आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-18)

प्रवचन-अट्ठारवां

प्रश्न एवं उत्तर

पहला प्रश्नः भगवान, हमें ऐसा अनुभव होता है कि अचेतन की गहरी परतों में प्रवेश करना व उन्हें केवल सजगता के द्वारा रूपांतरित करना कठिन है, और पर्याप्त भी नहीं है, इसलिए सजगता के अलावा और क्या अभ्यास करें? कृपया इसके बारे में इसके प्रायोगिक आयाम को अधिक ध्यान में रखते हुए समझाए।

अचेतन को रूपांतरित केवल सजगता से ही किया जा सकता है। यह कठिन है, किंतु दूसरा कोई मार्ग नहीं है। सजग होने के लिए कितनी ही विधियां हैं। परंतु सजगता अनिवार्य है। आप विधियां का उपयोग जागरण के लिए कर सकते हैं; किंतु आपको जागना तो पड़ेगा ही।

यदि कोई पूछता है कि क्या कोई विधि है अंधकार को मिटाने की सिवा प्रकाश के, तो वह चाहे कितना ही कठिन हो, किंतु वही एकमात्र उपाय है, क्योंकि अंधकार केवल अभाव है, प्रकाश का। इसलिए आपकोप्रकाश का उपस्थित करना होगा और तब अंधकार वहां नहीं होगा। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-18)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-17)

प्रवचन-सत्रहरवां

चेतना की पूरी खिलावट

बंबई, रात्रि, दिनांक 5 जून, 1972

चिदाषितः पुष्पम।

कौन से फूल हैं जो कि पूजा के लिए हो सकते हैं? चेतना से भरे होना ही-वे फूल हैं।

आदमी एक बाज है-एक संभावना-एक प्रसुप्त संभावना। मनुष्य इतना ही हनीं है जितना कि वह है; वह वह भी है जो कि वह हो सकता है। जो कुछ भी मनुष्य है, जैसा भी वह है वह एक स्थिति है, एक द्वार है, एक संभावना है होने की। उसमें बहुत कुछ छिपा हुआ है, और जो हिस्सा छिपा हुआ है, वह प्रकट हिस्से से बहुत यादा है। इसलिए मैं कहता हूं मनुष्य एक बीज है। वह उग सकता है, बड़ सकता है और वह मनुष्य तभी हो सकता है जब कि वह बड़े, विकसित हो। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-17)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-16)

प्रवचन-सौहलवां

बंबई, रात्रि, दिनांक 4 जून, 1972

प्रश्न एवं उत्तर

पहला प्रश्नः भगवान, कल रात्रि आपने कहा कि मन दो बातें एक साथ कर सकता यानी विचार करना व साक्षी होना। इससे ऐसा लगता है कि साक्षी होना एक मानसिक प्रक्रिया है, मन का एक कृत्य है। क्या सचमुच ऐसा है? कृपया इसे समझाएं। क्या आंशिक व समग्र रूप से साक्षी होना-ऐसी भी कोई चीज है?

साक्षी होना कोई मानसिक क्रिया नहीं है; विचार करना एक मानसिक प्रक्रिया है। बल्कि अच्छा हो कि यूं कहें कि विचार करना ही मन है। जब मन नहीं होता अर्थात मन अनुपस्थित होता है, विलीन हो गया होता है, केवल तभी आप साक्षी भाव को उपलब्ध होते हैं। वह मन के परे की चीज है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-16)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-15)

प्रवचन-पंद्रहवां

साक्षी होनाः सब विधियों का आधार

बंबई, रात्रि, दिनांक 3 जून, 1972

दृक स्वरूपे अवस्थानं अक्षताः।

अपने स्वयं के साक्षी स्वभाव के स्थिर हो जाना ही अक्षत है, वही है बिना निखारा व बिना टूटा हुआ चांवल जो पूजा के लिए काम में लिया जाता है।

साक्षी होना एक विधि है केंद्र पर होने के लिए। हमने सेंटरिंग, केंद्र पर होने की बात की है।

