36-गूलाल-(ओशो)

36-गूलाल-भारत के संत

झरत दसहुं दिस मोती-ओशो

आंखें हों तो परमात्मा प्रति क्षण बरस रहा है। आंखें न हों तो पढ़ो कितने ही शास्त्र, जाओ काबा, जाओ काशी, जाओ कैलाश, सब व्यर्थ है। आंख है, तो अभी परमात्मा है..यहीं! हवा की तरंग-तरंग में, पक्षियों की आवाजों में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के पत्तों में!

परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। हो भी नहीं सकता। परमात्मा एक अनुभव है। जिसे हो, उसे हो। किसी दूसरे को समझाना चाहे तो भी समझा न सके। शब्दों में आता नहीं, तर्को में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, गाओ कितने ही गीत, छूट-छूट जाता है। फेंको कितने ही जाल, जाल वापस लौट आते हैं। उस पर कोई पकड़ नहीं बैठती। Continue reading “36-गूलाल-(ओशो)”

35-दुल्हन-(ओशो)

35-दुल्हन-भारत के संत

प्रेम रस रंग औढ चदरियां-ओशो

मनुष्य तो बांस का एक टुकड़ा है–बस, बांस का! बांस की एक पोली पोंगरी । प्रभु के ओंठों से लग जाए तो अभिप्राय का जन्म होता है, अर्थ का जन्म होता है, महिमा प्रगट होती है। संगीत छिपा पड़ा है बांस के टुकड़े में, मगर उसके जादुई स्पर्श के बिना प्रकट न होगा। पत्थर की मूर्ति भी पूजा से भरे हृदय के समक्ष सप्राण हो जाती है। प्रेम से भरी आंखें प्रकृति में ही परमात्मा का अनुभव कर लेती हैं।

सारी बात परमात्मा से जुड़ने की है। उससे बिना जुड़े सब है और कुछ भी नहीं है। Continue reading “35-दुल्हन-(ओशो)”

34-यारि-(ओशो)

34-यारि-भारत के संत

विरहिनी मंदिर दियान बार-ओशो

एक बुद्धपुरुष का जन्म इस पृथ्वी पर परम उत्सव का क्षण है। बुद्धत्व मनुष्य की चेतना का कमल है। जैसे वसंत में फूल खिल जाते हैं, ऐसे ही वसंत की घड़ियां भी होती हैं पृथ्वी पर, जब बहुत फूल खिलते हैं, बहुत रंग के फूल खिलते हैं, रंग-रंग के फूल खिलते हैं। वैसे वसंत आने पृथ्वी पर कम हो गए, क्योंकि हमने बुलाना बंद कर दिया। वैसे वसंत अपने-आप नहीं आते, आमंत्रण से आते हैं। अतिथि बनाए हम उन्हें तो आते हैं। आतिथेय बनें हम उनके तो आते हैं। Continue reading “34-यारि-(ओशो)”

33-सरहपा-तिलोमा-(ओशो)

33-सरहपा-तिलोमा-भारत के संत

सहज-योग-ओशो

वसंत आया हुआ है। द्वार पर दस्तक दे रहा है। लेकिन तुम द्वार बंद किये बैठे हो।

जिस अपूर्व व्यक्ति के साथ हम आज यात्रा शुरू करते हैं, इस पृथ्वी पर हुए अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तियों में वह एक है। चौरासी सिद्धों में जो प्रथम सिद्ध है, सरहपा उसके साथ हम अपनी यात्रा आज शुरू करते हैं।

सरहपा के तीन नाम हैं, कोई सरह की तरह उन्हें याद करता है, कोई सरहपाद की तरह, कोई सरहपा की तरह। ऐसा प्रतीत होता है सरहपा के गुरु ने उन्हें सरह पुकारा होगा, सरहपा के संगी-साथियों ने उन्हें सरहपा पुकारा होगा, सरहपा के शिष्यों ने उन्हें सरहपाद पुकारा होगा। मैंने चुना है कि उन्हें सरहपा पुकारूं, क्योंकि मैं जानता हूं तुम उनके संगी-साथी बन सकते हो। तुम उनके समसामयिक बन सकते हो। सिद्ध होना तुम्हारी क्षमता के भीतर है। Continue reading “33-सरहपा-तिलोमा-(ओशो)”

32-बाबा गोरखनाथ—(ओशो)

32-बाबा गोरखनाथ—भारत के संत

मरो हे जोगी मरो-ओशो

महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन बारह लोग हैं–मेरी दृष्टि में–जो सबसे चमकते हुए सितारे हैं? मैंने उन्हें यह सूची दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखें बंद कर लीं, सोच में पड़ गये…।

सूची बनानी आसान भी नहीं है, क्योंकि भारत का आकाश बड़े नक्षत्रों से भरा है! किसे छोड़ो, किसे गिनो?…वे प्यारे व्यक्ति थे–अति कोमल, अति माधुर्यपूर्ण, स्त्रैण…। वृद्धावस्था तक भी उनके चेहरे पर वैसी ही ताजगी बनी रही जैसी बनी रहनी चाहिए। वे सुंदर से सुंदरतर होते गये थे…। मैं उनके चेहरे पर आते-जाते भाव पढ़ने लगा। उन्हें अड़चन भी हुई थी। कुछ नाम, जो स्वभावतः होने चाहिए थे, नहीं थे। राम का नाम नहीं था! उन्होंने आंख खोली और मुझसे कहा: राम का नाम छोड़ दिया है आपने! मैंने कहा: मुझे बारह की ही सुविधा हो चुनने की, तो बहुत नाम छोड़ने पड़े। Continue reading “32-बाबा गोरखनाथ—(ओशो)”

