अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-021

जाग्रत चित्त है द्वार–स्व-सत्ता का

मेरे प्रिय,

प्रेम।

तुम्हारे पत्र पाकर आनंदित हूं।

धर्म का जन्म से कोई भी संबंध नहीं है।

और, जो ऐसा संबंध बनाते हैं, वे धर्म को हड्डी-मांस-मज्जा से ज्यादा मूल्यवान नहीं मानते हैं।

धर्म शरीर की बात ही नहीं है।

धर्म है–आत्मा का स्वभाव।

और, आत्मा का न जन्म है, न मृत्यु है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-021”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-020

(सदा शुभ को–सुंदर को खोज-बीसवां)

प्यारी भारती,

प्रेम।

तेरा पत्र पाकर बहुत आनंदित हूं।

जीवन नये-नये अनुभवों का नाम है। जो नित-नये का अनुभव करने में समर्थ है, वही जीवित है।

इसलिए, परदेश को प्रेम से ले।

नये को सीख। अपरिचित को परिचित बना। अज्ञात को जान–पहचान।

निश्चय ही इसमें तुझे बदलना होगा।

पुरानी आदतें टूटेंगी, तो उन्हें टूटने दे।

और, स्वयं की बदलाहट से भयभीत न हो। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-020”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-019

(सीखो–प्रत्येक जगह को अपना घर बनाना-उन्नीसवां )

प्यारे सुनील,

प्रेम।

तेरा पत्र पाकर अति आनंदित हूं।

घर की याद स्वाभाविक है और तब तक सताती है, जब तक कि हम प्रत्येक जगह को अपना घर बनाना न सीख लें।

और, वह कला सीखने जैसी है।

अब जितने दिन तू वहां है, उतने दिन उस जगह को अपना ही घर मान कर रह।

सारी पृथ्वी हमारा घर है।

और, समस्त जीवन हमारा परिवार है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-019”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-018

(संगीतपूर्ण व्यक्तित्व-अट्ठारवां) 

प्यारी डाली,

प्रेम।

तेरे पत्र आते हैं–तेरे प्राणों के गीतों से भरे।

उनकी ध्वनि और संगीत में जैसे तू स्वयं ही आ जाती है।

मैं देख पाता हूं कि नृत्य करती तू चली आ रही है और फिर मुझमें समा जाती है।

तेरी सूक्ष्म देह अनेक बार ऐसे मेरे निकट आती है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-018”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-017

 (स्वतंत्रता का जीवन–प्रेम के आकाश में-सत्रहवां)

प्यारी नीलम,
प्यारे विन्दी,
तुम प्रेम के मंदिर में प्रवेश करोगे और मैं उपस्थित नहीं रह सकूंगा! इससे मन बहुत दुखता है।
लेकिन, मेरी शुभकामनाएं तो वहां होंगी ही।
और, हवाओं में तुम उनकी उपस्थिति अनुभव करोगे।
तुम्हारा जीवन प्रेम के आकाश में स्वतंत्रता का जीवन बने, यही प्रभु से मेरी कामना है।
क्योंकि, अक्सर प्रेम की आड़ में परतंत्रता आ जाती है और प्रेम मर जाता है।

Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-017”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-016

(सब कुछ–स्वयं को भी देने वाला प्रेम प्रार्थना बन जाता है-सोहलवां)

प्यारी रोशन,

प्रेम।

तेरा पत्र पाकर आनंदित हूं।

यह भी तुझे ज्ञात है कि उस दिन तू मिलने आई, तो चुप क्यों रह गई थी?

