नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(ओशो)

क्या मनुष्य एक रोग है?

मेरे प्रिय आत्मन्!

क्या मनुष्य एक रोग है? इ.ज मैन ए डि.जी.ज? इस संबंध में सबसे पहले जो बात मैं आपसे कहना चाहूं, मनुष्य अपने आप में तो रोग नहीं है, लेकिन मनुष्य जैसा हो गया है वैसा जरूर रोग हो गया है। अपने आप में तो इस जगत में सभी चीजें स्वस्थ हैं लेकिन जो भी स्वस्थ है उसे रुग्ण होने की संभावना है। जो भी स्वस्थ है वह बीमार हो सकता है। जीवित होने के साथ दोनों ही मार्ग खुले हुए हैं। सिर्फ मरा हुआ ही व्यक्ति बीमारी के भय के बाहर हो सकता है जिंदा व्यक्ति का अर्थ ही यही है कि वह बीमार हो सकता है इसकी पासिबिलिटी है, इसकी संभावना है। और मनुष्य बीमार हो गया है। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-08)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

राजनीति का सम्मान कम हो

अभी हुआ क्या है कि आज से पहले शिक्षा थी कम, काम था ज्यादा। भले आदमियों ने अनिवार्य शिक्षा कर दी। अनिवार्य शिक्षा करके शिक्षित तो ज्यादा पैदा कर रहे हैं और काम हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षित बढ़ता जा रहा है काम बिलकुल नहीं है। वह बिलकुल परेशानी में पड़ गया है।

उससे जब हम बातें करते हैं ऊंची तो उसे हम पर क्रोध आता है बजाए हमारी बातों को पसंद करने के। और जब हमारा नेता उसे समझाने जाता है तो उसका मन होता है इसकी गर्दन दबा दो।

कुछ भी नहीं होगा समझाने से। और वह गर्दन दबा रहा है जगह-जगह। और दस साल के भीतर हिंदुस्तान में नेता होना अपराधी होने के बराबर हो जाने वाला है। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-07)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)

निःशब्द में ठहर जाएं

मेरे प्रिय आत्मन्!

जैसे कोई मछली पूछे कि सागर कहां है? ऐसे ही यह सवाल है आदमी का कि सत्य कहां है? मछली सागर में पैदा होती है सागर में जीती है और मरती है। शायद इसी कारण सागर से अपरिचित भी रह जाती है।

जो दूर है उसे जानना सदा आसान जो पास है उसे जानना सदा कठिन है। मछली सागर भर को नहीं जान पाती है। रात शायद आकाश के तारे भी उसे दिखाई पड़ते हैं और सुबह शायद ऊगता हुआ सूरज भी दिखाई पड़ता है। सिर्फ एक जो नहीं दिखाई पड़ता मछली को वह वही सागर है जिसमें वह पैदा होती है, जीती है और मरती है। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-06)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-05)

पांचवा-प्रवचन-(ओशो)

युवा चित्त का जन्म

पुरानी संस्कृतियां और सभ्यताएं धीरे-धीरे सड़ जाती हैं। और जितनी पुरानी होती चली जाती हैं उतनी ही उनकी बीमारियां संघातक भी हो जाती हैं। उन अभागी सभ्यताओं में से एक है जिनका सब कुछ पुराना होते-होते मृतपाय हो गया है। यदि ऐसा कहा जाए कि जमीन पर हम अकेली मरी हुई सभ्यता हैं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। दूसरी सभ्यताएं पैदा हुईं मर गईं और उनकी जगह नई सभ्यताओं ने जन्म ले लिया। हमारी सभ्यता ने मरने की कला ही छोड़ दी और इसलिए नये जन्म लेने की क्षमता भी खो दी। जरूरी है कि बूढ़े चल बसें ताकि बच्चे पैदा हों और कभी किसी देश में ऐसा हुआ कि बूढ़ों ने मरना बंद कर दिया तो बच्चों का पैदा होना भी बंद हो जाएगा। हमारी सभ्यता के साथ ऐसा ही दुर्भाग्य हुआ है। हमने मरने से इनकार कर दिया। इस भ्रांति में कि अगर मरने से इंकार करेंगे तो शायद जीवन हमें बहुत परिपूर्णता में उपलब्ध हो जाएगा। हुआ उलटा। मरने से इनकार करके हमने जीने की क्षमता भी खो दी। हम मरे तो नहीं लेकिन मरे-मरे होकर जी रहे हैं। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-05)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-04)

प्रवचन -चौथा-(ओशो)

हिंदुस्तान क्रांति के चैराहे पर है

यह भी मैं मानता हूं कि सत्य बोलने से बड़ा धक्का दूसरा नहीं हो सकता। समाज इतना झूठ बोलता रहा, इतना झूठ पर जी रहा है कि आप बड़े से बड़े शाॅक जो पहुंचा सकते हैं वह यह कि चीज जैसी है वैसी सच-सच बोल दें।

प्रश्नः इसलिए कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि लोग मानते हैं कि जो कोई धक्का दे सकता है वे सत्यवती हैैं।

यह जरूरी नहीं है। यह जरूरी नहीं है। लेकिन फिर भी मेरा मानना यह है कि धक्का न देने वाले सत्य की बजाए धक्का देने वाला असत्य भी बेहतर होता है। क्योंकि धक्का चिंतन में ले जाता है। और चिंतन में बहुत देर तक असत्य नहीं टिक सकता। मेरी दृष्टि यह है कि चिंतन में, विचार में समाज जाना चाहिए। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि इनिशिअल धक्का अगर गलत भी था, और झूठ भी था, तो भी फर्क नहीं पड़ता। यानी वह सत्य जो हमें स्टैटिक बनाते हैं उन असत्यों से बदतर हैं जो कि हमें डाइनैमिक बनाते हैं। क्योंकि असत्य बहुत दिन नहीं टिक सकता, अगर चिंतन की प्रक्रिया शुरू हो गई है तो। और इस देश में तकलीफ यह है कि चिंतन चलता ही नहीं। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-04)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

दमन नहीं, समझ पैदा करें

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य के मन का एक अदभुत नियम है। उस नियम को न समझने के कारण मनुष्यता आज तक अत्यंत परेशानी में रही। वह नियम यह है कि मन को जिस ओर जाने से रोकें, मन उसी ओर जाना शुरू हो जाता है। मन को जिस बात का निषेध करें, मन उसी बात में आकर्षित हो जाता है। मन से जिस बात के लिए लड़ें, मन उसी बात से हारने के लिए मजबूर हो जाता है। लाॅ आॅफ रिवर्स इफेक्ट। मन के जगत में उलटे परिणामों का नाम है। इस नियम को बहुत समझना जरूरी है।

फ्रायड अपनी पत्नी के साथ एक दिन बगीचे में घूमने गया था। छोटा बेटा उसके साथ था। वे दोनों बगीचे में बैठ कर, घूम कर बातचीत करते रहे। और जब बगीचा बंद होने का समय आ गया, तो दोनों दरवाजे पर आए, तब उन्हें Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-03)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

युवा शक्ति का संगठन

मेरे प्रिय आत्मन्!