31-वाजिद शाह-(ओशो)

31-वाजिद शाह-भारत के संत

कहे वाजिद पूकार-ओशो

वाजिद–यह नाम मुझे सदा से प्यारा रहा है–एक सीधे-सादे आदमी का नाम, गैर-पढ़े-लिखे आदमी का नाम; लेकिन जिसकी वाणी में प्रेम ऐसा भरा है जैसा कि मुश्किल से कभी औरों की वाणी में मिले। सरल आदमी की वाणी में ही ऐसा प्रेम हो सकता है; सहज आदमी की वाणी में ही ऐसी पुकार, ऐसी प्रार्थना हो सकती है। पंडित की वाणी में बारीकी होती है, सूक्ष्मता होती है, सिद्धांत होता है, तर्क-विचार होता है, लेकिन प्रेम नहीं। प्रेम तो सरल-चित्त हृदय में ही खिलने वाला फूल है।

वाजिद बहुत सीधे-सादे आदमी हैं। एक पठान थे, मुसलमान थे। जंगल में शिकार खेलने गए थे। धनुष पर बाण चढ़ाया; तीर छूटने को ही था, छूटा ही था, कि कुछ घटा–कुछ अपूर्व घटा। भागती हिरणी को देखकर ठिठक गए, हृदय में कुछ चोट लगी, और जीवन रूपांतरित हो गया। तोड़कर फेंक दिया तीर-कमान वहीं। चले थे मारने, लेकिन वह जो जीवन की छलांग देखी–वह जो सुंदर हिरणी में भागता हुआ, जागा हुआ चंचल जीवन देखा–वह जो बिजली Continue reading “31-वाजिद शाह-(ओशो)”

30-संत चरण दास-(ओशो)

30-संत चरण दास-भारत के संत-ओशो

नहीं सांझ नहीं भोरओशो

चरणदास उन्नीस वर्ष के थे, तब यह तड़प उठी। बड़ी नई उम्र में तड़प उठी।

मेरे पास लोग आते है, वे पूछते हैः क्यों आप युवकों को भी संन्यास दे देते हैं? संन्यास तो वृद्धों के लिए है। शास्त्र तो कहते हैंः पचहत्तर साल के बाद। तो शास्त्र बेईमानों ने लिखे होंगे, जो संन्यास के खिलाफ हैं। तो शास्त्र उन्होंने लिखें होंगे, जो संसार के पक्ष में हैं। क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर तो पचहत्तर साल के बाद तुम बचोगे ही नहीं। संन्यास कभी होगा ही नहीं; मौत ही होगी। और इस दुनिया में जहां जवान को मौत आ जाती हो, वहां संन्यास को पचहत्तर साल तक कैसे टाला जा सकता है? Continue reading “30-संत चरण दास-(ओशो)”

29-मीरा बाई-(ओशो)

29-मीरा बाई-भारत के संत

पद धूंधरू बांध मीरा नाची रे-ओशो

आओ, प्रेम की एक झील में नौका-विहार करें। और ऐसी झील मनुष्य के इतिहास में दूसरी नहीं है, जैसी झील मीरा है। मानसरोवर भी उतना स्वच्छ नहीं।

और हंसों की ही गति हो सकेगी मीरा की इस झील में। हंस बनो, तो ही उतर सकोगे इस झील में। हंस न बने तो न उतर पाओगे।

हंस बनने का अर्थ है: मोतियों की पहचान आंख में हो, मोती की आकांक्षा हृदय में हो। हंसा तो मोती चुगे! Continue reading “29-मीरा बाई-(ओशो)”

28-अष्ठावक्र –(ओशो)

28-अष्ठावक्र –भारत के संत

अष्ठावक्र महागीता-ओशो

एक अनूठी यात्रा पर हम निकलते हैं।

मनुष्य-जाति के पास बहुत शास्त्र हैं, पर अष्टावक्र-गीता जैसा शास्त्र नहीं। वेद फीके हैं। उपनिषद बहुत धीमी आवाज में बोलते हैं। गीता में भी ऐसा गौरव नहीं; जैसा अष्टावक्र की संहिता में है। कुछ बात ही अनूठी है!

सबसे बड़ी बात तो यह है कि न समाज, न राजनीति, न जीवन की किसी और व्यवस्था का कोई प्रभाव अष्टावक्र के वचनों पर है। इतना शुद्ध भावातीत वक्तव्य, समय और काल से अतीत, दूसरा नहीं है। शायद इसीलिए अष्टावक्र की गीता, अष्टावक्र की संहिता का बहुत प्रभाव नहीं पड़ा। Continue reading “28-अष्ठावक्र –(ओशो)”

27-संत रैैदास-(ओशो)

27-संत रैदास-भारत के संत-ओशो

मन ही पूजा मन ही धूप-रैदास

दमी को क्या हो गया है? आदमी के इस बगीचे में फूल खिलने बंद हो गए! मधुमास जैसे अब आता नहीं! जैसे मनुष्य का हृदय एक रेगिस्तान हो गया है, मरूद्यान भी नहीं कोई। हरे वृक्षों की छाया भी न रही। दूर के पंछी बसेरा करें, ऐसे वृक्ष भी न रहे। आकाश को देखने वाली आखें भी नहीं। अनाहत को सुनने वाले कान भी नहीं। मनुष्य को क्या हो गया है?