एक आदमी दो तरीकों से रह सकता है। वह अपनी परिधि पर रह सकता है और वह अपने केंद्र पर भी रह सकता है। किंतु परिधि अहंकार से संबंधित हैं, और केंद्र हमारे स्वरूप से जुड़ा है। यदि आप अहंकार से जीते हैं, तो आप सदैव दूसरे से संबंधित रहेंगे, परिधि दूसरों से जुड़ी होती है। आप कुछ भी करें वह कृत्य नहीं होगा, वह सदैव एक प्रतिक्रिया होगी। वह आप किसी कृत्य के प्रत्युत्तर में करते हैं, जो कुछ भी आपके साथ किया गया है। परिधि से कोई क्रिया नहीं होती। प्रत्येक बात प्रतिक्रिया ही होती है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-15)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-14)

प्रवचन-चौहदवां

बंबई, रात्रि, दिनांक 2 जून, 1972

प्रश्न एवं उत्तर

पहला प्रश्नः भगवान, आपने कल रात्रि कहा कि उसे जानने के लिए जो कि भावातीत सत्य है सब कहीं, सर्वप्रथम स्वयं के केंद्र पर ही उसकी प्रतीति होनी चाहिए। फिर आपने कहा कि इसके लिए सेंटरिंग की, केंद्रगत होने की आवश्यकता पड़ती है। क्या यह केंद्रण वही है, जिसको कि गुरजिएफ ने क्रिस्टलाइजेशन कहा है?

कृपया हमें यह भी बतलाएं कि किस तरह यह सेंटरिंग अथवा क्रिस्टलाइजेशन (केंद्रीकरण) स्वयं के अहंकार से भिन्न है और किस भांति यह उस भावातीत सत्य की और ले जाता है?

आदमी सेल्फ के साथ, स्व के साथ पैदा होता है, न कि ईगो(अहंकार) के साथ। अहंकार समाज द्वारा निर्मित है और बाद की उत्पत्ति है। अहंकार बिना संबंधों के नहीं हो सकता। आप हो सकते हैं, स्व हो सकता है, परंतु अहंकार अपने आप नहीं हो सकता। वह दूसरों के साथ संबंधों की उप-उत्पत्ति है। अहंकार मेरे और तेरे के बीच होता है। यह एक रिलेटा, एक अंर्तसंबंध है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-14)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-13)

प्रवचन-तैहरवां–भावातीत की अनुभूति

बंबई, रात्रि, दिनांक 1 जून, 1972

सर्वत्र भावना गंधः।

सब जगह उसी की अनुभूति ही एकमात्र गंध है।

भारतीय दर्शन अस्तित्व को दो भागों में बांटता है। एक तो है यह-जिसकी तरफ कि संकेत किया जा सके। और दूसरा है-वह-जो कि इसके पार है, जिसकी और कि संकेत न किया जा सके। ट्रुथ के लिए, वास्तविकता के लिए संस्कृत में एक शब्द है-सत्य-यह संस्कृत का शब्द बड़ा ही अर्थपूर्ण और बड़ा ही सुंदर है। यह दो शब्दों से मिल कर बना हैः सत और तत। सत का मतलब होता है यह और तत का अर्थ होता है वह। सत्य का अर्थ होता हैः यह  धन  वह।। इसलिए पहले हम यह समझ लें कि यह और वह क्या हैं। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-13)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-12)

प्रवचन-बाहरवां

बंबई, रात्रि, दिनांक 26 फरवरी, 1972

प्रश्न एवं उत्तर

पहला प्रश्नः भगवान, जब कभी कोई ध्यान में भिन्न-भिन्नप्रकाश की आकृतियां व रंग अनुभव करता है जैसे कि लाल, पीला, नीला, गेरुआ आदि, तो कैसे वह जाने कि वे स्वरूप की किन परतों से संबंधित हैं?

इसके पहले कि कोईप्रकाश के अंतिम अनुभव को उपलब्ध हो, क्या क्रमशः होने वाले व प्रकाश के अनुभव की कोई श्रंखला है?

