मन का दर्पण-(प्रवचन-04)

मन का दर्पण-(विविध)

प्रवचन-चौथा-(ओशो)

प्रभु तो द्वार पर ही खड़ा है

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक बहुत बड़े मंदिर में बहुत पुजारी थे। विशाल वह मंदिर था। सैकड़ों पुजारी उसमें सेवारत थे। एक रात एक पुजारी ने स्वप्न देखा कि कल संध्या जिस प्रभु की पूजा वे निरंतर करते रहे थे, वह साक्षात मंदिर में आने को है। दूसरा दिन उस मंदिर में उत्सव का दिन हो गया। दिन भर पुजारियों ने मंदिर को स्वच्छ किया, साफ किया। प्रभु आने को थे, उनकी तैयारी थी। संध्या तक मंदिर सज कर वैभव की भांति खड़ा हो गया। मंदिर के कंगूरे-कंगूरे पर दीये जल रहे थे। धूप-दीप, फूल-सुगंध–मंदिर बिलकुल नया हो उठा था। Continue reading “मन का दर्पण-(प्रवचन-04)”

मन का दर्पण-(प्रवचन-03)

मन का दर्पण-(विविध)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

असंग की खोज

एक तो संगठनों पर मेरी कोई भी आस्था नही है, क्योंकि संगठन सभी अंततः खतरनाक सिद्ध होते हैं। और सभी संगठन अनिवार्यरूपेण संप्रदाय बनते हैं। तो एक तो संगठन कोई नहीं बनाना है। जीवन जागृति केंद्र एक बिलकुल मित्रों के मिलने का स्थल भर है, कोई संगठन नहीं है। ऐसा कोई संगठन नहीं है कि उसकी सदस्यता से कोई बंधता हो। न ऐसा कोई संगठन कि वह कोई किसी विशेष विचारधारा को मान कर उसका अनुयायी बनता हो।

अगर ठीक से मेरी बात समझें, तो मैं किसी विचार को नहीं फैलाना चाहता, विचार करने की प्रक्रिया को भर फैलाना चाहता हूं। यानी मैं कोई आइडियालाॅजी या कोई सिद्धांत नहीं देना चाहता किसी को। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति सोचने-समझने, स्वयं सोचने-समझने में कैसे समर्थ हो, इसकी व्यवस्था देना चाहता हूं। Continue reading “मन का दर्पण-(प्रवचन-03)”

मन का दर्पण-(प्रवचन-02)

मन का दर्पण-(विविध)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

स्वयं को जानना सरलता है

मेरे प्रिय आत्मन्!

मैं कौन हूं? इस प्रश्न का उत्तर शायद मनुष्य के द्वारा पूछे जाने वाले किसी भी प्रश्न से ज्यादा सरल है, और साथ ही और जल्दी से यह भी कह देना जरूरी है कि इस प्रश्न से ज्यादा कठिन किसी और प्रश्न का उत्तर भी नहीं है। सरलतम भी यही है और कठिनतम भी। सरल इसलिए है कि जो हम हैं अगर उसका प्रश्न भी हल न हो सके, अगर उसका उत्तर पाना भी सरल न हो, तो फिर इस जगत में किसी और प्रश्न का उत्तर पाना सरल नहीं हो सकता। जो मैं हूं, अगर मैं उसे भी न जान सकूं, तो मैं और किसे जान सकूंगा? Continue reading “मन का दर्पण-(प्रवचन-02)”

मन का दर्पण-(प्रवचन-01)

मन का दर्पण-(विविध)

पहला-प्रवचन-(ओशो)

एक नया द्वार

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य का जीवन रोज-रोज ज्यादा से ज्यादा अशांत होता चला जाता है और इस अशांति को दूर करने के जितने उपाय किए जाते हैं उनसे अशांति घटती हुई मालूम नहीं पड़ती और बढ़ती हुई मालूम पड़ती है। और जिन्हें हम मनुष्य के जीवन में शांति लाने वाले वैद्य समझते हैं वे बीमारियों से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध होते चले जाते हैं। ऐसा बहुत बार होता है कि रोग से भी ज्यादा औषधि खतरनाक सिद्ध होती है। अगर कोई निदान न हो, अगर कोई ठीक डाइग्नोसिस न हो, अगर ठीक से न पहचाना गया हो कि बीमारी क्या है, तो इलाज बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक सिद्ध हो तो आश्चर्य नहीं है। Continue reading “मन का दर्पण-(प्रवचन-01)”

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