मनुष्य ने गरिमा कहां खो दी है? यह मनुष्य का ओज कहां गया? इसके मूल कारण की खोज करनी ही होगी। और मूल कारण कठिन नहीं है समझ लेना। जरा अपने ही भीतर खोदने की बात है और जड़ें मिल जाएंगी समस्या की। एक ही जड़ है कि हम अपने से वियुक्त हो गए हैं; अपने से ही टूट गए हैं अपने से ही अजनबी हो गए हैं! Continue reading “27-संत रैैदास-(ओशो)”

26-भगवान महावीर-(ओशो)

26-भगवान महावीर-भारत के संत

महावीर मेंरी दृष्टि में-ओशो प्रवचन-01

 महावीर से प्रेम

मैं महावीर का अनुयायी तो नहीं हूं, प्रेमी हूं। वैसे ही जैसे क्राइस्ट का, कृष्ण का, बुद्ध का या लाओत्से का। और मेरी दृष्टि में अनुयायी कभी भी नहीं समझ पाता है।

और दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं, साधारणतः। या तो कोई अनुयायी होता है, और या कोई विरोध में होता है। न अनुयायी समझ पाता है, न विरोधी समझ पाता है। एक और रास्ता भी है–प्रेम, जिसके अतिरिक्त हम और किसी रास्ते से कभी किसी को समझ ही नहीं पाते। अनुयायी को एक कठिनाई है कि वह एक से बंध जाता है और विरोधी को भी यह कठिनाई है कि वह विरोध में बंध जाता है। सिर्फ प्रेमी को एक मुक्ति है। प्रेमी को बंधने का कोई कारण नहीं है। और जो प्रेम बांधता हो, वह प्रेम ही नहीं है। Continue reading “26-भगवान महावीर-(ओशो)”

25-भगवान कृष्ण-(ओशो)

25-भगवान कृष्ण-भारत के संत

कृष्णस्मृति-ओशो

पूर्णता का नाम कृष्ण

जीवन एक विशाल कैनवास है, जिसमें क्षण-क्षण भावों की कूची से अनेकानेक रंग मिल-जुल कर सुख-दुख के चित्र उभारते हैं। मनुष्य सदियों से चिर आनंद की खोज में अपने पल-पल उन चित्रों की बेहतरी के लिए जुटाता है। ये चित्र हजारों वर्षों से मानव-संस्कृति के अंग बन चुके हैं। किसी एक के नाम का उच्चारण करते ही प्रतिकृति हंसती-मुस्काती उदित हो उठती है।

आदिकाल से मनुष्य किसी चित्र को अपने मन में बसाकर कभी पूजा, तो कभी आराधना, तो कभी चिंतन-मनन से गुजरता हुआ ध्यान की अवस्था तक पहुंचता रहा है। इतिहास में, पुराणों में ऐसे कई चित्र हैं, जो सदियों से मानव संस्कृति को प्रभावित करते रहे हैं। महावीर, क्राइस्ट, बुद्ध, राम ने मानव-जाति को गहरे छुआ है। इन सबकी बातें अलग-अलग हैं। कृष्ण ने इन सबके रूपों-गुणों को अपने आपमें समाहित किया है। Continue reading “25-भगवान कृष्ण-(ओशो)”

24-भगवान गौतमबुद्ध-(ओशो)

भगवान गौतम बुद्ध-भारत के संत

एस धम्मों सनंतनो-भाग-01 -ओशो

गौतम बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं, हिमाच्छादित पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे। पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है, उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम-भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं।

गौतम बुद्ध की वाणी अनूठी है। और विशेषकर उन्हें, जो सोच-विचार, चिंतन-मनन, विमर्श के आदी हैं। Continue reading “24-भगवान गौतमबुद्ध-(ओशो)”

23-गुरू नानन देव-(ओशो)

गुरू नानन देव-भारत के संत

इक ओंकार सतिनाम –ओशो

एक अंधेरी रात। भादों की अमावस। बादलों की गड़गड़ाहट। बीच-बीच में बिजली का चमकना। वर्षा के झोंके। गांव पूरा सोया हुआ। बस, नानक के गीत की गूंज।

रात देर तक वे गाते रहे। नानक की मां डरी। आधी रात से ज्यादा बीत गई। कोई तीन बजने को हुए। नानक के कमरे का दीया जलता है। बीच-बीच में गीत की आवाज आती है। नानक के द्वार पर नानक की मां ने दस्तक दी और कहा, बेटे! अब सो भी जाओ। रात करीब-करीब जाने को हो गई।

नानक चुप हुए। और तभी रात के अंधेरे में एक पपीहे ने जोर से कहा, पियू-पियू। Continue reading “23-गुरू नानन देव-(ओशो)”

22-आदि शंकरा चार्य-(ओशो)

आदि शंकरा चार्य-भारत के संत

भजगोविंद मुढ़मते-ओशो

धर्म व्याकरण के सूत्रों में नहीं है, वह तो परमात्मा के भजन में है। और भजन, जो तुम करते हो, उसमें नहीं है। जब भजन भी खो जाता है, जब तुम ही बचते हो; कोई शब्द आस-पास नहीं रह जाते, एक शून्य तुम्हें घेर लेता है। तुम कुछ बोलते भी नहीं, क्योंकि परमात्मा से क्या बोलना है! तुम्हारे बिना कहे वह जानता है। तुम्हारे कहने से उसके जानने में कुछ बढ़ती न हो जाएगी। तुम कहोगे भी क्या? तुम जो कहोगे वह रोना ही होगा। और रोना ही अगर कहना है तो रोकर ही कहना उचित है, क्योंकि जो तुम्हारे आंसू कह देंगे, वह तुम्हारी वाणी न कह पाएगी। अगर अपना अहोभाव प्रकट करना हो, तो बोल कर कैसे प्रकट करोगे? शब्द छोटे पड़ जाते हैं। अहोभाव बड़ा विराट है, शब्दों में समाता नहीं, उसे तो नाच कर ही कहना उचित होगा। अगर कुछ कहने को न हो, तो अच्छा है चुप रह जाना, ताकि वह बोले और तुम सुन सको। Continue reading “22-आदि शंकरा चार्य-(ओशो)”

