हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-05)

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्

पांचवां प्रवचन-(ध्यान और रेचन)

प्रश्नः कई लोगों के मन में ऐसा ख्याल है कि तीन दिनों के शिविर से क्या हो सकता है। इंसान के जीवन में इतनी आसानी से कैथार्सिस वगैरह हो जाती है और इसकी कोई आवश्यकता वगैरह है कि ध्यान खुद ही अपने आप ही आ सकता है? इसके बारे में कृपया बताएं।

ध्यान आ सकता है, स्वयं से भी आ सकता है, लेकिन पृथक्करण से नहीं आएगा। बड़ा सवाल यह नहीं है कि हम अपने मन को एनालाइज कर दें, क्योंकि यह पृथक्करण विश्लेषण करते वक्त कहीं हमारा मन ही तो नहीं है। और यह सारा पृथक्करण हमारे ही मन को दो खंडों में तोड़ देता है। तो न तो पृथक्करण से संभव है कि मन एक हो जाए, न ही चिंतन-मनन से संभव है कि एक हो जाए। क्योंकि ये सारी क्रियाएं जिस मन से चलने वाली हैं, उसी मन को बदलना है। Continue reading “हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-05)”

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-04)

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्

प्रवचन-चौथा-(मन के पार)

Published as a booklet in 1972

प्रश्नः क्या निराकार वस्तु का ध्यान हो सकता है? और यदि हो सकता है तो क्या निराकार, निराकार ही बना रहेगा?

ध्यान का साकार या निराकार से कोई भी संबंध नहीं है। ध्यान का विषय-वस्तु से ही कोई संबंध नहीं है। ध्यान है विषय-वस्तु रहितता। प्रगाढ़ निद्रा की भांति।

लेकिन निद्रा में चेतना नहीं है। और ध्यान में चेतना पूर्णरूपेण है। अर्थात निद्रा अचेतन ध्यान है। या ध्यान सचेतन निद्रा है।

प्रगाढ़ निद्रा में भी हम वहीं होते हैं जहां ध्यान में होते हैं, लेकिन मूर्च्छित। ध्यान में भी हम वहीं होते हैं जहां निद्रा में होते हैं, लेकिन जाग्रत।

जागते हुए सोना ध्यान है। या सोते हुए जागना ध्यान है। Continue reading “हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-04)”

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-03)

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्

तीसरा प्रवचन-(ध्यानः अंतस अनुभूति)

 प्रश्नः मैं थोड़ी साधना करती हूं, खास कर उसके बारे में मुझे पूछना है।

साधना करेगी फिर तो पूछ ही न सकेगी। साधना इतनी और उतनी नहीं होती। मात्रा होती नहीं। यह हमारी बड़ी भ्रांति है। क्योंकि हम चीजों की दुनिया से परिचित हैं, इसलिए हमेशा क्वांटिटी के हिसाब से सोचते हैं। चीजों की दुनिया से परिचित होने के कारण यह भ्रांति होती है, क्योंकि चीजों में तो क्वांटिटी है और भीतर सिर्फ क्वालिटी है, क्वांटिटी नहीं है! भाव की दुनिया में कोई मात्रा नहीं है। इसलिए हम ऐसा नहीं कह सकते कि हम किसी को कम प्रेम करते हैं। या तो करते हैं या नहीं करते हैं। कम और ज्यादा प्रेम नहीं हो सकता। हो ही नहीं सकता। क्योंकि वहां नापने का उपाय ही नहीं है। या तो हम प्रेम करते हैं या हम नहीं करते हैं। कम प्रेम धोखे की बात है। ऐसे ही या तो हम साधना में जाते हैं या नहीं जाते हैं। कम साधना धोखे की बात है। लेकिन चूंकि हम वस्तुओं की दुनिया में ही जीते हैं और हमारा सारा चिंतन वहां से बनता है, तो वहां मात्राएं हैं। और उन्हीं मात्राओं को हम अध्यात्म में भी ले आते हैं, तब बड़ी भूल हो जाती है, तब बड़ी भूल हो जाती है। Continue reading “हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-03)”

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-02)

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्

दूसरा प्रवचन—(ध्यानः एक वैज्ञानिक दृष्टि)

मेरे प्रिय आत्मन्!

सुना है मैंने, एक खतरनाक तूफान में कोई नाव उलट गई थी। एक व्यक्ति उस नाव में बच गया और एक निर्जन द्वीप पर जा लगा। दिन, दो दिन, चार दिन, सप्ताह, दो सप्ताह उसने प्रतीक्षा की कि जिस बड़ी दुनिया का वह निवासी था वहां से कोई उसे बचाने आ जाएगा। फिर महीने भी बीत गए और वर्ष भी बीतने लगा। फिर किसी को आते न देख कर वह धीरे-धीरे प्रतीक्षा करना भी भूल गया।

पांच वर्षों के बाद कोई जहाज वहां से गुजरा। उस एकांत निर्जन द्वीप पर उस आदमी को निकालने के लिए जहाज ने लोगों को उतारा। और जब उन लोगों ने उस खो गए आदमी को वापस चलने को कहा, तो वह विचार में पड़ गया। उन लोगों ने कहा, क्या विचार कर रहे हैं! चलना है या नहीं? तो उस आदमी ने कहा, अगर तुएहारे साथ जहाज पर कुछ अखबार हों, जो तुएहारी दुनिया की खबर लाए हों, तो मैं पिछले दिनों के कुछ अखबार देख लेना चाहता हूं। Continue reading “हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-02)”

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-01)

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-ओशो

पहला प्रवचन-मेडिसिन और मेडिटेशन

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य एक बीमारी है। बीमारियां तो मनुष्य पर आती हैं, लेकिन मनुष्य खुद भी एक बीमारी है। मैन इ.ज ए डिस-ई.ज। यही उसकी तकलीफ है, यही उसकी खूबी भी। यही उसका सौभाग्य है, यही उसका दुर्भाग्य भी। जिस अर्थों में मनुष्य एक परेशानी, एक चिंता, एक तनाव, एक बीमारी, एक रोग है, उस अर्थों में पृथ्वी पर कोई दूसरा पशु नहीं है। वही रोग मनुष्य को सारा विकास दिया है। क्योंकि रोग का मतलब यह है कि हम जहां हैं, वहीं राजी नहीं हो सकते। हम जो हैं, वही होने से राजी नहीं हो सकते। वह रोग ही मनुष्य की गति बना, रेस्टलेसनेस बना। लेकिन वही उसका दुर्भाग्य भी है, क्योंकि वह बेचैन है, परेशान है, अशांत है, दुखी है, पीड़ित है। Continue reading “हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-01)”

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