लेकिन, मौन भी बहुत कुछ कहता है।

और, शायद शब्द जो नहीं कह पाते हैं, वह मौन कह देता है।

प्रेम और विवाह के संबंध में तूने पूछा है।

प्रेम अपने में पूर्ण है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-016”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-015

(जिज्ञासा जीवन की-पंद्रहवां)

मेरे प्रिय,

प्रेम।

तुम्हारे दो पत्र देर से आकर प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं, लेकिन बहुत था व्यस्त, इसलिए विलंब के लिए क्षमा मांगता हूं।

(पत्रः 8-10-68)

प्रश्न 1

अवतार”, “तीर्थंकर”, “पैगंबर”, जैसी अभिव्यक्तियां मनुष्य की असमर्थता की सूचक हैं। इतना निश्चित है कि कुछ चेतनाएं ऊर्ध्वगमन की यात्रा में उस जगह पहुंच जाती हैं, जहां उन्हें “मनुष्य” मात्र कहे जाना सार्थक नहीं रह जाता है। फिर कुछ तो कहना ही होगा। मनुष्यातीत अवस्थाएं हैं।

2ः धर्म की शिक्षा का अर्थ हैः ऐसा अवसर देना कि भीतर जो प्रसुप्त है, वह जाग सके। निश्चय ही मार्गदर्शकों की जरूरत होगी। लेकिन वे होंगे–मित्र। गुरु होने की चेष्टा में ही आरोपण प्रारंभ हो जाता है। मनुष्य को गुरुडम से बचाया जाना आवश्यक है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-015”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-014

(निर्विचार चैतन्य है–जीवनानुभूति का द्वार-चौहदवां)

मेरे प्रिय,

प्रेम।

तुम्हारा पत्र और तुम्हारे प्रश्न मिले हैं।

मैं मृत्यु के संबंध में जान-बूझ कर चुप रहा हूं।

क्योंकि मैं जीवन के संबंध में जिज्ञासा जगाना चाहता हूं।

मृत्यु के संबंध में जो सोच-विचार करते हैं, वे कहीं भी नहीं पहुचंते हैं।

क्योंकि, वस्तुतः मरे बिना मृत्यु कैसे जानी जा सकती है?

इसलिए, वैसे सोच-विचार का कुल परिणाम या तो यह स्वीकृति होती है कि आत्मा अमर है या यह कि जीवन की समाप्ति पूर्ण समाप्ति ही है और पीछे कुछ शेष नहीं रह जाता है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-014”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-013

(तीव्र अभीप्सा–सत्य के लिए, शांति के लिए, मुक्ति के लिए-तैरहवां)

प्यारी शिरीष,

प्रेम।

तेरा पत्र पाकर अत्यंत आनंदित हुआ हूं।

सत्य के लिए, शांति के लिए, मुक्ति के लिए तेरी कितनी अभीप्सा है!

उस अभीप्सा को अनुभव करता हूं, तो लगता है कि मैं तेरे लिए जो कुछ भी कर सकूं, वह थोड़ा ही होगा।

फिर भी मैं सामथ्र्य भर तेरी सहायता करना चाहता हूं।

क्यों करना चाहता हूं?

शायद न करना मेरे वश में ही नहीं है।

परमात्मा का जो आदेश है, उसे ही करना होगा। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-013”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-012

(शांत मन में अंतर्दृष्ट का जागरण-बारहवां)

प्रिय सुशीला जी,

प्रेेम।

आपका पत्र मिला है।

आपकी साधना और तत्संबंध में चिंतन से प्र्र्र्रसन्न हूं।

देश की वर्तमान स्थिति से चिंता होना स्वाभाविक है।

लेकिन, चिंता जितनी ज्यादा हो चिंतन उतना ही असंभव हो जाता है।

चिंता और चिंतन विरोधी दिशाएं हैं।

मन को शांत रखें तो जो करने योग्य हो, उसके प्रति अंतर्दृष्टि क्रमशः जाग्रत होने लगती है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-012”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-011

(सत्ता की, होने की, प्राणों की पूर्णानुभूति ही सत्य है-ग्याहरवां)

प्रिय सुशीला,

तुम्हारा पत्र। मैं बाहर था। परसों ही लौटा हूं। विश्वविद्यालय से मुक्ति ले ली है, इसलिए अब तो यात्रा ही जीवन है।