21-ऋषि नारद-(ओशो)

ऋषि नारद-भारत के संत

भक्ति सूत्र–ओशो

जीवन है ऊर्जा — ऊर्जा का सागर। समय के किनारे पर अथक, अंतहीन ऊर्जा की लहरें टकराती रहती हैं: न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत; बस मध्य है, बीच है। मनुष्य भी उसमें एक छोटी तरंग है; एक छोटा बीज है — अनंत संभावनाओं का।

तरंग की आकांक्षा स्वाभाविक है कि सागर हो जाए और बीज की आकांक्षा स्वाभाविक है कि वृक्ष हो जाए। बीज जब तक फूलों में खिले न, तब तक तृप्ति संभव नहीं है। Continue reading “21-ऋषि नारद-(ओशो)”

20-ऋषि शांडिल्य-(ओशो)

ऋषि शांडिल्य-भारत के संत

( अथातो भक्ति जिज्ञासा)–ओशो

इस जगत को पीने की कला है भक्ति। और जगत को जब तुम पीते हो तो कंठ में जो स्वाद आता है, उसी का नाम भगवान है। इस जगत को पचा लेने की कला है भक्ति। और जब जगत पच जाता है तुम्हारे भीतर और उस पचे हुए जगत से रस का आविर्भाव होता है–रसो वै सः–उस रस को जगा लेने की कीमियां है भक्ति।

शांडिल्य ने ठीक ही किया जो भगवान की जिज्ञासा से शुरू नहीं की बात। भगवान की जिज्ञासा दार्शनिक करते हैं। दार्शनिक कभी भगवान तक पहुंचते नहीं; विचार करते हैं भगवान का। जैसे अंधा विचार करे प्रकाश का। बस ऐसे ही उनके विचार हैं। अंधे की कल्पनाएं, अनुमान। उन अनुमानों में कोई भी निष्कर्ष कभी नहीं। निष्कर्ष तो अनुभव से आता है। Continue reading “20-ऋषि शांडिल्य-(ओशो)”

19-दरियाशाह (बिहार वाले)-ओशो

दरियाशाह (बिहार वाले)-भारत के संत

दरिया कहै शब्द निरबाना-(ओशो)

निर्वाण को शब्द में कहा तो नहीं जा सकता है। निर्वाण को भाषा में व्यक्त करने का कोई उपाय तो नहीं। फिर भी समस्त बुद्धों ने उसे व्यक्त किया है। जो नहीं हो सकता उसे करने की चेष्टा की है। असंभव प्रयास अगर पृथ्वी पर काई भी हुआ है तो वह एक ही है–उसे कहने की चेष्टा, जो नहीं कहा जा सकता। उसे बताने की व्यवस्था, जो नहीं बताया जा सकता।

और ऐसा भी नहीं है कि बुद्धपुरुष सफल न हुए हों। सभी के साथ सफल नहीं हुए, यह सच है। क्योंकि जिन्होंने न सुनने की जिद्द ही कर रखी थी, उनके साथ सफल होने का कोई उपाय ही न था। उनके साथ तो अगर निर्वाण को शब्द में कहा भी जा सकता होता तो भी सफलता की कोई संभावना न थी। क्योंकि वे वज्र-बधिर थे। Continue reading “19-दरियाशाह (बिहार वाले)-ओशो”

18-दरिया दास—(ओशो)

दरिया दास—भारत के संत

अमी झरत विगसत कंवल–ओशो 

मनुष्य-चेतना के तीन आयाम हैं। एक आयाम है–गणित का, विज्ञान का, गद्य का। दूसरा आयाम है–प्रेम का, काव्य का, संगीत का। और तीसरा आयाम है–अनिर्वचनीय। न उसे गद्य में कहां जा सकता, न पद्य में! तर्क  तो असमर्थ है ही उसे कहने में, प्रेम के भी पंख टूट जाते हैं! बुद्धि तो छू ही नहीं पाती उसे, हृदय भी पहुंचते-पहुंचते रह जाता है!

जिसे अनिर्वचनीय का बोध हो वह क्या करें? कैसे कहे? अकथ्य को कैसे कथन बनाए? जो निकटतम संभावना है, वह है कि गाये, नाचे, गुनगुनाए। इकतारा बजाए कि ढोलक पर थाप दे, कि पैरों में घुंघरू बांधे, कि बांसुरी पर अनिर्वचनीय को उठाने की असफल चेष्टा करे। Continue reading “18-दरिया दास—(ओशो)”

17-संत भीखा दास-(ओशो)

संत भीखा दास—गुरू प्रताप साध की  संगत-(ओशो) 

भीख जब छोटा बच्‍चा था। लोग हंसते थे कि तू समझता क्‍या। शायद साधुओं के विचित्र रंग-ढंग को देखकर चला जाता है। शायद उनके गैरिक वस्‍त्र,दाढ़ियां उनके बड़े-बड़े बाल, उनकी धूनी उनके चिमटे, उनकी मृदंग, उनकी खंजड़ी,यह सब देखकर तू जाता होगा भीखा। लेकिन किसको पता था कि भीखा यह सब देख कर नहीं जाता। उसका सरल  ह्रदय उसका अभी कोरा