प्रकाश स्वयं रंगहीन है। सारे रंग प्रकाश के हैं, परंतु प्रकाश का कोई रंग नहीं है। प्रकाश मात्र रंगों का अभाव है। प्रकाश सफेद है। सफेद कोई रंग नहीं होता। जब प्रकाश विभाजित किया जाता है, विश्लेषित, किया जाता है अथवा प्रि म में से गुजारा जाता है, तो वह सात रंगों में बंट जाता है। मन भी प्रि म की तरह ही काम करता है-एक आंतरिक प्रि म की भांति। बाहर का प्रकाश यदि प्रि म में से निकाला जाए, तो सात रंगों में बंट जाता है। आंतरिक प्रकाश भी यदि मन से निकाला जाए, तो सात रंगों में बंट जाता है। इसलिए आंतरिक यात्रा में रंगों का अनुभव हो, तो इसका मतलब है कि आप अभी भी मन में ही है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-12)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-11)

प्रवचन-ग्याहरवां

परमात्मा की ओर-प्रकाश अथवा प्रेम से

बंबई, रात्रि, दिनांक 25 फरवरी, 1972

सदा दीप्तिः अपार अमृत वृत्तिः स्नान्म।

‘अंतस प्रकाश में तथा अंतस अमृत में निरंतर केंद्रित रहना ही पूजा की तैयारी के लिए स्नान है।’

प्रकाश सर्वाधिक रहस्यमय चीज है इस जगत में-कई कारणों से। आपने चाहे ऐसा अनुभव न किया हो, किंतु पहली बात जोप्रकाश के संबंध में है, वह यह है कि प्रकाश शुद्धतम ऊर्जा है। भौतिक-शास्त्र का कहना है कि प्रत्येक चीज जो कि भौतिक है, वस्तुतः पदार्थ नहीं है, केवल ऊर्जा है; ऊर्जा ही वास्तविक है। पदार्थ नहीं है। वह अतीत में भी नहीं था सिवाय हमारी धारणाओं के। पदार्थ लगता है कि है, परंतु वह है नहीं। केवल प्रकाश है-अथवा कहें कि ऊर्जा, अथवा विद्युत। जितने गहरे हम पदार्थ में उतरते हैं, उतना ही कम पार्थिव वह मिलता है। गहनतम में जाने पर, पदार्थ बिल्कुल अ-पदार्थ हो जाता है। किंतु प्रकाश रहता है, ऊर्जा रहती है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-11)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-10)

प्रवचन-दसवां

बंबई, रात्रि, दिनांक 24 फरवरी, 1972

प्रश्न एवं उत्तर

पहला प्रश्नः भगवान, परमात्मा को समर्पित करने के संदर्भ में, कृपया बतलाएं कि संकल्प व समर्पण का क्या महत्व है? संकल्प और समर्पण की क्या भिन्नताएं और समानताएं हैं?

अंत तो सदैव एक ही होता है, किंतु प्रारंभ भिन्न-भिन्न होता है और जितनी भी भिन्नताएं हैं, वे प्रारंभ की हैं। जितने ही करीब आप पहुंचते हैं, उतना ही मार्गों में अंतर कम होता जाता है।

प्रारंभ में संकल्प और समर्पण एक दूसरे के पूरी तरह विरोधी हैं। समर्पण का अर्थ होता हैः ‘संपूर्ण संकल्प-शून्यता’। आपका अपना कोई संकल्प नहीं है; आप बिल्कुल निःसहाय अनुभव करते हैं। आप ऐसा महसूस करते हैं कि आप कुछ नहीं कर सकते। आप इतने निःसहाय हैं कि आप इतना भी नहीं कह सकते कि संकल्प जैसी कोई चीज होती भी है। संकल्प की पूरी धारणा ही भ्रांतिपूर्ण है। आपका कोई संकल्प नहीं है, बल्कि, इसके विपरीत, आपकी नियति है, न कि संकल्प। अतएव आप केवल समर्पण कर सकते हैं। ऐसा नहीं है कि समर्पण आप करते हैं, वरन तथ्य ऐसा है कि आप कुछ और कर ही नहीं सकते। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-10)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-09)

प्रवचन-नौवां–परमात्मा को क्या अर्पित करें

बंबई, रात्रि, दिनांक 23 फरवरी, 1972

सदॉमनस्कं अर्ध्यम्।

‘मन के तीर का निरंतर उसी की तरफ लक्ष्य होना ही अर्ध्य है, अर्पण है।’