सत्य क्या है? सत्ता की, होने की, प्राणों की पूर्णानुभूति ही सत्य है।

‘होने’ की अनुभूति जितनी मूच्र्छित है, जीवन उतना ही असत्य है।

‘मैं’ हूं–इसे खूब गहरी प्रगाढ़ता से प्रतिक्षण अनुभव करो।

श्वास उससे भर जावे।

अंततः ‘मैं’ न बचे और ‘हूं’ ही शेष रहे।

उस क्षण ही ‘जो है’, उसे जाना और जिया जाता है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-011”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-010

(हृदय की प्यास और पीड़ा से साधना का जन्म-दसवां)

मेरे प्रिय,

प्रेम।

आपका पत्र मिले बहुत देर हो गई है। मैं इस बीच निरंतर प्रवास में था, इसलिए दो शब्द भी प्रत्युत्तर में नहीं लिख सका। वैसे मेरी प्रार्थनाएं तो सदा ही आपके साथ हैं।

मैं आपके हृदय की प्यास और पीड़ा को जान कर आनंदित होता हूं। क्योंकि, वही तो बीज है, जिससे कि साधना का जन्म होता है।

जीवन पर शांत और सहज भाव से प्रयोग करते चलें। फल तो अवश्य ही आता है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-010”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-009

(विचार को छोड़ें और स्वयं में उतरें-दसवां)

मेरे प्रिय आत्मन्,

प्रेम।

आपका पत्र मिला है।

ध्यान की साधना में यदि क्रमशः अमूच्र्छा, आत्मज्ञान और सजगता विकसित होती जावे, तो मानना चाहिए कि हम चित्त के सम्मोहन-घेरे से बाहर हो रहे हैं।

और, यदि इसके विपरीत मूच्र्छा और प्रमाद बढ़ता हो, तो निश्चित मानना चाहिए कि चित्त की निद्रा और गहरी हो रही है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-009”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-008

(बस निर्विचार चेतना को साधें-आठवां)

प्रिय सुशीला जी,

प्रेम।

आपका पहला पत्र यथासमय मिल गया था। लेकिन, मैं सौराष्ट्र के दौरे पर चला गया, इसलिए उत्तर नहीं दे सका। आते ही आपका दूसरा पत्र मिला है। आपकी इच्छा है, तो मैं उधर आ सकूंगा। अक्तूबर के शिविर में आप इधर आ ही रही हैं, तभी उस संबंध में विचार कर लेंगे।

किसी को मुझसे किसी प्रकार की सहायता मिल सके, तो मैं कहीं भी आने को तैयार हूं।

अब तो यही मेरा आनंद है।

आपने अपने चित्त की जो दशा लिखी है, उससे बहुत प्रसन्नता होती है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-008”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-007

(मैं आपको तट पर खड़ा पा रहा हूं-सातवां)

मेरे प्र्रिय,

प्रेम।

आपका पत्र मिला है। उसे पाकर आनंदित हुआ हूं। उस दिन भी आपसे मिल कर अपार हर्ष हुआ था।

सत्य के लिए जैसी आपकी आकांक्षा और प्यास है, वह सौभाग्य से ही होती है।

वह हो, तो एक न एक दिन साधना के सागर में कूदना हो ही जाता है।

मैं आपको तट पर खड़ा पा रहा हूं–बस, एक छलांग की ही आवश्यकता है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-007”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-006

(आंख बंद है-चित्त-वृत्तियों के धुएं से-छठवां)

चिदात्मन्,

प्रेम।

आपका अत्यंत प्रीति और सत्य के लिए प्यास से भरा पत्र मिला है। मैं आनंदित हुआ।

जहां इतनी प्यास होती है, वहां प्राप्ति भी दूर नहीं है।

प्यास हो, तो पथ बन जाता है।

सत्य तो निकट है और प्रकाश की भांति द्वार पर ही खड़ा है।

वह नहीं, समस्या हमारे पास आंख न होने की है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-006”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-005

(देखना भर आ जाए–वह तो मौजूद ही है-पांचवां)

प्रिय चिदात्मन्,

मैं आपके अत्यंत प्रीतिपूर्ण पत्र को पाकर आनंदित हुआ हूं। आपके जीवन की लौ निर्धूम होकर सत्य की ओर बढ़े यही मेरी कामना है।

प्रभु को पाने के लिए जीवन को एक प्रज्वलित अग्नि बनाना होता है।

सतत उस ओर ध्यान रहे। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-005”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-004

(जो छीना नहीं जा सकता है, वही केवल आत्म-धन है-चौथा)

प्रिय जया बहिन,

स्नेह।

आपका पत्र मिला हैै। बहुत खुशी हुई। शांति और आनंद की नई गहराइयां छू रही हैं, यह जान कर कितनी प्रसन्नता होती है!