कागज जैसा ह्रदय पीने लगा है, आत्‍मसात करने लगा है। वह जो परम अनुभव प्रकाश का साधुओं की मस्‍ती है उसे छूने लगी है। उसे दीवाना करने लगी है। वह जो परम अनुभव प्रकाश का साधुओं के पास है, उससे वह आन्‍दोलित होने लगा है। वह जो साधुओं की मस्‍ती है उसे छूने लगी है, उसे दीवाना करने लगी है। वह भी पियक्‍कड़ होने लगा है। Continue reading “17-संत भीखा दास-(ओशो)”

16-सदाशिव स्‍वामी—(ओशो)

सदाशिव स्‍वामी—भारत के संत -(ओशो)

    दक्षिण भारत में एक अपूर्व संत हुआ जिसका नाम था–सदाशिव स्‍वामी। एक दिन अपने गुरु के आश्रम में एक पंडित को आया देख कर विवाद में उलझ गया। उसने उस पंडित के सारे तर्क तोड़ दिये। उसके एक-एक शब्‍द को तार-तार कर दिया। उसके सारे आधार जिन पर वह तर्क कर रहा था धराशायी कर दिये। उसकी हर बात का खंडन करता चला गया। उस पंडित की पंडिताई को तहस नहस कर डाला। पंडित बहुत ख्‍यातिनाम था। तो सदाशिव सोचते थे कि गुरु पीठ थपथपायेगा और कहेगा, कि ठीक किया, इसको रास्‍तेपर लगाया। लेकिन जब पंडित चला गया तो गुरु ने केवल इतना ही कहां: सदाशिव, अपनी वाणी पर कब संयम करोगे? क्‍यों व्‍यर्थ, व्‍यर्थ उलझते हो इस जंजाल में। ये तुम्‍हें स्‍वयं के भीतर तुम्‍हें न जाने देगी। हो सकता है तुम्‍हारा ज्ञान तुम्‍हारे अहं को पोषित करने लग जाये। ज्ञान तलवार की तरह है। और ध्‍यानी का ज्ञान तो दो धारी तलवार। जिसके दोनों तरफ धार होती है। पंडित को ज्ञान तो एक तरफ का होता है। इससे बच संभल। और देख अपने अंदर।    Continue reading “16-सदाशिव स्‍वामी—(ओशो)”

15-संत दादूदयाल-(ओशो)

15- दादूदयाल और सूंदरो—भारत के संत-(ओशो) 

कहो होत अधिर-पलटूदास 

दादू के चेले तो अनेक थे पर दो ही चेलों का नाम मशहूर है। एक रज्‍जब और दूसरा सुंदरो। आज आपको सुंदरो  कि विषय में एक घटना कहता हूं। दादू की मृत्‍यु हुई। तब दादू के दोनों चलो ने बड़ा अजीब व्यवहार किया। रज्‍जब ने आंखे बंध कर ली और पूरे जीवन कभी खोली ही नहीं। उसने कहां जब देखने लायक था वहीं चला गया तो अब और क्‍या देखना सो रज्‍जब जितने दिन जिया आंखे बंध किये रहा। और दूसरा सुंदरो—उधर दादू की लाश उठाई जा रही थी। अर्थी सजाई जारही थी। वह श्मशान घाट भी नहीं गया और दादू के बिस्‍तर पर उनका कंबल ओढ़ कर सो गया। फिर उसने कभी बिस्‍तर नहीं छोड़ा। बहुत लोगों ने कहा ये भी कोई ढंग है। बात कुछ जँचती नहीं।ये भी कोई जाग्रत पुरूषों के ढंग हुये एक ने आँख बंद कर ली और दूसरा बिस्‍तरे में लेट गया। और फिर उठा ही नहीं। जब तक मर नहीं गया। Continue reading “15-संत दादूदयाल-(ओशो)”

14-संत बाबा शेख फरीद-(ओशो)

संत बाबा शेख फरीद—भारत के संत-(ओशो) 

     शेख फरीद के पास कभी एक युवक आया। और उस युवक ने पूछा कि सुनते है कि हम जब मंसूर के हाथ काटे गये, पैर काटे गये। तो मंसूर को कोई तकलीफ न हुई। लेकिन विश्‍वास नहीं आता। पैर में कांटा गड़ जाता है, तो तकलीफ होती है। हाथ-पैर काटने से तकलीफ न हुई होगी? यह सब कपोल-काल्‍पनिक बातें है। ये सब कहानी किसे घड़े हुये से प्रतीत होते है। और उस आदमी ने कहां, यह भी हम सुनते है कि जीसस को जब सूली पर लटकाया गया,तो वे जरा भी दुःखी न हुए। और जब उनसे कहा गया कि अंतिम कुछ प्रार्थना करनी हो तो कर सकते हो। तो सूली पर लटके हुए, कांटों के छिदे हुए, हाथों में कीलों से बिंधे हुए, लहू बहते हुए उस नंगे जीसस ने अंतिम क्षण में जो कहा वह विश्‍वास के योग्‍य नहीं है। उस आदमी ने कहा, जीसस ने यह कहा कि क्षमा कर देना इन लोगों को, क्‍योंकि ये नहीं जानते कि ये क्‍या कर रहे है। Continue reading “14-संत बाबा शेख फरीद-(ओशो)”

13-संत भर्तृहरि-(ओशो)

संत भर्तृहरि—भारत के संत -(ओशो) 