मनुष्य क्या अर्पण कर सकता है? क्या दे सकता है वह? क्या हो सकती है उसकी ऑफरिंग, उसकी भेंट? हम वही तो भेंट दे सकते हैं, जो कि हमारा है। जो हमारा है ही नहीं, उसे अर्पित भी नहीं किया जा सकता। और आदमी ने सदैव भेंट में वही चड़ाया है, तो जरा भी उसका नहीं है। आदमी ने उसी का बलिदान किया है, जो कि बिल्कुल भी उसका अपना नहीं है।

धर्म एक क्रिया-कांड होकर रह जाता है यदि आप वह अर्पित करें जो कि आपका नहीं है। किंतु धर्म एक प्रामाणिक अनुभूति बन जाता है, जब आप वह चड़ाते हैं जो कि आप ही है। रिचुअल्स, क्रिया-कांड वस्तुतः प्रामाणिक धर्म से बचने की विधियां हैं। आप इस प्रामाणिक धर्म के बदले किसी परिपूरक का पता तो लगा सकते हैं, किंतु आप तब किसी और को नहीं वरन स्वयं को ही धोखा दे रहे होते हैं, Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-09)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-08)

प्रवचन-आठवां

बंबई, रात्रि, दिनांक 22 फरवरी, 1972

प्रश्न एवं उत्तर

पहला प्रश्नः भगवान, आपने कल रात्रि कहा कि मन को ऊपर की ओर बहाने के लिए किसी को पिछली पाशविक वृत्तियों और आदतों के विरुद्ध सतत प्रयत्न करना पड़ता है। कृपया बतलाएं कि आदतों के विरुद्धप्रयत्न करने में और दमन में क्या अंतर है?

मन का रूपांतरण एक विधायक प्रयास है। मन का दमन निगेटिव है, निषेधात्मक है। अंतर यह है कि जब आप अपने मन को दबा रहे होते हैं, तो आपका प्रयास किसी के विरुद्ध होता है। अब आप अपने मन का रूपांतरण कर रहे होते हैं, तो आप सीधे किसी चीज के विरुद्ध नहीं होते। आप विधायक रूप से किसी चीज के पक्ष में होते हैं। आपका प्रयत्न किसी के पक्ष में होता है, न कि किसी वस्तु के विरुद्ध। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-08)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-07)

आत्म पूजा उपनिषद–(प्रवचन-सातवां) आत्म पूजा उपनिषद

भगवान श्री रजनीश

भूमिका

मैं प्रमाण हूं

ऐसा संयोग कभी-कभी ही घटित होता है जब अस्तित्व और भगवत्ता किसी व्यक्ति में स्वयं को पूर्णता में अभिव्यक्त करती है। भगवान श्री रजनीश में भगवत्ता की अभिव्यक्ति इस विरल संयोग की नवीनतम घटना है!

‘भगवान श्री रजनीश’ आज एक उत्सव का नाम है। वे मनुष्य के सौभाग्य का पर्याय है। चेतनाओं के भाग्योदय का निमित्त हैं वे। वे एक सुअवसर हैं। उनको चूकना परम दुर्भाग्य है-उन्हें उपलब्ध करना और उनको उपलब्ध होना जीवन की सार्थकता एवं परम धन्यता!

असंखय प्रकार के सत्यान्वेषकों को अलग-अलग भिन्न-भिन्न अनुकूल बोध और मार्गदर्शन देने की क्षमता उन्हीं की प्रज्ञा में है। इतने विराट और विशाल समूह को मुक्ति-पथ पर ले जाने का उत्तरदायित्व उन्हीं की करुणा में है। प्रज्ञा और करुणा का ऐसा मिलन अभूतपूर्व है-अद्वितीय है! Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-07)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-06)

आत्म पूजा उपनिषद–(प्रवचन-छठवां)

बंबई, दिनांक 20फरवरी 1972, रात्रि

प्रश्न एवं उत्तर:

पहला प्रश्नः भगवान, काम-वृत्ति के उदाहरण को ध्यान में रखते हुए कृपया बतलाएं कि अचेतन कोप्रत्यक्ष देखने के लिए क्या-क्या प्रयोगिक उपाय हैं और कैसे कोई जाने कि वह उससे मुक्त हो गया है?