दो ही दृष्टियों से तुम्हे यहां बुलाया है, एक तो श्री नरेंद्र ध्यान के ऊपर शोध करते हैं, रिसर्च करते हैं। मैं ध्यान के जो प्रयोग सारे देश में करवा रहा हूं, वे उस पर मनोविज्ञान की दृष्टि से, पीएचड़ी. की…बनाते हैं। वे एम. ए. हैं मनोविज्ञान में, मनोविज्ञान के शिक्षक हैं और चाहते हैं कि ध्यान के ऊपर वैज्ञानिक रूप से खोज की जा सके। उनकी खोज के लिए कुछ मित्रों को निरंतर अपने मन का निरीक्षण करके अपने मन की स्थिति से और ध्यान के द्वारा उनके मन में क्या परिवर्तन हो रहे हैं, उस सबकी सूचना उन्हें देनी जरूरी है। तभी वे उस रिसर्च को पूरा कर सकेंगे। तो तुम्हें एक तो इस कारण से बुलाया है क्योंकि वे पिछले दो वर्षों से अनेक लोगों से प्रार्थना करते हैं। हमारे मुल्क में पहले तो कोई किसी तरह की प्रश्नावली को भरने को राजी नहीं होता, क्योंकि वह सोचता है न मालूम…और अगर भरने को भी राजी होता है तो उसे सत्य-सत्य नहीं भरता। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-02)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-01)

नये मनुष्य का धर्म–(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन

जीवन की कुंजी है मृत्यु

मेरे प्रिय आत्मन्!

नेहरू विद्यालय के भारतीय सप्ताह का उदघाटन करते हुए मैं अत्यंत आनंदित हूं। युवकों के हाथ में भविष्य है…विषय नई पीढ़ी का निर्मित करना है। ज्ञान के जो केंद्र हैं वे यदि नई पीढ़ी को ज्ञान के साथ ही साथ हृदय की और प्रेम की भी शिक्षा दे सकें तो शायद नये मनुष्य का निर्माण हो सके।

एक छोटी सी बात के संबंध में कह कर मैं अपनी चर्चा शुरू करूंगा।

बहुत पुरानी घटना है एक गुुरुकुल से तीन विद्यार्थी अपनी समस्त परीक्षाएं उतीर्ण करके वापस लौटते थे। लेकिन उनके गुुरु ने पिछले वर्ष बार-बार कहा था कि तुम्हारी एक परीक्षा शेष रह गई है। उन्होंने बहुत बार पूछा कि वह कौन सी परीक्षा है? गुरु ने कहा, वह परीक्षा बिना बताए ही लिए जाने की है, उसे बताया नहीं जा सकता। और सारी परीक्षाएं तो बता कर ली जा सकती हैं, लेकिन जीवन की एक ऐसी परीक्षा भी है जो बिना बताए ही लेनी पड़ती है। समय पर तुम्हारी परीक्षा हो जाएगी, लेकिन स्मरण रहे, उस परीक्षा को बिना पास किए, बिना उत्तीर्ण हुए तुम उत्तीर्ण नहीं समझे जा सकोगे। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-01)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां-प्रवचन-(ओशो)

मेरा भरोसा व्यक्ति पर है

प्रश्नः पंद्रह अगस्त के दिन मैंने कहा, उसी संदर्भ में पूरे हिंदुस्तान की स्थिति स्वरूप में है, उसके लिए कौन जिम्मेवार? हमारे नेता और हम?

उसके लिए हमारे नेता जिम्मेवार हैं। लेकिन हमारे नेताओं के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। अंततः की जिम्मेवारी हमारी ही है। क्योंकि हमारे नेता हमसे कुछ अलग और भिन्न नहीं हैं। और हमने उन्हें चुना है, तो यह हमारी मनोस्थिति के प्रमाण हैं। हमारी जिम्मेवारी में, दो-चार बातें बहुत बुनियादी हैं। जैसे एक तो हमारी कोई राजनीतिक चेतना, कोई पोलिटिकल कनसनट्रेट नहीं है। आजादी की लड़ाई भी जो हम संघर्ष कर रहे थे, वह भी हमें राजनीतिक रूप से चेतन नहीं कर पाया। और न करने का कारण था कि हिंदुस्तान की पूरी परम्परा धार्मिक चेतना की परम्परा है। उसके पास कोई राजनीतिक चेतना नहीं। स्वभावतः इसीलिए हम इतने दिन तक गुलाम भी रह सके। क्योंकि हमारे धार्मिक मन को हमारी राजनीतिक गुलामी से कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि हमने स्वतंत्रता के संबंध में भी कभी सोचा है, तो वो आतीक स्वतंत्रता की बात है। Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-11)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-10)

दसवां-प्रवचन-(ओशो)

अध्यात्म बीमारी बन गया

भारत के दुर्भाग्य की कहानी तो लंबी है। लेकिन इस कहानी के बुनियादी सूत्र बहुत थोड़े, बहुत पंक्चुअल हैं। तीन सूत्रों पर मैं आपसे बात करना चाहूंगा। और एक छोटी सी कहानी से शुरू करूंगा।

सुना है मैंने एक ज्योतिषी, रात्रि के अंधेरे में, आकाश के तारों का अध्ययन करता हुआ, किसी गांव के पास से गुजरता था। आकाश को देख रहा था, इसलिए स्वभावतः जमीन को देखने की सुविधा न मिली। आकाश के तारों पर नजर थी, इसलिए पैर कहां मुड़ गए, यह पता न चला, और वह एक सूखे कुएं में गिर पड़ा। चिल्लाया बहुत, पास से किसी किसान की झोपड़ी से लोगों ने निकल कर उसे बचाया। किसान भी घर पर न था, उसकी बूढ़ी मां ही घर पर थी। किसी तरह उस ज्योतिषी को बाहर निकाला जा सका था। और जब वह बाहर निकल आया तो उसने स्वभावतः धन्यवाद दिया, और उस बूढ़ी औरत को कहा कि मां, अगर कभी ज्योतिष के संबंध में कुछ समझना हो, तो इस समय पृथ्वी पर तारों को मुझसे ज्यादा जानने वाला कोई भी नहीं, तुम आ जाना। उस बूढ़ी स्त्री ने कहाः क्षमा करो मुझे। जिसे अभी जमीन के गड्ढों का पता नहीं, उसके आकाश के तारों के ज्ञान का भरोसा नहीं हो सकता। Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-10)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(ओशो)

चरित्रहीनता के कारण ही गुलामी आई

साधारणतः हम ऐसा ही सोचते हैं कि गुलामी के कारण हमारा चरित्र नष्ट हो गया है। गुलामी के कारण हमारा व्यक्तित्व नष्ट हुआ लेकिन…

प्रश्नः अभी जरा कठिनाई है कि गुलामी आई तभी से चरित्रहीन रहे,…?