    भर्तृहरि ने घर छोड़ा। देखा लिया सब। पत्‍नी का प्रेम, उसका छलावा, अपने ही हाथों आपने छोटे भाई विक्रमादित्‍य की हत्‍या का आदेश। मन उस राज पाठ से वैभव से थक गया। उस भोग में केवल पीड़ा और छलावा ही मिला। सब कुछ को खूब देख परख कर छोड़ा। बहुत कम लोग इतने पककर छोड़ते है इस संसार को जितना भर्तृहरि ने छोड़ा है। अनूठा आदमी रहा होगा भर्तृहरि। खूब भोगा। ठीक-ठीक उपनिषद के सूत्र को पूरा किया: ‘’तेन त्‍यक्‍तेन भुंजीथा:।‘’ खूब भोगा।एक-एक बूंद निचोड़ ली संसार की। लेकिन तब पाया कि कुछ भी नहीं है। अपने ही सपने है, शून्‍य में भटकना है। Continue reading “13-संत भर्तृहरि-(ओशो)”

12-बाबा हरिदास-(ओशो)

फकीर संत  बाबा हरिदास—भारत के संत -(ओशो) 

अकबर ने एक दिन तानसेन को कहा, तुम्‍हारे संगीत को सुनता हूं, तो मन में ऐसा ख्‍याल उठता है कि तुम जैसा गाने वाला शायद ही इस पृथ्‍वी पर कभी हुआ हो और न हो सकेगा। क्‍योंकि इससे ऊंचाई और क्‍या हो सकेगी। इसकी धारणा भी नहीं बनती। तुम शिखर हो। लेकिन कल रात जब तुम्‍हें विदा किया था, और सोने लगा तब अचानक ख्‍याल आया। हो सकता है, तुमने भी किसी से सीखा है, तुम्‍हारा भी कोई गुरू होगा। तो मैं आज तुमसे पूछता हूं। कि तुम्‍हारा कोई गुरू है? तुमने किसी से सीखा है? Continue reading “12-बाबा हरिदास-(ओशो)”

11-धनी धर्मदास-(ओशो)

11-धनी धर्मदास-भारत के संत

का सोवे दिन रैन—जस पनिहार धरे सिर गागर-(ओशो)

धनी धरमदास की भी ऐसी ही अवस्था थी। धन था, पद थी, प्रतिष्ठा थी। पंडित-पुरोहित घर में पूजा करते थे। अपना मंदिर था। और खूब तीर्थयात्रा करते थे। शास्त्र का वाचन चलता था, सुविधा थी बहुत, सत्संग करते थे। लेकिन जब तक कबीर से मिलन न हुआ तब तक जीवन नीरस था। जब तक कबीर से मिलना न हुआ तब तक जीवन में फूल न खिला था। कबीर को देखते ही अड़चन शुरू हुई, कबीर को देखते ही चिंता पैदा हुई, कबीर को देखते ही दिखाई पड़ा कि मैं तो खाली का खाली रह गया हूं। ये सब पूजा-पाठ, ये सब यज्ञ-हवन, ये पंडित और पुरोहित किसी काम नहीं आए हैं। मेरी सारी अर्चनाएं पानी में चली गई हैं। मुझे मिला क्या? कबीर को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या? मिले हुए को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या? Continue reading “11-धनी धर्मदास-(ओशो)”

10-दयावाई-(ओशो)

दयावाई-भारत के संत

जगत तरैया भोर की-ओशो

संत का अर्थ है, प्रभु ने जिसके तार छेड़े। संतत्व का अर्थ है, जिसकी वीणा अब सूनी नहीं; जिस पर प्रभु की अंगुलियां पड़ीं। संत का अर्थ है, जिस गीत को गाने को पैदा हुआ था व्यक्ति, वह गीत फूट पड़ा; जिस सुगंध को ले कर आया था फूल, वह सुगंध हवाओं में उड़ चली। संतत्व का अर्थ है, हो गए तुम वही जो तुम्हारी नियति थी। उस नियति की पूर्णता में परम आनंद है स्वभावतः।

बीज जब तक बीज है तब तक दुखी और पीड़ित है। बीज होने में ही दुख है। बीज होने का अर्थ है, कुछ होना है और अभी तक हो नहीं पाए। बीज होने का अर्थ है, खिलना है और खिले नहीं; फैलना है और फैले नहीं; होना है और अभी हुए नहीं। बीज का अर्थ है, अभी प्रतीक्षा जारी है; अभी राह लंबी है; मंजिल आई नहीं। Continue reading “10-दयावाई-(ओशो)”

09-सहजो बाई-ओशो

सहजो बाई—भारत के संत 

बिन घन परत फुुहार-सहजो बाई

     अब तक मैं मुक्‍त पुरूषों पर ही बोला हूं। पहली बार एक मुक्‍त नारी पर चर्चा शुरू करता हूं। मुक्‍त पुरूषों पर बोलना आसान था। उन्‍हें में समझ सकता हूं-वे सजातीय है। मुक्‍त नारी पर बोलना थोड़ा कठिन है। वह थोड़ा अंजान, अजनबी रस्‍ता है। ऐसे तो पुरूष ओर नारी अंतरतम में एक ही है। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति बड़ी भिन्‍न-भिन्‍न है। उनके होने का ढंग उनके दिखाई पड़ने की व्‍यवस्‍था उनका व्‍यक्‍तित्‍व उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्‍न है बल्‍कि विपरीत भी है।

अब तक किसी मुक्‍त नारी पर न बोला। सोचा तुम थोड़ा मुक्‍त पुरूषों को समझ लो। तुम थोड़ा मुक्‍ति का स्‍वाद ले लो। तो मुक्‍त नारी को समझना थोड़ा आसान हो जाए। Continue reading “09-सहजो बाई-ओशो”