जीवन के यात्रा-पथ पर उन गहराइयों के अतिरिक्त और कुछ भी पाने योग्य नहीं है।

जब सब खो जाता है, तब भी वह संपदा साथ रहती है।

इसलिए वस्तुतः वही संपदा है।

और, जिनके पास सब-कुछ है, लेकिन वह नहीं है, वे समृद्धि में भी दरिद्र हैं।

समृद्धि में दरिद्र और दरिद्रता में समृद्ध होना, इसलिए ही, संभव हो जाता है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-004”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-003

(मनुष्य धर्म के बिना नहीं जी सकता-तीसरा)

प्रिय जया बहिन,

प्रणाम।

मैं आनंद में हूं। आपका पत्र मिले देर हुई। मैं बीच में बाहर था, इसलिए उत्तर में विलंब हुआ है। इंदौर और शाजापुर बोल कर लौटा हूं।

एक सत्य के दर्शन रोज-रोज हो रहे हैं कि मनुष्य धर्म के बिना नहीं जी सकता है।

धर्म के अभाव में उसमें कुछ खाली और रिक्त छूट जाता है।

यह रिक्तता पीड़ा देने लगती है, और फिर इसे भरने का मार्ग नहीं दीखता है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-003”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-002

(धैर्य साधना का प्राण है-दूसरा)

प्रिय बहिन,

सत्य प्रत्येक क्षण, प्रत्येक घटना से प्रकट होता है। उसकी अभिव्यक्ति नित्य हो रही है।

केवल, देखने को आंख चाहिए, प्रकाश सदैव उपस्थित है।

एक पौधा वर्ष भर पहले रोपा था। अब उसमें फूल आने शुरू हुए हैं। एक वर्ष की प्रतीक्षा है, तब कहीं फल है।

ऐसा ही आत्मिक जीवन के संबंध में भी है। Continue reading “अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-002”

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-001

आनंद है भीतर-पहला)

प्रिय बहन, चिदात्मन्

प्रणाम।

मैं परसों दिल्ली से लौटा, तो आपका पत्र मिला है।

यह जान कर प्रसन्न हूं कि आपको आनंद और संतोष का अनुभव हो रहा है।

आनंद भीतर है।

उसकी खोज बाहर करते हैं, इससे वह नहीं मिलता है।

एक बार भीतर की यात्रा प्रारंभ हो जावे, तो फिर निरंतर आनंद के नये-नये स्रोत खुलते चले जाते हैं।

वह राज्य जो भीतर है–वहां न दुख है, न पीड़ा है, न मृत्यु है।

उस अमृत में पहुंच कर एक नया जन्म हो जाता है।

और, वहां जो दर्शन होता है, उससे सब ग्रंथियां कट जाती हैं।

इस मुक्त स्थिति को उपलब्ध कर लेना ही जीवन का लक्ष्य है।

यह स्थिति “स्व” और “पर” को गिरा देती है।

केवल सत्ता रह जाती हैः सीमा और विशेषण-शून्य–निराकार और अरूप।

इसके पूर्व जो था, वह अहं-सत्ता थी; अब जो होता है, वह ब्रह्म-सत्ता है।

यह पाया कि सब पाया।

यह जाना कि सब जाना।

इसमें होते ही–हिंसा और घृणा, दुख और पीड़ा, मृत्यु और अंधेरा–सब गिर जाता है।

जो शेष बचता है, वह सत्-चित्-आनंद है।

इस सत्-चित्-आनंद को पा सको, यही कामना है

रजनीश के प्रणाम

8 मार्च, 1963 (प्रभात)

(प्रतिः सुश्री जया शाह, बंबई)

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