इसको, इसको मैं कहना चाहता हूं। इसको ही मैं कहना चाहता हूं। चरित्रहीनता जो है, वह गुलामी के कारण नहीं आई, बल्कि चरित्रहीनता के कारण ही गुलामी आई। और चरित्रहीन हम बने ऐसा कहना मुश्किल है, चरित्रहीन हम थे। बनने का तो मतलब यह होता है कि हम चरित्रवान थे। फिर हम चरित्रहीन बने। तो हमें कारण खोजने पडे. कि हम चरित्रवान कैसे थे? कब थे? और कैसे हम चरित्रहीन बने। मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि हम कभी चरित्रवान थे। हमारी चरित्रहीनता बड़ी पुरानी है। Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-09)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(ओशो)

दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ेगी

मैं मानता ही ऐसा हूं कि पूंजीवाद का काम ही यह है कि इतनी संपत्ति पैदा कर जाए कि समाजवाद संभव हो सके।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं ऐसा नहीं है क्योंकि माक्र्स के ख्याल में ऐसा है, कि पूंजीवाद समाजवाद नहीं लाएगा। पूंजीवाद अपने अंतर्कलह पैदा करेगा। और अंतर्कलह समाजवाद लाएंगे। मेरी ऐसी धारणा नहीं है। माक्र्स का ख्याल यह है पूंजीवाद ऐसी स्थिति पैदा कर देगा कि अभी जो तीन वर्ग हैं समाज में, पूंजीपति का वर्ग, पूंजीहीन का वर्ग और मध्यम-वर्ग, पूंजीवाद का शोषण मध्यम-वर्ग को नष्ट कर देगा। मध्यमवर्ग का बड़ा हिस्सा सर्वाहारा हो जाएगा। छोटा सा हिस्सा पूंजीवादी हो जाएगा और समाज सीधा दो हिस्सों में कट जाएगा। जिस दिन समाज दो वर्गाें में सीधा कट जाएगा, उस दिन पूंजीवाद की अन्तर्कलह ही पूंजीवाद की मृत्यु बन जाएगी। Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-08)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

देश धन के लिए बीमार हो गया

जब कोई सभ्यता सड़ती है, तो उसकी दुर्गंध, उसके व्यापारी वर्ग से सबसे ज्यादा आनी शुरू होती है। ये स्वाभाविक है। इसके पीछे कारण है। समाज का खून है धन, धन समाज की नसों में दौड़ता है, खून की तरह। और जब खून सड़ जाए, तो सारे समाज के शरीर पर फोड़े-फुंसियां और बीमारियां, प्रकट होनी शुरू हो जाती हैं। या अगर कभी ऐसा हो, कि किसी आदमी के पूरे शरीर पर फोड़े-फुंसियां और मवाद फैले लगे, तो जान लेना चाहिए कि भीतर खून सड़ गया होगा। व्यापारी समाज की रीढ़ है। और धन समाज का खून, और जब सभ्यता पुरानी होती चली जाती है, तो खून सड़ जाता है। और सारी दुर्गंध व्यापारी से निकलनी शुरू हो जाती है। भारत यी सभ्यता की सड़ांद, भारत की जो अर्थव्यवस्था है उससे पूरी तरह निकलनी शुरू हो गई है। और आज ही निकल रही है ऐसा नहीं है। सैकड़ो वर्षाें से निकल रही है। क्योंकि हमने नए को पैदा करने की क्षमता खो दी है। पुरानों को दफनाने की क्षमता भी खो दी है। न हम पुराने को मरघट तक पहुंचा सकते हैं, और न नए को जन्म देने के लिए प्रसव की पीड़ा, झेलने की हमारी हिम्मत है। Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-07)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)

क्रांति का आधार सूत्र हैः विचार

हजारों लोग उस आदमी के पीछे थे। औरंगजेब ने अपने महल की खिड़की से झांक कर देखा और पूछा कौन मर गया? नीचे से लोगों ने कहा कौन पूछते हैं, भलीभांति पता होगा आपको, संगीत की मृत्यु हो गई। औरंगजेब हंसा और उसने कहाः बहुत अच्छा हुआ कि संगीत की मृत्यु हो गई। अब जरा मरे हुए संगीत को गहराई से गाड़ देना, ताकि वह वापस न निकल आए। यह घटना आपने सुनी होगी। आज ऐसा लगता है कि फिर दिल्ली में अरथी निकालनी चाहिए और जब आज के औरंगजेब पूछे बाहर झांक कर, तो कहना चाहिए कि विचार की मृत्यु हो गई। पक्का है कि आज के औरंगजेब भी यहीं कहेंगे कि थोड़ा ठीक से गाड़ देना, यह विचार कहीं निकल न आएं। Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-06)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

अहंकारी समाज सदा पीछे देखता है

एक काफिला रास्ता भटक गया था। आधी रात गए, एक रेगिस्तानी सराय में, उस काफिले को शरण मिली। बड़ा था काफिला, बहुत सौदागर थे। सौ ऊंटों पर लदा हुआ सामान था। थक गए थे, रात थक गए थे। शीघ्र उन्होंने खूटियां गाड़ कर ऊंटों को बांधा, विश्राम करने की तैयारी करने लगे, तभी पता चला कि एक ऊंट की खूंटी और रस्सी कहीं रास्ते में गिर गई। निन्यानबे ऊंट बंध गए, एक ऊंट अनबंधा रह गया। ऊंट को अनबंधा छोड़ना खतरनाक था। रात कहीं भटक सकता था। उन्होंने सराय के बूढ़े मालिक को जाकर काफिले के सरदार ने कहा, अगर एक खूंटी और रस्सी मिल जाए, तो बड़ी कृपा हो, हमारा एक ऊंट अनबंधा रह गया है। उस सराय के बूढ़े मालिक ने कहा, खूंटी और रस्सी की क्या जरूरत है, तुम तो खूंटी गाड़ दो और रस्सी बांध दो। वे लोग बहुत हैरान हुए, उन्होंने कहा, खूंटी हमारे पास होती तो, हम खुद ही गाड़ देते, कौन सी खूंटी दें? उस बूढ़े ने कहा झूठी खंूंटी गाड़ दो और झूठी रस्सी बांध दो। वह लोग कहने लगे आप भी पागलपन की बातें कर रहे हैं, झूठी खूंटी से कहीं ऊंट बांधे गए हैं? Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-05)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा-(ओशो)

