समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-06)

 छठवां–प्रवचन

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है: अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह आदि व्रतों के लिए गांधी जी ने करने के लिए बोला है, और पतंजलि ने भी इन पर जोर दिया है। तो क्या समाधि के पहले इन्हें साधना आवश्यक है? या इनके बिना ही समाधि तक पहुंचा जा सकता है?

समाधि न मिले तो कोई अहिंसक नहीं हो सकता है, न अपरिग्रही हो सकता है, न ही सत्य को उपलब्ध हो सकता है। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, और सब समाधि के परिणाम हैं, कांसीक्वेंसेस हैं, कारण नहीं, कॉज़ेज़ नहीं। अहिंसा को साध कर कोई समाधि तक नहीं पहुंचता है, समाधि तक जो पहुंच जाता है उसके जीवन में अहिंसा फलित होती है। ये फूल की तरह हैं, बीज की तरह नहीं। बोना तो पड़ता है समाधि के बीज को… Continue reading “समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-06)”

समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-05)

पांचवां–प्रवचन

मन की मृत्यु ही समाधि है

मेरे प्रिय आत्मन्!

एक मित्र ने पूछा है: उपनिषद में कहा है कि परमात्मत्तत्व उसी को प्राप्त होता है जिसके गले में वह परमात्मत्तत्व स्वयं ही माला डाल दे। इसका क्या अर्थ हुआ? इससे साधक की साधना निरुपयोगी नहीं हो गई?

यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। इसे समझने में थोड़ी कठिनाई भी हो सकती है। पहली बात तो यह कि साधक के बिना उपाय के वह नहीं मिलेगा और दूसरी बात तत्काल यह भी कि सिर्फ साधक के उपाय से उसे नहीं पाया जा सकता है। साधक के प्रयत्न से भी नहीं मिलता है वह और साधक न प्रयत्न करे तो भी नहीं मिलता है। Continue reading “समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-05)”

समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-04)

चौथा–प्रवचन

एकाकीपन का बोध

एक फकीर के पास तीन युवक आए और उन्होंने कहा कि हम अपने को जानना चाहते हैं। उस फकीर ने कहा कि इसके पहले कि तुम अपने को जानने की यात्रा पर निकलो, एक छोटा सा काम कर लाओ। उसने एक-एक कबूतर उन तीनों युवकों को दे दिया और कहा, ऐसी जगह में जाकर कबूतर की गर्दन मरोड़ डालना जहां कोई देखने वाला न हो।

पहला युवक रास्ते पर गया–दोपहर थी, रास्ता सुनसान था, लोग अपने घरों में सोये थे–देखा कोई भी नहीं है, गर्दन मरोड़ कर, भीतर आकर गुरु के सामने रख दिया। कोई भी नहीं था, उसने कहा, रास्ता सुनसान है, लोग घरों में सोये हैं, किसी ने देखा नहीं, कोई देखने वाला नहीं था। Continue reading “समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-04)”

समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-03)

तीसरा–प्रवचन

एकाकीपन का बोध

मेरे प्रिय आत्मन्!

समाधि है जीते जी मृत्यु को अनुभव कर लेना। लेकिन जो जीते जी मृत्यु को जान लेता है, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। इस संबंध में कल मैंने कुछ आपसे कहा था। बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। उन प्रश्नों के माध्यम से ही जो मुझे आज कहना है, वह आपसे मैं कहूंगा।

एक मित्र ने पूछा है कि रात की समाधि के प्रयोग में, मैं मर रहा हूं या मर गया हूं, अगर मैं, यानी साक्षी हूं, तो वह साक्षी कैसे मर सकता है? यह भावना करने का क्या अर्थ है? Continue reading “समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-03)”

समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन–(समाधि के तीन चरण)

फूल किसी से पूछते नहीं–कैसे खिलें। तारे किसी से पूछते नहीं–कैसे जलें। आदमी को पूछना पड़ता है कि कैसे वह वही हो जाए, जो होने को पैदा हुआ है। सहज तो होना चाहिए परमात्मा में होना। लेकिन आदमी कुछ अदभुत है, जिसमें होना चाहिए उससे चूक जाता है और जहां नहीं होना चाहिए वहां हो जाता है। कहीं कोई भूल है। और भूल भी बहुत सीधी है: आदमी होने को स्वतंत्र है, इसलिए भटकने को भी स्वतंत्र है। शायद यह भी हो सकता है कि बिना भटके पता ही न चले। बिना भटके पता ही न चले कि क्या है हमारे भीतर। शायद भटकना भी मनुष्य की प्रौढ़ता का हिस्सा हो। Continue reading “समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-02)”

समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-01)

समाधि के द्वार पर

पहला–प्रवचन

मेरे प्रिय आत्मन्!

जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीये को जला दे, और जहां कुछ भी दिखाई न पड़ता हो वहां सभी कुछ दिखाई पड़ने लगे, ऐसे ही जीवन के अंधकार में समाधि का दीया है। या जैसे कोई मरुस्थल में वर्षों से वर्षा न हुई हो और धरती के प्राण पानी के लिए प्यास से तड़पते हों, और फिर अचानक मेघ घिर जाएं और वर्षा की बूंदें पड़ने लगें, तो जैसा उस मरुस्थल के मन में शांति और आनंद नाच उठे, ऐसा ही जीवन के मरुस्थल में समाधि की वर्षा है। या जैसे कोई मरा हुआ अचानक जीवित हो जाए, और जहां श्वास न चलती हो वहां श्वास चलने लगे, और जहां आंखें न खुलती हों वहां आंखें खुल जाएं, और जहां जीवन तिरोहित हो गया था वहां वापस उसके पदचाप सुनाई पड़ने लगें, ऐसा ही मरे हुए जीवन में समाधि का आगमन है। Continue reading “समाधि के द्वार पर-(प्रवचन-01)”

Design a site like this with WordPress.com
प्रारंभ करें