नव संन्यास क्या? (प्रवचन-07)

नव संन्यास क्या?

प्रवचन-सातवां

सावधिक संन्यास की धारणा मेरे मन में इधर बहुत दिन से एक बात निरंतर ख्याल में आती है और वह यह है कि सारी दुनिया से आनेवाले दिनों में संन्यासी के समाप्त हो जाने की संभावना है। संन्यासी आनेवाले पचास वर्ष के बाद पृथ्वी पर नहीं बच सकेगा, वह संस्था विलीन हो जाएगी। उस संस्था की नीचे की ईंटें तो खिसका दी गयी हैं और अब उसका मकान भी गिर जाएगा। लेकिन संन्यास इतनी बहुमूल्य चीज है कि जिस दिन दुनिया से विलीन हो जाएगा उस दिन दुनिया का बहुत अहित हो जाएगा।  मेरे देखे पुराना संन्यास तो चला जाना चाहिए पर संन्यास बच जाना चाहिए और इसके लिए सावधिक संन्यास का, पीरियाडिकल रिनन्सिएशन का मेरे मन में ख्याल है। ऐसा कोई आदमी नहीं होना चाहिए जो वर्ष में एक महीने के लिए संन्यासी न हो। जीवन में तो कोई भी ऐसा आदमी नहीं होना चाहिए जो दो-चार बार संन्यासी न हो गया हो। स्थायी संन्यास खतरनाक सिद्ध हुआ है। कोई आदमी पूरे जीवन के लिए संन्यासी हो जाए, उसके दो खतरे हैं।  एक खतरा तो यह है कि वह आदमी जीवन से दूर हट जाता है, और परमात्मा के प्रेम की, और आनंद की जो भी उपलब्धियां हैं वे जीवन के घनीभूत अनुभव में हैं, जीवन के बाहर नहीं। Continue reading “नव संन्यास क्या? (प्रवचन-07)”

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-06)

नव संन्यास क्या?

प्रवचन-छट्ठवां

संन्यास का एक नया अभियान जो भी मैं कह रहा हूं, संन्यास के संबंध में ही कह रहा हूं। यह सारी गीता संन्यास का ही विवरण है। और जिस संन्यास की मैं बात कर रहा हूं, वह वही संन्यास है जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं- करते हुए अकर्ता हो जाना, करते हुए भी ऐसे हो जाना जैसे मैं करनेवाला नहीं हूं। बस संन्यास का यही लक्षण है।  गृहस्थ का क्या लक्षण है? गृहस्थ का लक्षण है, हर चीज में कत्र्ता हो जाना। संन्यासी का लक्षण है, हर चीज में अकत्र्ता हो जाना। संन्यास जीवन को देखने का और ही ढंग है। बस ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में घर का फर्क नहीं है, ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में जगह का फर्क नहीं है, भाव का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थ में परिस्थिति का फर्क नहीं है, मनः स्थिति का फर्क है। संसार में जो है …..हम सभी संसार में ही होंगे। कोई कहीं हो- जंगल में बैठे, पहाड़ पर बैठे, गिरि-कंदराओं में बैठे, संसार के बाहर जाने का उपाय नहीं है- परिस्थिति बदलकर नहीं है! संसार से बाहर जाने का उपाय है मनः स्थिति बदलकर, बाई द म्यूटेशन आकृफ द माइंड, मन को ही रूपांतरित करके। मैं जिसे संन्यास कह रहा हूं वह मन को रूपांतरित करने की एक प्रक्रिया है। दो-तीन उसके अंग हैं, उनकी आपसे बात कर दूं।  पहला तो, जो जहां है, वहां से हटे नहीं। क्योंकि हटते केवल कमजोर हैं। Continue reading “नव संन्यास क्या? (प्रवचन-06)”

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-05)