अचेतन वास्तव में अचेतन नहीं है। बल्कि वह केवल कम चेतन है अतः चेतन व अचेतन में विपरीत ध्रुवों का भेद नहीं है, बल्कि मात्राओं का भेद है। अचेतन और चेतन दोनों जुड़े हुए हैं, संयुक्त हैं। वे दो नहीं हैं। परन्तु हमारा सोचने का जोढंग है, वह विशेष तर्क की झूठी पद्धति पर आधारित है जो कि प्रत्येक बात को विपरीत ध्रुवों में बांट देती है। वास्तविकता उस तरह कभी भी बंटी हुई नहीं है; केवल तर्क ही उस तरह विभाजित है।

हमारा तर्क कहता है-हां या नहीं। हमारी लाजिक कहती है-प्रकाश या अंधकार। जहां तक तर्क का संबंध है, उन दोनों में कोई संबंध नहीं है। और जीवन न तो सफेद है और न काला। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-06)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-05)

आत्म पूजा उपनिषद–(प्रवचन-पांचवां)

बंबई, दिनांक 19 फरवरी 1972, रात्रि

एक स्थिर मनः प्रभु का द्वार

निश्चल ज्ञानं आसनम।

निश्चल ज्ञान ही आसान है।

मनुष्य न तो केवल शरीर ही है और न मन ही। वह दोनों है। और यह कहना भी एक अर्थ में गलत है कि वह दोनों है; क्योंकि शरीर और मन भी यदि अलग-अलग हैं, तो केवल दो शब्दों के रूप में। अस्तित्व तो एक ही है। शरीर कुछ और नहीं है वरन चेतना की सबसे बाहरी परत है, चेतना की सर्वाधिक स्थूल अभिव्यक्ति। और चेतना कुछ और नहीं बल्कि सर्वाधिक स्थूल अभिव्यक्ति। और चेतना कुछ और नहीं बल्कि सर्वाधिक सूक्ष्म शरीर है, शरीर का सबसे अधिक निखरा हुआ अंग। आप इन दोनों के मध्य में होते हैं। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-05)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-04)

आत्म पूजा उपनिषद–(प्रवचन-चौथा)

बंबई, दिनांक 18फरवरी 1972, रात्रि

प्रश्न एवं उत्तर:

पहला प्रश्नः भगवान, कल रात्रि आपने कहा था कि वासनाएं मृत-अतीत से कल्पित भविष्य के बीच लगती हैं। कृपया समझाएं, क्यों और कैसे यह मृत-अतीत इतना शक्तिशाली व प्राणवान साबित होता है कि यह एक व्यक्ति को अंतहीन वासनाओं की प्रक्रिया में बहने के लिए मजबूर कर देता है? कैसे कोई इस प्राणवान अतीत-अचेतन व समष्टि अचेतन से मुक्त हो?

अतीत प्राणवान जरा भी नहीं है, वह पूरी तरह मृत है। परन्तु फिर भी उसमें वजन है-एक मृत-वजन। वह मृत-वजन ही काम करता है। वह शक्तिशाली बिल्कुल भी नहीं। क्यों यह मृत-वजन काम करता है, इसे समझ लेना चाहिए।

अतीत इतना वजनी है, क्योंकि वह ज्ञात है, अनुभव किया हुआ है मन सदैव ही अज्ञात से भय खाता है, जो भी अनुभव नहीं किया गया है, उससे डरता है। और आप अज्ञात की आकांक्षा करेंगे भी कैसे? आप अज्ञात की आकांक्षा नहीं कर सकते। आकांक्षा केवल ज्ञात की ही की जा सकती है। इसलिए इच्छाएं हमेशा पुनरुक्त होती हैं। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-04)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-03)

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-तीसरा)

