या आप भोग सिखाते है?

2—ध्‍यान में सहयोग की दृष्‍टि से संभोग में

      कितनी बार उतरना चाहिए?

3—क्‍या आर्गाज्‍म से ध्‍यान की ऊर्जा क्षीण नहीं होती?

4—आपने कहा कि काम—कृत्‍य धीमें, पर समग्र

      और अनियंत्रित होना चाहिए। कृपया इन दोनों Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-34)-ओशो”

तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-33)-ओशो

संभोग से ब्रह्मचर्य की यात्रा—(प्रवचन—तैतीसवां)

सूत्र—

48—काम—आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक

      अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए

अंत में उसके अंगारे से बचो।

49—ऐसे काम—आलिंगन में जब तुम्‍हारी इंद्रियां पत्‍तों

      की भांति कांपने लगें, उस कंपन में प्रवेश करो।

50—काम आलिंगन के बिना ऐसे मिलन का स्‍मरण

      करके भी रूपांतरण होगा। Continue reading “तंत्र-सूत्र-(प्रवचन-33)-ओशो”

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