 प्रवचन-पांचवां

आनंद व अहोभाव में डूबा हुआ नव-संन्यास

अभी-अभी साधना मंदिर में जो भजन चल रहा था उसे देखकर मुझे एक बात ख्याल में आती है। वहां सब इतना मुर्दा, इतना मरा हुआ था जैसे जीवन की कोई लहर नहीं है। सब औपचारिक था- करना है, इसलिए कर लिया। तुम्हारा भजन, तुम्हारा नृत्य, तुम्हारा जीवन जरा भी औपचारिक न हो, फॉरमल न हो। उदासी के लिए तो नव-संन्यास में जरा भी जगह न हो। क्योंकि संन्यास अगर मरा तो उदास लोगों के हाथ में पड़कर मरा।  ‘हंसता हुआ संन्यास’, पहला सूत्र तुम्हारे ख्याल में होना चाहिए। अगर हंस न सको तो समझना कि संन्यासी नहीं हो। पूरी जिंदगी एक हंसी हो जानी चाहिए। संन्यासी ही हंस सकता है। उदासी एवं गंभीरता संन्यासी के लिए एक रोग जैसा है। इसलिए आज तक संन्यासी होना एक ऐसा बोझ-सा और भारी गंभीरता का काम कर रहा है, जिसमें सिर्फ रुग्ण और बीमार आदमी ही उत्सुक होते रहे हैं। स्वस्थ आदमी न तो उदास हो सकता, न गंभीर हो सकता।  नव-संन्यासी तो नाचता-गाता, प्रसन्न होगा। इसका यह मतलब नहीं है कि वह उथला होगा। सच तो यह है कि गंभीरता गहरेपन का सिर्फ धोखा है। वह गहरी होती नहीं, सिर्फ दिखावा है। Continue reading “नव संन्यास क्या? (प्रवचन-05)”

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा

संन्यास के फूलः संसार की भूमि में

भगवानश्री, आपने कहा है कि बाहर से व्यक्तित्व व चेहरे आरोपित कर लेने में सूक्ष्म चोरी है तथा इससे पाखंड और अधर्म का जन्म होता है। लेकिन देखा जा रहा है कि आजकल आपके आसपास अनेक नए-नए संन्यासी इकट्ठे हो रहे हैं और बिना किसी विशेष तैयारी और परिपक्वता के आप उनके संन्यास को मान्यता दे रहे हैं। क्या इससे आप धर्म को भारी हानि नहीं पहुंचा रहे हैं? कृपया इसे समझाएं!

पहली बात, अगर कोई व्यक्ति मेरे-जैसा होने की कोशिश करे तो मैं उसे रोकूंगा। उसे मैं कहूंगा, कि मेरे-जैसा होने की कोशिश आत्मघात है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति स्वयं जैसे होने की कोशिश की यात्रा पर निकले तो मेरी शुभकामनाएं उसे देने में मुझे कोई हर्ज नहीं है। जो संन्यासी चाहते हैं कि मैं परमात्मा के मार्ग पर उनकी यात्रा का गवाह बन जाऊं, विटनेस बन जाऊं तो उनका गवाह बनने में मुझे कोई एतराज नहीं है, लेकिन मैं गुरु किसी का भी नहीं हूं। मेरा कोई शिष्य नहीं है, मैं सिर्फ गवाह हूं। अगर कोई मेरे सामने संकल्प लेना चाहता है कि मैं संन्यास की यात्रा पर जा रहा हूं तो मुझे गवाह बन जाने में कोई एतराज नहीं है, लेकिन अगर कोई मेरा शिष्य बनने आए तो मुझे भारी एतराज है। Continue reading “नव संन्यास क्या? (प्रवचन-04)”

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा

संन्यास और संसार संसार को छोड़कर भागने का कोई उपाय ही नहीं है, कारण हम जहां भी जाएंगे वह होगा ही, शक्लें बदल सकती हैं। इस तरह के त्याग को मैं संन्यास नहीं कहता। संन्यास मैं उसे कहूंगा कि हम जहां भी हों वहां होते हुए भी संसार हमारे मन में न हो। अगर तुम परिवार में भी हो तो परिवार तुम्हारे भीतर बहुत प्रवेश नहीं करेगा। परिवार में रहकर भी तुम अकेले हो सकते हो और ठेठ भीड़ में खड़े होकर भी अकेले हो सकते हो।  इससे उल्टा भी हो सकता है कि एक आदमी अकेला जंगल में बैठा हो लेकिन मन में पूरी भीड़ घिरी हो और ठेठ बाजार में बैठकर भी एक आदमी अकेला हो सकता है।  संन्यास की जो अब तक व्यवस्था रही है उसमें गलत त्याग पर ही जोर रहा है। उसके दूसरे पहलू पर कोई जोर नहीं है। एक आदमी के पास पैसा न हो तो भी उसके मन में पैसे का राग चल सकता हैं। इससे उल्टा भी हो सकता है कि किसी के पास पैसा हो और पैसे का कोई लगाव उसके मन में न हो। बल्कि ज्यादा संभावना दूसरे की ही है, पैसा बिल्कुल न हो तो पैसे में लगाव की संभावना ज्यादा है। पैसा हो तो पैसे से लगाव छूटना ज्यादा आसान है। जो भी चीज तुम्हारे पास है उससे तुम आसानी से मुक्त हो सकते हो। असल में तुम मुक्त हो ही जाते हो। सिर्फ गरीब आदमी को ही पैसे की याद आती है। Continue reading “नव संन्यास क्या? (प्रवचन-03)”

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-02)

