नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(ओशो)

क्या मनुष्य एक रोग है?

मेरे प्रिय आत्मन्!

क्या मनुष्य एक रोग है? इ.ज मैन ए डि.जी.ज? इस संबंध में सबसे पहले जो बात मैं आपसे कहना चाहूं, मनुष्य अपने आप में तो रोग नहीं है, लेकिन मनुष्य जैसा हो गया है वैसा जरूर रोग हो गया है। अपने आप में तो इस जगत में सभी चीजें स्वस्थ हैं लेकिन जो भी स्वस्थ है उसे रुग्ण होने की संभावना है। जो भी स्वस्थ है वह बीमार हो सकता है। जीवित होने के साथ दोनों ही मार्ग खुले हुए हैं। सिर्फ मरा हुआ ही व्यक्ति बीमारी के भय के बाहर हो सकता है जिंदा व्यक्ति का अर्थ ही यही है कि वह बीमार हो सकता है इसकी पासिबिलिटी है, इसकी संभावना है। और मनुष्य बीमार हो गया है। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-08)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

राजनीति का सम्मान कम हो

अभी हुआ क्या है कि आज से पहले शिक्षा थी कम, काम था ज्यादा। भले आदमियों ने अनिवार्य शिक्षा कर दी। अनिवार्य शिक्षा करके शिक्षित तो ज्यादा पैदा कर रहे हैं और काम हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षित बढ़ता जा रहा है काम बिलकुल नहीं है। वह बिलकुल परेशानी में पड़ गया है।

उससे जब हम बातें करते हैं ऊंची तो उसे हम पर क्रोध आता है बजाए हमारी बातों को पसंद करने के। और जब हमारा नेता उसे समझाने जाता है तो उसका मन होता है इसकी गर्दन दबा दो।

कुछ भी नहीं होगा समझाने से। और वह गर्दन दबा रहा है जगह-जगह। और दस साल के भीतर हिंदुस्तान में नेता होना अपराधी होने के बराबर हो जाने वाला है। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-07)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)

निःशब्द में ठहर जाएं

मेरे प्रिय आत्मन्!

जैसे कोई मछली पूछे कि सागर कहां है? ऐसे ही यह सवाल है आदमी का कि सत्य कहां है? मछली सागर में पैदा होती है सागर में जीती है और मरती है। शायद इसी कारण सागर से अपरिचित भी रह जाती है।

जो दूर है उसे जानना सदा आसान जो पास है उसे जानना सदा कठिन है। मछली सागर भर को नहीं जान पाती है। रात शायद आकाश के तारे भी उसे दिखाई पड़ते हैं और सुबह शायद ऊगता हुआ सूरज भी दिखाई पड़ता है। सिर्फ एक जो नहीं दिखाई पड़ता मछली को वह वही सागर है जिसमें वह पैदा होती है, जीती है और मरती है। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-06)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-05)

पांचवा-प्रवचन-(ओशो)

युवा चित्त का जन्म

पुरानी संस्कृतियां और सभ्यताएं धीरे-धीरे सड़ जाती हैं। और जितनी पुरानी होती चली जाती हैं उतनी ही उनकी बीमारियां संघातक भी हो जाती हैं। उन अभागी सभ्यताओं में से एक है जिनका सब कुछ पुराना होते-होते मृतपाय हो गया है। यदि ऐसा कहा जाए कि जमीन पर हम अकेली मरी हुई सभ्यता हैं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। दूसरी सभ्यताएं पैदा हुईं मर गईं और उनकी जगह नई सभ्यताओं ने जन्म ले लिया। हमारी सभ्यता ने मरने की कला ही छोड़ दी और इसलिए नये जन्म लेने की क्षमता भी खो दी। जरूरी है कि बूढ़े चल बसें ताकि बच्चे पैदा हों और कभी किसी देश में ऐसा हुआ कि बूढ़ों ने मरना बंद कर दिया तो बच्चों का पैदा होना भी बंद हो जाएगा। हमारी सभ्यता के साथ ऐसा ही दुर्भाग्य हुआ है। हमने मरने से इनकार कर दिया। इस भ्रांति में कि अगर मरने से इंकार करेंगे तो शायद जीवन हमें बहुत परिपूर्णता में उपलब्ध हो जाएगा। हुआ उलटा। मरने से इनकार करके हमने जीने की क्षमता भी खो दी। हम मरे तो नहीं लेकिन मरे-मरे होकर जी रहे हैं। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-05)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-04)

प्रवचन -चौथा-(ओशो)

हिंदुस्तान क्रांति के चैराहे पर है

यह भी मैं मानता हूं कि सत्य बोलने से बड़ा धक्का दूसरा नहीं हो सकता। समाज इतना झूठ बोलता रहा, इतना झूठ पर जी रहा है कि आप बड़े से बड़े शाॅक जो पहुंचा सकते हैं वह यह कि चीज जैसी है वैसी सच-सच बोल दें।

प्रश्नः इसलिए कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि लोग मानते हैं कि जो कोई धक्का दे सकता है वे सत्यवती हैैं।

