कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-10)

दसवां –प्रवचन

अवधूत का अर्थ परंपरा का झूठ परख-बुद्धि प्रेम का त्याग आंसू की भाषा अशांति का स्वीकार पारलौकिक प्रेम

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना प्रातः दिनांक २० मई १९७७

प्रश्न-सार

1–अवधूत का क्या अर्थ है?

2–मलूकदास भक्त हो कर भी मूर्तिपूजा का मजाक क्यों उड़ाते हैं?

3–कन थोरे कांकर घने की परख-बुद्धि कैसे पायें?

4–प्रेम और त्याग में किसका महत्व बढ़कर है?

5–आपसे कैसे कहूं दिल की बात? आपको कैसे धन्यवाद दूं? आंसू बहते हैं!

6–जीवन में कोई अभिलाषा पूरी नहीं हुई; विषाद में डूबा हूं; अब मन कैसे शांत हो?

7–दूर जा रही हूं–पता नहीं कब आपके दर्शन हों! आशीष दें। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-10)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-09)

नौवां –प्रवचन  उधार धर्म से मुक्ति

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक १९ मई, १९७७

सारसूत्र:

देवल पूजे कि देवता, की पूजे पाहाड़।

पूजन को जांता भला, जो पीस खाय संसार।।

मक्का, मदिना, द्वारका, बदरी अरु केदार।

बिना दया सब झूठ है, कहै मलूक विचार।।

सब कोउ साहेब बंदते, हिंदू मुसलमान।

साहेब तिसको बंदता, जिसका ठौर इमान।।

दया धर्म हिरदे बसै, बोले अमरित बैन।

तेई ऊंचे जानिए, जिसके नीचे नैन।। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-09)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-08)

आठवां –प्रवचन

आध्यात्मिक पीड़ा निजता की खोज संन्यास और श्रद्धा अज्ञान का बोध

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक 18 मई, 1977;

प्रश्न-सार:

1–आपने मुझे घायल कर दिया है; मरहम-पट्टी कब होगी?

2–जीवन में इतनी उदासी और निराशा क्यों है?

3–मैंने संन्यास क्यों लिया है? श्रद्धा-भक्ति नहीं है, फिर भी बार-बार आपके पास क्यों आती हूं?

4–क्या समझ-देख कर आपने मुझ मूढ़ को आश्रम में स्थान दिया है? Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-08)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन–मिटने की कला: प्रेम  

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूक दास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रात; दिनांक 17 मई, 1977;

सारसूत्र:

सब बाजे हिरदे बजैं, प्रेम पखावज तार।

मंदिर ढूढ़त को फिरै, मिल्यो बजावनहार।।

करै पखावज प्रेम का, हृदय बजावै तार।

मनै नचावै मगर ह्वै, तिसका मता अपार।।

जो तेरे घट प्रेम है, तो कहि कहि न सुनाव।

अंतरजामी जानी है, अंतरगत का भाव।।

माला जपो न कर जपो, जिभ्या कहो न राम।

सुमिरन मेरा हरि करै, मैं पाया विसराम।।

जेती देखै आत्मा, तेते सालिगराम।

बोलनहारा पूजिए, पत्थर से क्या काम।। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-07)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-06)

छठवां -प्रवचन

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

जीवंत अनुभूति प्रकृति और सदगुरु प्रेम की हार भक्त का निवेदन परमात्मा की प्यास भलाई का अहंकार

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक 16 मई, 1977

प्रश्न सार:

1–आध्यात्मिक अनुभूतियों को कैसे संजो कर रखा जाए?

2–प्रकृति सान्निध्य और गुरु सान्निध्य में क्या फर्क है?

3–परमात्मा को पाना मनुष्य की जीत है या हार?

4–भक्त क्या पाना चाहता है?

5–परमात्मा की खोज का साहस मुझमें क्यों नहीं है?

6–मैं भलाई करता हूं, लोग अनुग्रह क्यों नहीं मानते? Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-06)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-05)

प्रभु की अनुकंपा –पांचवां–प्रवचन

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः, दिनांक 15 मई, 1977

सारसूत्र:

मील कद करी थी भलाई जीया आप जान,

फील कद हुआ था मुरीद कहु किसका।।

गीव कद ज्ञान की किताब का किनारा छुआ,

ब्याध और बधिक तारा, क्या निसाफ तिसका।।

नाग केद माला लैके बंदगी करी थी बैठ,

मुझको भी लगा था अजामिल का हिसका।।

एतै बदराहों की तम बदी करी थी माफ,

मलूक अजाती पर एती करी रिस का।। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-05)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन  –

भक्ति की शराब स्वभाव की उदघोषणा समानुभूति धारणा और भक्ति त्वरा और सातत्य जीवन-उत्सव

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रात;, दिनांक 14 मई 1977 ;

प्रश्न-सार:

1–भक्ति के लिए शराब की उपमा आप क्यों देते हैं?

2–मध्ययुगीन संत गरीब और पिछड़ें वर्ग से क्यों आये?

3–दूसरों के दुःख को अपना मानना कब संभव?

4–मिलन असंभव क्यों लगता है?

5–अनेक साधनाएं करके घटना क्यों नहीं घटी?

6–मृत्यु के रहते उदासी से कैसे मुक्त रहा जा सकता है? Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-04)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-03)

परमात्मा को रिझाना है-तीसरा प्रवचन:

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रात; दिनांक 13 मई, 1977;

सारसूत्र:

ना वह रिझै जप तप कीन्हें, ना आतम को जारे।

ना वह रीझै धोती टांगे, ना काया के पखारे।।

दया करै धरम मन राखै, घर में रहै उदासी।

अपना सा दुःख सब का जाने, ताहि मिलें अविनासी।।

सहै कुसब्द बादहू त्यागे, छांड़ै गर्व-गुमाना।

यही रीझ मेरे निरंकार की, कहत मलूक दिवाना।। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-03)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

क्रांतिद्रष्टा संत गूंगी प्रार्थना काम पक जाए, तो राम नाचो–गाओ–डूबो प्रभु-मिलन

कन थोरे  कांकर घने-(संत मलूकदास)

श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः दिनांक 12 मई, 1977

प्रश्न-सार:

1-बाबा मलूकदास जैसे अलमस्त फकीरों की परंपरा क्यों नहीं बन पाती?

2-प्रार्थना में क्या कहें? प्रभु-कृपा कैसे उपलब्ध हो?

3-शरीर और मन के संबंध तृप्त नहीं करते, क्या करूं?

4-कुछ समझ में नहीं आता?

5जब खो ही गये, तो परमात्मा से मिलन कैसा? Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-02)”

कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-01)

प्रवचन-पहला

कन थोरे कांकर घने-(संत मलूकदास)  –ओशो

सारसूत्र:

दर्द दीवाने बावरे, अलमस्त फकीरा।

एक अकीदा लौ रहे, ऐसे मन धीरा।।

प्रेम पियाला पीवते, बिसरे सब साथी।

आठ पहर यों झूमत, मैगल माता हाथी।।

उनकी नजर न आवते, कोई राजा-रंक।

बंधन तोड़े मोह के, फिरते निहसंक।।

साहेब मिल साहेब भए, कुछ रही न तमाई।

कहैं मलूक तिस घर गए, जंह पवन न जाई।। Continue reading “कन थोरे कांकर घने-(प्रवचन-01)”

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