नव संन्यास क्या? प्रवचन-दूसरा

संन्यासः नयी दिशा, नया बोध

आपको अपने संन्यास का स्मरण रखकर ही जीना है ताकि आप अगर क्रोध भी करेंगे तो न केवल आपको अखरेगा, दूसरा भी आपसे कहेगा कि आप कैसे संन्यासी हैं? साथ-ही-साथ उनका नाम भी बदल दिया जाएगा। ताकि अन्य पुराने नाम से उनकी जो आइडेंटिटी, उनका जो तादात्म्य था वह टूट जाए। अब तक उन्होंने अपने व्यक्तित्व को जिससे बनाया था उसका केंद्र उनका नाम है। उसके आस-पास उन्होंने एक दुनिया रचायी, उसको बिखेर देना है ताकि उनका पुनर्जन्म हो जाए। इस नए नाम से वे शुरू करेंगे यात्रा और इस नए नाम के आस-पास अब वे संन्यासी की भांति कुछ इकट्ठा करेंगे। अब तक उन्होंने जिस नाम के आस-पास सब इकट्ठा किया था वह गृहस्थ की तरह इकट्ठा किया था।  तो एक तो उनकी पुरानी आइडेंटिटी तोड़कर नाम बदल देना है। दूसरे उनके कपड़े बदल देना है, ताकि समाज के लिए उनकी घोषणा हो जाए कि वे संन्यासी हो गए और चैबीस घंटे उनके कपड़े उनको भी याद दिलाते रहेंगे कि वे संन्यासी हैं। रास्ते पर चलते हुए, पाठ करते हुए, काम करते हुए वे कपड़े जो हैं उनके लिए कांस्टेंट रिमेंबरिंग का काम करेंगे। Continue reading “नव संन्यास क्या? (प्रवचन-02)”

नव संन्यास क्या? (प्रवचन-01)

प्रवचन-पहला

नव-संन्यास का सूत्रपात

संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं, आनंद है। संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है। लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है- त्याग के अर्थों में, छोड़ने के अर्थों में- पाने के अर्थ में नहीं। मैं संन्यास को देखता हूं पाने के अर्थ में। निश्चित ही जब कोई हीरे-जवाहरात पा लेता है तो कंकड़-पत्थरों को छोड़ देता है। लेकिन कंकड़-पत्थरों को छोड़ने का अर्थ इतना ही है कि हीरे-जवाहरातों के लिए जगह बनानी पड़ती है। कंकड़-पत्थरों का त्याग नहीं किया जाता। त्याग तो हम उसी बात का करते हैं जिसका बहुत मूल्य मालूम होता है। कंकड़-पत्थर तो ऐसे छोड़े जाते हैं जैसे घर से कचरा फेंक दिया जाता है। घर से फेंके हुए कचरे का हम हिसाब नहीं रखते कि हमने कितना कचरा त्याग दिया।  संन्यास अब तक लेखा-जोखा रखता रहा है- उस सबका, जो छोड़ा जाता रहा है। मैं संन्यास को देखता हूं उस भाषा में, उस लेखे-जोखे में, जो पाया जाता है। निश्चित ही इसमें बुनियादी फर्क पड़ेगा। Continue reading “नव संन्यास क्या? (प्रवचन-01)”

नव संन्यास क्या? (भुमिका)

नव संन्यास क्या?

सात प्रवचन

आमुख

एक संन्यास है जो इस देश में हजारों वर्ष से प्रचलित है, जिससे हम सब भलीभांति परिचित हैं। उसका अभिप्राय कुल इतना है कि आपने घर-परिवार छोड़ दिया, भगवे वस्त्र पहन लिए, चल पड़े जंगल की ओर। वह संन्यास तो त्याग का दूसरा नाम है, वह जीवन से भगोड़ापन है, पलायन है। और एक अर्थ में आसान भी है- अब है कि नहीं, लेकिन कभी अवश्य आसान था। भगवे वस्त्रधारी संन्यासी की पूजा होती थी। उसने भगवे वस्त्र पहन लिए, उसकी पूजा के लिए इतना पर्याप्त था। वह दरअसल उसकी नहीं, उसके वस्त्रों की ही पूजा थी। वह संन्यास इसलिए भी आसान था कि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए। क्योंकि समस्याओं से कौन मुक्त नहीं होना चाहता?  लेकिन जो लोग संसार से भागने की अथवा संसार को त्यागने की हिम्मत न जुटा सके, मोह में बंधे रहे, उन्हें त्याग का यह कृत्य बहुत महान लगने लगा, वे ऐसे संन्यासी की पूजा और सेवा करते रहे और संन्यास के नाम पर परनिर्भरता का यह कार्य चलता रहाः संन्यासी अपनी जरूरतों के लिए संसारी पर निर्भर Continue reading “नव संन्यास क्या? (भुमिका)”

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