किनारों से जंजीर भी छूट जाना जरूरी है

और कुछ लड़के एक मौजूदा आलम में इकट्ठे हुए। आधी रात गए तक उन्होंने शराब पी, फिर बाहर गए, चांद को देख कर मन में खयाल आया कि चलें नदी तक, नौका विहार करें। वे नदी पर गए, मछुए अपनी नावें बांध कर घर जा चुके थे। उन्होंने देखा एक बड़ी नाव थी, पतवारें खोली, नाव को खेना शुरू किया, नशे में धुत थे, चांदनी रात थी, मौज में थे, गीत गाने लगे। पतवार चलाने लगे। जोर से उन्होंने पतवार चलाईं, नाव खेई। पता नहीं कितनी देर तक नाव खेते रहे, कितनी दूर तक। जब सुबह की हवाएं बहने लगीं, और नशा कुछ उतरा तो खयाल आया। न मालूम कितनी दूर निकल आए वह। अब वापस लौट चलना चाहिए।

कहा किसी एक ने कि नाव को देख लो, कि वह किस दिशा में चले आए हैं। क्योंकि नशे में थे हम, हवाओं की दिशा का कोई हिसाब नहीं, कोई ठिकाना नहीं। Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-04)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

वैज्ञानिक चिंतन आना चाहिए

मैं तो अधिनायकशाही के पक्ष में ही नहीं हूं। वह सिर्फ मजाक में कही बात को…। कहा मैंने कुल इतना था कि जैसा लोकतंत्र चल रहा है, इस देश में इससे तो अच्छा होगा कि देश में तानाशाही हो जाए। वो तानाशाही भी इससे ज्यादा विनिवलेंट होगी। और ये सिर्फ मजाक में कहा कि इस लोकतंत्र से तो तानाशाही भी बेहतर हेागी। तानाशाही बेहतर होती है, यह मैंने कहा नहीं। लेकिन समझ यह लिया गया कि मैं तानाशाही को बेहतर मानता हूं। बिलकुल ही नासमझी है। मुझसे ज्यादा विरोध में तानाशाही के शायद ही कोई आदमी हो। और पाकिस्तान में असफल हो गई ऐसा नहीं। सारे इतिहास में, हमेशा असफल होती रही है। और कभी भी सफल नहीं होगी। Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-03)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(जगत बहुत यथार्थ है)

मेरे प्रिय आत्मन्!

रोम के एक चैराहे पर बारह भिखारी लेटे हुए थे। एक परदेसी यात्री उस चैराहे से गुजरता था। वे बारह भिखारी ही हाथ फैला कर भीख मांगने लगे। उस यात्री ने खड़े होकर कहा कि तुममें जो सबसे ज्यादा अलाल हो, उसी को मैं भीख दे सकता हूं। उन बारह भिखारियों में से ग्यारह भिखारी दौड़ कर उसके सामने खड़े हो गए। और प्रत्येक दावा करने लगा कि मुझसे ज्यादा अलाल और कोई भी नहीं है। भीख मुझे मिलनी चाहिए। लेकिन वह यात्री हंसा और उसने कहा कि तुम ग्यारह ही हार गए। बारहवां आदमी अपनी जगह ही लेटा हुआ था और वहीं से पुकार कर रहा था कि मैं अलाल हूं, भीख मुझे मिलनी चाहिए। वह रूपया जो उसे देना था, बारहवें आदमी को दे दिया उसने। वही अलाल सबसे ज्यादा था। उसने उठने की भी मेहनत नहीं ली थी। Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-02)”

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-01)

नये भारत का जन्म-(राष्ट्रीय-सामाजिक) -ओशो

पहला-प्रवचन-(झूठे शब्दों से सावधान)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।

ऐसा ही एक स्कूल था तुम्हारे स्कूल जैसा। बहुत छोटे-छोटे बच्चे थे उस स्कूल में। ऐसी ही एक सुबह होगी, स्कूल खुला होगा और एक इंस्पेक्टर स्कूल के निरीक्षण के लिए आया। उसे स्कूल की बड़ी कक्षा में ले जाया गया। उसने उस स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों से कहा कि तुम्हारी कक्षा में जो तीन बच्चे सबसे ज्यादा आगे हैं, जो पहला हो, दूसरा हो, तीसरा हो, उन तीनों बच्चों को मैं एक के बाद एक बुलाऊंगा, वह आकर बोर्ड पर सवाल हल करे।

पहला बच्चा उठ कर आया और उसने सवाल हल किया। फिर दूसरा बच्चा भी उठ कर आया, उसने भी सवाल हल किया। फिर तीसरा बच्चा उठ कर आया, लेकिन उठते समय वह थोड़ा झिझका, डरा, बोर्ड के पास आकर भी ऐसा लगा जैसे भयभीत है। Continue reading “नये भारत का जन्म-(प्रवचन-01)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-10)

दसवां-प्रवचन-(प्रेम ही परमात्मा है)

सागर के तट पर एक मेला भरा था। बड़े-बड़े विद्वान इकट्ठे थे उस सागर के किनारे। और स्वभावतः उनमें एक चर्चा चल पड़ी कि सागर की गहराई कितनी होगी? और जैसी कि मनुष्य की आदत है, वे सब सागर के किनारे बैठ कर विवाद करने लगे कि सागर की गहराई कितनी है? उन्होंने अपने शास्त्र खोल लिए। उन सबके शास्त्रों में गहराई की बहुत बातें थीं। कौन सही है, निर्णय करना बहुत मुश्किल हो गया। क्योंकि सागर की गहराई तो सिर्फ सागर में जाने से पता चल सकती है, शास्त्रों के विवाद में नहीं, शब्दों के जाल में नहीं। विवाद बढ़ता गया। और जितना विवाद बढ़ा, उतना निर्णय मुश्किल होता चला गया। असल में निर्णय लेना हो तो विवाद से बचना जरूरी है। निर्णय न लेना हो तो विवाद से ज्यादा सुगम और कोई रास्ता नहीं। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-10)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(जीवन की वीणा का संगीत)

मेरे प्रिय आत्मन्!