08-संत दादू दयाल-(ओशो)

08-दादू दयाल-भारत के संत

सबै सयाने एक मत-पिव-पिव लागी प्यास-(ओशो)

संकल्पवान परमात्मा को खोजेगा, फिर झुकेगा। पहले उसके चरण खोज लेगा, फिर सिर झुकाएगा। समर्पण से भरा हुआ व्यक्ति, भक्त, सिर झुकाता है; और जहां सिर झुका देता है, वहीं उसके चरण पाता है। गिर पड़ता है, आंखें आंसू से भर जाती हैं। रोता है, चीखता है, पुकारता है, विरह की वेदना उसे घेर लेती है। और जहां उसके विरह का गीत पैदा होता है, वहीं परमात्मा प्रकट हो जाता है।

तुम्हारी मर्जी! जैसे चलना हो। लेकिन दादू दूसरे मार्ग के अनुयायी हैं। उन्हें समझना हो तो एक शब्द है–समर्पण। उसे ही ठीक से समझ लिया तो दादू समझ में आ जाएंगे। Continue reading “08-संत दादू दयाल-(ओशो)”

07-संत रज्‍जब दास-(ओशो)

भारत के संत -(ओशो)

संत रज्‍जब दास—सातवाां

रज्जब तैं त किया गज्‍जब……

आज हम जिस अनूठे आदमी की बाणी में यात्रा करेंगे, वह आदमी निश्‍चित अनूठा रहा होगा। कभी ऐसे अनूठे आदमी होते है। और उनके जीवन से जो पहला पाठ मिल सकता है वह यही है।

संत रज्‍जब की जिंदगी बड़े अद्भुत ढंग से शुरू होती है। तुमने सोचा भी न होगा कि ऐसे भी कहीं जिंदगी बदलती है। वह भी कोई जिंदगी के बदलने का ढंग है। रज्‍जब मुसलमान थे। पठान थे। किसी युवती के प्रेम में थे। विवाह का दिन आ गया। बारात सजी। बारात चली। रज्‍जब घोड़े पर सवार। मौर बाँधा हुआ सिर पर। बाराती साथ है,बैंडबाजा है इत्रका छिड़काव है, फूलों की मालाएँ है। और बीच बाजार में अपनी ससुराल के करीब पहुंचने को ही थे। दस पाँच कदम शेष‍ रह गये थे। सूसराल के लोग स्‍वागत के लिए तैयार थे सूसराल के लोग—और यह क्रांति घटी। कि Continue reading “07-संत रज्‍जब दास-(ओशो)”

06-संत पलटूबनिया—(ओशो)

भारत के संत-ओशो

अजहूं चेत गंवार-(संत पलटूबनिया)

पलटू दास के संबंध में बहुत ज्‍यादा ज्ञान नहीं है। संत तो पक्षियों के जैसे होते है। आकाश पर उड़ते जरूर है, लेकिन पदचिन्‍ह नहीं छोड़ते जाते है।। संतों के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात नहीं रहता है। संत का होना ही अज्ञात है। अनाम। संत का जीवन अन्तर जीवन है। बहार के जीवन के तो परिणाम होते है। इतिहास पर इति वृति बनता है। घटनाएं घटती है। बहार के जीवन की। भीतर के जीवन की तो कहीं कोई रेखा नहीं होती। भीतर के जीवन की तो समय की रेत पर कोई अंकन नहीं होता। भीतर का जीवन तो शाश्‍वत,सनातन,समयातित जीवन हे। जो भीतर जीते है उन्‍हें तो वे ही पहचान पाएंगे जो भीतर जायेंगे। इसलिए सिकंदरों हिटलरों चंगैज खां और नादिर शाह इनका तो पूरा इतिहास मिल जाएगा। इनका तो पूरा बहार का होता है । इनका भीतर को कोई जीवन होता नहीं। बाहर ही बाहर का जीवन होता है। सभी को दिखाई पड़ता है। Continue reading “06-संत पलटूबनिया—(ओशो)”

05-बाबा-जग जीवन दास-(ओशो)

05-बाबा–जग जीवन दास—भारत के संत 

कुछ संत ऐसे है, जो हमारी परिभाषा और परिचय के परिशमन में नहीं आ पाते, कुछ जंगली फूलों की तरह जिनका सौंदर्य तो अटूट होता है। पर हमारी आंखे जिन्‍हें जानने और देखने की आदि हो जाती है, वह उसके परे है। हम चल तो पड़ते है उस मार्ग पर, उस से परिचित होना सब के बास की बात नहीं है। इसी तरह के संत का आज हम जिक्र करेंगे। वह है संत जग जीवन दास,जग जीवनको समझाने की क्षमता सब में नहीं है। जो लोग प्रेम को समझने में समर्थ है, जो उस में खो जाने को तैयार है, मिटने को तैयार है, वही उस का आनंद अनुभव कर सकेगें। शायद समझ बुझ यहाँ थोड़ी बाधा ही बन जाये। Continue reading “05-बाबा-जग जीवन दास-(ओशो)”

04-संत सुंदर दास-(ओशो)

भारत के सतं-ओशो

ज्‍योत से ज्‍योत जले-(सुंदर दास)