बंबई, दिनांक 17फरवरी, 1972, रात्रि

निर्वासनाः अज्ञात के लिए द्वार

सर्व कर्म निराकरण आवाहन।

सब कर्मों के कारण की समाप्ति ही आवाहन है।

धर्म कोई कर्म-कांड नहीं है, कोई शास्त्र-विधि नहीं है। वास्तव में, जब कोईधर्म मृत हो जाता है, वह कर्म-कांड हो जाता है। धर्म का मृत शरीर ही कर्म-कांड हो जाता है, परन्तु सब जगह कर्म-कांड ही पाया जाता है। यदि आप धर्म को खोजने जाएं, तो आप कर्म-कांड ही पाएंगे। ये सारे नाम- हिंदू, मुसलमान, ईसाई-ये धर्मों के नाम नहीं हैं। ये विशेष कर्म-कांडों के नाम हैं। कर्म-कांड से मेरा तात्पर्य है कि कुछ बाहर की ओर किया जाए ताकि आंतरिक क्रांति पैदा हो सके। यह ओर किया जाए ताकि आंतरिक क्रांति पैदा हो सके। यह विश्वास, कि कोई बाह्य क्रिया आंतरिक क्रांति उत्पन्न कर सकती है, कर्म-कांडों को जन्म देता है। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-03)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-02)

आत्म पूजा उपनिषद-प्रवचन-दूसरा

दिनांक 16फरवरी, 1972, रात्रि  बंबई,

प्रश्न एवं उत्तर:

पहला प्रश्न-भगवान श्री रजनीश, कल रात्रि आपने कहा कि जो कोई शून्य हो जाते हैं वे घाटी की तरह जो जाते हैं। वे प्रतिक्रिया नहीं करते, वरन संवेदनशील करते हैं, और ऐसे जो ज्योतिर्मय लोग हैं उनके प्रतिसंवेदन अलग-अलग होते हैं। घाटी अपनी-अपनी महान निजता व व्यक्तिगत रूप में प्रतिध्वनि करेगी। अब यह प्रश्न उठता है कि जो लोग पूर्ण शून्य कोप्राप्त हो गए हैं-मिट गए हैं-उनकी अभी भी निजता और व्यक्तित्व बना रहता है। यदि ऐसा है तो कृपया समझाएं कि ऐसा कैसे संभव हो पाता है?

यह अध्यात्म जीवन के विरोधाभासों में से एक है। जितना ही कोई परमात्मा में लीन हो जाता है, उतना ही विशिष्ट वह हो जाता है। यह उसके व्यक्तित्व का विलय नहीं है, वरन उसके अहं का विलय है। यह विलय उसकी निजता का नहीं, वरन उसके अहंकार का विलय है। जितने आप अहंकार-जन्य होते हैं, उतने ही आप दूसरे के जैसे होते हैं, Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-02)”

आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-01)

आत्म पूजा उपनिषद-(भाग-01)

36 में से 18 प्रवचनों का प्रथम संकलन

दिनांक 15 फरवरी, 1972, रात्रि  बम्बई।

प्रवचन-पहला-उपनिषदों की परंपरा व ध्यान के रहस्य

ओम्। तस्य निश्चितनं ध्यानम।

ओम्। उसका निरंतर स्मरण ही ध्यान है।

इसके पूर्व कि हम अज्ञात में उतरें, थोड़ी सी बातें समझ लेनी आवश्यक हैं। अज्ञात ही उपनिषदों का संदेश। जो मूल है, जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह सदैव ही अज्ञात है। जिसको हम जानते हैं, वह बहुत ही ऊपरी है। इसलिए हमें थोड़ी सी बातें ठीक से समझ लेना चाहिए, इसके पहले कि हम अज्ञात में उतरें। ये तीन शब्द-ज्ञात, अज्ञात, अज्ञेय समझ लेने जरूरी है सर्वप्रथम, क्योंकि उपनिषद अज्ञात से संबंधित हैं केवल प्रारंभ की भांति। वे समाप्त होते हैं अज्ञेय में। ज्ञात की भूमि विज्ञान बन जाती है; अज्ञात-दर्शनशास्त्र या तत्वमीमांसा; और अज्ञेय है धर्म से संबंधित। Continue reading “आत्म पूजा उपनिषद-(प्रवचन-01)”

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