जैसे कोई बड़ा बगीचा हो, बहुत पौधे हों, लेकिन फूल एक भी न खिले, ऐसा ही मनुष्य का समाज हो गया है। मनुष्य बहुत हैं, लेकिन सौंदर्य के, सत्य के, प्रार्थना के कोई फूल नहीं खिलते। पृथ्वी आदमियों से भरती चली जाती है, लेकिन दुर्गंध से भी, सुगंध से नहीं। घृणा से, क्रोध से, हिंसा से, लेकिन प्रेम और प्रार्थना से नहीं। कोई तीन हजार वर्षों में आदमियों ने पंद्रह हजार युद्ध लड़े। ऐसा मालूम पड़ता है कि सिवाय युद्ध लड़ने के हमने और कोई काम नहीं किया। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध बहुत होते हैं। प्रतिवर्ष पांच युद्धों की लड़ाई। और अगर किसी एक संबंध में विकास हुआ है, तो वह यही कि हमने आदमियों को मारने की कला में अंतिम स्थिति पा ली है। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-09)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(रहस्य का द्वार)

एक फकीर को एक सम्राट ने फांसी दे दी थी। और उस देश का रिवाज था कि नदी के किनारे फांसी के तख्ते को खड़ा करके फांसी दे देते थे। और उस लटकते हुए आदमी को वहीं छोड़ कर लौट जाते थे। उसकी लाश नदी में गिर जाती और बह जाती। लेकिन कुछ भूल हो गई, और फकीर के गले में जो फंदा लगाया था वह बहुत मजबूत नहीं था, फकीर जिंदा ही फंदे से छूट कर नदी में गिर गया। पर किसी को पता न चला, फांसी लगाने वाले लौट चुके थे।

दस साल बाद उस फकीर को फिर फांसी की सजा दी गई। और जब उसे फांसी के तख्ते पर चढ़ाया जा रहा था और सूली बांधी जा रही थी, तो उस फकीर ने कहा कि मित्रो, जरा एक बात का ध्यान रखना कि फंदा ठीक से लगाना। पिछली बार मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया था। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-08)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(प्राणों की प्यास)

शायद हम जीवन के बरामदे में ही जी लेते हैं और जीवन का भवन अपरिचित ही रह जाता है। हम अपने से बाहर ही जी लेते हैं, मंदिर में प्रवेश ही नहीं हो पाता है। मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ा आश्चर्य शायद यही है कि वह अपने से ही अपरिचित, अनजान, अजनबी जी लेता है। शायद सबसे कठिन ज्ञान भी वही है। और सब कुछ जान लेना बहुत सरल है। एक अपने को ही जान लेना बहुत कठिन पड़ जाता है। होना तो चाहिए सबसे ज्यादा सरल, अपने को जानना सबसे सुगम होना चाहिए। लेकिन सबसे कठिन हो जाता है।

कारण हैं कुछ। सबसे बड़ा कारण तो यही है कि हम यह मान कर ही चल पड़ते हैं कि जैसे हम स्वयं को जानते हैं। और जैसे कोई बीमार समझ ले कि स्वस्थ है, ऐसे ही हम अज्ञानी समझ लेते हैं कि ज्ञानी हैं। अपने को जानते ही हैं, इस भ्रांति से जीवन में अज्ञान के टूटने की संभावना ही समाप्त हो जाती है। सिर्फ वही आदमी अपने को जानने को निकलेगा, जो कम से कम इतना जानता हो कि मैं अपने को नहीं जानता हूं। परमात्मा की खोज तो बहुत दूर है। जिन्होंने अपनी ही खोज नहीं की, वे परमात्मा को कैसे खोज सकेंगे? Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-07)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-06)

छटवां-प्रवचन-(अमृत की उपलब्धि)

मेरे प्रिय आत्मन्!

सुना है मैंने, एक पूर्णिमा की रात्रि कुछ मित्र एक शराबखाने में इकट्ठे हो गए। देर तक उन्होंने शराब पी। और जब वे नशे में नाचने लगे और उन्होंने आकाश में पूरे चांद को देखा, तो किसी ने कहा, अच्छा न हो कि हम नदी पर नौका-विहार को चलें? और वे नदी की तरफ चले। मांझी अपनी नौकाएं बांध कर जा चुके थे। वे एक नाव में सवार हो गए, उन्होंने पतवारें उठा लीं, उन्होंने पतवारें चलानी शुरू कर दीं। और वे बहुत रात गए तक पतवारें चलाते रहे, नाव को खेते रहे। और जब सुबह की ठंडी हवाएं आईं और उनका नशा उतरा, तो उन्होंने सोचा..हम न मालूम कितने दूर निकल आए हों और न मालूम किस दिशा में निकल आए हों, कोई नीचे उतर कर देख ले। एक व्यक्ति नीचे उतरा और हंसने लगा और उसने कहा कि आप भी नीचे उतर आएं। हम कहीं भी नहीं गए। हम रात भर वहीं खड़े रहे हैं! Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-06)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-05)

पांचवा-प्रवचन-(मनुष्य के अज्ञान का आधार)

आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अपने अनुभव से कुछ भी नहीं सीखता है। और जो आश्चर्य की बात है वही मनुष्य के अज्ञान का भी आधार है। मनुष्य अनुभव से कुछ भी नहीं सीखता है।

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात समझाना चाहूं।

मैंने सुना है, एक आदमी के घर में एक अंधेरी रात एक चोर घुस गया। उसकी पत्नी की नींद खुली और उसने अपने पति को कहा, मालूम होता है घर में कोई चोर घुस गया है। उस पति ने अपने बिस्तर पर से ही पड़े-पड़े पूछा, कौन है? उस चोर ने कहा, कोई भी नहीं। वह पति वापस सो गया। रात चोरी हो गई। सुबह उसकी पत्नी ने कहा कि चोरी हो गई और मैंने आपको कहा था! तो पति ने कहा, मैंने पूछा था, अपने ही कानों से सुना कि कोई भी नहीं है, इसलिए मैं वापस सो गया। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-05)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(तीन सूत्रः बहना, मिटना, सर्व-स्वीकार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