       सुंदर दास थोड़े से कलाकारों में एक है जिन्‍होंने इस ब्रह्मा को जाना। फिर ब्रह्म को जान लेना एक बात है, ब्रह्म को जनाना और बात। सभी जानने बाले जना नहीं पाते। करोड़ों में कोई एक आध है, ब्रह्म को जानता है और सैकड़ों जानने वालों में कोई एक जना पात है। सुंदर दास उन थोड़े से ज्ञानियों में एक है, जिन्‍होंने निशब्‍द को शब्‍द में उतारा, जिन्‍होंने अपरिभाष्‍य की परिभाषा की, जिन्‍होंने अगोचर को गोचर बनाया। अरूप को रूप दिया। सुंदर दास थोड़े सद् गुरूओं में से एक है। उनके एक-एक शब्‍द को साधारण मत समझना। उनके एक-एक शब्‍द अंगारे है। और जरा सी चिंगारी तुम्‍हारे जीवन में पड़ जाये तो तुम भी भभक उठ सकते हो परमात्‍मा से। तो तुम्‍हारे भीतर भी विराट का आविर्भाव हो सकता है। पडा तो है ही विराट, कोई जगाने वाली चिंगारी चाहिए। Continue reading “04-संत सुंदर दास-(ओशो)”

03-बाबा मलूक दास-(ओशो)

भारत के संत-ओशो

राम दुवारे जो मरे-(बाबा मलूक दास) 

बाबा मलूक दास, यह नाम ही ऐसा प्‍यारा है, तन मन-प्राण में मिसरी घोल दे। ऐसे तो बहुत संत हुए है, सारा आकाश संतों के जगमगाते तारों से भरा है। पर मलूक दास की तुलना किसी और से नहीं की जा सकती। मूलक दास बेजोड़ है। उनकी अद्वितीयता उनके अल्‍हड़पन में है—मस्‍ती में है, बेखुदी में। यह नाम मलूक का मस्‍ती का पर्यायवाची हो गया। इस नाम में ही कुछ शराब है। यह नाम ही दोहराओं तो भीतर नाच उठने लगे।

मलूक दास ने तो कवि थे, न दार्शनिक है, न धर्मशास्‍त्री है। दीवाने है। परवाने है । और परमात्‍मा को उन्‍होंने ऐसे जाना है जैसे परवाना शमा को जानता है। यह पहचान बड़ी और है। दूर-दूर से नहीं, परिचय मात्र नहीं है वह पहचान—अपने को गंवा कर, अपने को मिटा कर होती है। राम दुवारे जो मरे। राम के द्वारे पर मर कर राम को पहचाना है। कवि हो जाये। लेकिन मलूक की मस्‍ती सस्‍ती बात नहीं है। महंगा सौदा है। Continue reading “03-बाबा मलूक दास-(ओशो)”

02-लाल नाथ कुंभनाथ-(ओशो)

लाल नाथ कुंभनाथ : (गुरु द्वार जन्‍म)

श्री लाल नाथ के जीवन में बड़ी अनूठी घटना से शहनाई बजी। संतों के जीवन बड़े रहस्‍य में शुरू होते है। जैसे दूर हिमालय से गंगो त्री से गंगा बहती है। छिपी है घाटियों में, पहाड़ों में, शिखरों में। वैसे ही संतों के जीवन की गंगा भी, बड़ी रहस्‍यपूर्ण गंगोत्रियों से शुरू होती है। आकस्‍मिक, अकस्‍मात, अचानक—जैसे अंधेरे में दीया जले कि तत्क्षण रोशनी हो जाये। धीमी-धीमी नहीं होती संतों के जीवन की यात्रा शुरू। शनै:-शनै: नहीं। संत छलांग लेते हे।

जो छलांग लेते है, वही जान पाते है। जो इंच-इंच सम्हाल कर चलते है, उनके सम्हालने में ही डूब जाते हे। मंजिल उन्‍हें कभी मिलती नहीं। मंजिल दीवानों के लिए है। मंजिल के हकदार दीवाने है। मंजिल के दावेदार दीवाने हे। Continue reading “02-लाल नाथ कुंभनाथ-(ओशो)”

01-कबीर दास-(ओशो)

संत कबीर– पूर्णिमा का चाँद

कबीर, संत तो हजारों हुए हैं, पर कबीर ऐसे है जैसे पूर्णिमा का चाँद—अतुलनीय, अद्वितीय, जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीया जला दे, ऐसा यह नाम है। जैसे मरुस्थल  में कोई अचानक मरूद्यान प्रकट हो जाए, ऐसों अद्भुत और प्‍यारे उनके गीत हे।

कबीर के शब्‍दों का अर्थ नहीं करूंगा। शब्‍द तो सीधे-सादे है। कबीर को तो पुनरुज्जीवित करना होगा। व्‍याख्‍या नहीं हो सकती उनकी। उन्‍हें पुनरुज्जीवन दिया जा सकता है। उन्‍हें अवसर दिया जा सकता है। वे मुझसे बोल सकें। तुम ऐसे ही सुनना जैसे यह कोई व्‍याख्‍या नहीं है। जैसे बीसवीं सदी की भाषा में, पुनर्जन्‍म है। जैसे कबीर का फिर आगमन है। और बुद्धि से मत सुनना। कबीर का कोई नाता बुद्धि से नहीं। कबीर तो दीवाने है। और दीवाने ही केवल उन्‍हें समझ पाए और दीवाने ही केवल समझ पा सकते है। कबीर मस्‍तिष्‍क से नहीं बोलते है। यह तो ह्रदय की वीणा की अनुगूँज है। और तुम्‍हारे ह्रदय के तारे भी छू जाएं,तुम भी बज उठो, तो ही कबीर समझे जा सकते है। Continue reading “01-कबीर दास-(ओशो)”

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