यह जरूरी नहीं है। यह जरूरी नहीं है। लेकिन फिर भी मेरा मानना यह है कि धक्का न देने वाले सत्य की बजाए धक्का देने वाला असत्य भी बेहतर होता है। क्योंकि धक्का चिंतन में ले जाता है। और चिंतन में बहुत देर तक असत्य नहीं टिक सकता। मेरी दृष्टि यह है कि चिंतन में, विचार में समाज जाना चाहिए। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि इनिशिअल धक्का अगर गलत भी था, और झूठ भी था, तो भी फर्क नहीं पड़ता। यानी वह सत्य जो हमें स्टैटिक बनाते हैं उन असत्यों से बदतर हैं जो कि हमें डाइनैमिक बनाते हैं। क्योंकि असत्य बहुत दिन नहीं टिक सकता, अगर चिंतन की प्रक्रिया शुरू हो गई है तो। और इस देश में तकलीफ यह है कि चिंतन चलता ही नहीं। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-04)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

दमन नहीं, समझ पैदा करें

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य के मन का एक अदभुत नियम है। उस नियम को न समझने के कारण मनुष्यता आज तक अत्यंत परेशानी में रही। वह नियम यह है कि मन को जिस ओर जाने से रोकें, मन उसी ओर जाना शुरू हो जाता है। मन को जिस बात का निषेध करें, मन उसी बात में आकर्षित हो जाता है। मन से जिस बात के लिए लड़ें, मन उसी बात से हारने के लिए मजबूर हो जाता है। लाॅ आॅफ रिवर्स इफेक्ट। मन के जगत में उलटे परिणामों का नाम है। इस नियम को बहुत समझना जरूरी है।

फ्रायड अपनी पत्नी के साथ एक दिन बगीचे में घूमने गया था। छोटा बेटा उसके साथ था। वे दोनों बगीचे में बैठ कर, घूम कर बातचीत करते रहे। और जब बगीचा बंद होने का समय आ गया, तो दोनों दरवाजे पर आए, तब उन्हें Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-03)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

युवा शक्ति का संगठन

मेरे प्रिय आत्मन्!

दो ही दृष्टियों से तुम्हे यहां बुलाया है, एक तो श्री नरेंद्र ध्यान के ऊपर शोध करते हैं, रिसर्च करते हैं। मैं ध्यान के जो प्रयोग सारे देश में करवा रहा हूं, वे उस पर मनोविज्ञान की दृष्टि से, पीएचड़ी. की…बनाते हैं। वे एम. ए. हैं मनोविज्ञान में, मनोविज्ञान के शिक्षक हैं और चाहते हैं कि ध्यान के ऊपर वैज्ञानिक रूप से खोज की जा सके। उनकी खोज के लिए कुछ मित्रों को निरंतर अपने मन का निरीक्षण करके अपने मन की स्थिति से और ध्यान के द्वारा उनके मन में क्या परिवर्तन हो रहे हैं, उस सबकी सूचना उन्हें देनी जरूरी है। तभी वे उस रिसर्च को पूरा कर सकेंगे। तो तुम्हें एक तो इस कारण से बुलाया है क्योंकि वे पिछले दो वर्षों से अनेक लोगों से प्रार्थना करते हैं। हमारे मुल्क में पहले तो कोई किसी तरह की प्रश्नावली को भरने को राजी नहीं होता, क्योंकि वह सोचता है न मालूम…और अगर भरने को भी राजी होता है तो उसे सत्य-सत्य नहीं भरता। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-02)”

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-01)

नये मनुष्य का धर्म–(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन

जीवन की कुंजी है मृत्यु

मेरे प्रिय आत्मन्!

नेहरू विद्यालय के भारतीय सप्ताह का उदघाटन करते हुए मैं अत्यंत आनंदित हूं। युवकों के हाथ में भविष्य है…विषय नई पीढ़ी का निर्मित करना है। ज्ञान के जो केंद्र हैं वे यदि नई पीढ़ी को ज्ञान के साथ ही साथ हृदय की और प्रेम की भी शिक्षा दे सकें तो शायद नये मनुष्य का निर्माण हो सके।

एक छोटी सी बात के संबंध में कह कर मैं अपनी चर्चा शुरू करूंगा।

बहुत पुरानी घटना है एक गुुरुकुल से तीन विद्यार्थी अपनी समस्त परीक्षाएं उतीर्ण करके वापस लौटते थे। लेकिन उनके गुुरु ने पिछले वर्ष बार-बार कहा था कि तुम्हारी एक परीक्षा शेष रह गई है। उन्होंने बहुत बार पूछा कि वह कौन सी परीक्षा है? गुरु ने कहा, वह परीक्षा बिना बताए ही लिए जाने की है, उसे बताया नहीं जा सकता। और सारी परीक्षाएं तो बता कर ली जा सकती हैं, लेकिन जीवन की एक ऐसी परीक्षा भी है जो बिना बताए ही लेनी पड़ती है। समय पर तुम्हारी परीक्षा हो जाएगी, लेकिन स्मरण रहे, उस परीक्षा को बिना पास किए, बिना उत्तीर्ण हुए तुम उत्तीर्ण नहीं समझे जा सकोगे। Continue reading “नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-01)”

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