ध्यान के संबंध में दो-तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। सबसे कठिन और सबसे जरूरी बात तो यह समझना है कि जैसा शब्द से मालूम पड़ता है तो ऐसा लगता है कि ध्यान भी कोई क्रिया होगी, कोई डूइंग होगी, कुछ करना पड़ेगा। मनुष्य के पास जो भी शब्द हैं वे सभी शब्द बहुत ऊंचाइयों पर जाकर अर्थपूर्ण नहीं रह जाते हैं। तो ध्यान से ऐसा ही लगता है कि कुछ करना पड़ेगा। जब कि वस्तुतः ध्यान कोई करने की बात नहीं है। ध्यान हो जाने की बात है। आप ध्यान में हो सकते हैं, ध्यान कर नहीं सकते।

इसे ऐसा समझिए कि जैसे हम प्रेम शब्द का उपयोग करते हैं तो उसमें भी यही भ्रांति होती है, समझ में आता है कि प्रेम भी करना पड़ेगा। आप प्रेम नहीं कर सकते हैं, प्रेम में हो सकते हैं। और होने और करने में बहुत फर्क है। अगर आप प्रेम करेंगे तो वह झूठा हो जाएगा। किए हुए प्रेम में सच्चाई कैसे होगी? किया हुआ प्रेम अभिनय और एक्टिंग हो जाएगा। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-04)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(परमात्मा की खोज)

नीत्शे ने कहा है: गॅाड इ.ज डेड, ईश्वर मर गया है। लेकिन जिसके लिए ईश्वर मर गया हो उसकी जिंदगी में पागलपन के सिवाय और कुछ भी बच नहीं सकता है। नीत्शे पागल होकर मरा। अब दूसरा डर है कि कहीं पूरी मनुष्यता पागल होकर न मरे! क्योंकि जो नीत्शे ने कहा था, वह करोड़ों लोगों ने स्वीकार कर लिया।

आज रूस के बीस करोड़ लोग समझते हैं..गॅाड इ.ज डेड, ईश्वर मर चुका है। चीन के अस्सी करोड़ लोग रोज इस बात को गहराई से बढ़ाए चले जा रहे हैं..गॅाड इ.ज डेड, ईश्वर मर गया है। यूरोप और अमरीका की नई पीढ़ियां, भारत के जवान भी, ईश्वर मर गया है, इस बात से राजी होते जा रहे हैं। और मैं यह कहना चाहता हूं कि नीत्शे पागल होकर मरा, कहीं ऐसा न हो कि पूरी मनुष्यता को भी पागल होकर मरना पड़े। क्योंकि ईश्वर के बिना न तो नीत्शे जिंदा रह सकता है स्वस्थ होकर और न कोई और जिंदा रह सकता है। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-03)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ध्यान में मिटने का भय)

रवींद्रनाथ ने एक गीत में कहा है कि मैं परमात्मा को खोजता था। कभी किसी दूर तारे पर उसकी एक झलक दिखाई पड़ी, लेकिन जब तक मैं उस तारे के पास पहुंचा, वह और आगे निकल चुका था। कभी किसी दूर ग्रह पर उसकी चमक का अनुभव हुआ, लेकिन जब तक मैंने वह यात्रा की, उसके कदम कहीं और जा चुके थे। ऐसा जन्मों-जन्मों तक उसे खोजता रहा, वह नहीं मिला। एक दिन लेकिन अनायास मैं उस जगह पहुंच गया जहां उसका भवन था, निवास था। द्वार पर ही लिखा था: परमात्मा यहीं रहते हैं। खुशी से भर गया मन कि जिसे खोजता था जन्मों से वह मिल गया अब। लेकिन जैसे ही उसकी सीढ़ी पर पैर रखा कि ख्याल आया..सुना है सदा से कि उससे मिलना हो तो मिटना पड़ता है। और तब भय भी समा गया मन में..चढूं सीढ़ी, न चढूं सीढ़ी? क्योंकि अगर वह सामने आ गया तो मिट जाऊंगा! अपने को बचाऊं या उसे पा लूं? फिर भी हिम्मत की और सीढ़ियां चढ़ कर उसके द्वार पर पहुंच गया, उसके द्वार की सांकल हाथ में ले ली। फिर मन डरने लगा..बजाऊं या न बजाऊं? Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-02)”

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-01)

धर्म साधना के सूत्र-(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन-(धर्म परम विज्ञान है)

प्रश्नः मैंने धर्मयुग में शायद, देर हो गई, एक आर्टिकल आपका पढ़ा था। उसमें आपने कहा कि आवागमन को न मानें, ऐसा मुझे लगा; कि कर्म और प्रारब्ध है, इसमें हमें नहीं पड़ना चाहिए। जब कि हिंदू धर्म में जो आवागमन है वह एक बेसिक बात है और जो आवागमन को नहीं मानता, हम समझें कि उसको हिंदू धर्म में फेथ नहीं है। इसके बारे में आपका क्या विचार है?

दो बातें हैं। एक तो आवागमन गलत है, ऐसा मैंने नहीं कहा है। आवागमन को मानना गलत है, ऐसा मैंने कहा है। और मानना सब भांति का गलत है। धर्म का संबंध मानने से है ही नहीं। धर्म का संबंध जानने से है। और जो मानता है, वह जानता नहीं है, इसीलिए मानना पड़ता है। और जो जानता है, उसे मानने की कोई जरूरत नहीं है। जानता ही है, तो मानने की कोई जरूरत नहीं है। Continue reading “धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-01)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(जीवन के तथ्यों से भागें नहीं)

कैसे विरोध में, कैसी जड़ता में ग्रस्त है उस संबंध में कल हमने थोड़ी सी बातें कीं। किन कारणों से मन की, मनुष्य की, पूरी संस्कृति की ये दुविधा है उस संबंध में थोड़ा सा विचार किया। दो-तीन बातें मैंने कल आपसे कहीं। पहली बात तो मैंने आपसे ये कही कि हम जब तक भी जीवन की समस्याओं को सीधा देखने में समर्थ नहीं होंगे और निरंतर पुराने समाधानों से, पुराने समाधानों, पुराने सिद्धांतों से अपने मन को जकड़े रहेंगे, तब तक कोई हल, कोई शांति, कोई आनंद या कोई सत्य का साक्षात असंभव है।

आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति इसके पहले कि जीवन सत्य की खोज में निकले, अपने मन को समाधानों और शास्त्रों से मुक्त कर ले। उनका भार मनुष्य के चित्त को ऊध्र्वगामी होने से रोकता है, इस संबंध में थोड़ा सा मैंने आपसे कहा। इन समाधानों से अटके रहने के कारण दुविधा पैदा होती है। और दूसरी बात हम अत्यधिक आदर्शवाद से भरे हों तो जीवन में पाखंड को जन्म मिलता है। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-09)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(खुद को खोने का साहस)

एक छोटी सी कहानी से मैं आज चर्चा शुरू करना चाहूंगा। अंतिम चर्चा है यह। पिछली तीन चर्चाओं में जो मैंने आपसे कहा है, जो भूमिका और जो पात्रता बनाने को कहा है, उस भूमिका के अंतिम तीन चरण आज मैं आपसे कहने को हूं, उसके पहले एक छोटी सी कहानी।

एक बहुत पुरानी कथा है। एक सम्राट का बड़ा वजीर मर गया था। उस राज्य का यह नियम था कि बड़े वजीर की खोज साधारण नहीं, बहुत कठिन थी। देश से सबसे बड़े बुद्धिमान आदमी को ही वजीर बनाया जाता था। …… बुद्धिमान आदमी की खोज में बहुत सी परीक्षाएं हुईं, बहुत सी प्रतियोगिताएं हुईं, बहुत सी प्रतिस्पर्धाएं हुईं और फिर अंतिम रूप से तीन आदमी चुने गए, उन तीनों को राजधानी बुलाया गया। वे देश के सबसे बुद्धिमान लोग थे। फिर उनकी परीक्षा हुई और उसमें से एक व्यक्ति चुना गया। और वह देश का वजीर बना । Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-08)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(समाज अनैतिक क्यों है?)

मेरे प्रिय आत्मन्!

तीन दिनों की चर्चाओं के कारण बहुत से प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। उनमें जो प्रश्न केंद्रीय हैं या जो प्रश्न बहुत-बह‏ुत लोगों ने पूछे हैं, उन पर आज अंतिम दिन मैं विचार कर सकूंगा। बहुत लोगों ने यह पूछा है कि देश में, समाज में समाज सुधारक हैं, साधु हैं, नेता हैं। वे सब तरह का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन समाज की नैतिकता सुधर नहीं रही; भ्रष्टाचार सुधर नहीं रहा, समाज का जीवन ऊपर नहीं उठ रहा। इसका क्या कारण है?

एक छोटी सी कहानी से मैं कारण समझाने की कोशिश करूं।

एक गांव में एक स्कूल में, सुबह ही सुबह स्कूल का निरीक्षण करने के लिए इंस्पेक्टर का आगमन हुआ। सुबह ही थी अभी। इंस्पेक्टर आया निरीक्षण को। स्कूल की जो सबसे बड़ी कक्षा थी उसमें वह गया। और उसने जाकर विद्यार्थियों से कहा कि मैं निरीक्षण करने आया हूं। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-07)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(जीवन के प्रेमी बनो, निंदक नहीं)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी बात की चर्चा आज मैं इस बात पर करना चाहता हूं। एक गांव था और उस गांव के द्वार पर ही अभी जब सुबह का सूरज निकलता है, एक बैलगाड़ी आकर रूकी। एक बूढ़ा उस गांव के बाहर बैठा हुआ है द्वार पर। उस बैलगाड़ी के मालिक ने गाड़ी रोक कर पूछा कि क्या इस गांव के संबंध में मुझे कुछ बता सकेंगे कि इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं उस गांव की तलाश में निकला हूं जहां के लोग अच्छे हों। क्योंकि मैं कोई नया गांव खोज रहा हूं।।बस जाने के लिए। इस गांव के लोग कैसे हैं क्या आप मुझे बता सकेंगे? मैं अच्छे लोगों की तलाश में निकला हूं, किसी अच्छे गांव की। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-06)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(स्वयं को जानना कौन चाहता है?)

अब वह कर्म-योग को भी मानने वाले लोग ऐसा समझते हैं और इस मुल्क में ढेरों उनके व्याख्याकार हैं, वे करीब-करीब ऐसे व्याख्याकार हैं जिनका कहना यह है कि कर्म करते रहो, आसक्ति मत रखो तो कर्म-योग हो जाएगा। ये बिलकुल झूठी बात है। अब मेरा कहना ये है कि कर्म में आसक्ति रखना और अनासक्ति रखना आपके बस की बात नहीं है। अगर आपको आत्म-ज्ञान थोड़ा सा है तो कर्म में अनासक्ति होगी; अगर आत्म-अज्ञान है तो कर्म में आसक्ति होगी। यानी आसक्ति रखना और न रखना आपके हाथ में नहीं है। अगर आत्म-ज्ञान की स्थिति है तो कर्म में अनासक्ति होती है और अगर आत्म-अज्ञान की स्थिति है तो कर्म में आसक्ति होती है। आप आसक्ति को अनासक्ति में नहीं बदल सकते हैं, अज्ञान को ज्ञान में बदल सकते हैं। वह मेरा मामला तो वही का वह है, वह मैं कहीं से भी कोई बात हो। मामला मेरा वही का वह है। बात मैं वही, एक ही है। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-05)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(सुख की कामना दुख लाती है)

खोज, क्या जीवन में आप पाना चाहते हैं? खयाल आया उसी संबंध में थोड़ी आपसे बातें करूंगा तो उपयोगी होगा।

मेरे देखे, जो हम पाना चाहते हैं उसे छोड़ कर और हम सब पाने के उपाय करते हैं। इसलिए जीवन में दुख और पीड़ा फलित होते हैं। जो वस्तुतः हमारी आकांक्षा है, जो हमारे बहुत गहरे प्राणों की प्यास है, उसको ही भूल कर और हम सारी चीजें खोजते हैं। और इसलिए जीवन एक वंचना सिद्ध हो जाता है। श्रम तो बहुत करते हैं और परिणाम कुछ भी उपलब्ध नहीं होता; दौड़ते बहुत हैं लेकिन कहीं पहुंचते नहीं हैं। खोदते तो बहुत हैं; पहाड़ तोड़ डालते हैं, लेकिन पानी के कोई झरने उपलब्ध नहीं होते। जीवन का कोई स्रोत नहीं मिलता है। ऐसा निष्फल श्रम से भरा हुआ हमारा जीवन है। इस पर ही थोड़ा विचार करें। इस पर ही थोड़ा विचार आपसे मैं करना चाहता हूं। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-04)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(क्या आपका जीवन सफल है?)

यह प्रश्न उठता है कि आपसे पूछूं, आपको जीवन का अनुभव हुआ है? यह प्रश्न उठता है आपसे पूछूं, आपको जीवन में आनंद का अनुभव हुआ है? यह प्रश्न उठता है आपसे पूछूं, आपको अमृत का, आलोक का।।किसी प्रकार की दिव्य और अलौकिक शांति का कोई अनुभव हुआ है? ऐसे बहुत से प्रश्न उठते हैं। लेकिन मैं उनके पूछने की हिम्मत नहीं कर पाता, क्योंकि उनका उत्तर करीब-करीब मुझे ज्ञात है।

कोई आनंद मुझे नहीं दिखाई पड़ता, कोई आलोक, कोई शांति, कोई प्रकाश, कोई जीवन में दिव्यता का बोध, न ही कोई कृतज्ञता, कोई कृतार्थता, कोई सार्थकता।।नहीं मालूम होती। इसलिए डर लगता है किसी से पूछना अशोभन न हो जाए। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-03)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(व्यक्ति की महिमा को लौटाना है)

मेरा सौभाग्य है कि थोड़ी सी बातें आपसे कह सकूंगा। विचार जैसी कोई बात देने को मेरे पास नहीं है। और विचार का मैं कोई मूल्य भी नहीं मानता। वरन विचार के कारण ही मनुष्य पीड़ित है और दुखी। आपके मन पर इतने विचार इकट्ठे हैं, आपकी चेतना इतने विचारों से दबी है और पीड़ित है और परेशान है कि मैं भी उसमें थोड़े से विचार जोड़ दूं तो आपका भार और बढ़ जाएगा, उस भार से आपको मुक्ति नहीं होगी। इसलिए विचार कोई आपको देना नहीं चाहता हूं। वरन आकांक्षा तो यही है कि किसी भांति आपके सारे विचार छीन लूं।

अगर आपके सारे विचार छीने जा सकें तो आपमें ज्ञान का जन्म हो जाएगा। यह जान कर आपको आश्चर्य होगा कि विचार अज्ञान का लक्षण है, विचार ज्ञान का लक्षण नहीं है। एक अंधे आदमी को इस भवन के बाहर जाना हो तो वह विचार करेगा कि दरवाजा कहां है? और जिसके पास आंखें हैं वह विचार नहीं करता कि दरवाजा कहां है? दरवाजा उसे दिखाई पड़ता है। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-02)”

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-01)

धर्म की यात्रा-(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन-(दूसरा कोई उत्तर नहीं दे सकता)

बहुत से प्रश्न आए हैं, बहुत से प्रश्न आए हैं। प्रश्नों का पैदा होना बड़ी अर्थपूर्ण बात है। प्रश्न पैदा होने लगें तो विचार और खोज का कारण हो जाते हैं। दुर्भाग्य तो उन्हीं लोगों का है जिनके भीतर प्रश्न पैदा ही नहीं होते, और उतना ही दुर्भाग्य नहीं है। कुछ लोग तो ऐसे हैं जिनके भीतर उत्तर इकट्ठे हो गए हैं, और प्रश्नों की अब कोई जरूरत नहीं रही। बहुत लोग ऐसे हैं जिनके भीतर उत्तर तो बहुत हैं, प्रश्न बिल्कुल नहीं हैं। और होना यह चाहिए कि उत्तर तो बिलकुल न हों, और प्रश्न रह जाएं।

लेकिन प्रश्नों का उत्तर दूं उसके पहले आपको यह कह दूं कि मेरा उत्तर, आपका उत्तर नहीं हो सकता है। इसलिए कोई इस आशा में न हो कि मैं जो उत्तर दूंगा, वह आपका उत्तर बन सकता है। प्रश्न आपका है तो उत्तर आपको खोजना होगा। प्रश्न आपका हो और उत्तर मेरा हो; तो आपके भीतर द्वंद्व, कांफ्लिक्ट पैदा होगी, आपके भीतर समाधान नहीं आएगा। Continue reading “धर्म की यात्रा-(प्रवचन-01)”

जीवन दर्शन-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(जीवन में प्रेम का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।

एक राजमहल के द्वार पर बहुत भीड़ लगी हुई थी। सुबह से भीड़ का इकट्ठा होना शुरू हुआ था, अब दोपहर आ गई थी। और लोग बढ़ते ही गए थे। जो भी आकर खड़ा हो गया था, वह वापस नहीं लौटा था। सारे नगर में उत्सुकता थी, कुतूहल था कि राजमहल के द्वार पर क्या हो रहा है? वहां एक बड़ी अघटनीय घटना घट गई थी। सुबह ही सुबह एक भिखारी ने अपना भिक्षा पात्र राजा के सामने फैलाया था। भिखारी तो बहुत होते हैं, लेकिन भिखारी का कोई चुनाव नहीं होता, कोई शर्त नहीं होती। उस भिखारी की शर्त भी थी। Continue reading “जीवन दर्शन-(प्रवचन-07)”

जीवन दर्शन-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(जीवन में स्वयं के प्रश्नों का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा हैः आपके कथनानुसार सब धर्मशास्त्र, धार्मिक पुस्तकें व्यर्थ हैं, जिनमें बुद्ध, महावीर वगैरह के विचार व्यक्त होते हैं। तो आपके विचारों की अभिव्यक्ति जिन पुस्तकों से है उन्हें भी व्यर्थ क्यों न माना जाए? मानव अपने अनुभवों से ही क्यों न आगे बढ़े, आपको सुनने की भी क्या आवश्यकता है?

बहुत ही ठीक प्रश्न है। जरूरी है उस संबंध में पूछना और जानना। लेकिन किसी गलतफहमी पर खड़ा हुआ है। मैंने कब कहा कि किताबें व्यर्थ हैं? मैंने कहाः शास्त्र व्यर्थ हैं। किताब और शास्त्र में फर्क है। शास्त्र हम उस किताब को कहते हैं जिस पर विचार नहीं करते और श्रद्धा करते हैं। श्रद्धा और विश्वास अंधे हैं। और विश्वास के अंधेपन के कारण किताबें शास्त्र बन जाती हैं, आप्तवचन बन जाती हैं, आॅथेरिटी बन जाती हैं। फिर उन पर चिंतन नहीं किया जाता, फिर उन्हें केवल स्वीकार किया जाता है। फिर उन पर विचार नहीं किया जाता, उन पर विवेक नहीं किया जाता, अंधानुकरण किया जाता है। Continue reading “जीवन दर्शन-(प्रवचन-06)”

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